उत्तराखण्डः दैवी आपदा या प्रकृति का कोप नहीं यह पूँजीवाद की लायी हुई तबाही है!

सम्‍पादकीय

हफ़्तों तक सुर्ख़ियों में रहने के बाद उत्तराखण्ड की भीषण तबाही की ख़बर अब अख़बारों के भीतरी पन्नों पर चली गई है। जैसा कि होता आया है, धीरे-धीरे यह त्रासदी भी भुला दी जायेगी। इसका ज़िक्र तभी होगा जब ऐसी ही या इससे भी भीषण कोई त्रासदी फिर से घटेगी और तब एक बार फिर मीडिया में तरह-तरह के विशेषज्ञ अपनी भाँति-भाँति की व्याख्यायें प्रस्तुत करेंगे। कोई इसे दैवीय आपदा बतायेगा तो कोई इसे प्रकृति का क़हर और कोई समूची मानव जाति और आधुनिक विज्ञान को पानी पी-पी कर कोसेगा। फिर जैसे ही मीडिया को अगली ‘ब्रेकिंग न्यूज़’ मिल जायेगी तो पर्यावरण का मुद्दा एक बार फिर से अभिलेखागार में चला जायेगा। ख़ैर मुनाफ़े के एकमात्र लक्ष्य पर टिकी पूँजीवादी मीडिया से इससे ज़्यादा उम्मीद की भी नहीं जानी चाहिए। लेकिन मज़दूर वर्ग, जिसे एक बेहतर समाज बनाने का ऐतिहासिक मिशन पूरा करना है, ऐसी त्रासदियों को इतने हल्के में नहीं ले सकता! ऐसा महज़ इसलिए नहीं कि इनमें जानमाल की भयंकर तबाही होती है, बल्कि इसलिए भी कि ऐसी त्रासदियाँ मानवता ही नहीं बल्कि पृथ्वी और उस पर रहने वाले तमाम जीव जन्तुओं और वनस्पतियों या यूँ कहें कि उसके समूचे पारिस्थितिकी तन्त्र के अस्तित्व के लिए ख़तरे की घण्टी हैं। कभी न तृप्त होने वाली मुनाफे़ की अपनी हवस की ख़ातिर पूँजीवादी व्यवस्था दिन-ब-दिन, घण्टे-दर-घण्टे आम मेहनतकश जनता का ख़ून तो चूसती ही है, पिछले कुछ वर्षों से आश्चर्यजनक रूप से नियमित अन्तराल पर दुनिया के किसी न किसी कोने पर ऐसी विभीषिकायें घटित हो रही हैं जो इस बात के स्पष्ट संकेत देती हैं कि यदि पूँजीवादी व्यवस्था का समय रहते नाश नहीं किया गया तो यह समूचे भूमण्डल को नाश कर देगी ।

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इस त्रासदी में मरने वाले और ग़ायब होने वाले लोगों की एक बड़ी संख्या तीर्थयात्रियों की थी जो चार धाम (केदारनाथ, बदरीनाथ, गंगोत्री और यमुनोत्री) यात्रा के लिए आये थे। देवभूमि के नाम से जाने जानी वाली उत्तराखण्ड की सरज़मीं पर होने वाली इस भयंकर तबाही के दिल दहला देने वाले दृश्य देखकर धर्म भीरू लोगों ने और साम्प्रदायिक राजनीति का घटिया खेल खेलने वाले मदारियों ने तुरत फुरत में इसे एक दैवीय आपदा क़रार दिया। ऐसे लोगों से तो बस वही सवाल पूछना काफ़ी होगा जो बरसों पहले शहीद-ए-आज़म भगतसिंह ने अपने सुप्रसिद्ध लेख ‘‘मैं नास्तिक क्यों हूँ?’’ में पूछा था – ‘‘ईश्वर कहाँ है? वह क्या कर रहा है? क्या वह मानवजाति के इन सब दुखों और तकलीफ़ों का मज़ा ले रहा है? तब तो वह नीरो है, चंगेज़ खाँ है, उसका नाश हो!’’

