बरगदवा, गोरखपुर का मज़दूर आन्दोलन
कुछ ज़रूरी सबक़, कुछ कठिन चुनौतियाँ

गोरखपुर के बरगदवा इलाक़े के कारख़ाना मज़दूरों का जुझारू संघर्ष पिछले तीन वर्ष से चर्चा में रहा है। पूर्वी उत्तर प्रदेश के एक पिछड़े इलाक़े में उद्योगपतियों, प्रशासन और राजनेताओं की सम्मिलित ताक़त का अपनी एकजुटता के दम पर मुक़ाबला करते हुए मज़दूरों ने कई सफलताएँ हासिल कीं। पूर्वी उत्तर प्रदेश के एक बेहद पिछड़े इलाक़े में मज़दूरों के इस सफल संघर्ष ने यह साबित किया कि अगर मज़दूर एकजुट रहें, भ्रष्ट, धान्धेबाज़ ट्रेड यूनियन नेताओं के बहकावे में न आयें और मालिक-पुलिस-प्रशासन-नेताशाही की धमकियों और झाँसों के असर में आये बिना अपनी लड़ाई को सुनियोजित ढंग से लड़ें तो अपने बुनियादी अधिकारों की लड़ाई में छोटी-छोटी जीतें हासिल करते हुए बड़ी लड़ाई में उतरने की तैयारी कर सकते हैं।

मालिक-प्रशासन गँठजोड़ के लगातार जारी षडयन्त्र और हमले

शुरू से ही इस आन्दोलन को मिल-मालिकों, प्रशासन और स्थानीय राजनीतिज्ञों के गँठजोड़ के हमलों और साज़िशों का सामना करना पड़ा है। 2009 में तमाम दमन और कुत्साप्रचार के बावजूद मज़दूरों ने कई बार शानदार जीतें हासिल कीं और इस गँठजोड़ को पीछे हटने और कई माँगों पर राज़ी होने के लिए मजबूर कर दिया। तभी से मालिकान मज़दूरों की एकता को तोड़ने के लिए तरह-तरह के घटिया हथकण्डों को आज़माते रहे हैं। लाखों रुपये ख़र्च करके मज़दूरों के बीच से कुछ भितरघातियों को ख़रीदकर उन्होंने यूनियन और मज़दूर नेताओं के ख़िलाफ़ घटिया क़िस्म का झूठा प्रचार चलाया और यूनियन में तोड़फोड़ की हरचन्द कोशिशें करते रहे। लेकिन वे मज़दूरों की एकजुटता को तोड़ने में नाकाम रहे। मई 2011 में माँगपत्रक आन्दोलन की दिल्ली रैली में बड़ी संख्या में गोरखपुर के मज़दूरों के भाग लेने से मालिकान इस क़दर बौखला गये कि दिल्ली से मज़दूरों के लौटने पर उन्हें सबक़ सिखाने के लिए भाड़े के गुण्डे बुला लिये। 3 मई 2011 की सुबह अंकुर उद्योग के गेट पर इन गुण्डों द्वारा चलायी गयी गोलियों से 19 मज़दूर घायल हो गये जिनमें से एक की हालत अब भी गम्भीर बनी हुई है। इस बर्बर हमले के बाद भी मालिकों और स्थानीय सांसद की शह पर ज़िला प्रशासन ने गोलीकाण्ड के अपराधियों और अंकुर उद्योग के मालिक के ख़िलाफ़ कार्रवाई करने के बजाय मज़दूरों और उनके नेताओं को ही प्रताड़ित करना शुरू कर दिया जिसके विरुद्ध एक बार फिर मज़दूरों ने लम्बा आन्दोलन चलाकर मालिक-प्रशासन गँठजोड़ को पीछे हटने पर मजबूर किया। अंकुर उद्योग के मालिक अशोक जालान के ख़िलाफ़ मुक़दमा दर्ज हुआ और जाँच की कार्रवाई शुरू की गयी।

