भारत में लगातार चौड़ी होती असमानता की खाई
जनता की बर्बादी की क़ीमत पर हो रहा ”विकास”!

संपादक मंडल 

मोदी सरकार के मन्त्री और उसका भोंपू मीडिया लगातार देश के बढ़ते विकास का ढिंढोरा पीटते रहते हैं। हालाँकि उनके विकास के आँकड़ों के फ़र्ज़ीवाड़े का कई बार पर्दाफ़ाश हो चुका है और विभिन्न रिपोर्टें यह बता रही हैं कि अर्थव्यवस्था गहरे संकट में है। रोज़गार पैदा नहीं हो रहे हैं, पहले से मौजूद नियमित रोज़गार में लगातार कटौतियाँ जारी है, चौतरफ़ा महँगाई ने आम लोगों का जीना दूभर कर दिया है, खेती के संकट की सबसे बुरी मार ग्रामीण मज़दूरों और ग़रीब किसानों पर पड़ रही है और शहरी ग़रीबों और निम्न-मध्य वर्ग की विशाल आबादी बेहद मुश्किल से गुज़ारा कर रही है।

मगर इस संकट के कीचड़ में भी अमीरों के कमल खिलते ही जा रहे हैं। केवल पिछले वर्ष के दौरान देश में 17 नये ”खरबपति” और पैदा हुए जिससे भारत में खरबपतियों की संख्या शतक पूरा कर 101 तक पहुँच गयी। ऑक्सफ़ैम की रिपोर्ट के अनुसार – पिछले वर्ष देश में पैदा हुई कुल सम्पदा का 73 प्रतिशत देश के सबसे अमीर एक प्रतिशत लोगों की मुट्ठी में चला गया। इस छोटे-से समूह की सम्पत्ति में पिछले चन्द वर्षों के दौरान 20.9 लाख करोड़ रुपये की बढ़ोत्तरी हुई जो 2017 के केन्द्रीय बजट में ख़र्च के कुल अनुमान के लगभग बराबर है। दूसरी ओर, देश के 67 करोड़ नागरिकों, यानी सबसे ग़रीब आधी आबादी की सम्पदा सिर्फ़ एक प्रतिशत बढ़ी। देश के खरबपतियों की सम्पत्ति में 4891 खरब रुपये का इज़ाफ़ा हुआ है। यह इतनी बड़ी रक़म है जिससे देश के सभी राज्यों के शिक्षा और स्वास्थ्य बजट का 85 प्रतिशत पूरा हो जायेगा। आमदनी में असमानता किस हद तक है इसका अनुमान सिर्फ़ इस उदाहरण से लगाया जा सकता है कि भारत की किसी बड़ी गारमेण्ट कम्पनी में सबसे ऊपर के किसी अधिकारी की एक साल की कमाई के बराबर कमाने में ग्रामीण भारत में न्यूनतम मज़दूरी पाने वाले एक मज़दूर को 941 साल लग जायेंगे। दूसरी ओर वह मज़दूर अगर 50 वर्ष काम करे, तो भी उसकी जीवन-भर की कमाई के बराबर कमाने में गारमेण्ट कम्पनी के उस शीर्षस्थ अधिकारी को सिर्फ़ साढ़े सत्रह दिन लगेंगे।

ज़ाहिर है, यह असमानता मोदी राज में ही नहीं बढ़ी है। आज़ादी के बाद से अपनायी गयी पूँजीवादी विकास की नीतियों ने इसे लगातार बढ़ाया है। नरेन्द्र मोदी ने पिछली सरकारों के दौरान बढ़ती रही इस असमानता और उससे पैदा होने वाले असन्तोष का लाभ उठाया था। हज़ारों करोड़ रुपये ख़र्च करके किये गये अन्धाधुन्ध प्रचार के दौरान लोगों को ”अच्छे दिनों” के सपने परोसकर वोट बटोरे गये थे लेकिन सत्ता में आते ही सारे वादे खोखले जुमलों में बदल गये। पिछले चार साल के मोदी राज में आर्थिक असमानता और भी भयंकर हो चुकी है। ऐसे में, हर ओर से उठते सवालों को धार्मिक जुनून और अन्धराष्ट्रवाद के शोर में दबा देने के अलावा भाजपा और संघ परिवार के पास कोई जवाब नहीं है। सबका साथ सबका विकास” एक फूहड़ मज़ाक के अलावा कुछ नहीं है। वास्तव में विकास सिर्फ़ पूँजीपतियों की छोटी-सी जमात और उनकी चाकर सबसे ऊपर की मुट्ठीभर आबादी का हो रहा है।

