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गोरखपुर में फ़र्टिलाइज़र कारख़ाने का गोरखधन्धा

सवाल यह उठता है कि शेष 706 कर्मचारी बिना सेवा समाप्त हुए कहाँ गये? इन कर्मचारियों ने न तो वीएसएस लिया और न ही उनकी सेवा समाप्त की गयी और न ही वो फ़र्टिलाइज़र में कार्यरत हैं, और न ही इन कर्मचारियों का कोई रेकॉर्ड उपलब्ध है।

वीएसएस के बारे में सूचना के अधिकार के तहत प्राप्त जानकारी के अनुसार मन्त्रालय ने साफ़ कहा कि मन्त्रालय में वीएसएस जैसा कोई नियम है ही नहीं। इसकी जगह कर्मचारियों को सेवामुक्त होने के लिए वीआरएस 1972 से लागू है। सुप्रीम कोर्ट की फ़ाइल से प्राप्त सूचना में वीएसएस जैसा कोई नियम नहीं है, जबकि वीआरएस का प्रावधान ज़रूर है।

होंडा के मजदूरों के समर्थन में गोरखपुर में विरोध प्रदर्शन

पिछले कई महीनों से होंडा फैक्ट्री से गैरकानूनी तरीके से निकाले गए मज़दूर अपनी मांगों को लेकर सड़क पर थे और अब मजदूरों ने दिल्ली के जंतर-मंतर पर अनिश्चितकालीन भूख हड़ताल शुरू कर दी है। मज़दूरों के साथ ऐसा बरताव नया नहीं हैं, गोरखपुर के मज़दूर भी इसके गवाह हैं।

बरगदवां, गोरखपुर में मज़दूर नयी चेतना और जुझारूपन के साथ एक बार फिर संघर्ष की राह पर

गोरखपुर के बरगदवां औद्योगिक क्षेत्र में मिल-मालिकों व प्रबन्धन द्वारा सारे श्रम कानूनों को ताक पर रखकर काम करवाने और मज़दूरों के साथ आये दिन गाली-गलौज, मारपीट और अमानवीय व्यवहार के ख़िलाफ़ दो फैक्ट्रियों, अंकुर उद्योग प्राइवेट लिमिटेड व वी.एन.डायर्स प्रोसेसर्स (प्रा.) लिमिटेड, में क्रमशः 18 जून व 1 जुलाई को मज़दूर हड़ताल पर चले गए और अपनी जुझारू एकजुटता के दम पर उन्होंने जीत हासिल की।

मई दिवस के अवसर पर मज़दूर शहीदों को याद किया, पूँजी की गुलामी के ख़ि‍लाफ़ संघर्ष आगे बढ़ाने का संकल्प लिया

विभिन्न वक्ताओं ने कहा कि आठ घण्टे काम दिहाड़ी का क़ानून बनवाने के लिए पूरे विश्व के मज़दूरों ने संघर्ष किया है। उन्नीसवीं सदी में अमेरिकी औद्योगिक मज़दूरों ने ‘आठ घण्टे काम, आठ घण्टे आराम, आठ घण्टे मनोरंजन’ के नारे के तहत बेहद शानदार, कुर्बानियों से भरा जुझारू संघर्ष किया था। पहली मई 1886 को अमेरिकी मज़दूरों ने देशव्यापी हड़ताल की थी जिसका अमेरिकी हाकिमों ने दमन किया था। दमन द्वारा मज़दूरों की आवाज़ को दबाया नहीं जा सका। आगे चलकर पूरे विश्व में आठ घण्टे काम दिहाड़ी, जायज़ मज़दूरी और अन्य अनेकों अधिकारों के लिए मज़दूरों के संघर्ष आगे बढ़े और विश्व भर की सरकारों को मज़दूरों को संवैधानिक अधिकार देने पड़े। रूस, चीन जैसे देशों में मज़दूर हुक़ूमतें स्थापित हुईं जिनके द्वारा मानवता ने शानदार उपलब्धियाँ हासिल कीं।