इसके बाद से ही आन्दोलन को कमज़ोर करने के लिए तरह-तरह के षडयन्त्र जारी हैं। बरगदवा में जिन उद्योगपतियों के कारख़ाने हैं उनमें से ज़्यादातर ने गोरखपुर ज़िले के सहजनवा में गोरखपुर औद्योगिक विकास प्राधिकरण (गीडा) के औद्योगिक इलाक़े में बड़े-बड़े कारख़ाने लगाने की तैयारियाँ कर रखी हैं और वे डरे हुए हैं कि अगर मज़दूरों की इस एकजुटजा और जुझारूपन को कुचला नहीं गया तो गीडा में सभी श्रम क़ानूनों को ताक पर रखकर मज़दूरों को निचोड़ना मुश्‍क़िल हो जायेगा। इसलिए वे पानी की तरह पैसा बहा रहे हैं।

पिछले साल के गोलीकाण्ड में घायल मज़दूर पप्पू जायसवाल और उसकी पत्नी को गुण्डों से लगातार धामकियाँ दी जा रही हैं कि वे मालिकों पर दर्ज मुक़दमे वापस ले लें। मालूम हो कि पप्पू की रीढ़ में गोली लगी थी और वह अब भी काम करने की हालत में नहीं है। उसका सारा खर्च यूनियन ही उठा रही है। पिछले 11 दिसम्बर को अंकुर उद्योग में घुसकर गुण्डों ने राजदेव नाम के मज़दूर के साथ मारपीट की। रिपोर्ट पर पुलिस ने तो कोई कार्रवाई नहीं की लेकिन कम्पनी ने घायल मज़दूर और उसे प्राथमिक उपचार दिलाने तथा रपट लिखाने में मदद करने वाले चार साथियों पर उपद्रव करने का आरोप मढ़कर निलंबन की धमकी भरा पत्र जारी कर दिया। मालिकों की ओर से मज़दूरों में तोड़फोड़ की कार्रवाइयों की अगुवाई कर रहा सुरेन्द्रपति त्रिपाठी नाम का एक दलाल वकील पिछले 31 दिसम्बर को 20-25 गुण्डों के साथ अंकुर उद्योग के गेट पर पहुँचा और मज़दूरों को जबरिया मीटिंग के लिए रोकने लगा। मज़दूरों ने इसका विरोध किया तो वे लोग मारपीट पर उतारू हो गये जिसमें कई मज़दूरों को चोटें आयीं। पुलिस ने वकील की ओर से मज़दूरों पर झूठे मुक़दमे तो दर्ज कर लिये लेकिन मज़दूरों को गालियाँ देकर भगा दिया। बाद में डीआईजी कार्यालय पर प्रदर्शन करने पर मज़दूरों की ओर से भी रिपोर्ट दर्ज हुई लेकिन गुण्डों को गिरफ्तार करने के बजाय उल्टे कई मज़दूरों को ही गिरफ्तार कर लिया गया। संजय दुबे नामक मज़दूर को चिलुआताल थाने में बुरी तरह मारा-पीटा गया और सादे कागज़ पर दस्तख़त करा लिये गये। बाद में उस पर धारा 329 (लूटपाट, अवैधा वसूली) भी लगा दी गयी। दो महीने बाद भी उसकी ज़मानत नहीं हो सकी है। पुलिस की पूरी साँठगाँठ से मज़दूर नेताओं पर फ़र्ज़ी मुक़दमे दर्ज कराये गये और फिर इन्हीं फ़र्ज़ी मुक़दमों के आधार पर बिगुल मज़दूर दस्ता से जुड़े और 2009 से ही आन्दोलन को नेतृत्व दे रहे तपीश मेन्डोला, प्रमोद कुमार, प्रशान्त और अगुवा मज़दूर चन्द्रभूषण पर गुण्डा ऐक्ट लगाकर उन्हें जनवरी 2012 में छह महीने के लिए ज़िलाबदर कर दिया गया। मालिकों को उम्मीद है कि नेतृत्व के अभाव में मज़दूरों में झूठा प्रचार और भ्रम फैलाकर वे अपने मक़सद में कामयाब हो जायेंगे। लेकिन मज़दूर एकजुट हैं और मालिकों की चालों को अच्छी तरह समझ भी रहे हैं।

