Category Archives: मज़दूर अख़बार

अदम्य बोल्शेविक – नताशा – एक संक्षिप्त जीवनी (तीसरी क़िश्त)

उन दिनों मेहनतकश जनता पर प्रावदा का ज़बरदस्त प्रभाव था। उसने बोल्शेविक पाठकों की पूरी एक पीढ़ी को प्रशिक्षित किया जिन्होंने 1917 की क्रान्ति की शुरुआत में एक ठोस समूह का रूप धारण कर लिया था, वे एक भावना से ओतप्रोत थे और एक फौलादी अनुशासन से आपस में जुड़े हुए थे। बहुत-से कामरेड प्रावदा के काम में हिस्सा लिया करते थे। लेकिन नताशा का ओहदा ही इन सभी कामों की जान था। मेहनतकशों और क्रान्तिकारी कार्यकर्ताओं के बीच काम करते हुए वे आन्दोलन से पहली बार जुड़ने वाले मज़दूर समूहों का बड़ी सावधानीपूर्वक जायज़ा लेतीं और अख़बार में उनका पद उन्हें इन मज़दूरों के साथ सीधा सम्पर्क करने और उनकी चेतना को बोल्शेविक धारा की तरफ मोड़ने के अनेक अवसर देता था।

साथी पी.पी. आर्य के 6 मई ’99 के पत्र पर देर से प्रकाशित एक और प्रतिक्रिया

महोदय, किसी को शागिर्द बनाने अथवा किसी का शागिर्द बनने से कम्युनिस्ट नैतिकता परे होती है। शागिर्दी तो ऐसी प्रवृत्तियों के वक़ीलों को ही सुलभ और मुनासिब है। अगर सच कहा जाये तो यह आत्ममहानता की कुण्ठा ही है कि प्रकृति-विश्लेषकों को कुछ कमज़ोर और कुछ छिछला कहा गया है। जहाँ तक कम्युनिस्ट विनम्रता का सवाल है तो कम्युनिस्ट विनम्रता, मेहनतकशों, प्रगतिशील बुद्धिजीवियों तथा कम्युनिस्टों के लिए हुआ करती है, मेंशेविकों, अराजकतावादियों, संघाधिपत्यवादियों एवं अन्य कम्युनिस्ट विरोधियों के लिए नहीं। अभी आप कम्युनिस्ट विनम्रता से ही परिचित हैं, कम्युनिस्ट कठोरता से शायद नहीं। मार्क्‍सवाद नरम-नरम हलवा नहीं है। जहाँ तक सर्वभारतीय संगठन निर्माण की बात है तो किस तरह का सर्वभारतीय संगठन? भाकपा-माकपा मार्का या भाकपा (माले) मार्का? ”सर्वधर्म समभाव” या ख्रुश्चेवी ”सम्पूर्ण जनता” मार्का? अनुरोध अनुनय-विनय, अनुकम्पा भी मेंशेविज्म, अराजकतावादी, संघाधिपत्यवाद का ही सबल हथियार है, कम्युनिस्ट तो सिर्फ़ पद्धति, प्रणाली, तर्क और व्यवहार पर ही विश्वास करते हैं। सम्पादक ने किसी व्यक्ति विशेष की आलोचना या तोहमत नहीं लगाया है वह तो प्रवृत्तियों का मात्र विश्लेषण भर किया है।

‘बिगुल के लक्ष्य और स्वरूप’ पर जारी बहस : एक प्रतिक्रिया

जनाब आर्य के एक साथी ने एक बार ‘बिगुल’ की आलोचना करते हुए यह कहा था कि ‘हमें साहित्य वहीं तक वितरित करना चाहिए जहाँ तक हमारी पहुँच हो’। यहाँ भी यही प्रश्न खड़ा हो जाता है कि हमारी ”पहुँच” निर्धारित कैसे होगी? और क्या जहाँ हमारी ”पहुँच” नहीं है वहाँ क्रान्तिकारी साहित्य देना वर्जित होना चाहिए? जनाब पी.पी. आर्य और उक्त साथी की बात में एक समानता है। हम लोग तो मज़दूर आन्दोलन में कुछ सीखते, अध्‍ययन-मनन करते हुए मज़दूर आन्दोलन को संगठित करने का प्रयास कर रहे हैं। यहाँ ‘बिगुल’ हमारे लिए काफ़ी मददगार साबित हो रहा है। हाँ, साथी पी.पी. आर्य जैसे लोग अपनी ‘दिव्य दृष्टि’ से पहले से ही ‘मज़दूरों की चेतना’ निर्धारित कर सकते हैं और साहित्य वितरण की सीमा बाँध सकते हैं।

