‘प्रोस्तोर’ – मज़दूरों के जीवन पर आधारित एक लघु उपन्यास के अंश

एम.एम. चन्द्रा

देश की आबादी का लगभग एक तिहाई हिस्सा आज औद्योगिक मज़दूर बन चुका है और उसकी संख्या लगातार बढ़ रही है। लेकिन इस विशाल आबादी का चित्रण हमारे साहित्य से लगभग ग़ायब है। ज़्यादातर लेखक इन मज़दूरों की दुनिया से ही अनजान हैं, तो वे भला लिखें कैसे? हर नगर और महानगर में या उसके पास औद्योगिक केन्द्र और मज़दूरों की बस्तियाँ हैं लेकिन वहाँ कोई लेखक जाता नहीं। ऐसे परिदृश्य में युवा लेखक एम.एम. चन्द्रा का लघु उपन्यास ‘प्रोस्तोर’ (विस्तार) अपनी ओर ध्यान खींचता है। दिल्ली के पास के एक क़स्बे में स्थित एक विशाल सरकारी धागामिल, उसके मज़दूरों और उनके नौजवान हो रहे बच्चों के माध्यम से यह उस दौर का एक रेखाचित्र प्रस्तुत करता है जब एक ओर उदारीकरण-निजीकरण की नीतियों के लागू होने के साथ सरकारी कारख़ानों की बन्दी, छँटनी आदि का सिलसिला तेज़ हो रहा था, जगह-जगह मज़दूरों के आन्दोलन उठ रहे थे, दूसरी ओर राम मन्दिर आन्दोलन को हवा दी जा रही थी। मज़दूर आन्दोलन के बिखरने और जनता की एकता को तोड़ने की कोशिशों की झलक भी इसमें देखी जा सकती है। हालाँकि उपन्यास का कलेवर छोटा है और कई बातों को थोड़े सरलीकृत ढंग से प्रस्तुत करता है लेकिन उन दिनों की एक तस्वीर हमारे सामने उकेरने में यह सफल है। ‘डायमंड बुक्स’ से प्रकाशित इस लघु उपन्यास का एक अंश हम यहाँ मज़दूर बिगुल के पाठकों के लिए आभार सहित प्रस्तुत कर रहे हैं। — सम्पादक

गाँव के लोग भी किसी न किसी बहाने धागामिल के गेट पर घण्टों वक़्त बिताकर मिल चलने की आशा भरी बातों को अपने साथ ले जाते। यह पहली बार नहीं हुआ था जब यह धागामिल बन्द हुई है। इससे पहले भी कई बार बन्द हो चुकी थी। कुछ दिन बाद फिर से चलने लगती थी। फिर से जि़न्दगी सरपट दौड़ने लगती थी।
लेकिन इस बार मिल ज़्यादा ही दिन बन्द हो गयी। इसी समय राम जन्मभूमि का मुद्दा भी उठने लगा था। अघोघ सिंह घर-घर पर्चे बाँटने और एक-एक रोटी जुटाने का काम करता था। वह ज़ोर-ज़ोर से नारा भी लगाता था, ”मन्दिर वहीं बनायेंगे।” उसे याद नहीं कि उसने ऐसा क्यों किया? जबकि दूसरी तरफ़ मिल के मज़दूर मिल चलाने के लिए धरने पर बैठे हुए थे।
यह पहली बार देखा गया कि हड़ताल भी नहीं हुई और मिल बन्द हो चुकी है। मिल मज़दूरों की कोई ग़लती भी नहीं थी, न ही मिल मालिक और मज़दूरों में वेतन को लेकर झगड़ा हुआ था। मज़दूर अच्छी तरह से जानते हैं। हर साल कुछ-न-कुछ बढ़ता ही है चाहे 100 रुपये ही क्यों न बढ़ें। फिर सरकारी जैसी नौकरी है। फ़ण्ड, बोनस, रहना, सब मिलता है… इससे अच्छी जगह पर नौकरी नहीं मिल सकती। इसलिए कभी भी मिल और मज़दूरों में विवाद भी नहीं हुआ।