अब तक के नकारात्मक-सकारात्मक अनुभवों से सीखकर अगले दौर की कठिन चुनौतियों का सामना करने की तैयारी

आन्दोलन में आये इस मोड़ पर ज़रूरी है कि मज़दूर थोड़ा ठहरकर अब तक के नकारात्मक और सकारात्मक अनुभवों का विश्लेषण करें और आगे के लिए ज़रूरी नतीजे निकालकर अगले दौर की लड़ाई की तैयारी में जुट जायें। किसी एक कारख़ाने के संघर्ष में मज़दूर जीतते भी हैं और हारते भी हैं। पूँजीपतियों-मज़दूरों के बीच लम्बी लड़ाई जिन वर्ग-सचेत मज़दूरों और उनके अगुआ दस्तों की आँखों के सामने हर-हमेशा मौजूद रहती है, उनके लिए सबसे ज़रूरी यह होता है कि वे किसी एक कारख़ाने या किसी एक सेक्टर के मज़दूरों के किसी भी आन्दोलन की हार या जीत दोनों से ही ज़रूरी सबक़ निकालें और उससे व्यापक मज़दूर आबादी को परीचित करायें। यदि सही, वस्तुपरक और वैज्ञानिक ढंग से सबक़ निकाले जायें और अपनी कमज़ोरियों की बेलाग-लपेट पड़ताल की जाये तो आज की कठिनाइयों को कल की सफलता में बदला जा सकता है, संघर्ष को व्यापक आधार दिया जा सकता है और उसे पूँजी के विरुद्ध श्रम की दीर्घकालिक लड़ाई की मज़बूत कड़ी बनाया जा सकता है। इसी नज़रिये से हमें बरगदवा के मज़दूर आन्दोलन का विश्लेषण करना चाहिए और उसकी कमियों-कमज़ोरियों की भी पड़ताल करके ज़रूरी निचोड़ और सबक़ निकालने चाहिए। यदि अपने अनुभवों से सही ढंग से सीखा जाये और अपनी कमज़ोरियों को सही ढंग से समझकर आगे के कार्यभार तय किये जायें तो छोटी-मोटी हारों को एक फैसलाकुन जीत की नींव के पत्थरों में तब्दील किया जा सकता है।

आर्थिक संघर्ष मज़दूर वर्ग का बुनियादी संघर्ष है। इसके ज़रिये वह लड़ना और संगठित होना सीखता है। मुख्यत: ट्रेडयूनियनें इस संघर्ष के उपकरण की भूमिका निभाती हैं और इस रूप में वर्ग-संघर्ष की प्राथमिक पाठशाला की भूमिका निभाती हैं। लेकिन आर्थिक संघर्ष मज़दूर वर्ग को सिर्फ़ कुछ राहत, कुछ रियायतें और कुछ बेहतर जीवनस्थितियाँ ही दे सकते हैं। वे पेशागत संकुचित मनोवृत्ति को तोड़कर मज़दूरों को उनकी व्यापक वर्गीय एकजुटता की ताक़त का अहसास नहीं करा सकते। न ही वे उन्हें अपनी मुक्ति की सम्भाव्यता और पूँजीवादी व्यवस्था के विरुद्ध संघर्ष की आवश्यकता का अहसास करा सकते हैं। ऐसा केवल राजनीतिक माँगों पर संघर्ष के द्वारा ही सम्भव है।

मज़दूर आन्दोलनों का इतिहास और मज़दूर क्रान्ति का विज्ञान हमें बताता है कि आर्थिक संघर्ष कभी भी अपने आप, स्वयंस्फूर्त ढंग से राजनीतिक संघर्ष में रूपान्तरित नहीं हो जाते। आर्थिक संघर्षों के साथ-साथ शुरू से ही मज़दूर वर्ग राजनीतिक संघर्षों को भी चलाये, तभी मज़दूर वर्ग पूँजीपति वर्ग के विरुद्ध अपने संघर्ष को आगे बढ़ा सकता है। राजनीतिक संघर्ष जब तक रोज़मर्रा के संघर्षों के अंग के तौर पर प्रारम्भिक अवस्था में होते हैं तभी तक ट्रेडयूनियनों के माध्यम से उनका संचालन सम्भव होता है।

