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विदा कॉमरेड मीनाक्षी, लाल सलाम!

हमारी वरिष्ठतम कामरेड मीनाक्षी 21 अप्रैल की सुबह हमारे बीच नहीं रहीं। कोविड की महामारी और इस हत्यारी सरकार की आपराधिक लापरवाही ने उन्हें हमसे छीन लिया। हम जीवनरक्षक दवाओं और प्लाज़्मा डोनर के लिए तीन दिनों तक ज़मीन-आसमान एक करते रहे, ऑक्सीजन और अस्पताल में बेड के लिए दौड़ते रहे। जब कुछ सफलता मिली, तभी कई दिनों की जद्दोजहद से थकी हुई साँसों ने का. मीनाक्षी का साथ छोड़ दिया। कोविड की महामारी जो क़हर बरपा कर रही है, उसे इस हत्यारी व्यवस्था ने सौ गुना बढ़ा दिया है। हम इस फ़ासिस्ट सत्ता के ऐतिहासिक अपराध को कभी नहीं भूलेंगे, कभी नहीं माफ़ करेंगे।

भारत में कोरोना की दूसरी लहर, टीकाकरण के हवाई किले और मोदी सरकार की शगूफ़ेबाज़ी

आज भारत भी कोरोना की दूसरी लहर के चपेट में है और इस बार भी बिना कोई पुख़्ता इन्तज़ाम किये आंशिक या पूर्ण लॉकडाउन लगाये जाने की क़वायदें शुरू हो गयी हैं। हालाँकि सरकार इस बात से क़तई अनजान नहीं रही है कि इस दूसरी लहर की सम्भावना थी। इस मामले में एक तो दुनिया के अन्य देशों के उदाहरण सामने थे, जहाँ संक्रमण घटने के बाद एकाएक दुबारा तेज़ी से फैला था।

जलवायु संकट पर आयोजित पेरिस सम्मेलन : फिर खोखली बातें और दावे

यह सच है कि कार्बन उत्सर्जन नहीं घटाया गया तो दुनिया ऐसे संकट में फँस जायेगी जहाँ से पीछे लौटना सम्भव न होगा। इसका नतीजा दिखायी भी पड़ने लगा है मौसम में तेज़ी के साथ उतार-चढ़ाव हो रहे हैं। जलवायु में असाधारण बदलाव दिखने लगा है। तमिलनाडू जैसे कम पानीवाले और सूखे की मार से त्रस्त इलाक़े में पिछले दिनों बाढ़ ने कितना क़हर ढाया था, इससे हम सभी वाकिफ़ हैं। उत्तराखण्ड, जम्मू-कश्मीर की बाढ़, आन्ध्र प्रदेश में चक्रवात जैसे उदाहरण भारत में ही नहीं बल्कि दुनियाभर में देखे जा सकते हैं। अमेरिका, जापान, चीन से लेकर अन्य देशों में भी प्राकृतिक आपदाओं का सिलसिला बढ़ गया है। ग्लेशियर पिघलकर संकट की स्थिति पैदा कर सकते हैं। इससे कई देशों के सामने वजूद का संकट पैदा हो सकता है। आज अण्टार्कटिका की मोटी बर्फीली परत के टूटने का ख़तरा पैदा हो गया है। यह संकट लोगों को अपनी जगह-ज़मीन से उजाड़ देगा और लोग दर-दर भटकने के लिए मजबूर हो जायेंगे। ऐसी भयावहता को जलवायु संकट पर सम्मेलनों के नाम से होनेवाली नौटंकियाँ नहीं रोक सकतीं। जलवायु परिवर्तन केवल पर्यावरणीय मसला नहीं, यह सामाजिक और पारिस्थितिकीय संकट है। यह पूँजीवादी उत्पादन प्रणाली का संकट है जहाँ मुनाफ़े को किसी भी क़ीमत पर कम नहीं किया जा सकता। फ़्रीज जैसे उपभोक्ता सामानों के अलावा कार्बन उत्सर्जन के लिए सबसे अधिक परिवहन तन्त्र ज़िम्मेदार होता है उसका प्रयोग राष्ट्रीय या अन्तरराष्ट्रीय स्तर पर हो अथवा जल, हवा या ज़मीन पर हो लेकिन बाज़ार और मुनाफ़े की मौजूदा व्यवस्था से संचालित कोई भी देश इसमें कमी लाने या वैकल्पिक परिवहन तन्त्र मुहैया कराने का इरादा तक ज़ाहिर नहीं कर सकता। बी.पी., शेवरॉन, एक्सान मोबिल, शेल, सउदी अरामको और ईरानी तेल कम्पनी जैसी खनन और सीमेण्ट उत्पादन में लगी कम्पनियाँ जो जलवायु संस्थान के अध्ययन के मुताबिक़ 2/3 हिस्सा ग्रीन हाउस गैस का उत्सर्जन कर रही हैं, अभी भी चालू स्थिति में हैं, न इन्हें बन्द किया जा सकता है और न ही मुनाफ़े को ख़तरे में डालते हुए इनमें उत्पादन के सुरक्षित तरीक़े अपनाये जा सकते हैं। यह केवल मनुष्य की बुनियादी ज़रूरतों को केन्द्र में रखनेवाली समाजवादी उत्पादन प्रणाली के ज़रिये ही सम्भव है।

