Tag Archives: संजय श्रीवास्तव

सेठों ने डकारे बैंकों के 1.14 लाख करोड़ रुपये

यह रकम कितनी बड़ी है इसका अनुमान इस बात से लगाया जा सकता है कि अगर ये सारे कर्ज़दार अपना कर्ज़ा लौटा देते तो 2015 में देश में रक्षा, शिक्षा, हाईवे और स्वास्थ्य पर खर्च हुई पूरी राशि का खर्च इसीसे निकल आता। इसमें हैरानी की कोई बात नहीं। पूँजीपतियों के मीडिया में हल्ला मचा-मचाकर लोगों को यह विश्वास दिला दिया जाता है…

उड़न छापाखाना – रूस की मज़दूर क्रान्ति के दौरान गुप्त अख़बार की छपाई की रोमांचक और दिलचस्प दास्तान

यह एक अद्भुत छापाखाना था : इसके पास न तो रोटरी प्रेस, टाइप फेस थे और न ही कागज। इसके पास अपना दफ्तर तक नहीं था। लेकिन बगावत के दिनों में इसने क्रान्तिकारी अखबार इज्वेस्तिया निकालने का इंतजाम तो कर ही लिया। बोल्शेविकों ने इसे “फ्लाइंग प्रेस” नाम दिया था।
इसके कर्मचारियों में पंद्रह टाइप-सेटर और पचास मज़दूर गश्ती दल के सदस्य थे। छपाई दफ्तर उस समय मास्को का कोई भी छापाखाना हो सकता था। अकेले अथवा छोटे समूहों में मजदूर उस छापाखाने में पहुंच जाते जिसे उन्होंने अखबार की छपाई के लिए चुना होता। वे आनन-फानन में बरामदों को घेरते हुए सभी प्रवेश एवं निकास द्वारों पर कब्जा जमा लेते। इसमें सबसे महत्वपूर्ण बात यह रहती थी कि वे सड़क से पहचाने नहीं जाएं।

अगर कोई मालिक नहीं होगा तो मज़दूर को काम कौन देगा? – कुछ सीधी-सादी समाजवादी सच्चाइयाँ

समाजवादी : इस प्रकार मज़दूर ही वो रुपये पैदा करते हैं जो मालिक उन्हें काम करने के लिए नयी मशीनें ख़रीदने में लगाता है; उत्पादन को निर्देशित करने वाले मैनेजर और फ़ोरमैन, आपकी तरह ही वैतनिक गुलाम होते हैं; तब, मालिक कहाँ आता है वह किस काम के लिए अच्छा है?
मज़दूर : श्रम के शोषण के लिए।
समाजवादी : हम कह सकते हैं, श्रमिकों को लूटने के लिए; यह स्पष्ट और ज़्यादा सटीक है।

बोलते आँकड़े चीखती सच्चाइयाँ

एक रिपोर्ट के अनुसार अरबपतियों की संख्या के मामले में भारत दुनिया में आठवें नंबर पर पहुंच गया है और इस समय भारत में 14,800 अरबपति हैं। पूँजीपतियों की बाँछें खिली हुई हैं, मध्यवर्ग भारत की इस “तरक्की” पर लहालोट हुआ जा रहा है। पूँजीवादी मीडिया इस विकास का जोर-शोर से गुणगान कर रहा है। दूसरी ओर देश की 77 फीसदी आबादी रोजाना महज बीस रुपये पर गुजारा कर रही है। देश की 80 फीसदी जनता को शिक्षा, स्वास्थ्य, आवास और पानी जैसी बुनियादी सुविधाएं भी मयस्सर नहीं हैं। आज़ादी मिलने के 67 साल बाद की स्थिति यह है कि देश की ऊपर की दस फीसदी आबादी के पास कुल परिसम्पत्ति का 85 प्रतिशत इकट्ठा हो गया है जबकि नीचे की 60 प्रतिशत आबादी के पास महज दो प्रतिशत है। भारत में 0.01 फीसदी लोग ऐसे हैं जिनकी आय देश की औसत आय से दो सौ गुना अधिक है। देश की ऊपर की तीन फीसदी और नीचे की चालीस फीसदी आबादी की आमदनी के बीच का फासला साठ गुना हो चुका है।

