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ग़रीबों पर मन्दी का कहर अभी जारी रहेगा

पूँजीवाद के तमाम हकीम-वैद्यों के हर तरह के टोनों-टोटकों के बावजूद पूँजीवाद का संकट दूर होता नज़र नहीं आ रहा है। तमाम पूँजीवादी आर्थिक संस्थाओं के आकलन बताते हैं कि अभी अगले दो-तीन वर्ष के भीतर मन्दी दूर होने के आसार नहीं हैं। और अगर उसके बाद धीरे-धीरे मन्दी का असर दूर हो भी गया तो वह उछाल अस्थायी ही होगी। भूलना नहीं चाहिए कि यह मन्दी पहले से चली आ रही दीर्घकालिक मन्दी के भीतर की मन्दी है और पूँजीवादी अर्थव्यवस्था इससे उबरेगी तो कुछ ही वर्षों में इससे भी भीषण मन्दी में फँस जायेगी। इस बूढ़ी, जर्जर, आदमखोर व्यवस्था को क़ब्र में धकेलकर ही इसकी अन्तहीन तकलीफ़ों का अन्त किया जा सकता है – और इन्सानियत को भी इसके पंजों से मुक्त किया सकता है।

छँटनी के ख़िलाफ कोरिया के मजदूरों का बहादुराना संघर्ष

सरकार ने बर्बर दमन का सहारा लिया। कंपनी परिसर को युद्ध-क्षेत्र में तब्दील कर दिया गया। चारदीवारी से और हेलीकॉप्टर के जरिए सशस्त्र हमला किया गया जिसका मजदूरों ने मुँहतोड़ जवाब दिया। मजदूरों ने बम फेंककर पुलिस कमाण्डो को अंदर आने से रोके रखा। इस दमन ने उल्टे मजदूरों की एकजुटता को और मजबूत कर दिया। हमला झेल रहे मजदूरों की एकता फौलादी और मजबूत इरादों से लैस होती गयी। आखिरकार सरकार को झुकना पड़ा और उसने लड़ रहे मजदूरों को काम पर रखने का आश्वासन दिया। कब्ज़ा समाप्त होने पर बाहर निकले मजदूरों का इस संघर्ष के समर्थकों और उनके परिवार के लोगों ने हर्षोल्लास के साथ स्वागत किया। इस फौरी जीत पर मजदूरों की जीत के नारे लगाये गये और क्रान्तिकारी गीत गाये गये।

वैश्विक वित्तीय संकट का नया ‘तोहफा’ – ग़रीबी, बेरोजगारी के साथ बाल मजदूरी में भी इजाफा

साफ तौर पर यह रिपोर्ट उन तमाम सरकारी एवं ग़ैर-सरकारी कवायदों के मुँह पर एक करारा तमाचा है, जो मानती हैं कि बाल श्रम का उन्मूलन कानून बनाकर किया जा सकता है। भारत में बाल मजदूरी के ख़िलाफ तो कानून बना ही हुआ है, मगर यह कितना कारगर साबित हुआ है, इसकी असलियत सभी जानते हैं। ऐसे ‘नख-दन्त विहीन’ कानूनों को तो पूँजीपति वर्ग अपनी जेब में लेकर घूमता है और खुलेआम इनका उल्लंघन करके मखौल उड़ाता है। अधिक से अधिक मुनाफा कमाने की अन्धी हवस में पूँजीपति वर्ग ज्यादा से ज्यादा महिलाओं और बच्चों को काम पर रखता है ताकि ख़र्च तो कम से कम हो और लाभ ज्यादा से ज्यादा।

फ़ासीवाद क्या है और इससे कैसे लड़ें? (पहली किश्‍त)