निवेश के नाम पर चीन के प्रदूषणकारी उद्योगों को भारत में लगाने की तैयारी

मोदी सरकार की ‘मेक इन इण्डिया’ की नीति ने चीन जैसे देशों के लिए बड़ी सहूलियत पैदा कर दी है। उन्हें अपने देश के अत्यधिक प्रदूषण पैदा करनेवाले और पुरानी तकनीक पर आधारित उद्योगों को भारत में ढीले और लचर श्रम क़ानूनों की बदौलत यहाँ खपा देने का मौक़ा मिल गया है। पिछले तीन दशकों से चीन में लगातार जारी औद्योगिकीकरण ने चीन की आबोहवा को इस कदर प्रदूषित कर डाला है कि वहाँ के कई शहरों में वायु प्रदूषण के चलते हमेशा एक धुन्ध जैसी छायी रहती है। यह किस ख़तरनाक हद तक मौजूद है इसे सिर्फ़ इस बात से समझा जा सकता है कि यहाँ एक क्यूबिक मीटर के दायरे में हवा के प्रदूषित कण की मात्र 993 माइक्रोग्राम हो गयी है जबकि इसे 25 से अधिक नहीं होना चाहिए। एक अन्तरराष्ट्रीय संस्था की रिपोर्ट के मुताबिक़ दुनिया के 20 सर्वाधिक प्रदूषित शहरों में 16 तो चीनी शहर ही हैं और ग्रीन हाउस गैसों के उत्सर्जन में इसका स्थान तीसरा है। चीन के पर्यावरण के लिए ये महाविपदा साबित हो रही हैं।

पूँजीवादी लोकतंत्र का फटा सुथन्ना और चुनावी सुधारों का पैबन्द

पूँजीवादी जनतंत्र में सभी चुनावबाज़ पार्टियाँ किसी ऐसे ही शख़्स को उम्मीदवार बनाकर चुनावी वैतरणी पार कर सकती हैं जो येन-केन-प्रकारेण जीतने की गारण्टी देता हो। और चुनाव भी वही जीतता है जो आर्थिक रूप से ताक़तवर हो और पैसे या डण्डे के ज़ोर पर वोट ख़रीदने का दम रखता हो। या फिर धर्म और जाति के नाम पर लोगों को भड़काकर वोट आधारित उनके ध्रुवीकरण की साज़िश रचने में सिद्धहस्त हो। ज़ाहिर है ऐसी चुनावी राजनीति की बुनियाद अपराध पर ही टिकी रह सकती है। सभी बड़ी से लेकर छोटी पार्टियों के मंत्रियों और विधायकों पर या तो आपराधिक मुकदमे चल रहे हैं या वे आपराधिक पृष्ठभूमि से आते हैं।

