Category Archives: बाल मज़दूर

घरेलू कामगारों के विरुद्ध लगातार बढ़ते आपराधिक मामले

दिल्ली के द्वारका में रहने वाले कौशिक बागची व पूर्णिमा बागची नामक एक दम्पत्ति अपने यहाँ काम करने वाली एक नाबालिग घरेलू कामगार को बुरी तरह प्रताड़ित करते थे। यह दम्पत्ति “सम्भ्रान्त” कहे जाने वाले लोग हैं। पूर्णिमा इण्डिगो एयरलाइंस में पायलट है और उसका पति कौशिक भी एयरलाइंस में कर्मचारी है। धन-दौलत की अकड़ में ऐसे लोग अमानवीयता की सारी हदें पार कर जाते हैं। इनके यहाँ वह लड़की पिछले दो महीने से काम कर रही थी। यह दम्पत्ति उस कामगार के साथ लगातार मारपीट करते थे। अभी हाल में ही फिर से जब ठीक से साफ़-सफ़ाई नहीं करने का आरोप लगाकर उसे बुरी तरह पीट रहे थे, तब उसी समय बगल से गुज़रते हुए लड़की के किसी परिजन ने उसकी चीख़ें सुन हल्ला मचाना शुरू किया और आसपास के लोगों को एकजुट किया। उस नाबालिग लड़की के शरीर पर मारपीट के काफ़ी निशान थे, आँखें सूजी हुई थीं और प्रेस से जलाये जाने के भी ज़ख्म थे। इस अमानवीय कृत्य का पता चलने पर गुस्साए लोगों ने मालकिन पूर्णिमा और उसके पति की जमकर पिटाई कर दी। इसके बाद आरोपी पति-पत्नी को गिरफ़्तार कर लिया गया है।

ऐसे बनता है आपका मोबाइल फ़ोन

इन बैटरियों (लीथीयम-आइन बैटरियाँ) को बनाने के लिए कोबाल्ट नाम की धातु इस्तेमाल की जाती है। इन लीथीयम-आयन बैटरियों का इस्तेमाल ऐपल, सैमसंग, सोनी, माइक्रोसाॅफ़्ट, डेल और बाक़ी कम्पनियाँ करती हैं। अब बात करें कि कोबाल्ट का स्रोत कहाँ है तो दुनिया के ग़रीब देशों में से एक देश (लेकिन कोबाल्ट का अमीर स्रोत) की तस्वीर आँखों के सामने आ जाती है। डेमोक्रेटिक रिपब्लिक ऑफ़ कोंगो देश जिसकी आबादी 67 मिलीयन है और 2014 में वर्ल्ड बैंक ने इस देश को मानवीय विकास सूचकांक पर पीछे से दूसरा नम्बर दिया है।

क्या आपको अपने मोबाइल फ़ोन में से किसी बच्चे की आहों की आवाज़ आ रही है

कौंगो की इन खदानों में 40,000 बच्चे काम करते हैं। इन बच्चों को दमघोटू खदानों में उच्च तापमान, वर्षा, तूफान में भी काम करना पड़ता है। इनमें 7-8 वर्ष के बच्चे भी हैं जिन्हें ख़ुद से अधिक भार उठाना पड़ता है। इन बच्चों में से अधिकतर की तेज़ी से काम न करने के लिए पिटाई भी होती है। एक 9 वर्ष के मज़दूर को अब से ही पीठ की समस्या शुरू हो गयी है। एक 14 वर्षीय बच्चा बताता है कि उसने 24 घण्टों की शिफ़्ट में भी खदान में काम किया है। एक 15 वर्ष का बच्चा बताता है कि इस काम की सारी कमाई सिर्फ़ खाने में ही ख़र्च हो जाती है। ये बच्चे मुश्किल से 2 डाॅलर प्रतिदिन कमाते हैं। तीन बच्चों की जुबानी कही यह कहानी हज़ारों बच्चों की दासताँ है।

चॉकलेट उद्योग का ग़ुलाम बचपन

मुनाफ़े की अन्धी हवस में पूँजीपति सस्ते से सस्ता खरीदने और महँगे से महँगा बेचने के लिए कुछ भी करने को तैयार रहते हैं। और सस्ता श्रम उन्हें महिलाओं और बच्चों से ही मिल सकता है। इसीलिए वह तमाम मासूमों की ज़िन्दगियाँ दाँव पर लगाकर अकूत मुनाफ़ा बटोर रहे हैं। लूट, शोषण और मुनाफ़े पर टिकी इस आदमख़ोर व्यवस्था को तबाह किये बिना हम बच्चों को बचा नहीं सकते क्योंकि जो व्यवस्था हर हाथ को काम देने के बजाय लगातार बेरोज़गारों की फ़ौज खड़ी करती जा रही है, जो व्यवस्था शिक्षा को खरीद-फ़रोख़्त का सामान बना रही है, उस व्यवस्था के भीतर से बाल मज़दूरों और ग़ुलामों की कतारें पैदा होती रहेंगी।