ट्रेड यूनियनों के भीतर प्राण संचार और सच्चा नेतृत्व विकसित करने का सवाल सीधे यूनियनों के भीतर जनवाद की बहाली से जुड़ा हुआ है, जिससे मज़दूरों की पहलकदमी जागे और निर्णय लेने की प्रक्रिया में आम मज़दूरों की भागीदारी सुनिश्चित हो। इनमें नियमित आम सभाएँ और समय से चुनाव होने चाहिए। केवल तभी नेतृत्व पर अंकुश लगाया जा सकता है। यूनियन सदस्यों को केवल चन्दा देने वाले निष्क्रिय सदस्य नहीं बने रहना चाहिए बल्कि उन्हें अपने ट्रेड यूनियन अधिकारों के लिए सामूहिक संघर्ष को आगे बढ़ाना चाहिए। इसकी पूर्वशर्त है कि यूनियन के रोजमर्रा के कामों में आम मज़दूर सक्रिय दिलचस्पी लें और उनमें भागीदारी करें। ट्रेड यूनियनों को ”वर्ग संघर्ष की प्राथमिक पाठशाला” कहा गया है। लेकिन अगर ट्रेड यूनियनें केवल रोज़मर्रा के स्थानीय कामों और सतत चलने वाले दाँवपेंचों में ही उलझी रहेंगी तो वे मज़दूरों को व्यापक संघर्षों के लिए तैयार करने के अपने कार्यभार को पूरा नहीं कर पायेंगी। ऐसे कामों में कुछ ही मज़दूरों की भागीदारी बनती है और व्यापक मज़दूर आबादी की राजनीतिक शिक्षा और प्रशिक्षण नहीं हो पाता है।

एक महत्वपूर्ण सबक़ है आम मज़दूर आबादी को अपनी हर लड़ाई में जुझारू और सक्रिय भागीदारी के लिए तैयार करना। इसके लिए भी हमें मज़दूरों के बीच धैर्यपूर्वक राजनीतिक शिक्षा एवं प्रचार की कार्रवाई चलानी होगी। रोज़मर्रा के जीवन और संघर्षों के दौरान मज़दूर वर्ग को लगातार उसके ऐतिहासिक मिशन की याद दिलानी होती है, उसे लगातार यह बताना होता है कि छोटी-छोटी लड़ाइयाँ लड़ते हुए मज़दूरों को क्रान्तिकारी बदलाव की फैसलाकुन लड़ाई के लिए तैयार होना होता है और यह कि मज़दूर क्रान्ति ही अन्ततोगत्वा मज़दूर वर्ग पर छाई तमाम आपदाओं और जु़ल्मों का ख़ात्मा कर सकती है। इसी प्रचार, शिक्षा एवं आन्दोलन के अमली प्रशिक्षण के दौरान ही मज़दूरों के बीच में उनका सच्चा क्रान्तिकारी नेतृत्व विकसित होता है, जो संघर्ष के आगे की मंज़िलों में विकास की एक बुनियादी शर्त है।