इस असुरक्षा के माहौल के पैदा होने पर एक क्रान्तिकारी कम्युनिस्ट पार्टी का काम था पूरी पूँजीवादी व्यवस्था को बेनकाब करके जनता को यह बताना कि पूँजीवाद जनता को अन्तत: यही दे सकता है गरीबी, बेरोज़गारी, असुरक्षा, भुखमरी! इसका इलाज सुधारवाद के ज़रिये चन्द पैबन्द हासिल करके, अर्थवाद के ज़रिये कुछ भत्ते बढ़वाकर और संसदबाज़ी से नहीं हो सकता। इसका एक ही इलाज है मज़दूर वर्ग की पार्टी के नेतृत्व में, मज़दूर वर्ग की विचारधारा की रोशनी में, मज़दूर वर्ग की मज़दूर क्रान्ति। लेकिन सामाजिक जनवादियों ने पूरे मज़दूर वर्ग को गुमराह किये रखा और अन्त तक, हिटलर के सत्ता में आने तक, वह सिर्फ नात्सी-विरोधी संसदीय गठबन्‍धन बनाने में लगे रहे। नतीजा यह हुआ कि हिटलर पूँजीवाद द्वारा पैदा की गयी असुरक्षा के माहौल में जन्मे प्रतिक्रियावाद की लहर पर सवार होकर सत्ता में आया और उसके बाद मज़दूरों, कम्युनिस्टों, ट्रेड यूनियनवादियों और यहूदियों के कत्ले-आम का जो ताण्डव उसने रचा वह आज भी दिल दहला देता है। सामाजिक जनवादियों की मज़दूर वर्ग के साथ ग़द्दारी के कारण ही जर्मनी में फासीवाद विजयी हो पाया। जर्मन कम्युनिस्ट पार्टी मज़दूर वर्ग को संगठित कर पाने और क्रान्ति में आगे बढ़ा पाने में असफल रही। नतीजा था फासीवादी उभार, जो अप्रतिरोध्‍य न होकर भी अप्रतिरोध्‍य बन गया।

मार्क्‍स-एंगेल्‍स – पूँजीपति वर्ग के पास आर्थिक संकट को रोकने का एक ही तरीका है : और भी व्यापक और विनाशकारी संकटों के लिए पथ प्रशस्त करना और इन संकटों को रोकने के साधनों को घटाते जाना !

बुर्जुआ वर्ग के अस्तित्व और प्रभुत्व की लाज़िमी शर्त पूँजी का निर्माण और वृद्धि है; और पूँजी की शर्त है उजरती श्रम। उजरती श्रम पूर्णतया मज़दूरों के बीच प्रतिस्पर्द्धा पर निर्भर है। उद्योग की उन्नति, बुर्जुआ वर्ग जिसका अनभिप्रेत संवर्धक है, प्रतिस्पर्द्धा से जनित मज़दूरों के अलगाव की संसर्ग से जनित उनकी क्रान्तिकारी एकजुटता से प्रतिस्थापना कर देती है। इस तरह, आधुनिक उद्योग का विकास बुर्जुआ वर्ग के पैरों के तले उस बुनियाद को ही खिसका देता है, जिस पर वह उत्पादों को उत्पादित और हस्तगत करता है। अत:, बुर्जुआ वर्ग सर्वोपरि अपनी कब्र खोदने वालों को ही पैदा करता है। उसका पतन और सर्वहारा की विजय, दोनों समान रूप से अवश्यम्भावी हैं।