तमाम पर्यावरणविद् इस तबाही के कारणों की टुकड़ों-टुकड़ों में तो सही पड़ताल करते हैं परन्तु उनकी सीमा यह है कि कुल मिलाकर वे इस तबाही का कारण मानव सभ्यता के विकास की एक ख़ास मंजिल में क़ायम हुई उत्पादन प्रणाली यानी पूँजीवादी उत्पादन प्रणाली को न मानकर समूची मानवता को ही कोसने लगते हैं और उनमें से कुछ तो आधुनिक विज्ञान को ही ऐसी त्रासदियों के लिए ज़िम्मेदार ठहराने लगते हैं। यह सही है कि उत्तराखण्ड की त्रासदी की भयावहता किसी प्राकृतिक प्रकोप का नहीं बल्कि प्रकृति के नैसर्गिक गति में अवांछित मानवीय हस्तक्षेपों का नतीजा है। परन्तु इसके लिए समूची मानव जाति को ज़िम्मेदार ठहराना सही नहीं है क्योंकि पूँजीवादी व्यवस्था में प्रकृति के साथ छेड़छाड़ व्यापक मानवता के हितों के मद्देनज़र न होकर समाज के मुट्ठी भर लोगों के मुनाफ़े के लिए होता है। यह व्यवस्था व्यापक मानवता द्वारा आम सहमति से चुनी नहीं गई है बल्कि बलपूर्वक उस पर थोपी गयी है। इसलिए ऐसी त्रासदियों के लिए यदि कोई ज़िम्मेदार है तो इस व्यवस्था के रहनुमा यानी पूँजीपति शासक वर्गों की जमात है जिसके इशारों पर पूँजीवादी विकास का रथ मानवता के साथ ही साथ प्रकृति को भी छलनी करता हुआ सरपट दौड़ लगा रहा है।

दरअसल गढ़वाल हिमालय, जहाँ सबसे अधिक तबाही मची, अभी भी अपने भूगर्भीय विकास की प्रक्रिया में है और इस वजह से यह समूचा इलाक़ा पारिस्थितिक रूप से काफ़ी नाज़ुक और अस्थिर माना जाता है। ऐसे नाज़ुक और अस्थिर क्षेत्र में किसी भी क़िस्म का विकास पूर्ण नियोजित और विनियमित होना चाहिए और विकास की परियोजनाओं का पर्यावरण पर पड़ने वाले असर की सांगोपांग जाँच पड़ताल के बाद ही उनको हरी झण्डी मिलनी चाहिए। वर्ष 2000 में बने उत्तराखण्ड राज्य में ठीक इसका उल्टा हुआ! वैसे तो इस क्षेत्र में पहले से ही पूँजीवादी विकास की शुरुआत हो चुकी थी परन्तु नया राज्य बनने के बाद बिल्डरों, होटल व्यवसायियों और तमाम धंधेबाजों के हितों को ध्यान में रखते हुए जिस क़िस्म का विकास वहाँ पर हुआ उससे वहाँ का पारिस्थितिक तन्त्र और ज़्यादा अस्थिर हो गया।

