2जी स्पेक्ट्रम घोटाले के सभी आरोपी बरी
अदालत का फ़ैसला संसाधनों की बेहिसाब पूँजीवादी लूट पर पर्दा नहीं डाल सकता

पराग वर्मा  

          2जी घोटाले में जिन 14 लोगों और तीन कम्पनियों पर आरोप लगे थे, उन सबको सीबीआई की एक विशेष अदालत ने बरी कर दिया है। अब तक 2जी घोटाले को भारत का सबसे बड़ा आर्थिक घोटाला माना जाता रहा है। यह घोटाला साल 2010 में सामने आया, जब भारत के महालेखाकार और नियन्त्रक (कैग) ने अपनी एक रिपोर्ट में साल 2008 में किये गये स्पेक्ट्रम आवण्टन की प्रक्रिया पर सवाल खड़े किये थे।  इसमें 2जी दूरसंचार स्पेक्ट्रम को नेताओं-नौकरशाहों और पूँजीपतियों की मिलीभगत से कुछ निजी कम्पनियों को उसकी सम्भावित क़ीमत से कम क़ीमत में बेच देने का आरोप था। अब जब अदालत में सभी नेताओं, नौकरशाहों और उद्योगपतियों पर लगे धोखाधड़ी और घूस लेने के आरोप सिद्ध नहीं हुए हैं और उन्हें क्लीन चिट दे दी गयी है तो कांग्रेस पार्टी और उसके समर्थक इसे अपनी नैतिक विजय बता रहे हैं। दूसरी ओर भाजपा और उसके समर्थकों का इस फ़ैसले के बाद से अचानक न्यायालय से विश्वास उठ गया है। इन चुनावी पार्टियों के इतिहास से वाकिफ़ हर कोई जानता है                                                                                                                    कि न्याय की प्रक्रिया पर इनका विश्वास इस पर निर्भर करता है कि फ़ैसला इनके पक्ष में आया है या इनके ख़ि‍लाफ़। कांग्रेस व उसके समर्थकों को यदि न्यायपालिका पर इतना ही विश्वास है तो उन्हें  नरेन्द्र  मोदी को 2002 के गुजरात नरसंहार के लिए दोषी नहीं ठहराना चाहिए क्योंकि न्यायालय ने तो मोदी को बरी कर दिया था। न्यायालय ने तो अमित शाह को भी सोहराबुद्दीन ट्रिपल मर्डर केस में कोई जुर्म न साबित होने पर बरी कर दिया था। दूसरी ओर आज जो भाजपा समर्थक 2जी फ़ैसले पर सवाल उठा रहे हैं, वे वही लोग हैं जो उपरोक्त मामलों में मोदी और शाह की भूमिका पर सवाल उठाये जाने पर न्यायालय के फ़ैसले को पवित्र गाय तुल्य मानते हुए अपने नेताओं का बेशर्मी से बचाव करते हैं। लेकिन इस देश के आम नागरिक की हैसियत से इस पूरे मामले पर नज़र दौड़ाने पर हम न सिर्फ़़ चुनावी पार्टियों के नेताओं की लूट-खसोट से रूबरू होते हैं बल्कि हमें इस नंगी सच्चाई का भी एहसास होता है कि मौजूदा व्यवस्था में न्यायालय, सीबीआई, पुलिस, नौकरशाही ये सभी थैलीशाहों के हितों में मुस्तैादी से काम करते हैं।

क्या था 2जी स्पेक्ट्रम घोटाला?  