बोलते आँकड़े चीखती सच्चाइयाँ

  • संयुक्त राष्ट्र विकास कार्यक्रम ने जी-20 देशों की बैठक में कहा कि मन्दी का असर ग़रीब देशों में कहीं ज़्यादा पड़ता है सिर्फ नौकरी जाने या आमदनी कम होने के तौर पर ही नहीं, बल्कि स्वास्थ्य और शिक्षा सूचकों – जीवन सम्भाव्यता, स्कूल जाने वाले बच्चों की संख्या और पढ़ाई पूरी करने वाले बच्चों की संख्या में यह दिखायी देता है। आर्थिक मन्दी की सबसे ज़्यादा मार झेलने वाले लोगों में ग़रीब देशों की महिलाएँ, बच्चे और ग़रीब होते हैं। हाल में मन्दी के दौरान के आँकड़े बताते हैं कि स्कूली पढ़ाई छुड़वाने वाले बच्चों में लड़कों की तुलना में लड़कियों की संख्या बहुत ज़्यादा थी।
  • मन्दी के नतीजे में चीज़ें महँगी होती हैं, ग़रीबी बढ़ती है और ग़रीबी बढ़ना अपने आप मृत्यु दर बढ़ने में बदल जाता है। जैसेकि सकल घरेलू उत्पाद में 3 प्रतिशत की कमी को प्रति 1000 शिशुओं के जन्म पर 47 से 120 और ज़्यादा मृत्यु दर से जोड़ा जा सकता है। विकासशील देशों में उस देश के अमीर बच्चों की तुलना में ग़रीब बच्चों के मरने की सम्भावना चार गुना बढ़ गयी है और लड़कों की तुलना में लड़कियों की शिशु मृत्युदर पाँच गुना बढ़ गयी है।
  • यह संकट ग़रीब देशों में कई लोगों के लिए जीवन और मौत का सवाल है और आर्थिक विकास, स्कूल जाने वाले बच्चों की संख्या और मृत्यु दर के पुराने स्तर पर पहुँचने में कई साल लग सकते हैं। अनुमान के मुताबिक 2010 में आर्थिक स्थिति बहाल होने तक मानव विकास को पहुँची चोट गम्भीर होगी और सामाजिक बहाली में कई साल लगेंगे। पुराने संकट का इतिहास बताता है कि इसके दुष्प्रभाव 2020 तक पड़ते रहेंगे।
  • जापान में बेरोज़गार मज़दूरों को गाँव भेजने की कोशिश

    लगातार फैलती विश्वव्यापी मन्दी के कारण बढ़ती बेरोज़गारी को कम करने के लिए पूँजीवाद के सिपहसालारों के पास कोई उपाय नहीं है। पूँजीपतियों को अरबों डॉलर के पैकेज देने के बाद भी अर्थव्यवस्था में तेज़ी नहीं आ पा रही है। गोदाम मालों से भरे पड़े हैं और लोगों के पास उन्हें ख़रीदने के लिए पैसे नहीं हैं। लगातार छँटनी, बेरोज़गारी और तनख़्वाहों में कटौती के कारण हालत और बिगड़ने ही वाली है। ऐसे में शहरों में बेरोज़गारों की बढ़ती फ़ौज से घबरायी पूँजीवादी सरकारें तरह-तरह के उपाय कर रही हैं, लेकिन इस तरह की पैबन्दसाज़ी से कुछ होने वाला नहीं है। पूँजीवादी नीतियों के कारण खेती पहले ही संकटग्रस्त है, ऐसे में शहरी बेरोज़गारों को गाँव भेजने या ग्रामीण बेरोज़गारों को वहीं रोककर रखने की उनकी कोशिशें ज़्यादा कामयाब नहीं हो सकेंगी। लेकिन, अगर क्रान्तिकारी शक्तियाँ सही सोच और समझ के साथ काम करें तो ये ही कार्यक्रम ग्रामीण मेहनतकश आबादी को संगठित करने का एक ज़रिया बन सकते हैं।

