अर्थव्यवस्था में सुधार के हवाई दावों की हक़ीक़त
रिज़र्व बैंक का ताज़ा सर्वेक्षण और साढ़े तीन साल के आँकड़े बताते हैं कि मेहनतकशों के लिए और भी बुरे दिन आने वाले हैं

मुकेश असीम

2014 के चुनाव में मोदी के नेतृत्व में बीजेपी को मिले व्यापक समर्थन के पीछे अन्य कारणों में से एक अर्थव्यवस्था में सुधार, विकास और करोड़ों रोज़गार प्रतिवर्ष सृजन से अच्छे दिन लाने का वादा था, जिस पर अपने जीवन के संकटों से परेशान जनता के एक बड़े हिस्से ने विश्वास किया था। पिछले 3 सालों में सरकार और मीडिया दोनों ने यह बताने में अपनी पूरी प्रचार ताक़त झोंकी है कि अर्थव्यवस्था में बड़ी तेज़ी से सुधार हो रहा है। लेकिन रिज़र्व बैंक द्वारा जून 2017 में कराये गये उपभोक्ता विश्वास सर्वेक्षण में जो नतीजे सामने आये हैं, वे कुछ दूसरी ही कहानी बयान करते हैं।

1.) 40% लोगों ने कहा कि पिछले एक साल में रोज़गार उपलब्धता की स्थिति बिगड़ी है। सुधार सिर्फ़ 28% को ही नज़र आ रहा है, जबकि 2014 में मोदी सरकार आने के वक़्त 55% को रोज़गार की स्थिति में सुधार की उम्मीद थी।

2.) 40% को आर्थिक हालात और भी बदतर होते नज़र आ रहे हैं, बेहतरी की उम्मीद सिर्फ़ 30% को है।

3.) आमदनी घटने की आशंका वाले लोग बढ़ने की उम्मीद वालों के लगभग बराबर हो गये हैं, बढ़ने की उम्मीद सिर्फ़ 24% को है तो घटने की 23% को।

यह दर्शाता है कि सारे प्रचार के बावजूद अपने जीवन की कटु वास्तविकता का अनुभव आम लोगों को प्रचार के पीछे की असली तस्वीर देखने पर विवश कर रहा है। लेकिन यह एक अनुभूति-मात्र नहीं है। अगस्त के महीने में अर्थव्यवस्था की स्थिति दर्शाने वाले कई आधिकारिक मूल्यांकन प्रकाशित हुए हैं। इनमें रिज़र्व बैंक की मौद्रिक नीति और केन्द्र सरकार द्वारा प्रकशित आर्थिक सर्वे की दूसरी किश्त मुख्य हैं। ये भी इस अनुभूति की ही पुष्टि करते हैं। हम इनमें सामने आये तथ्यों के आधार पर भारतीय अर्थव्यवस्था की मौजूदा हालत और मेहनतकश जनता के जीवन पर उसके असर का एक संक्षिप्त विश्लेषण यहाँ प्रस्तुत कर रहे हैं।

3 अगस्त को रिज़र्व बैंक ने बैंकों के लिए ब्याज़ दर में 0.25% की कमी कर इसे 6 सालों में सबसे कम 6% कर दिया। इस क़दम के समर्थन के लिए उसके नीति वक्तव्य के मुख्य बिन्दु ये हैं। औद्योगिक प्रदर्शन कमजोर हुआ है, ख़ास तौर पर मैन्युफै़क्चरिंग क्षेत्र में व्यापक गतिरोध की स्थिति है। उत्पादन में सुस्ती के चलते उद्योगों में कोयले, बिजली और पेट्रोलियम की माँग घटी है। उत्पादित कोयले का बड़ा भण्डार अनबिके पड़ा है। बिजली उत्पादन क्षमता के अनुसार बिक नहीं पा रही है। इसके चलते कोयले, बिजली, और क्रूड पेट्रोलियम का उत्पादन कम हुआ है। (जून 2017 में औद्योगिक गतिविधि के सूचकांक माने जाने वाले कोयले का उत्पादन 6.7% और सीमेण्ट का 5.8% घटा है।) अच्छे मानसून के चलते कृषि उत्पादन बढ़ा है, फिर भी खाद की माँग नहीं बढ़ने से उसका उत्पादन भी गिरा है। रोज़मर्रा की ज़रूरी उपभोक्ता वस्तुओं का उत्पादन ठीक है (क्योंकि ख़राब आर्थिक हालत में भी नमक, चीनी, चाय, साबुन जैसी चीज़ें तो ख़रीदी ही जाती हैं) लेकिन टिकाऊ उपभोक्ता उत्पादों (टीवी, फ्रि़ज़, स्कूटर, साईकिल, आदि) की माँग सुस्त होने से उत्पादन घटा है (आर्थिक हालत ख़राब दिखे तो पहले इनकी ही ख़रीदारी में कटौती की जाती है)।