पूँजीवादी विकास के मॉडल के तहत पर्यावरण की परवाह न करते हुए जिस तरह अंधाधुंध तरीक़े से सड़कें, सुरंगें व बाँध बनाने के लिए पहाड़ियों को बारूद से उड़ाई गईं, उसकी वजह से इस पूरे इलाक़े की चट्टानों की अस्थिरता और बढ़ने से भूस्ख़लन का ख़तरा बढ़ गया। वनों की अंधाधुंध कटाई और अवैध खनन से भी पिछले कुछ बरसों में हिमालय के इस क्षेत्र में भूस्खलन, मृदा क्षरण और बाढ़ की परिघटना में बढ़ोत्तरी देखने में आयी है। यही नहीं इस पूरे इलाक़े में पिछले कुछ वर्षों में हिमालय की नदियों पर जो बाँध बनाये गये या जिन बाँधों की मंजूरी मिल चुकी है उनसे भी बाढ़ की संभावना बढ़ गई है क्योंकि इनमें से ज़्यादातर की मंजूरी पर्यावरण पर पड़ने वाले प्रभाव की सांगोपांग पड़ताल के बिना ही दे दी गई। साथ ही साथ इन बाँधों में होने वाली सिल्टिंग को भी हटाने की कोई कारगर योजना न होने से आने वाले दिनों में भी भीषण त्रासदियों की सम्भावना से इनकार नहीं किया जा सकता है।

उत्तराखण्ड की त्रासदी के पीछे एक मुख्य कारण मानसून का समय से काफ़ी पहले और भीषण रूप में आना रहा। मानसून की अनिश्चितता का बढ़ना जलवायु परिवर्तन की व्यापक परिघटना से जोड़ कर देखा जा रहा है। दुनिया भर के वैज्ञानिक और पर्यावरणविद् यह बात बरसों से कहते आये हैं कि पिछले कुछ दशकों में समूचे भूमण्डल में जलवायु परिवर्तन के लक्षण दिख रहे हैं। ‘ग्लोबल वार्मिंग’ की परिघटना इसी परिवर्तन की एक बानगी है जिसमें पृथ्वी पर कुछ ख़ास गैसों (ग्रीन हाउस गैसों जैसे कार्बन डाई ऑक्साइड) के अधिकाधिक उत्सर्जन की वजह से वातावरण का औसत तापमान बढ़ रहा है जिसकी परिणति दुनिया के विभिन्न हिस्सों में भारी वर्षा, बाढ़ व सूखा जैसी प्राकृतिक आपदाओं की बढ़ती बारम्बारता के रूप में देखने को आ रही है। ‘ग्रीन हाउस’ गैसों का उत्सर्जन मुख्य तौर पर जीवाश्मीय ईंधन (फॉसिल फ्यूएल) के इस्तेमाल में अभूतपूर्व बढ़ोत्तरी से जुड़ा हुआ है जो सीधे तौर पर विश्वव्यापी पूँजीवादी ऑटोमोबाइल उघोग के सनक भरे विकास की वजह से हुआ है। इसके अतिरिक्त ग्लोबल

वार्मिंग का एक अन्य प्रभाव ग्लेशियरों के पिघलने के रूप में सामने आ रहा है जिसकी वजह से बाढ़ की सम्भावना और बढ़ जाती है। केदारनाथ घाटी की आपदा की भीषणता का एक कारण चोराबारी ग्लेशियर का पिघलना भी रहा जो मन्दाकिनी नदी का स्रोत है। इस ग्लेशियर के पिघलने की वजह से केदारनाथ घाटी में जल के बहाव में भारी वृद्धि हुई और भूस्खलन से आने वाली चट्टानों और भारी भरकम पत्थरों के साथ जब यह जल केदारनाथ कस्बे में पहुँचा तो वहाँ लोगों को सम्भलने का मौक़ा भी नहीं मिला और देखते ही देखते पूरे क़स्बे में तबाही मच गई।