लम्बे समय तक मिल बन्द होने के कारण क़स्बे में पहली बार ऐसा हो रहा था, हड़ताल करने वाले मज़दूरों की संख्या लगातार कम हो रही थी। रंग-बिरंगे झण्डों की संख्या बढ़ रही थी। पहले एक झण्डा मज़दूरों की आवाज़ होती थी। अब न जाने कितने रंगों के झण्डों के नीचे मज़दूर बिखरकर एकता का गीत गाने लगे।
रोज़ी-रोटी के मुद्दे को छोड़कर मन्दिर-मस्जिद का मुद्दा ज़्यादा बड़ा बन गया था। दो तरह के समानान्तर आन्दोलन यहाँ साफ़ दिखायी दे रहे थे, मज़दूर आन्दोलन और राम मन्दिर आन्दोलन। अख़बार में जो ख़बरें आ रही थीं, उनमें भी मन्दिर आन्दोलन की ख़बरें ज़्यादा थीं। इस क़स्बे में होने वाली मन्दिर आन्दोलन रैली की भी कई बार फ़ोटो सहित ख़बर आयी। लेकिन सैकड़ों गाँवों को आर्थिक-सामाजिक सुख देने वाली धागा मिल और मज़दूर ख़बरों से नदारद था।
अघोघ के पिताजी 23 वर्ष इसी कम्पनी में काम कर चुके थे। उन्हें बस इस बात का दुख है कि इस उम्र में कोई दूसरा काम कर नहीं सकते। फेफड़े खराब हो चुके हैं। यह अकेले अघोघ के पिता की कहानी नहीं है, बल्कि प्रत्येक मज़दूर की कहानी है। क्योंकि इस मिल के लगभग सभी मज़दूर काम करते समय न जाने किस रुई के महीन कण रोज़ जो निगलते थे।
मास्टर रतन सिंह मज़दूर आन्दोलन से प्रत्यक्ष-अप्रत्यक्ष रूप से जुड़ा हुआ था। मज़दूरों का पलायन रुकने का नाम नहीं ले रहा था। तब उन्होंने तय किया मज़दूरों के साथ मिलकर कुछ-न-कुछ करना चाहिए। इस कठिन समय में मास्टर जी अघोघ के घर आये।
”मैं एक सरकारी नौकर हूँ। सरकार की खाता हूँ, कभी भी सरकार के खि़लाफ़ आवाज़ नहीं उठा सकता। लेकिन तुम अपने दोस्तों और पिता को साथ लेकर एक काम ज़रूर कर सकते हो।”
”क्या‍ उस काम का पैसा मिलेगा?” अघोघ ने कहा।
”नहीं! लेकिन यदि हम लोग सफल हो गये तो सबका फ़ायदा होगा।” रतन सिंह ने कहा।
”लेकिन मास्टर जी काम क्या है?” अघोघ के पिता बोले।
”मैं कल आऊँगा। आप अपने जानने वाले मज़दूरों को और तुम अघोघ… अपने दोस्तों को लेकर आना… फिर हम सब मिलकर धागा मिल को चलवाने का तरीक़ा निकालेंगे।” रतन सिंह ने अपनी योजना बतायी।
”जब सरकार ही नहीं चलाना चाहती तो आप और हम क्या कर सकते हैं? यह निर्णय सरकार ने लिया है। लड़ाई तो सरकार से ही लड़नी पड़ेगी।” अघोघ सिंह ने कहा।
”हाँ! तुम्हारी बात ठीक है लेकिन सरकार तो बदल जाती है। फिर तुम्हारी बर्बादी का जिम्मे़दार कौन हुआ? क्या उसकी पहचान हमें है? हमारे पास ज़्यादा समय नहीं है। कल शाम छ: बजे फिर आऊँगा, यदि आप लोगों के पास समय हो तो मिल लेना।”
अघोघ के पिताजी ने अपने साथ के 20 लोगों को बुलावा भेजा लेकिन सभी कहीं-न-कहीं मज़दूरी करने गये हुए थे। यदि काम न करें तो भूखों मरने से कोई नहीं रोक सकता था। ख़ैर इतना सब होने पर भी ठीक समय पर अघोघ के पिता सहित सात लोग और अघोघ सहित उसके कुछ दोस्त विपिन, बण्टी, भुवन, राजीव, अल्ताफ, बॉबी, बिल्लू , जितेन्द्र और योगेश भी पहुँच गये।