26 जनवरी को बरगदवा औद्योगिक क्षेत्र, गोरखपुर में सभा

सुई से लेकर जहाज़ तक सब इस देश के मज़दूर-किसान पैदा करते हैं। फ़ैक्ट्रियों से लेकर खेतों-खदानों में दो जून की रोटी के लिए पूरी ज़िन्दगी खपाते हैं, फिर भी उन्हें जीने लायक बेहतर चीज़ें नहीं मिल पाती हैं। सरकारें भी इस चीज़ को मानती हैं कि देश में 84 करोड़ लोग 20 रुपये पर या उससे कम पर गुज़र बसर करते हैं। 18 करोड़ लोग फुटपाथों पर और 18 करोड़ 2015-01-26-GKP-Azadi-17लोग झुग्गियों में रहते हैं। 34 करोड़ लोग प्रायः भूखे सोते हैं। दूसरी ओर मुकेश अम्बानी जैसे लोग 1 मिनट में 40 लाख रुपये कमाते हैं। देश की 80 प्रतिशत सम्पदा पर मुट्ठी भर पूँजीपतियों का क़ब्ज़ा है। संविधान के तहत होने वाला चुनाव बस इसलिए होता है कि जनता तय करे उन्हें पाच सालों तक किससे लुटना है। 2014-2015 के बजट में पूँजीपतियों को 5.32 लाख करोड़ रुपये की छूट दी गयी। बीमा से लेकर रक्षा क्षेत्र में 49 से लेकर 100 प्रतिशत तक प्रत्यक्ष विदेशी निवेश की अनुमति देने की तैयारी है। आज ज़रूरी है कि मज़दूर वर्ग यह जाने कि राजकाज समाज का पूरा ढाँचा काम कैसे करता है और किस प्रकार इस लुटेरे तन्त्र का ध्वंस होगा और मेहनतकशों का राज कैसे बनेगा। भगतसिंह और उनके जैसे हज़ारों नौजवानों की कुर्बानियाँ हमें ललकार रही हैं कि हम उनके सपनों को पूरा करने में जुट जाये।

गीता प्रेस – धार्मिक सदाचार व अध्यात्म की आड़ में मेहनत की लूट के ख़ि‍लाफ़ मज़दूर संघर्ष की राह पर

धर्म बहुत लम्बे समय से अनैतिकता, अपराध, लूट व शोषण की आड़ बनता रहा है। परन्तु मौजूदा समय में गलाजत, सड़ान्ध इतने घृणास्पद स्तर पर पहुँच चुकी है कि धर्म की आड़ से गन्दगी पके फोड़े की पीप की तरह बाहर आ रही है। आसाराम, रामपाल जैसे इसके कुछ प्रातिनिधिक उदाहरण हैं। इसी कड़ी में धर्म और अध्यात्म की रोशनी में मज़दूरों की मेहनत की निर्लज्ज लूट का ताज़ा उदाहरण गीता प्रेस, गोरखपुर है। कहने को तो गीता प्रेस से छपी किताबें धार्मिक सदाचार, नैतिकता, मानवता आदि की बातें करती हैं, लेकिन गीता-प्रेस में हड्डियाँ गलाने वाले मज़दूरों का ख़ून निचोड़कर सिक्का ढालने के काम में गीता प्रेस के प्रबन्धन ने सारे सदाचार, नैतिकता और मानवता की धज्जियाँ उड़ाकर रख दिया है। संविधान और श्रम कानून भी जो हक मज़दूरों को देते हैं वह भी गीता प्रेस के मज़दूरों को हासिल नहीं है! क्या इत्तेफ़ाक है कि गीता का जाप करनेवाली मोदी सरकार भी सारे श्रम कानूनों को मालिकों के हित में बदलने में लगी है। इसी माह प्रबन्धन के अनाचार, शोषण को सहते-सहते जब मज़दूरों का धैर्य जवाब दे गया तो उनका असन्तोष फूटकर सड़कों पर आ गया।

