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‘प्रोस्तोर’ – मज़दूरों के जीवन पर आधारित एक लघु उपन्यास के अंश

लम्बे समय तक मिल बन्द होने के कारण क़स्बे में पहली बार ऐसा हो रहा था, हड़ताल करने वाले मज़दूरों की संख्या लगातार कम हो रही थी। रंग-बिरंगे झण्डों की संख्या बढ़ रही थी। पहले एक झण्डा मज़दूरों की आवाज़ होती थी। अब न जाने कितने रंगों के झण्डों के नीचे मज़दूर बिखरकर एकता का गीत गाने लगे।

“महान अमेरिकी जनतन्‍त्र” के “निष्पक्ष चुनाव” की असली तस्वीर

इस तरह यूर्गिस को शिकागो की जरायम की दुनिया के ऊँचे तबकों की एक झलक मिली। इस शहर पर नाम के लिए जनता का शासन था, लेकिन इसके असली मालिक पूँजीपतियों का एक अल्पतन्त्र था। और सत्ता के इस हस्तान्तरण को जारी रखने के लिए अपराधियों की एक लम्बी-चौड़ी फ़ौज की ज़रूरत पड़ती थी। साल में दो बार, बसन्त और पतझड़ के समय होने वाले चुनावों में पूँजीपति लाखों डॉलर मुहैया कराते थे, जिन्हें यह फ़ौज ख़र्च करती थी – मीटिंगें आयोजित की जाती थीं और कुशल वक्ता भाड़े पर बुलाये जाते थे, बैण्ड बजते थे और आतिशबाजियाँ होती थीं, टनों पर्चे और हज़ारों लीटर शराब बाँटी जाती थी। और दसियों हज़ार वोट पैसे देकर ख़रीदे जाते थे और ज़ाहिर है अपराधियों की इस फ़ौज को साल भर टिकाये रहना पड़ता था। नेताओं और संगठनकर्ताओं का ख़र्चा पूँजीपतियों से सीधे मिलने वाले पैसे से चलता था – पार्षदों और विधायकों का रिश्वत के ज़रिये, पार्टी पदाधिकारियों का चुनाव-प्रचार के फ़ण्ड से, वकीलों का तनख़्वाह से, ठेकेदारों का ठेकों से, यूनियन नेताओं का चन्दे से और अख़बार मालिकों और सम्पादकों का विज्ञापनों से। लेकिन इस फ़ौज के आम सिपाहियों को या तो शहर के तमाम विभागों में घुसाया जाता था या फिर उन्हें सीधे शहरी आबादी से ही अपना ख़र्चा-पानी निकालना पड़ता था। इन लोगों को पुलिस महकमे, दमकल और जलकल के महकमे और शहर के तमाम दूसरे महकमों में चपरासी से लेकर महकमे के हेड तक के किसी भी पद पर भर्ती किया जा सकता था। और बाक़ी बचा जो हुजूम इनमें जगह नहीं पा सकता था, उसके लिए जरायम की दुनिया मौजूद थी, जहाँ उन्हें ठगने, लूटने, धोखा देने और लोगों को अपना शिकार बनाने का लाइसेंस मिला हुआ था।

उपन्‍यास अंश – एक सपने का गणित /जैक लण्डन

मैंने पेशेवेर लोगों और कलाकारों को कृषिदास कहा। और क्या हैं वे? प्रोफेसर, पादरी, संपादक धनिकतंत्र के ही मुलाजिम हैं, उनका काम है वैसे ही विचारों का प्रचार जो धनिकतंत्र के विरूद्ध न हों और धनिकतंत्र की प्रशंसा में हों। जब भी वे धनिकतंत्र के विरोधी विचारों का प्रचार करते हैं उन्हें सेवामुक्त कर दिया जाता है और अगर उन्होंने संकट के दिनों के लिए कुछ बचाकर नहीं रखा है तो उनका सर्वहाराकरण हो जाता है। वे या तो नष्ट हो जाते हैं या मजदूरों के बीच आन्दोलनकर्ता की तरह काम करने लगते हैं। यह न भूलें कि प्रेस, चर्च और विश्वविद्यालय ही जनमत को गढ़ते हैं, देश की प्रक्रिया को दिशा देते हैं। जहां तक कलाकारों का सवाल है वे धनतंत्र की रुचियों की तुष्टि में खपते हैं।

उम्मीद है, आएगा वह दिन (उपन्यास अंश)

इसके पहले के किसी भी उपन्यास में किसी औद्योगिक संघर्ष का इतना विस्तृत और प्रामाणिक चित्रण नहीं मिलता । यहाँ तक कि बीसवीं शताब्दी में भी ऐसे गिने–चुने उपन्यास ही देखने को मिलते हैं जो इस मायने में ‘उम्मीद है, आएगा वह दिन’ के आसपास ठहरते हों ।

‘हम भ्रम की चादर फैलाते हैं…’ – ‘आदिविद्रोही’ उपन्‍यास का एक अंश

उपन्यास के इस प्रसंग में सिसेरो और ग्रैकस नामक दो रोमनों की बातचीत है । ये दोनों गुलामों पर टिके रोमन साम्राज्य की सत्ता के दो स्तम्भ थे । सिसेरो दास व्यवस्था का समर्थन करने वाला विचारक और प्रखर वक्ता था और ग्रैकस एक घाघ राजनीतिज्ञ । यहाँ ग्रैकस शासक वर्गाें के राजनेताओं की बेहयाई भरी स्पष्टवादिता के साथ बताता है कि लूट, शोषण और दासता पर आधारित समाज व्यवस्था के चलते रहने के लिये उस जैसे फरेबी राजनीतिज्ञों की भूमिका कितनी जरूरी होती है । शासक वर्गों के राजनीतिज्ञों की जो भूमिका हजारों साल पहले दास समाज में थी, आज के पूँजीवादी समाज में भी वही है–यानी, आम जनता को भरमाए रखना ताकि वह अन्याय और अत्याचार के खिलाफ न उठ खड़ी हो और अपने ही शोषकों का काम आसान करती रहे ।

गोर्की के उपन्‍यास ‘माँ’ का एक अंश : एक समाजवादी का अदालत में बयान

“हम समाजवादी हैं। इसका मतलब है कि हम निजी सम्पत्ति के ख़िलाफ हैं” निजी सम्पत्ति की पद्धति समाज को छिन्न–भिन्न कर देती है, लोगों को एक–दूसरे का दुश्मन बना देती है, लोगों के परस्पर हितों में एक ऐसा द्वेष पैदा कर देती है जिसे मिटाया नहीं जा सकता, इस द्वेष को छुपाने या न्याय–संगत ठहराने के लिए वह झूठ का सहारा लेती है और झूठ, मक्कारी और घृणा से हर आदमी की आत्मा को दूषित कर देती है।