बहस को मूल मुद्दे पर एक बार फिर वापस लाते हुए

‘पॉलिमिक्स’ कैसे चलायी जाये? हम समझते हैं कि कम्युनिस्टों की आपसी बहस ‘अरुण जेटली-कपिल सिब्बल मार्का दूरदर्शनी बहस’ की तरह नहीं होनी चाहिए। यानी एक-एक तकनीकी नुक्ते – नुक्ते तक के नुक्ते क़ो उठाकर विरोधी को कोने में धकेलने की कोशिश में ग़लतबयानी तक करने की हदों तक पहुँच जाना और मतभेद के मूल मुद्दों को स्पष्ट करने से बचना या उन पर लीपापोती करना तथा जिन तर्कों का उत्तर न हो उन्हें किनारे धकेलकर नयी-नयी बातें करने लग जाना – यह तिकड़मबाज़ी है। तुर्की-ब-तुर्की, वाक्य-दर-वाक्य खण्डन-मण्डनात्मक शैली अपनाने के बजाय पहले ज़ेरे-बहस सामने आये मतभेद के बुनियादी मुद्दों को रेखांकित कर लिया जाना चाहिए – यानी बहस ‘पोज़ीशनल वारफेयर’ के रूप में होनी चाहिए, ‘गुरिल्ला वारफेयर’ के रूप में नहीं। राजनीतिक सूत्रीकरणों-विशेषणों को गाली या तोहमत नहीं समझना चाहिए और गालियों-तोहमतों को राजनीतिक सूत्रीकरणों के रूप में प्रस्तुत नहीं करना चाहिए। मूल मुद्दों पर अपने पूरे तर्कों को रखने के बाद ही शैली आदि के प्रश्न या विरोधी द्वारा प्रस्तुत उदाहरणों-साक्ष्यों की अप्रासंगिकता जैसे सवाल उठाये जाने चाहिए तथा आलोचना रखी जानी चाहिए। जिन मुद्दों पर विरोधी द्वारा प्रस्तुत तर्कों के उत्तर न हों उन्हें ईमानदारी के साथ स्वीकार करना और सोचना चाहिए। इसके बजाय ऐसा नहीं करना चाहिए कि अगली पारी में उन मुद्दों को ही दरकिनार कर दें, या उत्तर दिये जा चुके आरोपों को ही फिर से दुहरा दें या दूसरे सवाल उठाकर अपनी अवस्थिति की मूल विसंगतियों पर ही पर्दा डाल दें। विरोधी हमलों से बचने के लिए न तो दायें-बायें कूदना चाहिए और न ही हर अगले जवाब में अपनी पोज़ीशन में थोड़ा-सा खिसक लेने का अवसरवादी तरीक़ा इस्तेमाल करना चाहिए।

बिगुल के लक्ष्य और स्वरूप पर बहस को आगे बढ़ाते हुए

‘व्यापक मेहनतकश आबादी’ की चेतना और ‘अग्रणी वर्ग-सचेत मज़दूरों’ की चेतना में अच्छा-ख़ासा अन्तर होता है। क्रान्ति को समर्पित किसी अख़बार को निश्चित तौर पर अपना पाठक-समूह तय करना होगा। अगर वह ऐसा नहीं करता तो वह अपने पाठकों का राजनीतिक शिक्षक नहीं बन पायेगा। ऊहापोह की स्थिति में होता यह है कि वह अपने उन्नत पाठकों को कुछ नया और सार्थक नहीं दे पाता है और निम्न स्तर के पाठकों के लिए उसकी बातें बोधगम्य नहीं होती हैं। कुल मिलाकर वह अपने उद्देश्य को पूरा नहीं कर रहा होता है, वह ‘ऑफ टारगेट’ होकर रह जाता है। पाठकों के लिए सार-हीन होकर रह जाता है।