भारत की सरकारों ने पिछले क़रीब ढाई दशकों के दौरान देश के बाज़ार को वैश्विक बाज़ार के लिए ज़्यादा से ज़्यादा खुला बनाया है, और पूँजी के खुले प्रवाह के लिए उदारीकरण-निजीकरण की नीतियों को लागू किया है। इन नीतियों को लागू करने के लिए और ”व्यापार करना आसान बनाने” के लिए, श्रम क़ानूनों को लचीला बनाने के नाम पर मज़दूरों के सभी अधिकारों की एक-एक कर तिलांजलि दे दी गयी है। नीतियों में मनमाने फेरबदल करके देशी-विदेशी कम्पनियों को लाखों करोड़ रुपये की सब्सिडी दी गयी है और देश के प्राकृतिक संसाधनों को लूटने की खुली छूट दे दी गयी है। इन सबका परिणाम यह है कि ग़रीबों को और अधिक ग़रीबी में धकेल दिया गया है, मज़दूरों की और ज़्यादा दुर्गति हुई है, जनता के कष्ट और बढ़े हैं, और पूरे देश में किसानों की आत्महत्याओं का सिलसिला लगातार बढ़ रहा है। ”विकास” की इन नीतियों का नतीजा यह है कि देश की लगभग 46 करोड़ मज़दूर आबादी में से 93 प्रतिशत, या 43 करोड़ मज़दूर असंगठित क्षेत्र में धकेल दिये गये हैं जहाँ वे बिना किसी क़ानूनी सुरक्षा के ग़ुलामों जैसी परिस्थितियों में काम करने के लिये मजबूर हैं। एक रिपोर्ट के अनुसार 45 करोड़ भारतीय ग़रीबी रेखा के नीचे जी रहे हैं, जिसका अर्थ है कि वे भुखमरी की कगार पर बस किसी तरह ज़िन्दा हैं।

एक तरफ ग़रीबी लगातार बढ़ रही है, दूसरी ओर, उद्योगपतियों, राज नेताओं, ऊँचे सरकारी अधिकारियों, ठेकेदारों  आदि की छोटी-सी आबादी के पास पैसों का पहाड़ लगातार ऊँचा होते जा रहा है। आम जनता की बढ़ती तबाही के बीच इस परजीवी जमात की ऐयाशियाँ बढ़ती जा रही हैं। कहने को भारत एक जनतन्त्र है, मगर 130 करोड़ आबादी वाले इस जनतन्त्र में 100 सबसे अमीर लोगों की कुल सम्पत्ति पूरे देश के कुल वार्षिक उत्पादन के एक चौथाई से भी अधिक है। इनसे नीचे करीब सवा करोड़ लोगों की एक परत है जिसके कब्ज़े में कुल सम्पदा का 50 प्रतिशत और हिस्सा चला जाता है। यानी करीब तीन-चौथाई सम्पदा (73%) इनकी मुट्ठी में है। वास्तव में यह तथाकथित जनतन्त्र इन्हीं की जेब में है। ‘इकनॉमिक टाइम्स’ के अनुसार विकास की दौड़ में मध्य वर्ग की एक ऊपरी परत भी शामिल है, जो कुल आबादी का लगभग 13 प्रतिशत हिस्सा है। मध्य वर्ग का यह हिस्सा कम्पनियों के विलासिता के सामानों को बेचने के लिए एक बड़ा बाज़ार मुहैया कराता है। इस आबादी का एक बड़ा हिस्सा अमानवीय होने की हद तक माल अन्धभक्ति का शिकार है। करोड़ों मेहनतकशों के ख़ून-पसीने से पैदा होने वाले सामानों पर ऐश करने वाले समाज के इस हिस्से को देश की 85 प्रतिशत जनता की ग़रीबी और बर्बादी तथा दमन-उत्पीड़न से कोई ख़ास फ़र्क नहीं पड़ता, बल्कि यह समाज के दबे-कुचले हिस्से को देश की प्रगति में बाधा मानता है। इसी हिस्से में भाजपा के हिन्दुत्ववादी फासीवाद का समर्थन करने वाले भी बड़ी संख्या में मौजूद हैं। हालाँकि अर्थव्यवस्था के संकट के कारण बढ़ती बेरोज़गारी और महँगाई आदि की मार अब मध्य वर्ग के इन हिस्सों को भी सताने लगी है।