कैपिटल गुड्स अर्थात वे पूँजीगत वस्तु (मशीनें, ट्रक, ट्रैक्टर, आदि), जिन्हें उपभोक्ताओं द्वारा नहीं बल्कि उत्पादन-व्यापार को चलाने हेतु उपयोग किया जाता है, का उत्पादन भी घटा है क्योंकि उपभोक्ताओं की सीमित माँग के चलते नये उद्योग में पूँजी लगाने का काम ठप्प है। रिज़र्व बैंक के अनुसार पिछले 12 साल में सबसे कम नया निवेश इस साल की अप्रैल-जून तिमाही में हुआ है। ख़ुद पूँजीपति मान रहे हैं कि कारोबारी हालात में ख़राबी आयी है, पहले से अटके प्रोजेक्ट की स्थिति में कोई सुधार नहीं है और इंफ़्रास्ट्रक्चर निर्माण (सड़क, पुल, बाँध, बिजलीघर, इमारतें, अस्पताल आदि) में मन्दी का आलम है। रिज़र्व बैंक ने औद्योगिक उत्पादन की सम्भावना के अपने 78वें सर्वे में पाया कि अधिकांश उद्योग प्रबन्धकों और विश्लेषकों को उपभोक्ता माँग, पूँजी निवेश, मुनाफ़े और नये रोज़गार सृजन की उम्मीदों में गिरावट नज़र आ रही है। इसी बात की पुष्टि जुलाई में किये गये विभिन्न कम्पनियों के क्रय प्रबन्धकों के सर्वे के इण्डेक्स (PMI) से भी हुई है जिसमें नये बिक्री ऑर्डर्स, स्थापित उत्पादन क्षमता के उपयोग और उत्पादन में गिरावट का अन्देशा जताया गया है। नतीजा यह कि कुल पूँजी निवेश 2007 में जीडीपी (कुल घरेलु उत्पाद) के 37% से कम होते हुए 2016 में 27% ही रह गया।

10 अगस्त को फि़क्की और भारतीय बैंक संघ का एक सर्वेक्षण प्रकाशित हुआ, जिसमें बताया गया कि 2017 के पहले 6 महीनों में बैंकों के डूबे क़र्ज़ में भारी वृद्धि हुई है। इसमें लगभग सारे सरकारी और तीन चौथाई निजी बैंकों ने इस दौरान क़र्ज़ की वसूली की स्थिति में गिरावट को स्वीकार किया है। आधे से अधिक बैंकों के अनुसार धातु, आधारभूत उद्योगों और वस्त्र उद्योग को दिये गये क़र्ज़ की वसूली में भारी दबाव की स्थिति पायी गयी। 11 अगस्त को आये सबसे बड़े बैंक स्टेट बैंक ऑफ़ इण्डिया के तिमाही नतीजों ने इसकी पुष्टि भी कर दी – हालाँकि बैंक ने अपने मुनाफ़े में भारी वृद्धि का ऐलान किया, लेकिन ध्यान से पढ़ने से पता चला कि 3 महीने में इसके डूबे क़र्ज़ डेढ़ गुना हो गये अर्थात 6.9% से बढ़कर 10% (हर 100 रुपये के क़र्ज़ में 10 रुपये डूब चुके हैं!) एक और ख़बर यह सामने आयी कि 2017 में सरकारी बैंक अब तक 81683 करोड के क़र्ज़ और बट्टे खाते में डाल या राइट ऑफ़ कर चुके हैं। पिछले 5 सालों में यह रक़म कुल 2 लाख 46 हज़ार करोड़ रुपये रही। इसने सरकार के इस दावे को झुठला दिया है कि डूबे क़र्ज़ों की समस्या पुरानी थी और अर्थव्यवस्था में तेज़ी के साथ अब यह सुलझ रही है।