तेल की बढ़ती कीमतों का बोझ फिर मेहनतकश जनता पर

सच तो यह है कि पेट्रोल की खपत को तभी कम किया जा सकता है, जब सार्वजनिक परिवहन की एक ऐसी चुस्त-दुरुस्त प्रणाली विकसित की जाये कि लग्ज़री गाड़ियों, कारों, मोटरसाइकिलों और स्कूटरों के निजी उपयोग की ज़रूरत न रहे। स्कूलों-कालेजों, विश्वविद्यालयों, कार्यालयों, खरीदारी और मनोरंजन स्थलों तक पहुँचने के लिए सड़कों पर पर्याप्त संख्या में सुविधाजनक (आज की तरह खटारा बसें नहीं) बसें थोड़े-थोड़े अन्तरालों पर दौड़ती रहें। कम दूरी के लिए साइकिलों का इस्तेमाल हो। परन्तु बाज़ार और मुनाफे की इस व्यवस्था के रहते निजी उपभोग की प्रणाली को ख़त्म नहीं किया जा सकता। निजी कारों और गाड़ियों के इस्तेमाल पर रोक लगाना तो दूर रहा इनके निजी उपयोग को कम भी नहीं किया जा सकता। और न ही तेल की कीमतों की बढ़ोत्तरी पर लगाम लगायी जा सकती है। यह कोई अचानक पैदा होने वाला संकट नहीं बल्कि संकटग्रस्त पूँजीवादी उत्पादन प्रणाली की ही देन है और इसके ख़ात्मे के साथ ही यह ख़त्म होगा।

देखो संसद का खेला, नौटंकी वाला मेला

अब फर्ज क़रें कि संसद ठीक से चलती तो क्या होता? जनप्रतिनिधि समझे जानेवाले आधे से अधिक सदस्य तो आते ही नहीं, जो आते वह भी या तो ऊँघते, सोते रहते या निरर्थक बहसबाज़ी और जूतमपैजार करते, और इसी किस्म की एक घण्टे की कार्यवाही पर तक़रीबन 20 लाख रुपये खर्च हो जाते और जब यह सब करने में उन्हें उकताहट और ऊब होती तो वे संसद की कैण्टीन में बाहर की क़ीमत का सिर्फ 10 प्रतिशत देकर तर माल उड़ाते और इस खर्च का बोझ भी मेहनतकश ज़नता पर ही पड़ता। संसद अगर ठीक से चलती भी रहती तो शोषण-उत्पीड़न के नये-नये क़ानून बनते। दिखावे और व्यवस्था का गन्दा चेहरा छिपाने के लिए कुछ कल्याणकारी क़ानून भी बनते जिन्हें लागू करने की ज़िम्मेदारी किसी की नहीं रहती। बेशुमार सुख-सुविधओं और विलासिताओं से चुँधियाये मध्यवर्ग के ऊपरी हिस्से को यह नंगी सचाई दिखायी नहीं पड़ती। संसद और क़ानून की आड़ में मेहनतकशों की हड्डियाँ निचोड़ लिया जाना उसे दिखायी नहीं देता है और न ही उसे उसकी कोई चिन्ता है। अपने में डूबा यह आत्म-सन्तुष्ट वर्ग आसपास की सच्चाइयों से मुँह मोड़कर मीडिया से अपने विचार और राय ग्रहण करता है। ज़ाहिर है सत्ता और संसद के प्रति यह भ्रम का शिकार होता है।

आपने ठीक फ़रमाया मुख्यमन्त्री महोदय, बाल मजदूरी को आप नहीं रोक सकते!