आइए देखते हैं कि ये 2जी घोटाला आख़िर था क्या और इस पर आये न्यायालय के फ़ैसले के मुख्य कारक क्या हैं। 2जी घोटाला साल 2010 में सामने आया जब भारत के तत्कालीन महालेखाकार और नियन्त्रक (कैग) विनोद राय ने अपनी एक रिपोर्ट में साल 2008 में किये गये स्पेक्ट्रम आवण्टन पर सवाल खड़े किये। इस रिपोर्ट के मुताबिक़ संचार मन्त्रालय ने जो स्पेक्ट्रम लाइसेंस निजी कम्पनियों को दिये थे वो नीलामी की बजाय ‘पहले आओ पहले पाओ’ की नीति के हिसाब से कौड़ि‍यों के दाम में दे दिये जिसके कारण सरकारी ख़ज़ाने को 1 लाख 76 हज़ार करोड़ रुपयों तक का नुक़सान हुआ। महालेखाकार द्वारा बताये गये इस आँकड़े को लेकर भी बहस थी कि ये कितना सही है और इस आँकड़े के अनुमान लगाने की प्रक्रिया कितनी सही है, लेकिन फिर भी इस रिपोर्ट से इतना तय हो गया था कि स्पेक्ट्रम के आवण्टन में घपला तो हुआ है और तब यह एक बड़ा राजनीतिक विवाद बनकर उभरा जिसने 2014 के लोकसभा चुनावों में कांग्रेस नीत यूपीए की सरकार गिराने में बेहद महत्वपूर्ण भूमिका निभायी थी।

तत्कालीन दूरसंचार मन्त्री और द्रमुक नेता ए राजा पर ये आरोप लगने लगे थे कि उन्होंने कुछ टेलीकॉम कम्पनियों को फ़ायदा पहुँचाने की नीयत से स्पेक्ट्रम लाइसेंस को कम दरों में बेचने की अनुमति दी और उन्होंने सी.वी.सी, क़ानून मन्त्रालय और प्रधानमन्त्री कार्यालय के निर्देशों को भी अनदेखा किया। ए राजा को हटाने की माँग को लेकर विपक्ष ने संसद की कार्यवाही ठप की और अन्तत: उन्हें  इस्तीफ़ा देना पड़ा था। परांजय गुहा ठाकुरता, सुब्रमण्यम स्वामी, प्रशान्त भूषण और सिविल सोसाइटी के कुछ अन्य लोगों द्वारा देश के सर्वोच्च न्यायालय में इस मामले की जाँच के लिए याचिका भी दाख़िल की गयी थी। इस मामले में छानबीन के लिए उच्च न्यायालय के मार्गदर्शन में मुख्य जाँच एजेंसी सीबीआई ने ए राजा के अलावा कई और हस्तियों और कम्पनियों से पूछताछ की और जाँच के पश्चात उन पर आरोप तय किये। इसके अलावा द्रमुक सुप्रीमो करुणानिधि की बेटी कनिमोड़ी पर भी आरोप लगा कि उन्होंने अपनी पार्टी के कलैनार टीवी चैनल के लिए 200 करोड़ रुपये की रिश्वत डीबी रियलटी के मालिक शाहिद बलवा से ली जिसके बदले में ए राजा ने डीबी रियलटी की ही स्वान टेलीकॉम कम्पनी को सस्ते में स्पेक्ट्रम का लाइसेंस दिलाया। इस 200 करोड़ की रिश्वत को कलैगनार टीवी तक पहुँचाने के पुख़्ता सबूत भी पाये गये थे। राजीव बलवा जो कि आसिफ़ बलवा के भाई हैं, कुसगाँव फ्रूट्स और वेजिटेबल प्राइवेट लिमिटेड में 50 फ़ीसदी के मालिक भी हैं, उन्होंने और कुसगाँव फ्रूट्स और वेजिटेबल प्राइवेट लिमिटेड के निदेशक राजीव अग्रवाल ने 212 करोड़ रुपये रिश्वत के रूप में करीम मोरानी की कम्पनी सिनेयुग को दिये जो अन्ततोगत्वा करुणानिधि की बेटी कनिमोड़ी के कलैगनार टीवी तक पहुँचे। रिश्वत की इस प्रक्रिया में जुड़े सभी लोगों पर आपराधिक मामले दर्ज हुए थे। इसके अलावा ए. राजा के सहायक रहे दूरसंचार सचिव सिद्धार्थ बेहुरा और उनके निजी सचिव आर के चन्दोलिया पर भी आवण्टन में हुई अनियमितताओं में साथ देने का आरोप लगा। स्वान टेलिकॉम के निदेशक विनोद गोयनका और महाप्रबन्धक शाहिद बलवा पर उनकी कम्पनी को जायज़ से कहीं कम दाम पर स्पेक्ट्रम आवण्टित होने के लिए रचे आपराधिक षड्यन्त्र में भाग लेने का आरोप तय हुआ। यूनिटेक के पूर्व महाप्रबन्धक चन्द्रा को भी इस घोटाले के मुख्य लाभार्थियों में से देखा गया क्योंकि स्पेक्ट्रम लेने के तुरन्त बाद उन्होंने अपनी कम्पनी के स्पेक्ट्रम लाइसेंस किसी विदेशी कम्पनी को बहुत ऊँचे दाम पर बेच दिये और अपार मुनाफ़ा कमाया। अनिल अम्बानी समूह की कम्पनियों के तीन शीर्ष अधिकारी गौतम दोषी, सुरेन्द्र पिपारा और हरी नायर पर भी फ़र्ज़ी शैल कम्पनी बनाके सस्ते दामों पर स्पेक्ट्रम लाइसेंस लेने के आरोप लगे।