इसका असर भी शीघ्र ही सामने आ गया – एसबीआई और अन्य बैंकों ने अपने बचत खाते में ब्याज़ दर आधा प्रतिशत कम कर दी और खातों पर लगने वाले शुल्क बढ़ा दिये। एक और सरकार ज़बरदस्ती आम मज़दूरों तक को अपनी मज़दूरी का मेहनताना बैंकों में जमा रखने के लिए मजबूर कर रही है, दूसरी ओर रोज़मर्रा के ख़र्च के लिए इसे निकालने में न सिर्फ़ रुकावट डाल रही है, बल्कि तरह-तरह के चार्ज लगाकर उनके पसीने की इस कमाई का एक हिस्सा ज़बरदस्ती काटकर उनके पेट पर दोहरी लात मार रही है, ताकि बड़े पूँजीपतियों की माँग के अनुसार बैंक उन्हें सस्ता क़र्ज़ और छूट दे, बल्कि धन्ना सेठों द्वारा मार ली गयी रक़म भी श्रमिकों, ग़रीब किसानों और निम्न मध्यवर्गीय जनता की जेब से खुले आम डकैती डालकर निकाल ली जाये। यही वजह है कि पूँजीपतियों का भोंपू ख़बरी मीडिया और भाड़े के विशेषज्ञ इसकी वाहवाही में जुट गये हैं। पूँजीपति वर्ग की सेवक मोदी सरकार से और उम्मीद भी क्या की जा सकती है!

11 अगस्त को ही औद्योगिक उत्पादन सूचकांक के भी आँकड़े सामने आये; नतीजा फिर वही जून में उत्पादन 0.1% गिरा। यह चार सालों में पहली गिरावट है। 23 में से 15 उद्योगों में गिरावट दर्ज की गयी, लेकिन सबसे अधिक गिरावट पूँजीगत उत्पाद (6.8%) और टिकाऊ उपभोक्ता वस्तुओं (2.1%) में हुई अर्थात रोज़गार और आमदनी के प्रति सशंकित जनता रोज़मर्रा की ज़रूरी वस्तुएँ ख़रीदना तो बन्द नहीं कर सकती पर टिकाऊ, बड़ी वस्तुओं की ख़रीदारी से बच रही है और माँग में इस कमी को देखकर कोई उद्योगपति नयी उत्पादन इकाइयाँ स्थापित करने में दिलचस्पी नहीं ले रहा। इण्डिया रेटिंग्स के मुख्य अर्थशास्त्री सुनील सिन्हा के अनुसार यह दिखा रहा है कि नोटबन्दी का नकारात्मक असर अभी जारी है और इसका प्रभाव पहले के अनुमान से कहीं अधिक भयंकर था। यह उद्योग और अर्थव्यवस्था के लिए बुरी ख़बर है।

11 अगस्त को ही सरकार ने अर्धवार्षिक आर्थिक सर्वेक्षण जारी किया जिसकी मुख्य बात थी कि अर्थव्यवस्था पर संकुचन या डिफ़्लेशन का दबाव है और जीडीपी में वृद्धि दर सरकारी अनुमान से कम रहने की सम्भावना है। इस संकुचन का अर्थ है कम माँग के चलते दाम न बढ़ा पाने की मज़बूरी से मुद्रास्फीति या महँगाई का नहीं बढ़ना। और विस्तार में जायें तो रिज़र्व बैंक और सरकार दोनों का विश्लेषण कहता है कि महँगाई की दर कम रहने की वजह एक तो कृषि उत्पादों के दामों में कमी है; दूसरे, माँग की कमी से अन्य उत्पादक दाम बढ़ाने में असमर्थ हैं, इसलिए महँगाई की दर 4% के नीचे आ गयी है। सरकार की ओर से आर्थिक सर्वेक्षण इस स्थिति से निपटने के लिए ब्याज़ दरों में भारी कमी का सुझाव दे रहा है। उधर रिज़र्व बैंक अपने नीति वक्तव्य में इससे असहमति जताते हुए महँगाई दर के घटने को अस्थायी मानकर कभी भी इसके पुनः बढ़ने का ख़तरा बता रहा है और उसे ब्याज़ दरों को ज़्यादा घटाना एक जोखिम का क़दम लगता है, क्योंकि उसकी नज़र में आज की स्थिति में महँगाई का बढ़ना बाज़ार माँग को पूरी तरह नष्ट कर संकट को और गहरा कर सकता है। अभी समझौते के तौर पर चौथाई प्रतिशत की कमी की गयी है, लेकिन सरकार और वित्तीय/औद्योगिक पूँजीपति और ज़्यादा कमी चाहते हैं। यह पूँजीपति वर्ग के ही दो संस्थानों के बीच एक विशेष स्थिति से निपटने के तरीक़े पर असहमति है। इसमें मेहनतकश जनता के हित की बात कोई पक्ष नहीं कर रहा, न कर सकता है।