किसी फ़ैक्ट्री के आर्थिक संघर्ष में अक्सर ही पुलिस-प्रशासन दख़ल देकर ख़ुद ही उसे राजनीतिक रूप दे देता है। यह भूमण्डलीकरण के दौर की विशेषता नहीं है। जबसे मज़दूरों ने अपनी सहज ट्रेड यूनियन चेतना के चलते अपने मालिकों के ख़िलाफ़ आर्थिक संघर्षों की शुरुआत की है तब से उनके संघर्ष में पुलिस-प्रशासन हस्तक्षेप करता ही रहा है। पूरी दुनिया में यह होता है। गोरखपुर के आन्दोलन में यह बार-बार हुआ। आज के दौर की विशेषता यह ज़रूर है कि पुलिस-प्रशासन का हस्तक्षेप पहले के मुक़ाबले ज़्यादा खुल्लम-खुल्ला हो गया है। यह भी सही है कि आज आर्थिक संघर्षों में भागीदारी के दौरान संघर्षरत मज़दूर शासन-प्रशासन-न्यायपालिका के चरित्र को पहले के मुक़ाबले ज़्यादा अच्छी तरह देख-समझ पा रहे हैं। इससे उनकी राजनीतिक चेतना के विकास में मदद भी मिल रही है। लेकिन सवाल यह है कि यह राजनीतिक चेतना किस प्रकार की है? ट्रेड यूनियन राजनीति की चेतना या क्रान्तिकारी सर्वहारा राजनीति की चेतना। आर्थिक संघर्ष को चाहे जितने जुझारू ढंग से लड़ा जाये या चाहे जिस तरीक़े से लड़ा जाये यह मज़दूरों के भीतर अधिक से अधिक ट्रेड यूनियन राजनीति की चेतना ही विकसित कर सकता है। हमें यह समझना होगा कि कि संघर्ष का कोई विशेष रूप या तरीक़ा मज़दूरों के आर्थिक संघर्ष को राजनीतिक संघर्ष में नहीं बदल सकता और इससे संघर्षरत मज़दूरों के भीतर क्रान्तिकारी सर्वहारा राजनीति की चेतना नहीं विकसित हो सकती। ‘अर्थवादियों’ के ख़िलाफ़ बहस में लेनिन ने अपनी रचना ‘क्या करें?’ में मज़दूरों की राजनीतिक वर्ग चेतना के बारे में कहा था: ”मज़दूरों में राजनीतिक वर्ग चेतना केवल बाहर से ही लायी जा सकती है, यानी केवल आर्थिक संघर्ष के बाहर से, मज़दूरों और मालिकों के सम्बन्धों के क्षेत्र के बाहर से। वह जिस एकमात्र क्षेत्र से आ सकती है, वह राज्यसत्ता तथा सरकार के साथ सभी वर्गों तथा स्तरों के सम्बन्धों का क्षेत्र है, वह सभी वर्गों के आपसी सम्बन्धों का क्षेत्र है।”

मज़दूरों की ट्रेड यूनियन राजनीति और क्रान्तिकारी राजनीति के बीच के फ़र्क़ को और साफ़ करने के लिए इसी पुस्तक में लेनिन ने कहा है: ”…हर ट्रेड यूनियन का, …सचिव आर्थिक संघर्ष चलाने में हमेशा मज़दूरों की मदद करता है,…उन क़ानूनों तथा पगों के अनौचित्य का पर्दाफ़ाश करता है, जिनसे हड़ताल करने और धरना देने… की स्वतन्त्रता पर आघात होता है, वह मज़दूरों को समझाता है कि पंच-अदालत का जज, जो स्वयं बुर्जुआ वर्गों से आता है, पक्षपातपूर्ण होता है, आदि-आदि। सारांश यह कि ”मालिकों तथा सरकार के ख़िलाफ़ आर्थिक संघर्ष ट्रेड यूनियन का प्रत्येक सचिव चलाता है और उसके संचालन में मदद करता है। पर इस बात को हम जितना ज़ोर देकर कहें, वह थोड़ा है कि बस इतने से ही सामाजिक-जनवाद (मज़दूर वर्ग की क्रान्तिकारी राजनीति — सं.) नहीं हो जाता, कि सामाजिक जनवादी का आदर्श ट्रेड यूनियन का सचिव नहीं, बल्कि एक ऐसा जन-नायक होना चाहिए, जिसमें अत्याचार और उत्पीड़न के प्रत्येक उदाहरण से, वह चाहे किसी भी स्थान पर हुआ हो और उसका चाहे किसी भी वर्ग या स्तर से सम्बन्‍ध हो, विचलित हो उठने की क्षमता हो, उसमें इन तमाम उदाहरणों का सामान्यीकरण करके पुलिस की हिंसा तथा पूँजीवादी शोषण का एक अविभाज्य चित्र बनाने की क्षमता होनी चाहिए, उसमें प्रत्येक घटना का, चाहे वह कितनी ही छोटी क्यों न हो, लाभ उठाकर अपने समाजवादी विश्वासों तथा अपनी जनवादी माँगों को सभी लोगों को समझा सकने और सभी लोगों को सर्वहारा के मुक्ति-संग्राम का विश्व-ऐतिहासिक महत्व समझा सकने की क्षमता होनी चाहिए।”