बांगलादेश के गारमेण्ट मज़दूरों का जुझारू संघर्ष

बांगलादेशी मज़दूरों का भयंकर शोषण और उत्पीड़न जारी है। अपने वेतन के लिए तीन माह से संघर्ष कर रहे मज़दूरों को न भूख की परवाह है न ही पुलिस दमन की। पर्याप्त भोजन नहीं मिलने के कारण बहुत से मज़दूर कमजोर हो गए हैं, कई ने बिस्तर पकड़ लिया है और तमाम अस्पताल में भर्ती हैं लेकिन आन्दोलन का जोश बरकरार है। पिछले दो सप्ताह के दौरान हड़ताल के समर्थन में प्रदर्शन कर रहे लोगों पर पुलिस, सरकार और मालिकों के गुण्डों ने कई बार हमले किए और कुछ ही दिन पहले कब्जा की गयी फैक्ट्रियों में जबरन घुसकर यूनियन पदाधिकारियों को बेरहमी से पिटाई के बाद उन्हें गिरफ्तार कर लिया। तुबा समूह के हड़ताली मज़दूरों का भयंकर उत्पीड़न और फैक्ट्री मालिकों और सरकार की बेरुखी के कारण स्थिति भयानक होती जा रही है। मज़दूर पिछले दो सप्ताह से भूख हड़ताल पर हैं। तुबा समूह का मालिक वही शख्स है जो ताजरीन फैक्ट्री का मालिक रह चुका है। ताजरीन फैक्ट्री में अग्निकांड के एक साल बाद फैक्ट्री मालिक की गिरफ्तारी हुई थी और अब उसने हड़ताल का फायदा उठाकर जमानत भी प्राप्त कर ली है।

रिलायंस की गैस का गोरखधन्धा

जब दुनिया में कहीं भी गैस की उत्पादन लागत 1.43 डॉलर से ज़्यादा नहीं है तो रिलायंस को इतनी ऊँची दर क्यों दी जा रही है। इतना ही नहीं, 2011 में नियन्त्रक एवं महालेखा परीक्षक (कैग) की रिपोर्ट के अनुसार रिलायंस बिना कोई कुआँ खोदे ही पेट्रोलियम मिलने के दावे करती रही। रिलायंस को पता ही नहीं था कि उसके पास कितने कुओं में कितनी गैस है। दूसरे, रिलायंस को केजी बेसिन के केवल एक चौथाई हिस्से पर काम करना था, लेकिन पीएसी कॉण्ट्रैक्ट के ख़ि‍लाफ़ जाकर रिलायंस ने समूचे बेसिन में काम शुरू कर दिया और सरकार ने इसमें कोई टोका-टाकी तक नहीं की।

तुर्की में कोयला खदान में सैकड़ों मज़दूरों की मौत

पूरी दुनिया में आज भी उद्योगों को चलाने के लिए सबसे अधिक फ़ॉसिल ईंधन यानी तेल, गैस और कोयला की खपत होती है। कोयला खदानों में मज़दूर बेहद असुरक्षित हालत में काम करते हैं। भूमण्डलीकरण की नीतियों के दौर में पूरी दुनिया में सुरक्षा के रहे-सहे इन्तज़ामों को भी ताक पर धरकर ठेका और कैजुअल मज़दूरों से अन्धाधुन्ध खनन कराया जा रहा है जिसके कारण दुनिया भर में खदान दुर्घटनाओं की संख्या में बेतहाशा बढ़ोत्तरी हुई है। भारत में चासनाला की कुख्यात कोयला खदान दुर्घटना को कौन भूल सकता है जिसमें 450 से अधिक मज़दूर मारे गये थे। उस वक़्त एक के बाद एक कई भयानक हादसों के बाद देशव्यापी विरोध के दबाव में सरकार ने निजी कोयला खदानों का राजकीयकरण कर दिया था। लेकिन अब एक बार फिर एक-एक करके खदानों को निजी हाथों में सौंपा जा रहा है। भारी पैमाने पर अवैध ढंग से कोयला निकालने का काम सरकार की नाक के नीचे होता है जिसमें मज़दूर बिना किसी सुरक्षा के जान पर खेलकर काम करते हैं। कुछ ही साल पहले रानीगंज में अवैध खदानों में पानी भरने से दर्जनों मज़दूर मारे गये थे जिनकी ठीक-ठीक संख्या का कभी पता ही नहीं चल पाया। चीन में हर साल खदान दुर्घटनाओं में क़रीब 5000 मज़दूर मारे जाने हैं।

