महेश्वर की कविता : वे
वे
जब विकास की बात करते हैं
तबाही के दरवाजे़ पर
बजने लगती है शहनाई
कहते हैं – एकजुटता
और गाँव के सीवान से
मुल्क की सरहदों तक
उग आते हैं काँटेदार बाड़े
वे
जब विकास की बात करते हैं
तबाही के दरवाजे़ पर
बजने लगती है शहनाई
कहते हैं – एकजुटता
और गाँव के सीवान से
मुल्क की सरहदों तक
उग आते हैं काँटेदार बाड़े
ग़रीब अब गहरे जाल में फँस गए हैं
वे नहीं जानते कि उनके साथ लेनिन है या लोकनाथ
वे नहीं जानते कि गोली चलेगी या नहीं!
वे नहीं जानते कि गाँव-शहर में कोई उन्हें नहीं चाहता
राष्ट्र गीत में भला कौन वह
भारत-भाग्य-विधाता है
फटा सुथन्ना पहने जिसका
गुन हरचरना गाता है।
किसकी है जनवरी, किसका अगस्त है!
कौन यहाँ सुखी है, कौन यहाँ मस्त है!
सेठ ही सुखी है, सेठ ही मस्त है
मन्त्री ही सुखी है, मन्त्री ही मस्त है
उसी की है जनवरी, उसी का अगस्त है!
तो उन्होंने चुपचाप उस पर हमला किया
और उसे खींच ले गये;
इतना मुश्किल था उनका षडयन्त्र
कि सरकार ने दिन-दहाड़े
क़ानून और व्यवस्था के जिन प्रहरियों
के हाथ उसे सौंपा था
उनको पता तक नहीं चला।
विश्व प्रगति से क़दम मिलाकर
उन्नति ख़ातिर अपने को खपाकर
अमीरों को हर सुख पहुँचाया,
अपने बच्चों को भूखा सुलाकर।
जीवन को तुमने हवन कर दिया,
रहे सुविधा से कोसों दूर।
अब चेतने का समय आ गया,
जागो दुनिया के मज़दूर।
जिस दिन लेनिन नहीं रहे
कहते हैं, शव की निगरानी में तैनात एक सैनिक ने
अपने साथियों को बताया: मैं
यक़ीन नहीं करना चाहता था इस पर।
मैं भीतर गया और उनके कान में चिल्लाया: ‘इलिच
शोषक आ रहे हैं।’ वह हिले भी नहीं।
तब मैं जान गया कि वो जा चुके हैं।
“गुलाब का फूल
और फूल कनेर का
रंग रूप दोनों का एक सा
एक आम आदमी
दूसरा राजकुमार
गुलाब की रौनक
देसी फूलों से
उसकी उपमा कैसी?”
कठिनाइयों से रीता जीवन
मेरे लिए नहीं,
नहीं, मेरे तूफानी मन को यह स्वीकार नहीं।
मुझे तो चाहिये एक महान ऊँचा लक्ष्य
और उसके लिए उम्र भर संघर्षों का अटूट क्रम ।
ओ कला ! तू खोल
मानवता की धरोहर, अपने अमूल्य कोषों के द्वार
मेरे लिए खोल !
मसखरा सिंहासन पर बैठा
तरह-तरह के करतब दिखाता है
दरबारी हँसते हैं तालियाँ पीट-पीटकर
और डरे हुए भद्र नागरिक उनका साथ देते हैं।