    मन्दी के विरोध में दुनियाभर में फैलता जनआक्रोश

    अमेरिकी वित्तीय बाजार से शुरू हुई मन्दी की आग पूरे विश्व में फैल चुकी है। अरबों डालरों के बेलआउट पैकेजों की बरसात भी इस आग पर काबू पाने में नाकाम रही है। सम्पत्ति रिस-रिसकर नीचे आती है, यह दावा करने वाले पूँजीवादी ‘ट्रिकल-डाउन’ सिद्धान्त से अब कुछ भी छनकर नीचे नहीं आ रहा है सिवाय तालाबन्दियों, छँटनियों के। हाँ, लेकिन बेलआउट पैकेजों की लगातार जारी बरसात से कम्पनियों और बैंकरों की तिजोरियाँ जरूर लबालब भर रही हैं। इस सारी प्रक्रिया में एक नया अध्‍याय अब जुड़ रहा है। वह है जन-आक्रोश का दुनिया के बहुत सारे देशों में फैलना जो साधारण हड़तालों से लेकर पुलिस के साथ खूनी झड़पों के रूप में सामने आ रहा है। इतिहास खरगोश की चाल चलता है, कभी बहुत तेज, फिर छलाँगों के रूप में और कभी एकदम सोया लगता है। पिछले 30-32 वर्षा से विश्व स्तर पर ही सब कुछ ठहरा-ठहरा सा लगता था। लेकिन अब हालत बदल रही है। एक बार फिर जनसंघर्षों की हवा गर्म हो रही है।

    आर्थिक संकट का सारा बोझ मज़दूरों पर

    विश्वव्यापी आर्थिक संकट की लपटें पूरे भारत में तेज़ी से फैल रही हैं और सबसे ज्यादा मज़दूरों को अपनी चपेट में ले रही हैं। अन्तहीन मुनाफाखोरी की हवस में पागल पूँजीपतियों द्वारा मेहनतकश जनता की बेरहम लूट और बेहिसाब उत्पादन से पैदा हुए इस संकट की मार मेहनतकश जनता को ही झेलनी पड़ रही है। सरकार के श्रम विभाग के सर्वेक्षण की रिपोर्ट के अनुसार पिछले वर्ष के अन्तिम तीन महीनों में 5 लाख से अधिक मज़दूरों की छँटनी की जा चुकी थी। यह एक प्रकार की नमूना रिपोर्ट थी, जिससे मेहनतकशों पर पड़ने वाले छँटनी-तालाबन्दी के भयावह असर का केवल अनुमान ही लगाया जा सकता है।

    बोलते आँकड़े चीखती सच्चाइयाँ

  • वर्ल्ड बैंक के अनुसार मौजूदा संकट 2009 में 5 करोड़ 30 लाख और लोगों को 2 अमेरिकी डॉलर की रोजाना आमदनी से भी कम, यानी गरीबी में धकेल देगा। इसकी वजह से लोगों को अपनी आजीविका के साधन बेचने पड़ सकते हैं, अपने बच्चों की पढ़ाई छुड़वानी पड़ सकती है, और वे कुपोषण का शिकार हो सकते हैं।
  • वित्तीय संकट का नतीजा 2009 से 2015 के बीच औसतन 2 लाख से लेकर 4 लाख नवजात शिशुओं की अतिरिक्त मौत के रूप में सामने आने का अनुमान है। और अगर संकट जारी रहा तो कुल मिलाकर 14 लाख से लेकर 28 लाख शिशुओं के असमय मरने का अनुमान है। सकल घरेलू उत्पाद में एक इकाई की कमी होने का नतीजा लड़कियों के लिए 1,000 में से 7.4 प्रतिशत औसत मृत्‍युदर, जबकि लड़कों के लिए 1,000 में से 1.5 प्रतिशत औसत मृत्‍युदर होती है।
  • विश्‍व खाद्य कार्यक्रम के मुताबिक दुनिया के कुल भूखे लोगों में से आधे भारत में हैं।
  • इसी रिपोर्ट के मुताबिक भारत की 35 प्रतिशत आबादी या लगभग 35 करोड़ लोग खाद्य-सुरक्षा के लिहाज से असुरक्षित हैं, और उन्हें न्यूनतम ऊर्जा जरूरतों का 80 प्रतिशत से भी कम मिल पा रहा है।