श्रम सुधारों के नाम पर मोदी सरकार का मज़दूरों पर हमला तेज़

सच तो यह है कि छोटे-छोटे प्लाण्टों से लेकर घरेलू वर्कशॉपों तक ठेका, उपठेका और पीसरेट पर उत्पादन के काम को इस तरह बाँट दिया गया है कि उनमें काम करने वाले अधिकांश मज़दूरों का कोई रेकार्ड नहीं रखा जाता। ठेका, कैजुअल या अप्रेण्टिस मज़दूर को मिलने वाले क़ानूनी हक़ भी उन्हें हासिल नहीं होते। व्यवहारतः वे दिहाड़ी मज़दूर होते हैं जो सरकार और श्रम विभाग के लिए अदृश्य होते हैं। नये श्रम सुधारों द्वारा श्रम विभागों को एकदम निष्प्रभावी बनाकर इस किस्म के अनौपचारिकीकरण को अब ज़्यादा से ज़्यादा बढ़ावा दिया जा रहा है ताकि विदेशी कम्पनियाँ और देश के छोटे-बड़े सभी पूँजीपति खुले हाथों से और मनमाने ढंग से अतिलाभ निचोड़ सके। मोदी द्वारा ‘मेक इन इण्डिया’ को रफ्तार देने के लिए प्रस्तावित श्रम सुधारों की यह वास्तव में महज़ शुरुआत भर है। यह तो महज़ ट्रेलर है, पूरी पिक्चर अगले दो-तीन वर्षों में सामने आ जायेगी।

इस लूटतन्त्र के सताये एक नाबालिग मज़दूर की कहानी

मै पिण्टू, माधोपुरा बिहार का रहने बाला हूँ, अपने घर में बहन-भाई में सबसे बड़ा मैं ही हूँ। मेरी उम्र 15 साल है। मुझसे छोटी मेरी दो बहने हैं। 2010 मे मेरे पापा गुजर गये, तो अब मेरी माँ व हम तीन भाई-बहन ही हैं। ग़रीबी तो पहले से ही थी, लेकिन पापा के गुजरने के बाद दुनिया के तमाम नाते-रिश्तेदारों ने भी हमसे नाता तोड़ लिया। गाँव के कुछ लोग गुड़गाँव मे काम करते थे तो मेरी माँ ने बड़ी मुसीबत उठाकर 4 रुपये सैकड़ा पर 1000 रुपये लेकर व जो काम करते थे उनसे हाथ जोड़कर मुझे जैसे-तैसे गुड़गाँव भेज दिया। क्योंकि घर मे सबसे बड़ा मैं ही था और गाँव पर भी मेरी माँ और मैं मज़दूरी करके ही पेट पाल रहे थे। खेत व जमीन मेरे पास कुछ नहीं है, बस रहने के लिए गाँव में एक झोपड़ी है।

अनजान बचपन

सुबह ड्यूटी जा रहा था तो एक लड़का मेरे साथ-साथ चल रहा था। मुझे उसने देखा, मैंने उसे देखा। लड़के की उम्र करीब 12 साल थी। मैंने पूछा कहाँ जा रहे हो। उसने कहा ड्यूटी। कहाँ काम करते हो? लिबासपुर! क्या काम है? जूता फ़ैक्टरी! कितनी तनख्वाह मिलती है? आठ घण्टे के 3500 रुपये। मैंने पूछा, आठ घण्टे के 3500 रुपये? बोला हाँ। मैंने पूछा सुबह कितने बजे जाते हो, बोला 9 बजे। मैंने कहा शाम कितने बजे आते हो, बोला 9 बजे। मैंने कहा तो 12 घण्टे हो गये। कहा नहीं… आठ घण्टे के 3500 रुपये।

माँगपत्रक शिक्षणमाला – 12 बाल मज़दूरी और जबरिया मज़दूरी के हर रूप का ख़ात्मा मज़दूर आन्दोलन की एक अहम माँग है