इसी जगह ब्याज़ दरों को घटाने-बढ़ाने के सवाल को थोड़ा ओर गहराई से समझते हैं। पूँजीवादी बाज़ार में माँग की कमी से पैदा हुए अति-उत्पादन के संकट से निपटने के लिए अक्सर दो तरीक़े अपनाये जाते हैं। एक, घाटे के बजट द्वारा सरकारी ख़र्च या पूँजी निवेश में वृद्धि के द्वारा बाज़ार में धन की उपलब्धता या तरलता का प्रवाह बढ़ाकर माँग पैदा करना। वर्तमान सरकार पहले ही ऐसा कर रही है और इस वर्ष के सालाना बजट का तीन चौथाई से ज़्यादा भाग पहले 6 महीने में ही ख़र्च कर चुकी है। लेकिन सरकार इसके लिए बाज़ार से क़र्ज़ लेती है, जो ब्याज़ दरों को बढ़ाकर पूँजी की लागत को बढ़ा देता है। अतः निजी पूँजीपति इस नीति को पसन्द नहीं करते और ब्याज़ दरों में कमी से पूँजी की लागत को घटाकर मुनाफ़े की दर को बढ़ाने का समर्थन करते हैं। दूसरे, माना जाता है कि जमा राशि पर ब्याज़ दरों के घटने से लोग बचत के स्थान पर ख़र्च करना पसन्द करेंगे। फिर कम ब्याज़ दरों पर क़र्ज़ की उपलब्धता भी उन्हें किश्तों पर मकान, कार, टीवी, फ्रि़ज़ जैसी चीज़ें लेने को प्रोत्साहित करेगी। इस सबसे बाज़ार में माँग और सम्पत्ति (ज़मीन, मकान, शेयर, बॉण्ड, आदि) की क़ीमतें बढ़ेंगी जिससे उत्पन्न सम्पन्नता का भाव भी बाज़ार में माँग बढ़ाकर अर्थव्यवस्था में तेज़ी लायेगा। इसलिए पूँजीपति वर्ग और उसके प्रवक्ता हमेशा ब्याज़ दरों में कमी की माँग करते हैं।

मगर इस प्रकार लायी गयी यह तेज़ी कभी स्थाई नहीं होती, क्योंकि संकट का मूल कारण क़र्ज़ का महँगा होना है ही नहीं। संकट का कारण है मज़दूरों की श्रम शक्ति द्वारा उत्पादित मूल्य के अधिकांश को पूँजी मालिकों द्वारा मुनाफ़ा, लगान या ब्याज़ के रूप में हस्तगत कर लेना और मज़दूर को उसमें से सिर्फ़ जि़न्दा रहने लायक़ हिस्सा मिलना। इस परिस्थिति में आवश्यकताएँ होते हुए भी उनकी ख़रीदारी की शक्ति सीमित होती है, जबकि अपने-अपने मुनाफ़े के लिए सभी पूँजीपति उत्पादन को बढ़ाते जाते हैं, जो हमेशा अति-उत्पादन या माँग से अधिक उत्पादन के संकट को जन्म देता रहता है। वैसे भी लिया गया क़र्ज़ वापस भी करना ही होता है। इसलिए यह अस्थायी तेज़ी का चक्र हमेशा और भी तीव्र संकट की ओर ले जाता है। लेकिन इसका विस्तृत विश्लेषण और कभी।

उपरोक्त प्रस्तुत तथ्यों के आधार पर बग़ैर किसी और विश्लेषण के ही हम कह सकते हैं कि भारतीय पूँजीवादी अर्थव्यवस्था गहरे संकट के दौर में है, कोई भाषण-नारे तथा प्रचार इसे छिपा नहीं सकते। ऊपर हमने उपभोक्ता विश्वास सर्वेक्षण द्वारा आम लोगों के द्वारा इस संकट को अपनी जि़न्दगी में महसूस किये जाने का विवरण भी दिया ही था। आगे हम अर्थव्यवस्था के तीन मुख्य अंगों – विनिर्माण, सेवा और कृषि की स्थिति के ज़रिये मेहनतकश जनता पर इसके प्रभाव को और गहराई से समझेंगे।