मास्टर रतन सिंह ने अपना बैग खोला और कुछ पर्चे उसमें से निकालकर उलटने-पलटने लगे। फिर कुछ समय बाद उन्होंने अपना चश्मा लगाया और बोले, ”मैं जो बात कह रहा हूँ, उसे ग़ौर से सुनना। यदि कोई बात समझ में न आये तो बीच में ही पूछ लेना। यह धागा मिल अब पूरी तरह से बन्द होने जा रही है। इस धागा मिल को पिछले कई सालों में कई पूँजीपतियों ने ख़रीदा लेकिन सब अपने हाथ खड़े करके चलते बने। सरकार की भी कोई इच्छा नहीं है कि इस धागा मिल को चलाये। कारण साफ़ है… भारत सरकार ने अभी कुछ दिन पहले विदेशी कम्पनियों के साथ समझौता किया है। विदेशी वस्तुओं से आयात-निर्यात कर हटा दिया गया है। उस कर के हटते ही विदेशी धागा भी सस्ते दामों पर भारत में आने लगा है। सरकार भी विश्व बाज़ार के मुताबिक़ काम कर रही है। अपने मज़दूरों के लिए उनके पास कोई योजना नहीं है।”
अघोघ सिंह ने सवाल किया, ”क्या फिर अब कुछ नहीं हो सकता है?”
”हो सकता है! मज़दूर अपनी लड़ाई ख़ुद लड़ रहा है। मज़दूरों के साथ यहाँ के स्थानीय लोग किसान भी नहीं हैं। सबको इस लड़ाई में शामिल करना पड़ेगा।”
”लेकिन किसान मज़दूरों के साथ क्यों लड़ेगा?”
”दोनों ही मेहनतकश वर्ग हैं। दोनों को ही लूटकर कुछ परजीवी अपनी सत्ता को अनन्तकाल तक जीवित रखना चाहते हैं। हम दोनों को आवाहन करने और अपने साथ लड़ने के लिए तैयार करना है। आप लोग आसपास के गाँव में जाकर लोगों से आवाहन करो कि वो भी आपकी लड़ाई में साथ दें और मैं यहाँ मज़दूरों और पढ़े-लिखे लोगों तक अपनी बात पहुँचाता हूँ।” मास्टर जी ने अपनी पूरी योजना बतायी।
”हम अपनी बात लोगों को कैसे समझायेंगे।” अघोघ ने परेशान होते हुए कहा।
”मैं एक परचा लिखकर लाया हूँ। इसको सभी तक पहुँचाना है। लोगों को एक निश्चित तारीख़ को धागा मिल के गेट नं. 1 पर एकत्रित करना है। तब जाकर शायद कोई बात बन सके।” मास्टर रतन सिंह ने अपनी पूरी रूपरेखा प्रस्तुत की।
”ठीक है! हम तैयार हैं।” अघोघ के पिता ने कहा।
”किन्तु हम तैयार नहीं हैं। यदि हम पर्चा बाँटेंगे तो कल का खाना कहाँ से जुटायेंगे।” विपिन के पिता ने कहा।
”भाई! जब मिल चल जायेगी तो सबको भरपेट भोजन तो मिल ही जायेगा, वरना हम सब भूखे ही मर जायेंगे।” अघोघ के पिता ने कहा।
”ठीक है! हम कोशिश करेंगे।” विपिन के पिता बोले।
अघोघ और उसके मित्रों ने कई दिन साइकिल पर और पैदल चलकर पर्चे बाँटने का काम किया। कुछ जगह सकारात्मक रुख़ भी नज़र आया लेकिन अन्दाज़ लगाना मुश्किल था कि कितने लोग समर्थन में आयेंगे। धीरे-धीरे पर्चा बाँटने के काम में लोग कम होने लगे। सबको एक ही चिन्ता चिता के समान खा रही थी, दाना-पानी का जुगाड़ कैसे हो? ख़ैर, वह दिन भी आ गया जब लोग इकट्ठा हुए। बहुत-सी पार्टियों के नेता, किसान संगठन भी शामिल हुए। मिल को चलवाने के लिए बारी-बारी से धरने पर बैठने के दिन तय कर दिये गये। देखते-ही-देखते महीनों बीत गये लेकिन सरकार तो क्या किसी के सर पर जूँ तक न रेंगी।