बंगाल के ”संवेदनशील” मुख्यमन्त्री बुध्ददेव भट्टाचार्य बाल श्रम पर रोक लगाने के पक्षधर नहीं हैं! जहाँ 14 वर्ष की आयु से कम के बच्चों को मजदूरी कराये जाने को लेकर दुनियाभर में हो-हल्ला (दिखावे के लिए ही सही!) मचाया जा रहा हो, वहीं मजदूरों के पैरोकार का खोल ओढ़े भट्टाचार्य जी मजदूरों की एक सभा में कहते हैं कि वे बच्चों को मजदूरी करने से इसलिए नहीं रोक सकते, क्योंकि अपने परिवारों में आमदनी बढ़ाने में वे मददगार होते हैं और इसलिए भी ताकि वे काम करते हुए पढ़ाई भी कर सकें। मजदूरों के बच्चों को श्रम का पाठ पढ़ाने वाले बुध्ददेव भट्टाचार्य को संशोधनवादी वामपन्थी माकपा के अध्‍ययन चक्रों और शिविरों में मार्क्‍सवादी अर्थशास्त्र के सिध्दान्त का लगाया घोंटा थोड़ा बहुत याद तो होगा ही। जाहिरा तौर पर उन्हें इस बात की जानकारी है कि मुनाफे पर टिकी इस आदमख़ोर व्यवस्था में बाल श्रम को ख़तम ही नहीं किया जा सकता। पूँजीवाद की जिन्दगी की शर्त ही यही है कि वह सस्ते से सस्ता श्रम निचोड़ता रहे और उसे मुनाफे में ढालता जाये। आज भूमण्डलीकरण और वैश्विक मन्दी के दौर में तो मुनाफे की दर लगातार नीचे जा रही है और मुनाफे की दर को कायम रखने के लिए आदमख़ोर पूँजी एशिया, अफ्रीका और लातिनी अमेरिका के पिछड़े पूँजीवादी देशों में सस्ते श्रम की तलाश में अपनी पहुँच को और गहरा बना रही है और वहाँ भी ख़ासतौर पर स्त्रियों और बच्चों का शोषण सबसे भयंकर तरीके से कर रही है क्योंकि उनका श्रम इन देशों में मौजूद सस्ते श्रम में भी सबसे सस्ता है।

जापान में बेरोज़गार मज़दूरों को गाँव भेजने की कोशिश

लगातार फैलती विश्वव्यापी मन्दी के कारण बढ़ती बेरोज़गारी को कम करने के लिए पूँजीवाद के सिपहसालारों के पास कोई उपाय नहीं है। पूँजीपतियों को अरबों डॉलर के पैकेज देने के बाद भी अर्थव्यवस्था में तेज़ी नहीं आ पा रही है। गोदाम मालों से भरे पड़े हैं और लोगों के पास उन्हें ख़रीदने के लिए पैसे नहीं हैं। लगातार छँटनी, बेरोज़गारी और तनख़्वाहों में कटौती के कारण हालत और बिगड़ने ही वाली है। ऐसे में शहरों में बेरोज़गारों की बढ़ती फ़ौज से घबरायी पूँजीवादी सरकारें तरह-तरह के उपाय कर रही हैं, लेकिन इस तरह की पैबन्दसाज़ी से कुछ होने वाला नहीं है। पूँजीवादी नीतियों के कारण खेती पहले ही संकटग्रस्त है, ऐसे में शहरी बेरोज़गारों को गाँव भेजने या ग्रामीण बेरोज़गारों को वहीं रोककर रखने की उनकी कोशिशें ज़्यादा कामयाब नहीं हो सकेंगी। लेकिन, अगर क्रान्तिकारी शक्तियाँ सही सोच और समझ के साथ काम करें तो ये ही कार्यक्रम ग्रामीण मेहनतकश आबादी को संगठित करने का एक ज़रिया बन सकते हैं।