मज़दूर अख़बार के लक्ष्‍य और स्‍वरूप पर ‘बिगुल’ में चली बहसें

(लेख पढ़ने के लिए शीर्षक पर क्लिक करें)

1. एक नये क्रान्तिकारी मज़दूर अख़बार की ज़रूरत विशेष सम्पादकीय (बिगुल प्रवेशांक, अप्रैल 1996)

2. कुछ ज्‍़यादा ही लाल… कुछ ज्‍़यादा  ही अन्तरराष्ट्रीय (बिगुल के स्वरूप पर आत्माराम का पत्र), (जुलाई-अगस्त 1996)

3. इतने ही लाल… और इतने ही अन्तरराष्ट्रीय की आज ज़रूरत है (सम्पादक बिगुल का जवाब), (जुलाई-अगस्त 1996)

4. ‘बिगुल’ के लक्ष्य और स्वरूप पर एक बहस और हमारे विचार

5. मज़दूर अख़बार – किस मज़दूर के लिए? (लेनिन का लेख)

6. आप लोग कमज़ोर, छिछले कैरियरवादी बुद्धिजीवी हैं और ‘बिगुल’ हिरावलपन्थी अख़बार है! (जून-जुलाई 1999, पी.पी. आर्य का पत्र)

7. 1999 के भारत के ‘क्रीडो’ मतावलम्बी (जून-जुलाई 1999, सम्पादक, बिगुल का जवाब) 

8. सर्वहारा वर्ग का हिरावल दस्ता बनने की बजाय उसका पिछवाड़ा निहारने की ज़िद (अगस्त 1999, विश्वनाथ मिश्र का जवाब)

9. भारतीय मज़दूर आन्दोलन की पश्चगामी यात्रा के हिरावल ”सेनानी” (अगस्त 1999, अरविन्द सिंह का जवाब)

10. बिगुल के लक्ष्य और स्वरूप पर बहस को आगे बढ़ाते हुए (अक्टूबर 1999 – विशेष बहस परिशिष्ट, पी.पी. आर्य का पत्र)

11. बहस को मूल मुद्दे पर एक बार फिर वापस लाते हुए (अक्टूबर 1999 – विशेष बहस परिशिष्ट, सम्पादक, बिगुल का जवाब)

12. ‘बिगुल के लक्ष्य और स्वरूप’ पर जारी बहस : एक प्रतिक्रिया (अक्टूबर 1999 – विशेष बहस परिशिष्ट, ललित सती का पत्र)

13. देर से प्रकाशित एक और प्रतिक्रिया (अक्टूबर 1999 – विशेष बहस परिशिष्ट, देहाती मज़दूर यूनियन के कार्यकर्ताओं का पत्र)

भारतीय मज़दूर आन्दोलन की पश्चगामी यात्रा के हिरावल ”सेनानी”

उसी दौर के ब्रिटिश ट्रेडयूनियनवादियों की तरह पी.पी. आर्य जैसे लोग सोचते हैं कि अभी ”मज़दूर-यूनियनों को सर्वहारा क्रान्ति के संगठित केन्द्रों में बदल डालने की कोशिश” नहीं की जानी चाहिए, क्योंकि स्थान-काल अभी इसके अनुकूल नहीं है। हमेशा यदि अनुकूल परिस्थितियों के इन्तज़ार की तथा परिस्थितियों, जनता और मनमाफिक बात न करने वालों को कोसने-सरापने की आदत पड़ जाये तो विज्ञान के अध्‍ययन और क्रान्तिकारी व्यवहार के साथ-साथ, कलेजा मज़बूत करने के लिए गोर्की की ‘तूफ़ानी पितरेल पक्षी का गीत’ जैसी रचनाएँ भी पढ़नी चाहिए।