कुछ और आँकड़ों पर नज़र डालने से असमानता की भयावह स्थिति और साफ़ हो जायेगी। संयुक्त राष्ट्र विकास कार्यक्रम (यूएनडीपी) की मानवीय विकास रिपोर्ट में भारत 188 देशों की सूची में खिसककर अब 131वें स्थान पर पहुँच गया है। दक्षिण एशियाई देशों में यह तीसरे स्थान पर, श्रीलंका और मालदीव जैसे देशों से भी पीछे चला गया है। हमारे देश में दुनिया के किसी भी हिस्से से अधिक, 46 प्रतिशत बच्चे कुपोषण के शिकार हैं। एक तिहाई आबादी भूखी रहती है और यहाँ हर दूसरे बच्चे का वज़न सामान्य से कम है। वैश्विक भूख सूचकांक के आधार पर बनी 119 देशों की सूची में भारत 100वें स्थान पर है, उत्तर कोरिया और बंगलादेश जैसे देशों से भी नीचे।

भारत में बढ़ती असमानता को समझने के लिए थोड़ा पहले से कुछ आँकड़ों पर नज़र डालते हैं। इसी वर्ष प्रसिद्ध अर्थशास्त्रियों लुकास चांसल और थॉमस पिकेट्टी की रिपोर्ट पर आधारित ‘मज़दूर बिगुल’ के एक लेख (मुकेश असीम द्वारा) में हमने बताया था कि 1980 के दशक में जिन नवउदारवादी आर्थिक सुधारों की शुरुआत हुई उनका परिणाम यह हुआ है कि पिछले तीन दशकों के दौरान नीचे के 50% लोगों की आमदनी में मात्र 89% की वृद्धि हुई यानी यह दोगुनी भी नहीं हुई। इसके ऊपर के मँझले 40% को लें तो इनकी आमदनी में भी लगभग इतनी ही यानी 93% की वृद्धि हुई। लेकिन इनके ऊपर, शीर्ष के 10% की आमदनी 394% बढ़ गई यानी 5 गुना हो गयी। इसमें से भी अगर सबसे ऊपर के 1% को ही लें तो इनकी आय में 750% का इजाफ़ा हुआ अर्थात यह साढ़े आठ गुना हो गयी। इसका भी ऊपरी दसवाँ हिस्सा यानी सिर्फ 13 लाख की सँख्या लें तो इनकी आमदनी साढ़े 12 गुना बढ़ गयी। इसमें भी अगर ऊपर के सवा लाख को लें तो इनकी आय 19 गुना बढ़ गयी। अगर सबसे ऊपर के हज़ार-डेढ़ हज़ार अमीरों को ही देखें तो इनकी आमदनी 28 गुना से भी ज्यादा बढ़ गयी।

