नोटबन्दी के साये में बजट और आर्थिक सर्वेक्षण: अर्थव्यवस्था की ख़स्ता हालत को झूठों से छिपाने और ग़रीबों की क़ीमत पर थैलीशाहों को फ़ायदा पहुँचाने का खेल

मुकेश त्यागी

1 फ़रवरी को वित्त मन्त्री अरुण जेटली ने बीजेपी सरकार का चौथा बजट पेश किया जिसके एक दिन पहले आर्थिक सर्वे प्रस्तुत किया गया। बजट के बाद टीवी चैनलों पर होने वाले बहस नामक तमाशे में ‘आर्थिक विशेषज्ञों’ द्वारा इस बात पर भारी प्रसन्नता जताई गयी कि मोदी-जेटली जोड़ी ने नोटबन्दी के बाद जनता के कष्टों से पसीजकर उन्हें राहत देने के लिए ख़ज़ाने का मुँह नहीं खोला, वित्तीय अनुशासन बनाये रखा है और अपनी मुट्ठी बिल्कुल बन्द रखी है! मतलब मज़दूर-किसानों को ख़ुश करने के लिए फ़ालतू पैसा ख़र्च नहीं किया, बस जबानी जमा-ख़र्च से ही काम चला दिया। उनकी इस बहादुरी और मालिक तबक़े से वफ़ादारी पर ‘बाज़ार’ अर्थात सरमायेदार तबक़ा ख़ास तौर पर फ़िदा हो गया है!

यह बजट नोटबन्दी के बाद की परिस्थिति में पेश किया गया था जिसकी वजह से देश के अधिकांश आम मेहनतकश लोगों ने भारी परेशानी झेली थी, बड़ी तादाद में उद्योग और अन्य कारोबार में सुस्ती से बड़ी तादाद में मज़दूर बेरोज़गार हुए, छोटे काम-धन्धे करने वाले ग़रीब लोग तबाह हुए और पहले ही 2 साल सूखा झेल चुके किसान अपनी नयी फ़सल को औने-पौने दामों पर बेचने को मजबूर हुए थे। काला धन, फ़र्ज़ी नोट, आतंकवाद को मिटाने और कैशलेस अर्थव्यवस्था बनाने के नाम पर की गयी नोटबन्दी के दौरान हुई इस भारी तकलीफ़ के दौरान प्रधानमन्त्री मोदी ने जनता से कहा था कि अगर वह देशहित के लिए इस परेशानी को सहन करने का त्याग करें तो देश की बहुत सी समस्याएँ हल होंगी, अर्थव्यवस्था को बहुत दूरगामी लाभ होगा और बाद का जीवन सुखद होगा। ऐसी भी ख़बरें आयी थीं कि मोदी समर्थक जनता को समझा रहे थे कि नोटबन्दी से अमीरों का जो काला धन ज़ब्त होगा उससे मोदी जी उनके जनधन खातों में एक अच्छी रक़म जमा करा देंगे। इसके साथ ही मध्य वर्ग को भी मीडिया के द्वारा टैक्स में भारी छूट मिलने के सब्ज़बाग़ दिखाये जा रहे थे। इसलिए इस बजट से बहुत सारे आम लोग बड़ा फ़ायदा होने की ज़बरदस्त उम्मीद लगाये हुए थे।

पर 31 जनवरी को बजट से पहले प्रस्तुत किये जाने वाले आर्थिक सर्वे में बताया गया कि नोटबन्दी के असर से अर्थव्यवस्था में गिरावट आयी है, कारोबार बन्द हुए हैं, श्रमिक बेरोज़गार हुए हैं, किसान और खेत मज़दूरों की आमदनी कम हुई है और इसका ऐसा असर अभी अगले साल भी जारी रहेगा तथा इसका फ़ायदा मिलने में अभी और ज़्यादा वक़्त लगेगा। आर्थिक सर्वे में सरकार ने एक नयी बात यह भी बतायी कि कालाधन, फ़र्ज़ी नोट, आतंकवाद, कैशलेस अर्थव्यवस्था से भी ज़्यादा नोटबन्दी का बड़ा मक़सद तो मकानों/ज़मीनों की क़ीमतें कम करना था। असल में मोदी जी तो सब ग़रीबों को सस्ता घर दिलाना चाहते थे और नोटबन्दी के असर से ये क़ीमतें गिरने लगी हैं। पर इससे पहले कि हम ज़्यादा ख़ुश हो जायें, आगे कहा गया है कि अभी कुछ समय तक मकानों की क़ीमतें गिरेंगी, लेकिन जीएसटी लागू होने के बाद फिर से बढ़ने लगेंगी।