गोरखपुर में भी ऐसा देखा गया कि आन्दोलन के अवसर का लाभ उठाते हुए कार्यकर्ता संघर्षरत मज़दूरों के भीतर उग्र ट्रेड यूनियन राजनीति की चेतना ही विकसित करने के काम में जुटे रहे। जबकि लेनिन का कहना है कि हर छोटी से छोटी घटना का लाभ उठाते हुए अपने ”समाजवादी विश्वासों” तथा ”सर्वहारा के मुक्ति-संग्राम के विश्व-ऐतिहासिक महत्व” को समझाना चाहिए। मज़दूरों के रोज़मर्रा के आर्थिक संघर्षों में शिरक़त करते समय हमारा मुख्य काम उनके भीतर मज़दूर वर्ग राजनीति की चेतना विकसित करना होना चाहिए लेकिन इस मुख्य काम को यूनियन के रोज़मर्रा के झगड़ों और मालिकों के षडयन्‍त्रों से उलझने के काम ने पीछे धकेल दिया। तात्कालिक लक्ष्यों या हार-जीत का सवाल ही प्रमुख बन गया।

हमें उम्मीद है कि आन्दोलन का नेतृत्व इन चूक़ों-ग़लतियों से सीखकर मज़दूरों के बीच राजनीतिक कामों पर ध्यान देगा और आन्दोलन पहले से भी व्यापक आधार पर तथा ज़्यादा ठोस ढंग से संगठित होकर नयी ताक़त के साथ उठ खड़ा होगा। नेतृत्व को अनेकानेक तरीक़ों से मज़दूरों की चेतना को उन्नत करने के लिए उनके बीच राजनीतिक व सांस्कृतिक काम करना होगा और उन्नत आधार पर आगे के व्यापक संघर्षों के लिए मज़दूरों को तैयार करना होगा।

आज की वस्तुगत स्थिति यदि मालिकों के पक्ष में है तो कल की वस्तुगत स्थिति निश्चित तौर पर मज़दूरों के पक्ष में होनी है। जो गोरखपुर में हो रहा है, वही पूरे देश के सभी कारखानों में हो रहा है। ठेकाकरण-दिहाड़ीकरण का सिलसिला जारी है। ऐसी स्थिति में आने वाले दिनों में व्यापक मज़दूर एकता का भौतिक आधार तैयार और मज़बूत होगा, यह तय है। इसके मद्देनज़र हमें अपनी तैयारी तेज़ कर देनी होगी और रत्तीभर भी ढिलाई नहीं करनी होगी।