इसका नतीजा यह हुआ है कि नीचे की आधी जनसँख्या जिसका देश की कुल आमदनी में 1951 में 21% हिस्सा होता था वह 1982 में आते-आते थोड़ा बढ़कर 24% हो गया था। लेकिन पूँजीपतियों को फ़ायदा पहुँचाने वाले आर्थिक सुधारों के चलते इसके बाद इनकी हालत में तेज़ी से गिरावट आयी है। 2014 में इनका कुल आमदनी में हिस्सा घटकर 15% से भी कम हो गया है। अगर इसके ऊपर के 40% मध्यम-निम्न मध्यम तबके को लें तो 1951 में कुल आमदनी में इनका हिस्सा लगभग 43% होता था जो 1982 में थोड़ा बढ़कर 46% तक पहुँचा था अर्थात ये अगर अमीर नहीं थे तो पूरी तरह कंगाल भी नहीं थे। लेकिन नवउदारवादी आर्थिक नीतियों ने इनके ऊपर भी ज़बर्दस्त चोट की है। इस तबके में बेरोज़गारी तेज़ी से बढ़ी है या ये सेवा क्षेत्र में कम तनख्वाह वाली असुरक्षित, अस्थाई नौकरियाँ करने के लिए मजबूर हो रहे हैं। नतीजा यह हुआ है कि 2014 तक आते-आते कुल राष्ट्रीय आय में इनका हिस्सा घटकर मात्र 29% रह गया अर्थात पहले का सिर्फ दो तिहाई। नतीजा यह है कि महँगी शिक्षा और दिन-रात की कड़ी मेहनत द्वारा अमीर बनने के इनके सुनहरे सपने चकनाचूर हो रहे हैं और इस तबके के बहुत सारे लोग कंगाल होकर सर्वहारा बनने के कगार पर हैं।

लेकिन अगर शीर्ष के 10% लोगों अर्थात अमीर और उच्च मध्यम तबके को लें तो उन्हें इन ‘सुधार’ वाली नीतियों से भारी फ़ायदा हुआ है। 1982 में कुल राष्ट्रीय आय में इनकी हिस्सेदारी सिर्फ 30% अर्थात एक तिहाई के भी कम होती थी जो अब 2014 में लगभग दोगुनी होकर 56% पर पहुँच गई है। इसमें से भी अगर शीर्ष के 1% को ही लें तो 1982 में इनका हिस्सा मात्र 6% होता था जो अब लगभग चार गुना अर्थात 22% हो गया है। इसके असली मतलब को समझने के लिए यह भी जानना ज़रूरी है कि भारत में आय सम्बन्धी जानकारी 1922 में ब्रिटिश हुकूमत ने रखनी शुरू की थी। विदेशी ग़ुलामी का वह शासन घोर शोषण और गै़रबराबरी पर आधारित था और उस वक्त होने वाली कुल सामाजिक आय का एक बड़ा हिस्सा विदेशी शासकों और उनके देशी दलालों–राजाओं-ज़मींदारों या पूँजीपतियों द्वारा हथिया लिया जाता था। उस वक्त असमानता की हालत यह थी कि 1930 के दशक में कुल आमदनी का लगभग 21% भाग सबसे ऊपर के 1% अमीर लोगों के हिस्से में जाता था, जो अब बढ़कर 22% हो गया है। यानी इस देश की आम मेहनतकश मज़दूर-ग़रीब किसान जनता ने भारी कुर्बानियाँ देकर आज़ादी और उसके बाद के संघर्ष में जो भी बेहतरी के हक़ हासिल किये थे, उन्हें फिर से गँवा दिया है और आज हमारा समाज विदेशी गुलामी के वक्त से भी अधिक भयंकर गै़रबराबरी की खाई में जा पड़ा है।