आर्थिक सर्वे में यह भी बताया गया कि मोदी सरकार की नीतियों से अर्थव्यवस्था में बड़ी तेज़ी आयी है लेकिन बैंकों के डूबे क़र्ज़ इस साल बढ़कर पिछले साल से दोगुने हो गये हैं। सरकारी बैंकों में तो ये बढ़कर कुल दिये गये क़र्ज़ का 12% हो गये हैं। वैसे ये पूरी संख्या नहीं है क्योंकि वसूल नहीं हुए क़र्ज़ में से, जिसे बैंक बट्टे खाते में डाल देता है (राइट ऑफ़) उसे इसमें नहीं जोड़ा जाता। पहले प्रचार किया जाता था कि बैंकों के क़र्ज़ दबाने का काम ग़रीबी मिटाने के नाम पर चल रही योजनाओं में कर्ज़ लेने वाले छोटे किसान या अन्य छोटे-मोटे काम करने वाले ग़रीब लोग करते हैं। लेकिन इस सर्वे में दी गयी जानकारी के अनुसार न चुकाये गये क़र्ज़ में से 71% हिस्सा सिर्फ़ 50 बड़ी कम्पनियों द्वारा दबाया गया है जिन्होंने औसतन प्रति कम्पनी 20 हज़ार करोड़ रुपये दबा लिया है। इनमें से भी सबसे बड़ी 10 कम्पनियों को देखा जाये तो उन्होंने तो प्रति कम्पनी 40 हज़ार करोड़ रुपये दबा लिये हैं।

लेकिन 20 या 40 हज़ार करोड़ रुपये क़र्ज़ दबा लेना इस व्यवस्था में कलंक और बदनामी का नहीं बड़ी ‘मेहनत’ का काम समझा जाता है। इसलिए इन्हीं लोगों को आज की व्यवस्था में ‘उद्यमी’ कहा जाता है क्योंकि लूट-खसोट ही इस लुटेरी पूँजीवादी व्यवस्था का असली उद्यम है! और दिन-रात बेकार का काम करने वाले ग़रीब श्रमिक तो होते ही हैं काहिल, मुफ़्तखोर, मुँह जोहने वाले, तभी तो भूखे मरते हैं! अब पूँजीवादी व्यवस्था का ‘इंसाफ़’ का तकाजा है कि इन महान ‘उद्यमियों’ को इस संकट से निकलने में मदद की जाये, और भी ज़्यादा क़र्ज़ देकर। पर बैंकों के पास तो इन्हें और क़र्ज़ देने के लिए अब पूँजी ही नहीं बची तो क्या किया जाये। सर्वे में इसका भी उपाय सुझाया गया है कि रिज़र्व बैंक के पास 4 लाख करोड़ रुपये की फ़ालतू पूँजी है, उससे लेकर इसे सरकारी बैंकों को दे दिया जाये, ताकि वे इन ‘उद्यमियों’ को और बड़े क़र्ज़े दबा लेने का मौक़़ा देकर पुरस्कृत कर सकें! जब तक ऐसा नहीं हो पा रहा है, तब तक के लिए सरकार बजट से 70 हज़ार करोड़ देगी, जिसमें से 25 हज़ार करोड़ रुपये इस वर्ष में पहले ही दिया जा चुका है। अगले दिन बजट में वित्त मन्त्री ने यह बात तुरन्त ही मानते हुए इन बैंकों को 10 हज़ार करोड़ रुपये की पूँजी और दे भी दी।