तीन कम्पनियों – स्वान टेलीकॉम लिमिटेड, रिलायंस टेलीकॉम लिमिटेड और यूनिटेक वायरलेस को भी अलग से आरोपी बनाया गया। ग़ौरतलब है कि स्वान टेलीकॉम में भी अनिल अम्बानी का पैसा लगा हुआ था जिसे क़ानूनी पाबन्दियों से बचने के लिए खड़ा किया गया था। इसी से सम्बन्धित दूसरे मामले में सी बी आई ने एस्सार ग्रुप के प्रमोटर रवि रुइया व अंशुमान रुइया, और एस्सार ग्रुप द्वारा ही खड़ी की गयी कम्पनी लूप टेलीकॉम के प्रमोटर किरण खेतान व आई पी खेतान और एस्सार ग्रुप के निदेशक विकास श्राफ को भी षड्यन्त्र रचने और शैल कम्पनी बनाके सस्ते में लाइसेंस हासिल करने के आरोप में केस दर्ज किया। चार्जशीट में अलग से लूप टेलीकॉम लिमिटेड, लूप इण्डिया मोबाइल लिमिटेड और एस्सार टेली होल्डिंग लिमिटेड कम्पनियाँ भी आरोपी हैं। अक्टूबर 2011 में कोर्ट ने इन सभी लोगों के ख़िलाफ़ आपराधिक षड्यन्त्र, धोखाधड़ी, फ़र्ज़ीवाड़ा, फ़र्ज़ी काग़ज़ात बनाने, पद का दुरुपयोग, सरकारी दुराचरण आदि के आरोप तय किये गये थे।

क्या आरोपियों का बरी होना उनकी बेगुनाही को साबित करता है?

अब यह समझने की ज़रूरत है कि इतना बड़ा घोटाला जिसमें 154 लोगों ने गवाही दी और 4400 पेज की चार्जशीट बनी, जिसके चलते सत्ता परिवर्तन हो गया उसमें कोई आरोप सिद्ध क्यों नहीं हुआ। आज़ादी के 70 सालों के इतिहास पर सरसरी निगाह दौड़ाने भर से यह स्पष्ट हो जाता है कि मौजूदा न्याय व्यवस्था में किसी अपराधी को सज़ा मिलना उसकी सामाजिक हैसियत पर निर्भर करता है। किसी मुक़दमे की दिशा इससे तय होती है कि जाँच एजेंसी कितनी ईमानदारी से सारे सबूत जुटाती है और अभियोजन एजेंसी कितने योजनाबद्ध तरीक़े से मामले को अदालत के सामने पेश करती है। इस देश में पूँजीपतियों और राजनेताओं से जुड़े मुक़दमों में जाँच और अभियोजन एजेंसियों के ढिलाई से काम करने का लम्बा इतिहास रहा है। सबूतों के साथ छेड़छाड़, फ़र्ज़ी सबूतों का निर्माण और सबूतों को पेश करने में ढिलाई जैसे तमाम पैंतरे हैं जिन्हें  अपनाकर सीबीआई जैसी जाँच और अभियोजन एजेंसी मुक़दमे का रुख़ पूरी तरह पलट सकती है। पूँजीपति और राजनेताओं के मुक़दमे राम जेठमलानी, हरीश साल्वे, कपिल सिब्बल, अरुण जेटली बड़े वकील लड़ते हैं जिनकी एक सुनवाई की फ़ीस लाखों में होती है। ऐसे वकीलों को वे सारे दाँव पेंच आते हैं जो अपराधी को निर्दोष और निर्दोष को अपराधी साबित कर दें। और तो और अब तो सर्वोच्च न्यायालय के न्यायधीशों तक पर रिश्वतखोरी में लिप्त होने के आरोप सामने आ चुके हैं। ऐसे में अगर कोई किसी अदालत के निर्णय के आधार पर किसी मामले के बारे में अपनी राय बनाता है तो उसे हद दर्जे का भोला व्यक्ति कहा जायेगा या परले दर्जे का मूर्ख।