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उत्तराखण्ड की इस भीषण त्रासदी में जान-माल की अभूतपूर्व क्षति का एक कारण यह भी रहा कि जब यह आपदा घटित हुई उस वक़्त वहाँ अन्य राज्यों से बहुत भारी संख्या में आये तीर्थयात्री मौज़ूद थे। ग़ौरतलब है कि इतनी बड़ी संख्या में तीर्थयात्रियों का चार धाम यात्रा में आना स्वतः स्फूर्त नहीं है, बल्कि इसके पीछे पूरा पर्यटन उघोग का ताना बाना काम करता है जिसमें टूर ऑपरेटरर्स से लेकर होटल व्यवसायी और कुकुरमुत्ते की तरह पनपने वाले क़िस्म-क़िस्म के आध्यात्मिक गुरू और बाबा शामिल हैं। जहाँ एक ओर पूँजीवादी समाज में असमानता और अराजकता फैलाकर लोगों को पाप करने और अपराध करने के लिए हमेशा उकसाता रहता है वहीं दूसरी ओर धर्म में मौजूद इन पापों को प्रायश्चित करने और मोक्ष प्राप्ति के तमाम तरीक़ों को सहयोजित कर मुनाफ़ा कमाने के नित नये अवसर भी खोजता रहता है। तीर्थयात्रा ऐसा ही एक तरीक़ा है जिसने देखते ही देखते पिछले कुछ सालों में ही एक संगठित पर्यटन उघोग का रूप धारण कर लिया है। यहाँ तक कि मज़दूर वर्ग के एक हिस्से में भी यह अन्धविश्वासी सोच पैठ गई है कि तीर्थयात्रा करके उनके जीवन में कुछ सुधार आ जायेगा।

केन्द्र व राज्य सरकार दोनों के प्रतिनिधियों ने इस भीषण त्रासदी के लिए किसी भी प्रकार की ज़िम्मेदारी लेने से इन्कार कर दिया है। यह बात सही है कि इस त्रासदी में बाढ़ के साथ-साथ बहुत बड़ी मात्रा में मलबे के बहने से इसने भीषण रूप अख़्तियार कर लिया। परन्तु यह भी उतना ही सही है कि ऐसी भीषण त्रासदी में भी शासन और प्रशासन की चुस्ती और मुस्तैदी से जान-माल की हानि को कम किया जा सकता था।

केन्द्र सरकार के अन्तर्गत काम करने वाले मौसम विभाग का कहना है कि उसने इस बार समय से पहले मानसून के आने की स्पष्ट चेतावनी दी थी और उसने उत्तराखण्ड सरकार को यह भी जानकारी दी थी कि 16, 17 और 18 जून को वहाँ भारी वर्षा होने की सम्भावना है। परन्तु राज्य सरकार का यह कहना है कि यह चेतावनी ठोस रूप में न होकर बहुत सामान्य रूप में दी गई थी, इसलिए प्रशासन ने कोई क़दम उठाना ज़रूरी नहीं समझा। ज़ाहिर है कि प्रशासनिक हलके में मौसम विभाग की भविष्यवाणी महज़ रस्मअदायगी बनकर रह गयी है। इस पूरे वाक़ये से भारत की पूँजीवादी नौकरशाही का घनघोर जनविरोधी और संवेदनहीन चरित्र सामने आता है।

उत्तराखण्ड त्रासदी के दो महीने पहले ही सीएजी (कम्पट्रोलर एण्ड ऑडिटर जनरल) ने अपनी एक रिपोर्ट (परफार्मेंस ऑडिट रिपोर्ट, 23 अप्रैल 2013) में आपदा प्रबन्धन के मामले में केन्द्र एवं राज्य सरकारों के लचर दृष्टिकोण की आलोचना की थी। रिपोर्ट में यह साफ लिखा है कि 2007 में मुख्यमन्त्री की अध्यक्षता में गठित उत्तराखण्ड आपदा प्रबन्धन प्राधिकरण ने आज तक राज्य में आपदा प्रबन्धन को लेकर कोई नीति नहीं बनायी और कोई दिशानिर्देश भी नहीं ज़ारी किया। आपदा प्रबन्धन क़ानून 2005 के अनुसार हर राज्य को अपनी आपदा प्रबन्धन योजना बनाने की ज़िम्मेदारी थी। परन्तु उत्तराखण्ड सहित तमाम राज्य सरकारों ने ऐसी कोई योजना नहीं बनायी और न ही विभिन्न प्रकार की आपदाओं की बारम्बारता और गहनता के आँकड़े एकत्र करने की दिशा में कोई प्रयास किया गया। प्रधानमन्त्री की अध्यक्षता वाली राष्ट्रीय आपदा प्रबन्धन प्राधिकारण (एन. डी. एम. ए) की यह ज़िम्मेदारी है कि वह राज्यों के ऊपर दबाव डालें कि वे आपदा प्रबन्धन को लेकर अपनी-अपनी योजनायें बनायें और दिशानिर्देश ज़ारी करें। परन्तु एन. डी. एम. ए. को  अपनी इस ज़िम्मेदारी का निर्वहन करने की फुरसत नहीं मिली। ऐसे में यह आश्चर्य की बात नहीं कि आपदा आने के बाद उत्तराखण्ड के मुख्यमन्त्री बगलें झाँकते नज़र आये और राज्य में आपदा प्रबन्धन की देखरेख करने की बजाय दिल्ली में डेरा डाले रहे और देशवासियों से मदद की गुहार लगाते फिरते रहे।