बाल मज़दूरी के मुद्दे को पूरी आबादी के रोज़गार और समान एवं सर्वसुलभ शिक्षा के मूलभूत अधिकार के लिए संघर्ष से अलग करके देखा ही नहीं जा सकता। जो व्यवस्था सभी हाथों को काम देने के बजाय करोड़ों बेरोज़गारों की विशाल फौज में हर रोज़ इज़ाफा कर रही है, जिस व्यवस्था में करोड़ों मेहनतकशों को दिनो-रात खटने के बावज़ूद न्यूनतम मज़दूरी तक नहीं मिलती, उस व्यवस्था के भीतर से लगातार बाल-मज़दूरों की अन्तहीन क़तारें निकलती रहेंगी। उस व्यवस्था पर ही सवाल उठाये बिना बच्चों को बचाना सम्भव नहीं, बाल मज़दूरों की मुक्ति सम्भव नहीं।

आपने ठीक फ़रमाया मुख्यमन्त्री महोदय, बाल मजदूरी को आप नहीं रोक सकते!

बंगाल के ”संवेदनशील” मुख्यमन्त्री बुध्ददेव भट्टाचार्य बाल श्रम पर रोक लगाने के पक्षधर नहीं हैं! जहाँ 14 वर्ष की आयु से कम के बच्चों को मजदूरी कराये जाने को लेकर दुनियाभर में हो-हल्ला (दिखावे के लिए ही सही!) मचाया जा रहा हो, वहीं मजदूरों के पैरोकार का खोल ओढ़े भट्टाचार्य जी मजदूरों की एक सभा में कहते हैं कि वे बच्चों को मजदूरी करने से इसलिए नहीं रोक सकते, क्योंकि अपने परिवारों में आमदनी बढ़ाने में वे मददगार होते हैं और इसलिए भी ताकि वे काम करते हुए पढ़ाई भी कर सकें। मजदूरों के बच्चों को श्रम का पाठ पढ़ाने वाले बुध्ददेव भट्टाचार्य को संशोधनवादी वामपन्थी माकपा के अध्‍ययन चक्रों और शिविरों में मार्क्‍सवादी अर्थशास्त्र के सिध्दान्त का लगाया घोंटा थोड़ा बहुत याद तो होगा ही। जाहिरा तौर पर उन्हें इस बात की जानकारी है कि मुनाफे पर टिकी इस आदमख़ोर व्यवस्था में बाल श्रम को ख़तम ही नहीं किया जा सकता। पूँजीवाद की जिन्दगी की शर्त ही यही है कि वह सस्ते से सस्ता श्रम निचोड़ता रहे और उसे मुनाफे में ढालता जाये। आज भूमण्डलीकरण और वैश्विक मन्दी के दौर में तो मुनाफे की दर लगातार नीचे जा रही है और मुनाफे की दर को कायम रखने के लिए आदमख़ोर पूँजी एशिया, अफ्रीका और लातिनी अमेरिका के पिछड़े पूँजीवादी देशों में सस्ते श्रम की तलाश में अपनी पहुँच को और गहरा बना रही है और वहाँ भी ख़ासतौर पर स्त्रियों और बच्चों का शोषण सबसे भयंकर तरीके से कर रही है क्योंकि उनका श्रम इन देशों में मौजूद सस्ते श्रम में भी सबसे सस्ता है।

अमानवीय शोषण-उत्पीड़न के शिकार तमिलनाडु के भट्ठा मज़दूर

भट्ठा मज़दूर भयंकर कठिन परिस्थितियों में काम करने के लिए अभिशप्त हैं। बिना आराम दिये लम्बे- लम्बे समय तक उनसे कठिन काम लिया जाता है। मज़दूरों ने बताया कि ज़्यादातर ईंट चैम्बरों में 3 बजे दोपहर से काम शुरू होता है जो 7 बजे शाम तक चलता है। उसके बाद 6 घण्टे का ब्रेक होता है और ब्रेक के बाद रात 1 बजे से दुबारा काम शुरू होता है जो 10-30 बजे सुबह तक चलता है। चूँकि ईंट को सुखाने के लिए ज़्यादा समय तक धूप में रखने की ज़रूरत होती है इसलिए मज़दूर केवल दिन में ही सो पाते हैं। ईंट ढुलाई करने वाले मज़दूरों का यही रुटीन है। दिन में उन्हें सिर्फ़ ग्यारह बजे से दो बजे तक का समय मिलता है, जिसमें वे खाना बना सकते हैं। तीन बजे से फिर काम पर लग जाना होता है।