2जी घोटाले के मामले में न्यायधीश ओ. पी. सैनी ने सीबीआई को मुक़दमे को सही तरीक़े से नहीं पढ़ने और कोई ठोस सबूत न पेश करने के लिए जि़म्मेदार ठहराया है। न्यायधीश ने यह भी कहा कि जो सीबीआई मुक़दमे की शुरुआत में काफ़ी उत्साह से सबूत पेश करता नज़र आया और वो केस के बीच में दिशाहीन दिखायी पड़ने लगा। यहाँ तक कि सीबीआई के निदेशक का असामयिक ट्रांसफ़र और नये निदेशक के आते ही मामले में ढिलाई साफ़ नज़र आयी। अन्त  में सीबीआई के तरफ़ से केस लड़ रहे बड़े अधिकारियों में सामंजस्य एकदम ख़त्म हो गया और यहाँ तक कि वो लोग किसी भी शासकीय काग़ज़ पर साइन करने से कतराते हुए भी दिखायी पड़े। जज ओ. पी. सैनी का यह कथन अभियोजन पक्ष के बारे में काफ़ी कुछ बतलाता है।

मोदी सरकार के 2014 में सत्ता पर आने के बाद आनन्द ग्रोवर को विशेष लोक अभियोजक के रूप में लाया गया और उसके बाद से मामला और कमज़ोर पड़ता चला गया। ज़ाहिर सी बात है कि चुनाव में इस मुद्दे से जो फ़ायदा मिलना था, वो मोदी व भाजपा को मिल चुका था और इस मामले में जिन लोगों पर आरोप लगे थे, वो बड़े पूँजीपति हैं। जहाँ एक तरफ़ इसमें धन्ना सेठ अनिल अम्बानी की कम्पनी और उसके तीन शीर्ष के अधिकारी शामिल थे तो दूसरी तरफ़ धनपशु रूइआ परिवार के दो सदस्य। क्या आज कोई भी सरकार इनको जेल भिजवा सकती है? मोदी तो इन सभी उद्योगपतियों को अपने साथ में विमान में लेकर घूमते हैं। ये वही अनिल अम्बानी है जिस पर बैंकों के लाखों करोड़ रुपये का क़र्ज़ बक़ाया है और फिर भी उसे मोदी के राज में राफ़ेल विमान का बड़ा सौदा मिल जाता है। रूइआ को जब 2जी मामले में ही अदालत ने देश के बाहर जाने से रोक दिया तो प्रधानमन्त्री कार्यालय से अदालत को पत्र भिजवाया गया जिससे रूइआ मोदी के साथ रूस की यात्रा पर जा सके और रोसनेफ्ट के साथ व्यापारिक क़रार कर सके। उद्योगपतियों और राजनीति में शीर्ष पर बैठे लोगों के बीच जब ऐसे गँठजोड़ दिखायी पड़ते हैं तो आश्चर्य नहीं होता कि सीबीआई ने केस में ढिलाई क्यों की। यही नहीं, तमिलनाडु की राजनीति में भाजपा को पैर ज़माने की इच्छा के चलते पिछले महीने ही मोदी का द्रमुक सुप्रीमो करूणानिधि से मिलना भी यही संकेत देता है कि मौजूदा परिस्थितियों में मोदी के लिए यही सबसे हितकारी था कि ए राजा और कनिमोड़ी भी बरी हो जायें।