सेवा क्षेत्र भारतीय अर्थव्यवस्था का सबसे बड़ा हिस्सा – लगभग 59% है। लेकिन इसमें कुल श्रमिकों के सिर्फ़ 26% को रोज़गार प्राप्त है। इसे समझने के लिए कुछ और देशों के साथ तुलना आवश्यक है। अमेरिका और ब्रिटेन में सेवा क्षेत्र अर्थव्यवस्था का 80% है और इतने ही लोग इसमें रोज़गार पाते हैं। ब्राज़ील, मेक्सिको के आँकड़े भी लगभग ऐसे ही हैं – जितना हिस्सा उतने रोज़गार। चीन में यह अर्थव्यवस्था का 49% है और रोज़गार 42%। इसका अर्थ है कि भारत में सेवा क्षेत्र में उत्पादित मूल्य की तुलना में बहुत कम लोगों को रोज़गार मिलता है अर्थात कम श्रमिक बहुत अधिक उत्पादन करते हैं। अतः इसमें श्रमिकों का शोषण बहुत अधिक है। यह बात कई लोगों को अजीब लग सकती है, क्योंकि अक्सर सेवा क्षेत्र के सफ़ेद कालर कर्मचारियों को अधिक वेतन का बहुत प्रचार सुना गया है। लेकिन यह अधिक वेतन मात्र कुछ लाख की संख्या तक सीमित है और आईटी, बैंक-वित्त, इ-कॉमर्स/कूरियर डिलीवरी वाले कर्मियों से लेकर होटल-रेस्टोरेण्ट तक के अधिकांश निचले स्तर के कर्मचारी उतना वेतन नहीं पाते। यहाँ कोई यूनियन नहीं होती, पेंशन-बोनस नहीं देना होता, मेडिकल आदि सुविधाएँ अत्यन्त सीमित हैं, नौकरी से निकालते वक़्त भी संगठित विनिर्माण उद्योगों की तरह वीआरएस आदि की तरह कोई एकमुश्त रक़म नहीं देनी पड़ती। दूसरी बात है कि इनमें काम के घण्टे बहुत अधिक हैं – 10-12 घण्टे के साथ छुट्टी के दिन भी काम करना यहाँ आम बात है। इसलिए इन क्षेत्रों के श्रमिक अपने मालिकों के लिए विनिर्माण क्षेत्र के मुक़ाबले अधिक अतिरिक्त मूल्य अर्थात मुनाफ़ा कमा कर देते हैं। यही वजह है कि न सिर्फ़ बहुत से भारतीय पूँजीपति इस क्षेत्र को निवेश के लिए बेहतर मानते हैं, बल्कि अमेरिका-यूरोप से भी सेवा क्षेत्र का बहुत सारा काम भारत में आया है, क्योंकि सस्ते भारतीय श्रमिकों के शोषण से इसमें अधिक मुनाफ़ा है।

विनिर्माण या मैन्युफै़क्चरिंग क्षेत्र कुल घरेलु उत्पाद में लगभग 28% का योगदान करता है और इसमें कुल श्रमबल के लगभग 22% को रोज़गार मिलता है। इस क्षेत्र को गति देकर बड़ी संख्या में नये रोज़गार सृजित करना मोदी सरकार का एक प्रमुख नीतिगत ऐलान था। मेक इन इण्डिया, स्टार्ट अप, स्किल इण्डिया जैसे कार्यक्रम इसी का अंग हैं। सेवा क्षेत्र की तरह ही यहाँ भी श्रम क़ानूनों में ‘सुधार’ के नाम पर श्रमिकों के संगठित होने के अधिकारों में कटौती, काम के घण्टों की सीमा हटाना, मालिकों को जब चाहे बिना मुआवज़े श्रमिक को निकालने का अधिकार देना, ब्याज़ दरों में कमी कर पूँजी लागत को घटाना, सस्ती ज़मीन उपलब्ध कराना, पर्यावरण की सुरक्षा के नियमों में ढील देना, आदि वे प्रमुख तरीक़े हैं जिनके द्वारा मोदी देशी-विदेशी पूँजी को श्रमिकों से अधिक अधिशेष और मुनाफ़ा प्राप्त करने का भरोसा देकर उन्हें उद्योगों में नये पूँजी निवेश के लिए आमन्त्रित कर रहे हैं। लेकिन बाज़ार में उपभोक्ता माँग की कमी और स्थापित क्षमता के ही अत्यन्त कम इस्तेमाल (70-72%) के कारण ब्याज़ दरों को 6 वर्ष के निम्नतम स्तर पर लाने के बाद भी यह पूँजी निवेश होता दिखायी नहीं दे रहा है और नया रोज़गार सृजन लगभग बन्द हो चुका है, बल्कि नोटबन्दी के बाद 15 लाख नौकरियाँ ख़त्म हो चुकी हैं।

