Category Archives: बहसें

कौन हैं देविन्दर शर्मा और उनका “अर्थशास्त्र” और राजनीति किन वर्गों की सेवा करती है?

कोई भी संजीदा कम्युनिस्ट मौजूदा धनी किसान आन्दोलन की माँगों (मूलत: लाभकारी मूल्य की माँग) का समर्थन नहीं कर सकता है, क्योंकि पिछले कई दशकों के दौरान मार्क्सवादी और ग़ैर-मार्क्सवादी अध्येता यह दिखला चुके हैं कि लाभकारी मूल्य की पूरी व्यवस्था ग़रीब-विरोधी है और शुद्धत: धनी किसानों को राजकीय हस्तक्षेप द्वारा व्यापक मेहनतकश ग़रीब जनता की क़ीमत पर दिया जाने वाला बेशी मुनाफ़ा व लगान है।

क्या सारे किसानों के हित और माँगें एक हैं?

जब तक सामन्तवाद था और सामन्ती भूस्वामी वर्ग था, तब तक धनी किसान, उच्च मध्यम किसान, निम्न मध्यम किसान, ग़रीब किसान व खेतिहर मज़दूर का एक साझा दुश्मन था। आज निम्न मँझोले किसानों, ग़रीब किसानों व खेतिहर मज़दूरों के वर्ग का प्रमुख शोषक और उत्पीड़क कौन है? वे हैं गाँव के पूँजीवादी भूस्वामी, पूँजीवादी फ़ार्मर, सूदखोर और आढ़तियों-बिचौलियों का पूरा वर्ग। इस शोषक वर्ग की माँगें और हित बिल्कुल अलग हैं और गाँव के ग़रीबों की माँगें और हित बिल्कुल भिन्न हैं।

मौजूदा किसान आन्दोलन और लाभकारी मूल्य का सवाल

किसान आन्दोलन को चलते हुए अब क़रीब डेढ़ महीना बीत चुका है। हज़ारों किसान दिल्ली के बॉर्डरों पर इकट्ठा हैं। हम मज़दूरों और मेहनतकशों को जानना चाहिए कि इस आन्दोलन की माँगें क्या हैं। केवल तभी हम यह तय कर सकते हैं कि हमारा इसके प्रति क्या रवैया हो। हम मज़दूरों और मेहनतकशों के लिए सरकार के उन तीन कृषि क़ानूनों का क्या अर्थ है, जिनके ख़िलाफ़ यह आन्दोलन जारी है? हमारे लिए यह समझना भी ज़रूरी है, क्योंकि तभी हम इन तीन क़ानूनों को अलग-अलग समझ सकते हैं और आन्दोलन के प्रति अपना रुख़ तय कर सकते हैं।

कृषि अध्‍यादेशों का विरोध मज़दूर वर्ग और ग़रीब किसान वर्ग किस ज़मीन से करेगा?

हमारे देश में क्रान्तिकारी कम्‍युनिस्‍ट आन्‍दोलन आज एक संकट का शिकार है। देश में फ़ासीवादी उभार और दुनिया भर में किसी समाजवादी शिविर की ग़ैर-मौजूदगी के कारण आज के दौर में उन क्रान्तिकारियों के पास उत्‍साह के स्रोतों का अभाव है, जो विज्ञान की समझ और उस पर भरोसे से अपने आशावाद को ग्रहण करते, बल्कि ठोस मिसालों, घटनाओं या नेताओं की मौजूदगी से अपने आशावाद को पालते-पोसते हैं। आज की दुनिया में उनके पास ऐसी कोई ठोस मिसाल नहीं है। नतीजतन, वे अपने आशावाद के लिए हर प्रकार के अवांछनीय स्रोतों पर जाते हैं। कुछ मिसालों से समझिए।

ट्रॉट-बुण्‍डवादी क़ौमवादियों का नेतृत्‍व अब आन्‍दोलन के इतिहास के साथ दुराचार करने की मुहिम में जुटा

‘प्रतिबद्ध’ की इस छोटी-सी पोस्‍ट में हमें भविष्‍य का स्‍पष्‍ट दिशा-संकेत मिल जाता है। यह पोस्‍ट इतिहास की भयंकर दुर्व्‍याख्‍या करती है, तथ्‍यों को सुविधानुसार तोड़ती-मरोड़ती है, और राष्‍ट्रीय प्रश्‍न पर अपने क़ौमवादी स्‍टैण्‍ड को उचित ठहराने के लिए देश स्‍तर के बुनियादी अन्‍तरविरोधों की एक हास्‍यास्‍पद समझ प्रस्‍तुत करती है। अन्‍तरविरोधों की यह समझ प्रस्‍तुत करते हुए वह द्वन्‍द्ववादी पद्धति की भी ऐसी की तैसी कर डालती है। आइए, अब हम सिलसिलेवार देखते हैं कि यह कैसे हुआ है।