सवाल यह पैदा होता है : राजनीतिक शिक्षा में क्या होना चाहिए? क्या उसे केवल निरंकुश शासन के प्रति मज़दूर वर्ग की शत्रुता के प्रचार तक ही सीमित रखा जा सकता है? हरगिज़ नहीं। मज़दूरों को उनका राजनीतिक उत्पीड़न समझाना काफ़ी नहीं है (जिस प्रकार मज़दूरों को यह समझाना काफ़ी नहीं था कि उनके हितों और मालिकों के हितों में परस्पर विरोध है)। इस उत्पीड़न की प्रत्येक ठोस मिसाल को लेकर आन्दोलन करना चाहिए (जिस प्रकार हमने आर्थिक उत्पीड़न की ठोस मिसालों को लेकर आन्दोलन करना शुरू कर दिया है)। और यह उत्पीड़न चूंकि समाज के विभिन्नतम वर्गों पर असर डालता है और चूंकि यह जीवन तथा कार्य के व्यवसायगत, नागरिक, वैयक्तिक, पारिवारिक, धार्मिक, वैज्ञानिक, आदि विभिन्न क्षेत्रों में प्रकट होता है, इसलिए क्या यह स्पष्ट नहीं है कि जब तक हम निरंकुश शासन का सर्वांगीण राजनीतिक भण्डाफोड़ संगठित नहीं करेंगे, तब तक हम मज़दूरों की राजनीतिक चेतना को विकसित करने के अपने काम को पूरा नहीं कर सकेंगे? ज़ुल्म की ठोस मिसालों को लेकर आन्दोलन करने के वास्ते ज़रूरी है कि इन मिसालों का भण्डाफोड़ किया जाये (जिस प्रकार आर्थिक आन्दोलन चलाने के वास्ते ज़रूरी था कि कारख़ानों की बुराइयों का भण्डाफोड़ किया जाये)।

– लेनिन (क्या करें?)

पूँजीवादी विकास के प्रारम्भिक दिनों में ट्रेड यूनियनों का बनना मज़दूर वर्ग के लिए एक भारी प्रगतिशील क़दम था, क्योंकि उनके ज़रिए मज़दूरों की फूट तथा निस्सहाय अवस्था का अन्त हुआ था और उनके वर्ग संगठन के प्रारम्भिक रूपों की नींव पड़ी थी। जब सर्वहारा वर्ग के संगठन का सबसे ऊँचा स्वरूप प्रकट हुआ, अर्थात् सर्वहारा वर्ग की क्रान्तिकारी पार्टी (जो केवल तभी अपना नाम चरितार्थ करेगी जब नेताओं को वर्ग तथा आम जनता के साथ एक अविच्छिन्न इकाई में बाँधने की कला सीख लेगी) प्रकट होने लगी तब, अवश्यम्भावी रूप से, ट्रेड यूनियनों में कुछ प्रतिक्रियावादी बातें – एक प्रकार पेशागत संकुचित मनोवृत्ति, एक गैर-राजनीतिक प्रवृत्ति, एक प्रकार की जड़ता, आदि दिखलायी देने लगीं; किन्तु सर्वहारा वर्ग का विकास ट्रेड यूनियनों के माध्यम को छोड़कर, उनके और मज़दूर वर्ग की पार्टी के पारस्परिक आदान-प्रदान की क्रिया के माध्यम को छोड़कर, और किसी ढंग से न तो दुनिया में कहीं हुआ है, और न हो ही सकता था। सर्वहारा वर्ग का राजसत्ता पर अधिकार करना एक वर्ग की हैसियत से सर्वहारा वर्ग के लिए एक बहुत बड़ा प्रगतिशील क़दम है और पार्टी को चाहिए कि ट्रेड यूनियनों को वह हमेशा से भी अधिक – और केवल पुराने ढंग से नहीं, बल्कि नये तरीक़े से शिक्षा दे और उनका पथ-प्रदर्शन करे। साथ ही साथ, इस बात को भी वह याद रखे कि ट्रेड यूनियनें ”कम्युनिज्म का स्कूल” हैं, और बहुत दिनों तक बनी रहेंगी; वे तैयारी करने का एक ऐसा स्कूल हैं जो सर्वहारा वर्ग को अपने अधिनायकत्व का इस्तेमाल करने की ट्रेनिंग (शिक्षा) देता है, वे मज़दूरों का एक ऐसा आवश्यक संगठन है जिसके ज़रिए देश के पूरे आर्थिक जीवन की बागडोर धीरे-धीरे मज़दूर वर्ग के (और अलग-अलग पेशों के नहीं) हाथ में और, बाद में सारी मेहनतकश जनता के हाथ में पहुँच जाती है।

– लेनिन (”वामपन्थी” कम्युनिज्म-एक बचकाना मर्ज़)

 

मज़दूर बिगुलमार्च 2012

 


 

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