लेकिन अयोध्या आन्दोलन के लिए बसें भर-भर कर जा रही थीं। जि़ला कलेक्ट्रेट तक मज़दूरों को ले जाने के लिए कोई वाहन तक नसीब नहीं हुआ। सभी मज़दूर अपने-अपने किराये से पहुँचे और कुछ लोग तो पैदल या साइकिल तक से भी गये थे। लेकिन कहीं भी कोई सुनवाई नहीं हुई। क्या केन्द्र की सरकार, क्या राज्य की सरकार, सभी तक मिल चालू करवाने का सन्देश पहुँचाया गया। दूसरे राज्य के नेता भी धरना स्थल तक आये, भाषण और आश्वासन दिया, फ़ोटो खिंचवाया। न्यूज़ में ख़बर देकर चलते बने। किसानों के सबसे बड़े नेता को भी बुलाया गया लेकिन किसान भी मज़दूर के साथ नहीं आ सके।
जैसे-जैसे मन्दिर आन्दोलन परवान चढ़ रहा था, वैसे-वैसे मज़दूर आन्दोलन दम तोड़ रहा था। मज़दूरों ने भी इधर-उधर जीवन चलाने के लिए काम-धन्धा ढूँढ़ना शुरू कर दिया।
किसी को भी कोई रास्ता नज़र नहीं आ रहा था, उस कठिन समय में अघोघ को यह समझ नहीं आ रहा था कि मज़दूर आन्दोलन कमज़ोर क्यों हो रहा है। जिस मन्दिर से पूरे क़स्बे के लोगों को कुछ भी लेना-देना नहीं है, वह यहाँ के दिलो-दिमाग़ तक घर बना चुका है। अघोघ और उसके दोस्त इस विषय को समझने के लिए मास्टर रतन सिंह के साथ एक बैठक करते हैं।
मास्टर जी ने कहा, ”मन्दिर मस्जिद का मुद्दा इसीलिए जानबूझकर छेड़ा गया है, ताकि जनता के मूलभूत मुद्दों और लड़ाई से लोगों का ध्यान हटाया जा सके। नयी आर्थिक नीतियों के कारण उजड़ रहे मज़दूरों के साथ किसान नहीं जुड़ रहे हैं। किसान इसलिए आपके साथ नहीं हैं क्योंकि सीधे तौर पर अभी उनको कोई नुक़सान नहीं हुआ है। जिस दिन वे भी इन नीतियों के शिकार होंगे, तब वे भी सड़क पर आयेंगे। लेकिन तब तक शायद बहुत देर हो चुकी होगी।”
अघोघ सिंह को अभी तक यह समझ नहीं आ रहा था कि इस तरफ़ किसी का ध्यान क्यों नहीं जा रहा है जबकि इस मिल से सबकी रोज़ी-रोटी जुड़ी है। फिर क्यों एक साथ मिलकर लड़ा नहीं जा रहा। इस विषय में क्यों नहीं सोचा जा रहा? क्यों न मिलकर मोर्चो निकाला जाये।
”मुझे लगता है मास्टर जी ठीक ही कह रहे हैं। किसी का इस तरफ़ ध्यान न जाये इसलिए भगवान का जाप एक प्रायोजित आयोजन जैसा नज़र आने लगा था। धीरे-धीरे मानने लगे थे कि मास्टर रतन सिंह पागल नहीं हैं, वे सही हैं।” अघोघ बोला।
माहौल ऐसा बनता जा रहा था कि कुछ लोग कहने भी लगे, भगवान का नाम लो, एक वक़्त पानी पीकर अपना गुज़ारा करो, भगवान सब ठीक कर देंगे।
मज़दूर मिल के गेट पर धरने पर जाने लगे तो दूसरी तरफ़ जवान होने जा रही युवा पीढ़ी मन्दिर बनाने के अभियान में सुबह-शाम उन गलियों में चक्कर लगा रही थी, जहाँ खाना खाने तक के लिए अनाज का एक दाना भी नसीब नहीं था।