इस बार पेश आर्थिक सर्वे के अनुसार एक ‘दिलचस्प’ बात यह है कि यद्यपि देश में वस्तुओं और श्रम का एकीकृत बाज़ार है अर्थात वस्तुएँ और श्रमिक दोनों भारी मात्रा/संख्या में इधर से उधर होते हैं फिर भी सारे आयोगों/योजनाओं, सार्वजनिक क्षेत्र के बावजूद सम्पत्ति और आमदनी की क्षेत्रीय असमानता घटने के बजाय बढ़ती ही रही है। इसीलिए हर साल औसतन 90 लाख लोग रोज़ी-रोटी कमाने के लिए अपने घर-बार से उजड़कर प्रवासी बन जाते हैं और यह संख्या सालाना 4.5% की दर से बढ़ रही है। यह भी बताया गया कि इनमें महिलाओं की तादाद भी ज़ोरों से बढ़ रही है, क्योंकि वस्त्र, इलेक्ट्रॉनिक्स जैसे कई उद्योग इन्हें ख़ास तौर पर भर्ती करना चाहते हैं; इसी तरह घरेलू काम के लिए भी बड़ी संख्या में देश के कम विकसित इलाक़ों से बड़ी संख्या में महिलाओं को भर्ती किया जाता है। लेकिन क्या इससे इनका जीवन वास्तव में सुधर रहा है? असल में देखें तो इनमें से ज़्यादातर समा जाते हैं लुधियाना, तिरुपुर, मुम्बई, दिल्ली, बैंगलोर, आदि शहरों की गन्दी, बीमारियों भरी झोंपड़पट्टियों में, जहाँ ये देश की पूरी आर्थिक वृद्धि और पूँजीपति मालिकों की बढ़ती सम्पन्नता का पूरा बोझ अपने कन्धों पर उठाते हैं। यहाँ ये अक्सर हमें नज़र भी नहीं आते क्योंकि इनकी ये बस्तियाँ बहुमंजि़ला इमारतों और चमकते मालों के पीछे छिपी रहती हैं और लोग बहुत कम जगह में भारी तादाद में दड़बों में मुर्गि़यों की तरह भरे रहते हैं। ‘मायानगरी’ मुम्बई की 2 तिहाई जनसंख्या शहर की सिर्फ़ 8% जगह में रहती है। यहाँ हर धर्म, जाति, इलाक़े, भाषा, आदि के लोग एक ही दुर्गम हालत में भरे होते हैं, सब अपने श्रम के मूल्य की लूट के शिकार हैं।

सबके लिए मूलभूत आय या सबके लिए जीविका का अधिकार?

आर्थिक सर्वे में एक नया विचार प्रस्तुत किया गया है सबके लिए मूलभूत आय (बेसिक इनकम) का जो अन्य सभी योजनाओं-सब्सिडी, आदि की जगह लेगी। इसके अन्तर्गत सीधे आधार से जुड़े बैंक खातों में पैसा डाला जायेगा। लम्बे समय से यह प्रचार जारी है कि आधार से जुड़े खातों में सीधे पैसा डालने से भ्रष्टाचार नहीं होगा, सरकारी सहायता ज़रूरतमन्दों तक पहुँचेगी और चोरी कम होगी। स्वयं मोदी ने दावा किया है कि सरकारी योजनाओं का सहायता का पैसा सीधे बैंक खातों में डालने से भ्रष्टाचार कम होकर 40 हज़ार करोड़ रुपये बचा है। लेकिन ख़ुद केन्द्र सरकार और नीति आयोग द्वारा चण्डीगढ़, दादर नागर हवेली और पुडुचेरी में सस्ते अनाज की जगह खाते में पैसा डालने के लिए चलाये गये पायलट की रिपोर्ट इस दावे को झूठ ठहराती है। इस रिपोर्ट के अनुसार 40% मामलों में तो पैसा लाभार्थी तक पहुँचा कि नहीं, यह कन्फ़र्म ही नहीं हुआ। आधे से कुछ कम मामलों में कुछ नहीं मिला या जितना मिलना था, उससे कम मिला और 17% को जितना मिलना था उससे ज़्यादा मिला। क्योंकि अन्य योजनाओं जैसे राशन बन्द कर दिया गया तो इन परिवारों को अनाज के बजाय पैसा मिलने में अपनी जेब से औसतन 100-200 रुपये महीना ज़्यादा ही ख़र्च हुआ।