अन्त में यह जोड़ना ज़रूरी है कि उत्तराखण्ड की त्रासदी के बाद जो लोग हर क़िस्म के आधुनिक विकास मसलन पहाड़ों पर सड़कें, सुरंगें, बाँध इत्यादि बनाने का निरपेक्ष विरोध कर रहे हैं वो भी इस क़िस्म की त्रासदी से निज़ात पाने का कोई व्यावहारिक उपाय नहीं बता रहे हैं। मानव सभ्यता के जन्म के साथ ही मनुष्य और प्रकृति के बीच अन्तरविरोधों की शुरुआत हो चुकी थी। यह सही है कि पूँजीवादी उत्पादन प्रणाली में अन्तरनिहित अराजकता की वजह से इस अन्तरविरोध ने विनाशकारी रूप अख़्तियार कर लिया है। परन्तु इसका समाधान यह नहीं हो सकता कि हम हर क़िस्म की आधुनिकता का त्याग कर मानव सभ्यता की पिछली मंजिलों की ओर वापस मुड़ जायें। इस त्रासदी का समाधान हमें अतीत की बजाय भविष्य की उत्पादन प्रणाली में ढूँढना होगा। ऐसा समाधान समाजवादी उत्पादन प्रणाली ही दे सकती है जिसका अस्तित्व समाज के मुट्ठी भर लोगों की मुनाफे़ की सनक को पूरा करने की बजाय व्यापक मानवता की वास्तविक ज़रूरतों को पूरा करने के लिए हो। केवल ऐसी उत्पादन प्रणाली में ही मनुष्य और प्रकृति के बीच के अन्तरविरोधों को योजनाबद्ध और सौहार्दपूर्ण तरीक़े से हल किया जा सकता है। विकास के मौज़ूदा पूँजीवादी मॉडल के बरक्स समाजवादी मॉडल में लोग न सिर्फ़ स्थानीय आबादी की ज़रूरतों के हिसाब से मिलजुलकर योजनायें बनायेंगे और उनको लागू करेंगे बल्कि किसी भी आपदा की सूरत में हाथ पर हाथ रखकर टीवी पर त्रासदी का मंजर देखकर चकित और दुखी होने की बजाय आपदा प्रबन्धन में भी सक्रिय भागीदारी करेंगे जिससे तबाही को कम करना भी सम्भव हो सकेगा। लेकिन समाजवादी व्यवस्था पूँजीवादी व्यवस्था को उखाड़ फेंकने के बाद ही बनायी जा सकती है। इसलिए मानवता ही नहीं बल्कि समूचे भूमण्डल के अस्तित्व को बचाने के लिए ज़रूरी है कि हम पूँजीवादी व्यवस्था को मिट्टी में मिलाने के काम में जी जान से जुट जायें।

 

मज़दूर बिगुलजुलाई  2013

 


 

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