इसी स्थिति को ऐसे भी समझ सकते हैं कि सबसे नीचे के 50% लोग 1951-80 के तीन दशकों में कुल आर्थिक वृद्धि का 28% भाग पा रहे थे लेकिन उसके बाद के 34 वर्षों (1980-2014) में आर्थिक वृद्धि में इनका हिस्सा घटकर मात्र 11% ही रह गया। इनके ऊपर वाले 40% पहले के 3 दशकों में कुल वृद्धि के 49% पर हक़ जमाये थे अर्थात इनकी स्थिति तुलनात्मक रूप से थोड़ी बेहतर हो रही थी। किन्तु बाद के 34 सालों में इनका हिस्सा गिरकर सिर्फ 23% रह गया – आधे से भी कम। वहीं इनके ऊपर वाले 9% का भाग 23% से बढ़कर 37% हो गया और शीर्ष 1% का हिस्सा बढ़कर 29% हो गया। इस प्रकार नीचे के 90% को इस आर्थिक वृद्धि का मात्र एक तिहाई (34%) प्राप्त हो रहा है जबकि इसका दो तिहाई (66%) भाग मात्र शीर्ष के 10% तबके के लोगों द्वारा कब्ज़ा लिया जा रहा है।

इस अध्ययन के नतीजे भी उन ख़बरों को ही सही सिद्ध कर रहे हैं जिनमें बताया गया है कि भारत दुनिया भर में सबसे अधिक असमानता वाले देशों में से एक है अर्थात यहाँ अमीर और गरीब के बीच सम्पत्ति और आय के अन्तर की खाई बहुत गहरी-चौड़ी हो चुकी है। पिछले दिनों ही भारत में संपत्ति के वितरण पर क्रेडिट सुइस की रिपोर्ट भी आई थी। इसमें बताया गया था कि 2016 में देश की कुल सम्पदा के 81% के मालिक सिर्फ 10% तबका है। इसमें से भी अगर शीर्ष के 1% को लें तो उनके पास ही देश की कुल सम्पदा का 58% है। वहीं नीचे की आधी अर्थात 50% जनसँख्या को लें तो उनके पास कुल सम्पदा का मात्र 2% ही है अर्थात कुछ नहीं। इनमें से भी अगर सबसे नीचे के 10% को लें तो ये लोग तो सम्पदा के मामले में नकारात्मक हैं अर्थात संपत्ति कुछ नहीं कर्ज़ का बोझा सिर पर है। इसी तरह बीच के 40% लोगों को देखें तो उनके पास कुल सम्पदा का मात्र 17% है। यहीं इस बात को भी समझ लेना जरूरी है कि यह असमानता पिछले कुछ वर्षों में बहुत तेज़ी से बढ़ी है। सिर्फ 6 वर्ष पहले 2010 में ऊपरी 1% तबके का कुल सम्पदा में हिस्सा मात्र 40% था। यानी सिर्फ़ 6 साल के दौरान सम्पत्ति में इनका हिस्सा 18% बढ़ गया।  लेकिन यह आया कहाँ से? यह आया है नीचे के 90% की सम्पत्ति में से। अनेक बुर्जुआ अर्थशास्त्री यह दावा करते रहे हैं कि ऊपर से धन सम्पदा रिसकर नीचे आती है जिससे ग़रीब लोगों के जीवन में सुधार आता है। मगर आर्थिक ”सुधारों” की सच्चाई यही है कि 90% जनता की सम्पत्ति और आय उनसे छीनकर उसे ऊपर के 10% शासक वर्ग की तिजोरियों में पहुँचाया जा रहा है।