2जी स्पेक्ट्रम घोटाले पर मज़दूर वर्ग का दृष्टिकोण

मज़दूर वर्ग के दृष्टिकोण से देखा जाये तो जिसे 2जी स्पेक्ट्रम घोटाला कहा गया वो दरअसल इस मामले में हुई कुल लूट का एक बेहद छोटा-सा हिस्सा था। इस घोटाले पर मीडिया में ज़ोरशोर से लिखने वाले तमाम प्रगतिशील रुझान वाले पत्रकार और बुद्धिजीवी भी कभी यह सवाल नहीं उठाते कि आख़िर इलेक्ट्रोमैगनेटिक स्पेक्ट्रम जैसे प्राकृतिक संसाधन, जो जनता की सामूहिक सम्पदा है, को किसी भी क़ीमत पर पूँजीपतियों के हवाले क्यों किया जाना चाहिए! जिन लोगों को दिक़्क़त सिर्फ़़ इस बात से है कि स्पेक्ट्रम के आवण्टन की प्रक्रिया पारदर्शी नहीं थी, उनसे पूछा जाना चाहिए कि अगर यह प्रक्रिया पारदर्शी होती और उससे सरकारी राजस्व  में 1 लाख 76 हज़ार करोड़ रुपये अतिरिक्त आ भी जाते तो उस परिस्थिति में क्या इसे लूट नहीं कहा जाना चाहिए? हमारे दृष्टिकोण से नदियाँ, पहाड़, कोयला, खनिज और स्पेक्ट्रम जैसे प्राकृतिक संसाधनों का कोई मोल नहीं लगाया जा सकता है और उन्हें चाहे जिस भी प्रक्रिया के तहत पूँजीपतियों के हवाले किया जाये, उसे लूट ही कहा जाना चाहिए। परन्तु पूँजीवाद के तहत यह लूट बिल्कुल न्यायसंगत और संविधानसंगत है। पूँजीवाद के पैरोकारों को दिक़्क़त सिर्फ़़ इस बात से है कि इस लूट में सभी लुटेरों को बराबर का मौक़ा नहीं देकर कुछेक लुटेरों को तरजीह दी गयी। ऐसे लोग एक सन्त पूँजीवाद की कल्पना करते हैं जिसमें लूट की प्रक्रिया में पूरी ईमानदारी बरती जायेगी। ये बात दीगर है कि ऐसे पूँजीवाद का अस्तित्व उनकी कल्पनाओं के अलावा और कहीं नहीं है। लेकिन हमें दिक़्क़त केवल लूट की अपारदर्शी प्रक्रिया से नहीं बल्कि लूट-खसोट पर टिकी इस समूची पूँजीवादी प्रणाली से है जिसमें जनता की सामूहिक सम्पदा को मुट्ठी-भर पूँजीपतियों के हवाले किया जा रहा है। लेकिन त्रासदी यह है कि इस व्यवस्था में सरकार किसी भी पार्टी की बने, नदियों, जंगलों, पहाड़ों, खनिजों और स्पेक्ट्रम की यह बेहिसाब लूट बदस्तूर जारी है लेकिन इसे घोटाले का नाम नहीं दिया जा रहा है क्योंकि यह लूट पारदर्शी तरीक़े से हो रही है। ऐसे में न्याय तभी मिल सकता है जब जनता की सम्पत्ति लूटने वालों की सम्पत्ति का हरण करके उसे वापस जनता के हवाले कर दिया जाये। ज़ाहिर है कि इस ऐतिहासिक न्याय के लिए हमें किसी अदालत पर नहीं बल्कि प्रचण्ड जनक्रान्ति के वेगवाही तूफ़ान पर भरोसा करना होगा।

मज़दूर बिगुल, जनवरी 2018

 


 

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