सर्वहारा वर्ग का हिरावल दस्ता बनने की बजाय उसका पिछवाड़ा निहारने की ज़िद

वामपन्थी क्रान्तिकारी आन्दोलन में साथी पी.पी. आर्य जैसे लोगों की अच्छी ख़ासी तादाद है जो आज की प्रतिकूल परिस्थितियों में सही कार्यनीति अपनाने के बजाय रोते-कलपते-बिसूरते हुए सर्वहारा वर्ग के बीच सर्वोपरि प्राथमिकता देकर किये जाने वाले राजनीतिक कामों का ही परित्याग कर देते हैं। और यह स्वाभाविक है क्योंकि उनका मानना है कि भारत के लगातार पीछे हटते मज़दूर आन्दोलन में उन्नत चेतना वाले मज़दूर रह ही नहीं गये हैं। इसीलिए उनका मानना है कि राजनीतिक शिक्षा और प्रचार तथा मज़दूर वर्ग के बीच पार्टी-निर्माण के काम को छोड़कर अपने को सिर्फ़ आर्थिक कार्यों और निम्न स्तर की सुधार की कार्रवाइयों तक ही सीमित रहना चाहिए।

आप लोग कमज़ोर, छिछले कैरियरवादी बुद्धिजीवी हैं और ‘बिगुल’ हिरावलपन्थी अख़बार है!

चिप्पे जड़ने (या तोहमतें लगा देने) और तीखी आलोचना (या राजनीतिक संघर्ष) में गुणात्मक अन्तर है। तीखी आलोचनाएँ या आर-पार के राजनीतिक संघर्ष स्वागत योग्य हैं, जबकि चिप्पेबाज़ी निन्दनीय है। इस मामले में हमें, लेनिन से सीखना चाहिए। लेनिन अपनी तीखी आलोचनाओं के लिए मशहूर रहे हैं। लेकिन लेनिन चिप्पेबाज़ नहीं थे। लेनिन, सामने वाले की ग़लतियों को (उसके लेखन एवं कर्म से) पहले चिह्नित करते थे, उनका विश्लेषण करते थे और तब ही वे सामने वाले की ग़लत प्रवृत्ति का सूत्रीकरण करते थे। रूसी सामाजिक जनवाद में एक प्रतिगामी प्रवृत्ति लेनिन के लेख को अगर पूरा-पूरा पढ़ा जाये तो लेनिन की यह धैर्यपूर्ण कार्यशैली साफ़ समझ में आती है, लेनिन की कार्यशैली की यह ख़ासियत है कि वे एकता क़ायम करने की नीयत से धैर्यपूर्ण लम्बे संघर्षों में विश्वास रखते थे, इसके लिए वे मशक्कत करते थे। मात्र चिप्पा लगाकर पल्ला झाड़ लेने में लेनिन यक़ीन नहीं रखते थे। यही वजह है कि वे सर्वहारा की क्रान्तिकारी पार्टी बनाने में सफल रहे। हमारी आपसे विनती है कि लेनिनवादी होने का डंका पीटने के बजाय, अगर आप लेनिन की इस कार्यशैली का अनुसरण करेंगे तो कहीं बेहतर होगा।

1999 के भारत के ‘क्रीडो’ मतावलम्बी

पार्टी-पत्रों की प्रकृति के बारे में आपके विभ्रमों की जड़ यह है कि आप न तो पार्टी-गठन न तो पार्टी-निर्माण के बीच का भेद समझते हैं, न ही इनके अन्तर्सम्बन्धों को जानते हैं। ‘एजिटेशलन ऑर्गन’ के रूप में आप यदि पत्र निकालते भी हैं तो पूरी जनता के लिए – ”सर्ववर्ग समभाव” के साथ! आम राजनीतिक-आर्थिक मसलों व नागरिक अधिकार के मसलों पर औसत बुद्धिजीवी, औसत मज़दूर – सभी को एक साथ ”शिक्षित” करते हैं! मज़दूर वर्ग को सीधो विचारधारात्मक शिक्षा देने में आपको लाज लगती है। आप समझते हैं कि आप मज़दूरों के आन्दोलनों में (वह भी निहायत अराजक व बचकाने ढंग से) भाग लेते हुए गाड़ी के पीछे घोड़ा जोतते रहेंगे और उनके बीच अपना उपरोक्त चरित्र का अख़बार देते रहेंगे तो औसत मज़दूर उन्नत हो जायेगा और आप तक और विचारधारा तक स्वयं पहुँच जायेगा। आज की परिस्थिति में आप इतना ही करेंगे। कल जब मज़दूर आम हड़ताली की चेतना से आगे ख़ुद बढ़ जायेगा तो आप उसे विचारधारा और संगठन का झण्डा थमा देंगे। आप शेखचिल्ली तो हैं मगर एक कायर शेखचिल्ली हैं!