इसी का नतीजा है कि आर्थिक ‘सुधारों’ के इन लगभग तीन दशकों में देश के अधिकांश श्रमिक, छोटे-सीमान्त किसानों और निम्न मध्य वर्ग के जीवन में किसी प्रकार की उन्नति होना तो दूर, बिल्कुल आधारभूत ज़रूरतों में भी गिरावट ही आयी है। राष्ट्रीय पोषण निगरानी ब्यूरो (जिसे अब मोदी सरकार ने बन्द ही कर दिया है) के मुताबिक इन वर्षों में शहर और गाँव दोनों में लोगों के भोजन में अनाज, दूध, अण्डे, मांस, फल-सब्ज़ी, विटामिन, कैल्शियम, आदि हर प्रकार के पोषक तत्वों की उपलब्ध मात्रा में कमी आयी है जिसके नतीजे में सभी लोगों ख़ास तौर पर महिलाओं-बच्चों में कुपोषण, ख़ून की कमी, कम वज़न और क़द न बढ़ने जैसे कुन्द वृद्धि के लक्षणों की तादाद बहुत तेज़ी से बढ़ी है। अधिकांश ग़रीब लोगों को दैनिक आवश्यकता के लायक न्यूनतम कैलोरी ऊर्जा भी उपलब्ध नहीं हो पा रही है। कुपोषण और रहने के अस्वच्छ-अस्वस्थ वातावरण की वजह से जो बीमारियाँ पहले के दशकों में कुछ हद तक कम हुई थीं वे भी भयंकर रूप से वापस आ रही हैं। दवा और इलाज की कमी से बड़ी तादाद में रोगी तड़प-तड़प कर मृत्यु का भी शिकार हो रहे हैं। हाल के दिनों में बच्चों में बढ़ते कुपोषण और अस्पतालों में बच्चों की बड़ी तादाद में मौतों की खबरें बेवजह ही नहीं हैं।

इन आर्थिक नीतियों से 90% मेहनतकश और निम्न मध्यवर्गीय जनता की आय और संपत्ति कम होने की वजह है इन सुधारों के द्वारा श्रमिकों के अधिकारों पर हमला। देशी-विदेशी निजी पूँजी निवेश को बढ़ावा देने हेतु संगठित श्रमिकों द्वारा हासिल काम के घंटों और वेतन के लिए सामूहिक समझौते के अधिकारों में भारी कटौती हुई है। अधिकाँश बड़े उद्योगों में स्थाई संगठित मजदूरों की छँटनी कर अस्थायी, ठेके वाले या अप्रेंटिस-प्रशिक्षु श्रमिकों से स्थाई मजदूरों के एक तिहाई से भी कम वेतन पर काम कराया जा रहा है। असंगठित उद्योगों और सबसे अधिक श्रमिकों को काम पर रखने वाले निर्माण और सेवा क्षेत्रों में तो सभी श्रमिक अस्थाई हैं और न्यूनतम वेतन या काम के घण्टों के कोई नियम ही लागू नहीं होते। कुल रोज़गार के 90% से अधिक आज इन्हीं असंगठित क्षेत्रों में हैं जहाँ 10 से 12 घंटे काम के बाद 5 से 10 हजार रुपये महीने ही मुश्किल से दिया जाता है। इस तरह अधिकांश श्रमिकों द्वारा उत्पादित सम्पदा मूल्य का अधिकांश मालिक पूँजीपतियों द्वारा हड़प लिया जा रहा है जिससे उनका मुनाफ़ा और सम्पत्ति लगातार बढ़ती जा रही है और मज़दूर कंगाली का जीवन गुज़ारने को विवश हैं। कृषि के क्षेत्र में भी पिछले सालों में महँगाई के मुकाबले खेतिहर मज़दूरों की वास्तविक मज़दूरी में गिरावट हुई है। साथ ही धनी किसानों के साथ प्रतियोगिता में न टिक पाने से अधिकांश छोटे-सीमान्त किसान बरबाद हो कर कर्ज़ के बोझ से दब रहे हैं, आत्महत्याएँ कर रहे हैं या खेती छोड़कर शहरी मज़दूरों की कतारों में शामिल हो रहे हैं।