आख़िर आधार क्या कर सकता है? यह सिर्फ़ यही बता सकता है कि खाता किस व्यक्ति का है; लेकिन किसकी आर्थिक अवस्था कैसी है, किसको मदद मिले, किसको नहीं, कितनी मदद मिले यह तय करने और उसे सही या ग़लत व्यक्ति तक पहुँचाने का काम तो यही सरकारी अमला और स्थानीय नेता-ठेकेदार ही मिलकर करते रहेंगे! इसमें आधार और बैंक खाता क्या करेगा? दूसरी बात, असली ज़रूरत तो सभी लोगों को रोज़गार उपलब्ध कराने और उनके श्रम के बदले न्यायोचित मज़दूरी/वेतन का समय पर भुगतान करने की है। इसी तरह सबके लिए समान शिक्षा, स्वास्थ्य और आवास, आदि अन्य मूलभूत सुविधाओं का इन्तज़ाम करना भी सरकार की जि़म्मेदारी है। बेसिक इनकम के नाम पर सरकार अपनी इस जि़म्मेदारी से पल्ला झाड़ने की कोशिश कर रही है।

इस आर्थिक सर्वे के बाद 1 फ़रवरी को वित्त मन्त्री ने जो बजट पेश किया उसमें भारी उम्मीदें लगाये आम ग़रीब मेहनतकश लोगों को तो कुछ हासिल नहीं हुआ – न उनके रोज़गार के लिए किसी व्यवस्था की बात हुई, न जनधन खातों में कुछ मिला और न ही औने-पौने दामों फ़सल बेचने को मजबूर ग़रीब किसानों के लिए किसी राहत की बात हुई। लेकिन शेयर बाज़ार को बजट बहुत पसन्द आया है, देशी-विदेशी वित्तीय पूँजी और कॉरपोरेट्स भी ख़ुश हैं, बजट की तारीफ़ के पुल बाँधे जा रहे हैं, बड़े सरमायेदार टीवी-अख़बारों में इसे 10 में से 10 नम्बर देने लायक बजट बता रहे हैं। इन लोगों को ख़ुश होना भी चाहिए। किसी को टैक्स में छूट मिली है, किसी को इंफ्रास्ट्रक्चर के नाम पर सस्ती ज़मीन मिल गयी है, और खेती के नाम पर एग्रो प्रोसेसिंग उद्योगों को सस्ते क़र्ज़ मिल गये हैं। देश के विकास के लिए एयरपोर्ट बनाने के लिए किसानों से सस्ते दामों पर ली गयी ज़मीनों में से हवाई अड्डे चलाने वाली कम्पनियों को 50 हज़ार एकड़ ज़मीन दुकानें, होटल, आदि बनाने के लिए मिल गयी है।

अमीरों को टैक्स छूट

मध्यवर्ग के मोदी भक्तों को भी 5 सौ से एक हज़ार रुपये महीने का आयकर छूट का टुकड़ा फेंक दिया गया है। सम्पत्ति में दीर्घावधि पूँजीगत लाभ (capital gains) का फ़ायदा भी अब 3 साल के बजाय 2 साल में ही मिलेगा, इससे भी इन्हें कुछ टैक्स बचाने का मौक़़ा मिलेगा। नोटबन्दी से कुछ घायल और मोदी जी से थोड़ा असन्तुष्ट चल रहे छोटे-मँझोले कॉर्पोरेट तबक़े के बड़े हिस्से – 50 करोड़ रुपये से कम कारोबार वाली 96% कम्पनियों – को भी कॉर्पोरेट टैक्स में 5% की छूट (30% के बजाय 25%) मिल गयी है; और यह छूट अब इन कम्पनियों को तब भी जारी रहेगी जब इनका कारोबार 50 करोड़ से ज़्यादा हो जायेगा मतलब स्थाई फ़ायदा! लेकिन इन्होंने नोटबन्दी के बाद जिन मज़दूरों की छँटनी की थी उनका क्या? उन्हें कोई राहत नहीं है। बड़े कॉर्पोरेट तो ख़ुद सरकारी आँकड़ों के अनुसार पहले ही 30% की दर होते हुए भी 21% ही टैक्स देते हैं, वह भी जितनी आमदनी दिखाते हैं, उस पर; ग़लत इन्वॉइसिंग से जो छिपा ली जाती है, उसका तो कोई हिसाब ही नहीं।