कृषि क्षेत्र अर्थव्यवस्था में सबसे कम योगदान – 14% – करता है, लेकिन इसमें सबसे अधिक 52% लोग लगे हुए हैं। इसलिए इसमें संलग्न अधिकांश मज़दूर-किसानों की आय अत्यन्त न्यून है और वे जीवन की समस्त मूल ज़रूरतों से महरूम बस किसी तरह जि़न्दा हैं। जिन राज्यों-क्षेत्रों में हरित क्रान्ति के बाद कृषि में तकनीकी विकास तुलनात्मक रूप से अधिक हुआ था, वहाँ अधिक पूँजी निवेश की आवश्यकता के चलते अधिसंख्य छोटे-सीमान्त किसानों के लिए कृषि घाटे का सौदा बन चुकी है और ये किसान और खेत मज़दूर कम आय में गुज़ारा न कर पाने के चलते क़र्ज़ में डूबते चले जा रहे हैं। आन्ध्रप्रदेश-तेलंगाना जैसे राज्यों में तो कुल ग्रामीण आबादी के 93% तक क़र्ज़ में डूबे हैं। इनमें भी आगे वर्गीय विश्लेषण करें तो लगभग सारे ही खेत मज़दूर-छोटे किसान क़र्ज़ में हैं, जबकि बड़े धनी किसान कम तादाद में। दूसरे, बड़े किसानों द्वारा लिये क़र्ज़ बैंकों की कम दरों पर कृषि में विकास हेतु पूँजी निवेश के लिए हैं, जबकि ग़रीब किसान-मज़दूरों के ज़्यादातर क़र्ज़ उपभोग या बीमारी जैसे संकटों से निपटने हेतु सूदखोरों-धनी किसानों से भारी ब्याज़ दरों पर लिये जाते हैं। इसीलिए ग्रामीण क्षेत्र में आत्महत्या के अधिकांश मामले इन्हीं ग़रीब किसान-मज़दूरों के तबक़े के हैं। हाल के वर्षों में धान, गेहूँ, गन्ना, आदि सभी फ़सलों की बुआई-रोपाई, निराई-गुड़ाई से लेकर कटाई-छिलाई, पेराई में यन्त्रीकरण की रफ़्तार जिस तरह तेज़ हुई है, उससे पूँजी निवेश की ज़रूरत बढ़ेगी और कृषि में श्रमिकों की माँग कम होगी। कुछ किसान श्रम की कम आवश्यकता तथा अधिक पूँजी निवेश के सहारे अधिक ज़मीन पर कृषि कार्य में सक्षम होंगे – ख़रीदकर या पट्टे/ठेके पर लेकर – तथा कम लागत और परिमाण की मितव्ययता से अधिक लाभ अर्जित कर पायेंगे, किन्तु अधिकांश मज़दूर-किसानों का आर्थिक संकट और बढ़ने वाला है, और गाँवों से शहरों की ओर पलायन तेज़ होगा। मोदी सरकार का प्रस्तावित कृषि भूमि लीजिंग कानून इसी प्रक्रिया को औपचारिक बनाने और तेज करने के मकसद से लाया जा रहा है।

निष्कर्ष यह कि तमाम मनभावन नारों और लुभावनी स्कीमों वाले नरेन्द्र मोदी के पास ऐसी कोई नीति नहीं है, जो हमारे मुल्क़ की बहुसंख्यक आबादी अर्थात मज़दूर, छोटे किसान और निम्न मध्य तबक़े के जीवन में कोई सुधार ला सके। ऐसा मुमकिन भी नहीं था, क्योंकि यह सरकार पूँजीपति वर्ग की विश्वस्त प्रबन्धक के रूप में ही अस्तित्व में आयी है और उसके हितों की पूर्ति में काम करने के अतिरिक्त इससे कुछ और उम्मीद करना नासमझी ही होगी।

 

मज़दूर बिगुल,अगस्त 2017


 

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