आज़ादी, बराबरी और इंसाफ के लिए लड़ने वाली मरीना को इंक़लाबी सलाम!

स्पेन का गृहयुद्ध सर्वहारा अन्तरराष्ट्रीयतावाद का एक अद्भुत उदाहरण था जब फासिस्टों से गणतांत्रिक स्पेन की रक्षा करने के लिए पूरी दुनिया के 50 से अधिक देशों से कम्युनिस्ट कार्यकर्ता स्पेन पहुँचकर अन्तरराष्ट्रीय ब्रिगेडों में शामिल हुए थे। हज़ारों कम्युनिस्टों ने फासिस्टों से लड़ते हुए स्पेन में अपनी कुर्बानी दी थी। इनमें पूरी दुनिया के बहुत से श्रेष्ठ कवि, लेखक और बुद्धिजीवी भी थे। उस वक़्त जब दुनिया पर फासिज़्म का ख़तरा मँडरा रहा था, जर्मनी में हिटलर और इटली में मुसोलिनी दुनिया को विश्वयुद्ध में झोंकने की तैयारी कर रहे थे, ऐसे में स्पेन में फासिस्ट फ्रांको द्वारा सत्ता हथियाये जाने का मुँहतोड़ जवाब देना ज़रूरी था। जर्मनी और इटली की फासिस्ट सत्ताएँ फ्रांको का साथ दे रही थीं लेकिन पश्चिमी पूँजीवादी देश बेशर्मी से किनारा किये रहे और उसकी मदद भी करते रहे। केवल स्तालिन के नेतृत्व में सोवियत संघ ने फ्रांकों को परास्त करने का आह्वान किया और कम्युनिस्ट इण्टरनेशनल के आह्वान पर हज़ारों- हज़ार कम्युनिस्टों ने स्पेन की मेहनतकश जनता के साथ कन्धे से कन्धा मिलाकर लड़ते हुए बलिदान दिया।

“विकास” की चमक के पीछे की काली सच्चाई

सच्चाई यह है कि खाद्यान्न के भण्डारण और संरक्षण के काम को भी ठीक तरीके से अंजाम दिया जाये तो भी आबादी की ज़रूरतों को काफी हद तक पूरा किया जा सकता है। इंटरनेशनल फूड पॉलिसी रिसर्च इंस्टीट्यूट के मुताबिक भारत में अनाज की कोई कमी नहीं है। फिर भी तीस करोड़ से ज़्यादा लोग भूखे पेट सोते हैं, जो पूरी दुनिया में सबसे ज़्यादा है। देश में हर साल 44 हज़ार करोड़ रुपये का अनाज, फल और सब्‍ज़ि‍याँ इसलिए बर्बाद हो जाती हैं क्योंकि उनके भण्डारण के लिए पर्याप्त व्यवस्था नहीं है। यह हम नहीं कह रहे बल्कि कृषि मंत्री ने संसद के पिछले मानसून सत्र में यह जानकारी दी थी। आलीशान होटल, मॉल, एअरपोर्ट, एक्सप्रेस हाइवे आदि के निर्माण पर हज़ारों अरब खर्च कर रही सरकारें आज़ादी के बाद से 66 साल में अनाज को सुरक्षित रखने के लिए गोदाम नहीं बनवा पायी हैं, क्या इससे बढ़कर कोई सबूत चाहिए कि पूँजीपतियों की सेवक ये तमाम सरकारें जनता की दुश्मन हैं?