गोरखपुर के नागरिकों के नाम गीता-प्रेस के मज़दूरों की एक अपील

गोरखपुर के नागरिकों के नाम गीता-प्रेस के मज़दूरों की एक अपील दोस्तो, कहने को तो गीता प्रेस से छपी किताबें धार्मिक सदाचार, नैतिकता, मानवता आदि की बातें करती हैं लेकिन…

हर साल इस आदमखोर पूँजीवादी व्यवस्था की भेंट चढ़ जाते हैं हज़ारों मासूम

वैसे तो हर साल इस बीमारी की रोकथाम के लिए अस्पतालों को बेहतर बनाने और जर्जर पड़ी स्वास्थ्य सुविधाओं को सुधारने के नाम पर करोड़ों रुपए की घोषणाएँ की जाती है, परन्तु जमीनी स्तर पर हालात में कोई फर्क नहीं पड़ता हैं। यह भी एक विडंबना है कि सरकार आतंकवाद को इस देश का सबसे बड़ा खतरा बताती है, जबकि असलियत में बम धमाकों से भी ज्यादा लोग डेंगू, मलेरिया, तथा जापानी इंसेफेलाइटिस जैसी बीमारियों के कारण मारे जाते हैं। अगर सरकार अपने कुल बजट में स्वास्थ्य पर होने वाले खर्च को थोड़ा सा भी बढ़ा दे तो भी जनता को निशुल्क स्वास्थ्य सुविधाएँ प्रदान की जा सकती हैं। परंतु वह ऐसा नही करेंगी, क्योंकि सरकार को ईलाज के अभाव में हर क्षण दम तोड़ रहे बच्चों से ज्यादा पूँजीपतियों के मुनाफे की ज्यादा चिंता हैं।

चुप्पी तोड़ो, आगे आओ! मई दिवस की अलख जगाओ!!

मई दिवस का इतिहास पूँजी की ग़ुलामी की बेड़ियों को तोड़ देने के लिए उठ खड़े हुए मज़दूरों के ख़ून से लिखा गया है। जब तक पूँजी की ग़ुलामी बनी रहेगी, संघर्ष और क़ुर्बानी की उस महान विरासत को दिलों में सँजोये हुए मेहनतकश लड़ते रहेंगे। हमारी लड़ाई में कुछ हारें और कुछ समय के उलटाव-ठहराव तो आये हैं लेकिन इससे पूँजीवादी ग़ुलामी से आज़ादी का हमारा जज्ब़ा और जोश क़त्तई टूट नहीं सकता। करोड़ों मेहनतकश हाथों में तने हथौड़े एक बार फिर उठेंगे और पूँजी की ख़ूनी सत्ता को चकनाचूर कर देंगे। इसी संकल्प को लेकर दिल्ली, लुधियाना और गोरखपुर में मज़दूरों के मई दिवस के आयोजनों में बिगुल मज़दूर दस्ता के साथियों ने शिरकत की और इन आयोजनों को क्रान्तिकारी धार और जुझारू तेवर देने में अपनी भूमिका निभायी।

बरगदवा, गोरखपुर का मज़दूर आन्दोलन कुछ ज़रूरी सबक़, कुछ कठिन चुनौतियाँ

आज की वस्तुगत स्थिति यदि मालिकों के पक्ष में है तो कल की वस्तुगत स्थिति निश्चित तौर पर मज़दूरों के पक्ष में होनी है। जो गोरखपुर में हो रहा है, वही पूरे देश के सभी कारखानों में हो रहा है। ठेकाकरण-दिहाड़ीकरण का सिलसिला जारी है। ऐसी स्थिति में आने वाले दिनों में व्यापक मज़दूर एकता का भौतिक आधार तैयार और मज़बूत होगा, यह तय है। इसके मद्देनज़र हमें अपनी तैयारी तेज़ कर देनी होगी और रत्तीभर भी ढिलाई नहीं करनी होगी।