ਖੇਤੀ ਸੰਬੰਧੀ ਤਿੰਨ ਆਰਡੀਨੈਂਸ, ਮੌਜੂਦਾ ਕਿਸਾਨ ਲਹਿਰ ਅਤੇ ਮਜ਼ਦੂਰ ਜਮਾਤ

ਮੌਜੂਦਾ ਲੇਖ ‘ਚ ਅਸੀਂ ਤਫ਼ਸੀਲ ਨਾਲ ਚਰਚਾ ਕਰਾਂਗੇ ਕਿ ਇਨ੍ਹਾਂ ਖੇਤੀ ਆਰਡੀਨੈਂਸਾਂ ਨਾਲ ਕਿਨ੍ਹਾਂ ਨੂੰ ਫਾਇਦਾ ਹੋਵੇਗਾ, ਕਿਨ੍ਹਾਂ ਨੂੰ ਨੁਕਸਾਨ ਹੋਵੇਗਾ, ਮੌਜੂਦਾ ਕਿਸਾਨ ਲਹਿਰ ਦਾ ਜਮਾਤੀ ਖਾਸਾ ਕੀ ਹੈ, ਅਤੇ ਕੀ ਮਜ਼ਦੂਰ ਜਮਾਤ ਇਨ੍ਹਾਂ ਆਰਡੀਨੈਂਸਾਂ ਦੀਆਂ ਮਜ਼ਦੂਰ ਅਤੇ ਗ਼ਰੀਬ-ਵਿਰੋਧੀ ਸਥਾਪਨਾਵਾਂ ਦਾ ਵਿਰੋਧ ਪਿੰਡ ਦੀ ਸਰਮਾਏਦਾਰ ਜਮਾਤ, ਯਾਨੀ ਅਮੀਰ ਕਿਸਾਨਾਂ ਅਤੇ ਕੁਲਕਾਂ ਦੇ ਮੰਚ ਤੋਂ ਕਰ ਸਕਦੀ ਹੈ?

कृषि-सम्‍बन्‍धी तीन अध्‍यादेश, मौजूदा किसान आन्‍दोलन और मज़दूर वर्ग

मौजूदा लेख में हम विस्‍तार से चर्चा करेंगे कि इन कृषि-सम्‍बन्‍धी अध्‍यादेशों से किन्‍हें लाभ होगा, किन्‍हें नुक़सान होगा, मौजूदा किसान आन्‍दोलन का वर्ग चरित्र क्‍या है, और क्‍या मज़दूर वर्ग इन अध्‍यादेशों के मज़दूर व ग़रीब-विरोधी प्रावधानों का विरोध गाँव के पूँजीपति वर्ग, यानी धनी किसानों व कुलकों के मंच से कर सकता है?

श्‍यामसुन्‍दर का जवाब: बौद्धिक दीवालियापन, बेईमानी, कठदलीली और कठमुल्‍लावाद का नया पुलिन्‍दा

किसी चिन्‍तक ने एक बार कहा था कि बहस का मक़सद हार या जीत नहीं होता है, बल्कि विचारों को विकसित करना होता है। जब आप बहस को अपनी कोर बचाने के मक़सद से करते हैं, तो आपको अपने एक कुतर्क को छिपाने के लिए दर्जनों कुतर्क गढ़ने पड़ते हैं, झूठ बोलने पड़ते हैं, बातें बदलनी पड़ती हैं और कठदलीली करनी पड़ती है। यह प्रक्रिया आगे बढ़़कर बौद्धिक बेईमानी में भी तब्‍दील हो जाती है। श्‍यामसुन्‍दर ने चार माह बाद जो 120 पेज का खर्रा लिखकर दिया है, उससे यही बातें साबित हुई हैं

जाति प्रश्न के विषय में श्री श्‍यामसुन्‍दर के विचार: अज्ञानता, बचकानेपन, बौनेपन और मूर्खता की त्रासद कहानी

ऐसी आलोचना से कुछ सीखा नहीं जा सकता; उल्‍टे उसकी मूर्खताओं का खण्‍डन करने में कुछ समय ही खर्च हो जाता है। लेकिन फिर भी, यदि आन्‍दोलन में ऐसे भोंपू लगातार बज रहे हों, जो कि वज्र मूर्खताओं की सतत् ब्रॉडकास्टिंग कर रहे हों, तो यह मार्क्‍स के शब्‍दों में बौद्धिक नैतिकता का प्रश्‍न बन जाता है और साथ ही राजनीतिक कार्यकर्ताओं के शिक्षण-प्रशिक्षण का प्रश्‍न बन जाता है, कि इन मूर्खताओं का खण्‍डन सिलसिलेवार तरीके से और विस्‍तार से पेश किया जाय।

दलित मुक्ति की महान परियोजना अस्मितावादी और प्रतीकवादी राजनीति से निर्णायक विच्छेद करके ही आगे बढ़ सकती है

अगर पिछले 40-50 वर्षों में हुई दलित-विरोधी उत्पीड़न की घटनाओं को देखा जाये तो यह साफ़ हो जाता है कि दलितों पर अत्याचार की 10 में से 9 घटनाओं में उत्पीड़न का शिकार आम मेहनतकश दलित आबादी यानी कि ग्रामीण सर्वहारा-अर्द्धसर्वहारा और शहरी ग़रीब मज़दूर दलित आबादी होती है। यह समझना आज बेहद ज़रूरी है कि जातिगत उत्पीड़न का एक वर्ग पहलू है और यह पहलू आज सबसे ज़्यादा अहम है। 90 फ़ीसदी से भी ज़्यादा दलित आबादी आज भयंकर ग़रीबी और पूँजीवादी व्यवस्था के शोषण का शिकार है। गाँवों में धनी किसानों के खेतों में दलितों का ग्रामीण सर्वहारा के रूप में भयंकर शोषण किया जाता है। शहरों में ग़रीब दलित आबादी को फ़ैक्टरी मालिकों, ठेकेदारों दलालों की लूट का शिकार होना पड़ता है जो कि मेहनतकश आबादी के शरीर से ख़ून की आख़िरी बूँद तक निचोड़कर अपनी जेबें गरम करते हैं। आज मेहनतकश दलित आबादी पूँजीवादी व्यवस्था और ब्राह्मणवाद के “पवित्र गठबन्धन” के हाथों शोषण का शिकार है।