विदेशी वित्तीय पूँजी मालिक भी ख़ुश हैं। पोर्टफोलियो इन्वेस्टर (FPI) को अप्रत्यक्ष करों से छूट का वादा मिला है तो बैंकिंग क्षेत्र को उनके डूबे क़र्ज़ों के नाम पर सजा के बजाय इनाम अर्थात टैक्स में छूट मिल गयी है। मोदी जी ने कैपिटल गेन्स पर टैक्स लगाने का जि़क्र कुछ दिन पहले किया था, पर मालिकों की घुड़की के सामने वह भी धरा रह गया; फिर भी जेटली जी शिकायत करते रहे कि बहुत कम लोग टैक्स देते हैं।

सस्ते घरों का फ़र्ज़ीवाड़ा

इस बजट में ग़रीबों के लिए एक और बड़ा ऐलान सस्ते घरों को आधारभूत ढाँचे में शामिल कर दी गयी राहत को बताया जा रहा है। 2014 में मोदी जी ने 6 करोड़ सस्ते घर बनाने का वादा किया था; फिर 25 जून 2015 को नरेन्द्र मोदी ने प्रधानमन्त्री आवास योजना की घोषणा की थी जिसमें बेघरों को मकान देने के लिए 2022 तक 2 करोड़ सस्ते घर बनाये जाने थे अर्थात हर साल 30 लाख। लेकिन जुलाई 2016 में पता चला कि पहले साल में सिर्फ़ 19,255 मकान बनाये गये। अब इस योजना को भी निजी बिल्डरों के हवाले कर दिया गया है और लक्ष्य घटकर 1 करोड़ ही रह गया है। इनको इसके लिए मुनाफ़़ेे पर टैक्स में 100% छूट, 2% कम ब्याज़ पर क़र्ज़ और पूँजीगत लाभ में रियायत दी गयी है। इस बजट में प्रावधान किया गया है कि मेट्रो शहरों में 30 वर्ग मीटर और अन्य जगहों पर 60 वर्ग मीटर तक चटाई क्षेत्र के मकानों को सस्ता मकान माना जायेगा। इतने क्षेत्र में मुम्बई के बिल्डर 500 वर्ग फुट का फ़्लैट बनाते हैं जो यहाँ के सबसे बाहरी इलाक़ों में भी 25-30 लाख से शुरू होता है और महँगे क्षेत्र में तो 2 करोड़ का होता है। ऐसा ही हिसाब अन्य शहरों में भी लगाया जा सकता है, जबकि जिन बेघरों को सस्ते घर चाहिए, उनका 95% हिस्सा ज़्यादा से ज़्यादा 5-10 लाख तक के घर ही किसी तरह ख़रीद सकते हैं।

बिल्डरों को मिली इन सुविधाओं के साथ ही ख़रीदारों को सरकारी सहायता का भी प्रचार किया गया है जिसमें उनके द्वारा क़र्ज़ पर 3% से 6.5% ब्याज़ सरकार देगी। इसमें 3 श्रेणी हैं – 6 लाख, 12 लाख और 18 लाख सालाना आमदनी वालों की और इन्हें यह सहायता बैंकों से 20 साल तक के क़र्ज़ पर मिलेगी। लेकिन देश की 80% जनता जिसकी पूरे परिवार की सालाना आय भी 1 लाख से कम होती है क्या उसे भी 20 साल का आवास ऋण किसी बैंक से मिलता है? इससे यह अच्छी तरह समझा जा सकता है कि तथाकथित ‘सस्ते’ घरों की योजना का असली फ़ायदा किसे मिलने वाला है – ग़रीब बेघरों को या बड़े-बड़े बिल्डरों और मध्य या अमीर तबक़े के खाये-पिये लोगों को!