अब धीरे-धीरे अघोघ को सारी कहानी याद आने लगी थी। मन्दिर आन्दोलन एक दिन में सम्भव नहीं हुआ। परचून वाले लाला जी का लड़का सुरेश अघोघ के दोस्तों में से एक था। वही अघोघ सिंह सहित कस्बे के बच्चों को सुबह-शाम शाखा में बुलाने का काम करता था। उसी सुरेश के कारण भाई से पहली बार झगड़ा हुआ था। तब बड़े भाई ने बहुत समझाया था कि तुम शाखा जाना छोड़ दो, अपने काम-धाम पढ़ाई-लिखाई पर ध्यान दो; उस समय अघोघ ने उनकी एक बात भी नहीं सुनी और उनको खरी-खरी सुना दी, ”मैं शाखा इसलिए जाता हूँ ताकि हमारे हिन्दू भाई हमारे साथ रहें, हिन्दू धर्म को बचाया जा सके।” उस समय बड़े भाई के पास भी कोई ज़्याादा विकल्प नहीं थे। उन्होंने एक विकल्प सुझाया –
”अगर तुम्हें ज्वॉइन ही करना है तो दशरथ दल को ज्वॉइन करो। कम-से-कम तलवार और त्रिशूल तो मिलेंगे जिससे तुम अपनी सुरक्षा कर सकते हो।”
दिलो-दिमाग़ को पता भी नहीं चला कि दोनों भाई कैसी-कैसी बातें करने लगे थे। यह भी पता नहीं चला कब अघोघ हिन्दू-मुसलमान की बातें करने लगा था, जबकि दोनों के सबसे ज़्यादा दोस्त तो मुस्लिम ही थे। माता-पिता के सबसे नज़दीकी दोस्त भी मुस्लिम ही थे… जब पक्की कालोनी वाले विजय की वजह से बड़े भाई को पीटने आये थे तो राही साहब की वजह से ही बड़ा भाई बच पाया था। गुलशन चाचा तो आज भी हमारे साथ खाना खाते हैं। शमीम चाचा के यहां ही तो अघोघ ने मछली खाना सीखा था। पूरा परिवार आस्तिक था लेकिन माँ-बाप कुछ नहीं कहते थे… उनका बस इतना कहना था कि बच्चे हैं जब बड़े होंगे तो अपने आप खाना छोड़ देंगे।
यह सब क्या हो रहा था, कुछ समझ नहीं आ रहा था। यह सब सिर्फ़ अघोघ ही महसूस नहीं कर रहा था, एक पूरी पीढ़ी के दिलो-दिमा़ग धीरे-धीरे बदलने लगे थे।
कितना तकलीफ़देह है यह सब सोचना… अघोघ को यह सब सोचना किसी ज़ख़्म को कुरेदने से कम नहीं नज़र आ रहा। उस दिन की घटना के बाद दोनों भाई आपस में कभी बात नहीं कर पाये। जीवन की आपाधापी के कारण दोनों भाइयों की धाराएँ बदल गयी थीं। अब सब समझ में आ रहा था। मिल में काम करने वाले सभी मज़दूर थे लेकिन कब हिन्दू-मुस्लिम या जातियों में बँट गये पता भी नहीं चला।
अब महसूस हो रहा है कि रोज़ी-रोटी से बड़ा मुद्दा मन्दिर को बनाने के लिए न जाने कितनी नियोजित तैयारी की गयी है। शायद इस बात का लोग अन्दाज़ा कभी नहीं लगा सकेंगे। और हम बिना तैयारी के मज़दूर आन्दोलन को सफल बनाने की नाकाम कोशिश कर रहे थे। ये तो भला हो मास्टर रतन सिंह का जिनकी वजह से हम जैसे युवा बालक धार्मिक कट्टरता से बच गये, वरना आज हमारे सभी दोस्त मज़दूर आन्दोलन का झण्डा उठाने की जगह मन्दिर आन्दोलन का झण्डा उठाते।