राजनीति की सफ़ाई का झूठ!

एक और बड़ा शिगूफ़ा है राजनीति में भ्रष्टाचार की सफ़ाई कर ईमानदारी लाने का। इसके लिए पार्टियों को नक़द चन्दे की सीमा 20 हज़ार से घटाकर 2 हज़ार कर दी गयी है तथा चुनावी बॉन्ड शुरू किये जायेंगे। जहाँ तक नक़द की सीमा कम करने का सवाल है, इससे थोड़े अकाउण्टेण्ट ही ज़्यादा लगेंगे – ज़्यादा रसीदें बनाने के लिए! फिर जितना पैसा असल में चुनाव और रैलियों में ख़र्च किया जाता है उसका दसवाँ हिस्सा भी खातों में दिखाया जाता है क्या। अडानी जी के हेलीकॉप्टर में जब मोदी जी (या कोई और जी!) उड़ान भरते हैं तो उसका कोई वाउचर बनता है क्या? हाँ, इस शोर के पीछे चुपचाप राजनीतिक दलों को विदेशी चन्दा लेने की छूट फ़ाइनेंस बिल में घुसा दी गयी है। चुनावी बॉन्ड की योजना में चन्दा देने वाला बैंक में पैसा जमा करेगा और बॉन्ड जारी करायेगा जिस पर कोई नाम नहीं होगा और बैंक भी इसे लेने वाले का नाम गुप्त रखेंगे। इसके बाद वह इसे किसी भी पार्टी को दे सकेगा जो बैंक से इसके बदले में पैसा ले लेगी और उसे यह यह रिकॉर्ड नहीं रखना पड़ेगा कि पैसा किसने दिया। अब पार्टियाँ आराम से कह सकेंगी कि उन्हें नहीं पता पैसा किससे मिला है अर्थात जो थोड़ी बहुत जानकारी अब तक मिलती थी, वह भी नहीं मिलेगी। इस तरह कैश कम करने के नाम पर राजनीतिक दलों को मिलने वाले पैसे का स्रोत पूरी तरह गुप्त रखने का इन्तज़ाम कर दिया गया है। अब इससे कैसी ईमानदारी आयेगी इसका अन्दाज़ा अच्छी तरह लगाया जा सकता है।

क्या बजट से विकास होगा?

पिछले कई सालों से एक बड़ी समस्या है नये रोज़ग़ार की भारी कमी। 2014 के चुनाव के वक़्त मोदी ने 2 करोड़ नयी नौकरियों का वादा किया था लेकिन पिछले 2 साल में पहले से भी कम नौकरियाँ मिली हैं। नोटबन्दी के बाद से तो ख़ास तौर पर बहुत बड़ी तादाद में श्रमिकों को बेरोज़गार होना पड़ा है। क्या इस बजट से इन्हें कुछ रोज़गार पाने में कुछ मदद मिलेगी?

कुछ वर्षों में बढ़ती महँगाई की तुलना में घटती वास्तविक मज़दूरी और नये रोज़गारों की कमी ने बाज़ार में उपभोक्ता वस्तुओं की माँग में वृद्धि को प्रभावित किया है जिससे उद्योग माँग के मुकाबले अति-उत्पादन के संकट का सामना कर रहे हैं और पहले से स्थापित क्षमता का पूरा उपयोग मुमकिन नहीं हो पा रहा है। रिज़र्व बैंक के अनुसार क्षमता उपयोग मार्च 2011 में 83% के मुकाबले जून 2016 में 72% ही रह गया है। इसलिए निजी क्षेत्र नये उद्योग में निवेश नहीं कर रहा है। पूँजीवादी व्यवस्था में आमतौर पर इससे निकलने के लिए 2 तरीक़़े इस्तेमाल करने की कोशिश की जाती है – सरकार तथा सार्वजनिक क्षेत्र द्वारा निवेश और सरकारी ख़र्च में वृद्धि। लेकिन सरकारी ख़र्च में इस वर्ष सिर्फ़ 6% वृद्धि का प्रस्ताव है जो 10 साल में सबसे कम है। जीडीपी के प्रतिशत के तौर पर देखें तो इसमें आधा प्रतिशत की कमी हुई है। ग़रीब लोगों को कुछ तात्कालिक राहत देने वाली रोज़गार योजना के ख़र्च में भी सिर्फ़ 1% वृद्धि की गयी है। जहाँ तक निवेश का सवाल है सरकार के पूँजीगत ख़र्च में सिर्फ़ 10% वृद्धि है जो पिछले सालों के औसत 12% से कम है और सार्वजनिक क्षेत्र के उद्यमों के निवेश में तो 2000 करोड़ की कमी का प्रस्ताव है। अगर बैंकों से क़र्ज़ द्वारा निवेश का सोचा जाये तो डूबे क़र्ज़ों की वजह से बैंकों के पास क़र्ज़ देने लायक पूँजी नहीं है और उद्योगों को क़र्ज़ बढ़ नहीं घट रहे हैं।