ख़ैर मज़दूरों ने लम्बी लड़ाई लड़ी और मिल फिर से चालू हो गयी। सभी को लगा कि शायद यह हमारे आन्दोलन की वजह से चालू हुई है, लेकिन कारण एक था फिर से निजी हाथों में धागा मिल को सौंपना। यहाँ यह बात स्पष्ट‍ समझ में आ गयी कि दुनिया का सबसे बड़ा संगठन होने का दावा करने वाले लोग मन्दिर आन्दोलन तो चला सकते हैं। लेकिन मज़दूरों की जि़न्दगी से उनका कोई लेना-देना नहीं। यहीं से अघोघ के जीवन में एक नया विचार का जन्म लेना शुरू कर देता है।
अब यह मिल बड़े सेठ के पास जा चुकी थी। नये-नये बहाने बनाकर, बूढ़े, अपाहिज और बीमार मज़दूरों को निकाला जाने लगा। इस प्रक्रिया को अफ़सर लोग छँटनी कह रहे थे।
मिल मालिक ने पहली बार धागा मिल के मज़दूरों की मेडिकल जाँच करायी। उसी रिपोर्ट में पता चला कि न सिर्फ़ मिल में काम करने वाले मज़दूर खाँसी, फेफड़े की बीमारी और दमे की चपेट में हैं, बल्कि उस मिल की ज़द में आने वाला प्रत्येक नागरिक दमे जैसी बीमारी का शिकार है। अघोघ और उसके मित्रों को पहली बार पता चला था कि मज़दूरों को खाने के लिए गुड़ क्यों दिया जाता था। सोलह बरस के बाद पता चला कि रूई का महीन से महीन कचरा भी गुड़ खाने से अन्दर चला जाता है।
नये मालिक ने बहुत लोगों को निकाल भी दिया, लेकिन वह छह महीने से ज़्यादा मिल नहीं चला सका और फिर धागा मिल बन्द कर दी। मिल बन्द होने से पहले किसी पार्टी का झण्डा मज़दूरों के बीच नहीं दिखायी देता था, किन्तु मिल बन्द होते ही लाल रंग का झण्डा हमेशा मज़दूरों की मीटिंग में दिखायी देने लगा। नीले-पीले-हरे झण्डों की संख्या धीरे-धीरे बढ़ने लगी। लाल झण्डों की संख्या धीरे-धीरे कम होने लगी। मिल मालिक ने मज़दूर यूनियनों के कुछ नेताओं को ख़रीद लिया, उनका आपस में झगड़ा करा दिया। धागा मिल समर्थक यूनियन आपस में भिड़ गये। उस झगड़े में अघोघ सिंह के पिता के पैर में लोहे का सरिया घुस गया।
अघोघ के पिता ने किसी की भी शिकायत पुलिस या यूनियन में नहीं की। बस इतना ही कहा, ”हम सभी मज़दूर हैं। एक-दूसरे को समझ पाने और न समझा पाने में नाकाम रहे।”
यह बात भी फैल चुकी थी कि मज़दूर आपस में झगड़े नहीं थे, बल्कि मिल मालिकों ने उन्हें आपस में लड़वाया ताकि मज़दूरों की एकता ख़त्म हो। जब झगड़ा हो गया तो मिल मालिक को भी धागा मिल बन्द करने का मौक़ा मिल गया। और बदनाम हो गया मज़दूर आन्दो‍लन!
स्थानीय लोग समझते थे कि मज़दूर यूनियन की वजह से मिल बन्द हुई है। लेकिन मास्टर रतन सिंह लोगों को दिन-रात समझाने में लगे रहे कि यूनियन की वजह से मिल बन्द नहीं हो रही है! और सिर्फ़ यही मिल बन्द हो रही है, बल्कि पूरे देश में कपड़ा मिलें और धागा मिलें बन्द हो रही हैं। यह सरकार की नीतियों के कारण बन्द हो रही हैं, लोक कल्याणकारी नीतियों से पीछे हटने के कारण बन्द हो रही हैं। कुछ पूँजीपति घरानों को फ़ायदा पहुँचाने के लिए बन्द हो रही हैं।


 

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