इसलिए  उद्योगों में नये निवेश और नवीन रोज़गार सृजन की सम्भावना दूर तक नज़र नहीं आती। फिर बजट से पिछले कई साल से नौकरियों की कमी, घटती आमदनी और बढ़ती महँगाई झेल रहे मज़दूर, छोटे-मध्यम किसानों, गाँवों से उजड़कर शहरों में छोटे-मोटे धन्धे करने वालों को क्या मिला? एक झुनझुना तक भी नहीं! हाँ, श्रम क़ानूनों में बदलाव से मालिकों द्वारा नौकरी से आसानी से निकालने के इन्तज़ाम की तलवार गर्दन पर ज़रूर तन गयी है! इसी तरह छोटे-मध्यम किसानों की बरबादी की क़ब्रगाह तैयार करने के लिए कॉन्ट्रैक्ट फ़ार्मिंग शुरू करने का भी ऐलान किया गया है जिसके ज़रिये मेहनतकश किसान को कॉर्पोरेट गुलामी में बाँध दिया जायेगा। इसी के साथ सार्वजनिक क्षेत्र के उपक्रमों को भी निजी क्षेत्र के पूँजीपतियों के हाथों में सौंपने का लक्ष्य तो है ही जो अक्सर वास्तविक से बहुत कम क़ीमत पर किया जाता है।

अर्थव्यवस्था के विकास-विस्तार की ज़्यादा सम्भावना के बग़ैर भी अगर बड़े पूँजीपति वर्ग की बजट से विशेष प्रसन्नता का कारण समझना हो तो इस बजट के प्रस्तावों को जीएसटी, नोटबन्दी, डिजिटलीकरण, कैश को हतोत्साहित करने, आदि के साथ जोड़कर देखना चाहिए।

इस बजट में भी 3 लाख से ज़्यादा कैश के लेन-देन पर जुर्माना सहित बहुत सारे प्रावधान हैं जो अर्थव्यवस्था के अनौपचारिक क्षेत्र को औपचारिक में आने के लिए प्रोत्साहित और न आने पर दण्डित करते हैं। अनौपचारिक क्षेत्र भारतीय अर्थव्यवस्था में लगभग 45% है और औपचारिक क्षेत्र से अपनी कम लागत की वजह से प्रतियोगिता में बाज़ार के एक बड़े हिस्से पर छाया हुआ है। अभी इन सारे प्रावधानों-उपायों से इसे औपचारिक की ओर धकेला जा रहा है जहाँ कम लागत का फ़ायदा समाप्त हो जाने से यह बड़ी कॉर्पोरेट पूँजी के सामने नहीं टिक पायेगा। इससे बड़ी संख्या में श्रमिक बेरोज़गार होंगे, छोटे काम-धन्धों में लगे कारोबारी और छोटे किसान बरबाद हो जायेंगे। लेकिन अर्थव्यवस्था में ज़्यादा विकास-विस्तार न होने पर भी मौजूदा बाज़ार में ही इस बड़ी कॉर्पोरेट पूँजी और उसके कार्टेलों का एकाधिकार, और नतीजतन मुनाफ़ा बढ़ेगा। इसलिए इसके प्रवक्ता कॉर्पोरेट मीडिया और आर्थिक विशेषज्ञ बजट की तारीफ़ों के पुल बाँधने में लगे हैं।

रेलवे का किश्तों में निजीकरण – घाटा  पब्लिक का, मुनाफ़ा प्राइवेट

रेलवे बजट को समझने के लिए परिचालन अनुपात या ऑपरेटिंग रेशो को समझना ज़रूरी है – इस वर्ष यह 95% रहा जिसका मतलब है कि 100 रुपये कमाने के लिए रेलवे ने 95 रुपये ख़र्च किये, जबकि पिछले बजट में इसका 92% रहने का अनुमान था। इस बजट में अगले साल के लिए इसका अनुमान ही 95% है। (हालाँकि बजट के बाद प्रकाशित ख़बरों के अनुसार इस वित्त वर्ष के पहले नौ महीने में रेलवे की परिचालन लागत 109 पर पहुँच गयी है, मतलब 100 रु कमाने में 109 खर्च हो रहे हैं!) कुछ साल पहले तक यह 90% से नीचे हुआ करता था। रेलवे बोर्ड के कुछ पूर्व अधिकारियों के अनुसार असल में तो यह अनुपात 100 से ऊपर हो गया है पर रेलवे बजट को आम बजट में मिलाकर खातों में पारदर्शिता कम कर इसको कम दिखाया जा रहा है। पिछले 4 साल में यात्री किराये विभिन्न तरीक़़े से डेढ़ से 4 गुना तक बढ़ाये जा चुके हैं, मालभाड़ा भी बढ़ा है, टिकट कैंसिल कराने, प्लेटफ़ार्म टिकट, अन्य चार्जों में भी भारी इज़ाफ़ा हुआ है। तब यह सवाल पूछा जाना ज़रूरी है कि यह सब बढ़ने के बाद रेलवे का परिचालन अनुपात घटने के बजाय बढ़ा क्यों है? एक वजह तो यह है कि मोदी सरकार ने अर्थव्यवस्था का जो बुरा हाल किया है उससे माल ढुलाई काफी घट गई है। लेकिन दूसरी वजह है बहुत सारी पब्लिक-प्राइवेट पार्टनरशिप के नाम पर चोर दरवाजे से हो रहा निजीकरण जिसका मतलब होता है घाटा पब्लिक, मुनाफा प्राइवेट! यह और कुछ नहीं बस सार्वजनिक सम्पत्ति को चोरी से निजी मालिकाने में हस्तांतरित करना है, जिसमें भ्रष्टाचार की भी बड़ी भूमिका होती है।
इससे यह तो स्पष्ट है कि अभी सीधे या चोर दरवाज़े से किराये और बढ़ाये जायेंगे, साधारण गाड़ियों की बजाय प्रीमियम, हमसफ़र, तेजस, आदि नाम से महँगे किराये वाली गाड़ियाँ चलायी जायेंगी, जिससे आम आदमी के लिए सफ़र करना महँगा और मुश्किल होता जायेगा। इसके अतिरिक्त रेलवे के साज़-सामान, पटरियों, सिग्नल, आदि के रखरखाव की स्थिति ख़राब होती जा रही है, चौकसी और साज-सँभाल के क़रीब सवा लाख पद ख़ाली पड़े हैं जिससे दुर्घटनाएँ और यात्रियों की मौतें बढ़ रही हैं। स्थिति यहाँ तक ख़राब है कि इस बार बग़ैर कोहरे के भी ज़्यादातर गाड़ियाँ विलम्ब से चल रही हैं और बड़ी संख्या में रद्द भी की गयी हैं। साधारण गाड़ियों को सुरक्षित और समय पर चला पाने में भी असमर्थ इस सरकार का सारा ध्यान बुलेट ट्रेन जैसी योजनाओं पर है जिन पर भारी ख़र्च होगा पर जिनका उपयोग मात्र 5% अमीर लोग ही कर पायेंगे।
रेलवे के बढ़ते निजीकरण और ठेकाकरण के साथ ही किश्तों में छँटनी की प्रक्रिया भी तेज़ होती जा रही है। आने वाले समय में और भी नौकरियाँ जायेंगी, यह तय है।

मज़दूर बिगुल, फरवरी 2017


 

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