अब आइये, भारतीय अर्थव्यवस्था के तीन प्रमुख क्षेत्रों पर नज़र डालते हैं। सेवा क्षेत्र भारतीय अर्थव्यवस्था का सबसे बड़ा हिस्सा – लगभग 59% है। लेकिन इसमें कुल श्रमिकों के सिर्फ 26% को रोज़गार प्राप्त है।  इसे समझने के लिए कुछ और देशों के साथ तुलना आवश्यक है। अमेरिका और ब्रिटेन में सेवा क्षेत्र अर्थव्यवस्था का 80% है और इतने ही लोग इसमें रोज़गार पाते हैं। ब्राजील, मेक्सिको के आँकड़े भी लगभग ऐसे ही हैं – जितना हिस्सा उतने रोज़गार। चीन में यह अर्थव्यवस्था का 49% है और रोज़गार 42%। इसका अर्थ है कि भारत में सेवा क्षेत्र में उत्पादित मूल्य की तुलना में बहुत कम लोगों को रोज़गार मिलता है अर्थात कम मज़दूर बहुत अधिक उत्पादन करते हैं। यानी इसमें मज़दूरों का शोषण बहुत अधिक है। यह बात कई लोगों को अजीब लग सकती है क्योंकि अक्सर सेवा क्षेत्र के सफ़ेद कालर कर्मचारियों को अधिक वेतन का बहुत प्रचार सुना जाता है। लेकिन यह अधिक वेतन मात्र कुछ लाख की संख्या तक सीमित है और आईटी, बैंक-वित्त, इ-कॉमर्स/कूरियर डिलीवरी वाले कर्मियों से लेकर होटल-रेस्टोरेंट तक के अधिकांश निचले स्तर के कर्मचारी उतना वेतन नहीं पाते। यहाँ कोई यूनियन नहीं होती, पेंशन-बोनस नहीं देना होता, मेडिकल, आदि सुविधाएँ अत्यन्त सीमित हैं, नौकरी से निकालते वक्त भी संगठित विनिर्माण उद्योगों की तरह वीआरएस आदि जैसी कोई एकमुश्त रकम नहीं देनी पड़ती। दूसरी बात है कि इनमें काम के घण्टे बहुत अधिक हैं – 10-12 घण्टे के साथ छुट्टी के दिन भी काम करना यहाँ आम बात है। इसलिए इन क्षेत्रों के मज़दूर अपने मालिकों के लिए विनिर्माण क्षेत्र के मुकाबले अधिक अतिरिक्त मूल्य अर्थात मुनाफ़ा कमा कर देते हैं। यही वजह है कि न सिर्फ़ बहुत से भारतीय पूँजीपति इस क्षेत्र को निवेश के लिए बेहतर मानते हैं बल्कि अमेरिका-यूरोप से भी सेवा क्षेत्र का बहुत सारा काम भारत में आया है क्योंकि सस्ते भारतीय श्रमिकों के शोषण से इसमें अधिक मुनाफ़ा है।                          

विनिर्माण या मैन्युफैक्चरिंग क्षेत्र कुल घरेलू उत्पाद में लगभग 28% का योगदान करता है और इसमें कुल श्रमबल के लगभग 22% को रोज़गार मिलता है। इस क्षेत्र को गति देकर बड़ी सँख्या में नये रोज़गार सृजित करना मोदी सरकार का एक प्रमुख नीतिगत ऐलान था। मेक इन इंडिया, स्टार्ट अप, स्किल इंडिया जैसे कार्यक्रम इसी का अंग हैं। सेवा क्षेत्र की तरह ही यहाँ भी श्रम क़ानूनों में ‘सुधार’ के नाम पर श्रमिकों के संगठित होने के अधिकारों में कटौती, काम के घण्टों की सीमा हटाना, मालिकों को जब चाहे बिना मुआवजे़ श्रमिक को निकालने का अधिकार देना, ब्याज दरों में कमी कर पूँजी लागत को घटाना, सस्ती ज़मीन उपलब्ध कराना, पर्यावरण की सुरक्षा के नियमों में ढील देना, आदि वह प्रमुख तरीके हैं जिनके द्वारा मोदी देशी-विदेशी पूँजी को श्रमिकों से अधिक अधिशेष और मुनाफा प्राप्त करने का भरोसा देकर उन्हें उद्योगों में नये पूँजी निवेश के लिए आमन्त्रित कर रहे हैं। लेकिन अर्थव्यवस्था का संकट ऐसा है कि बाज़ार में उपभोक्ता माँग बढ़ नहीं रही और कारख़ानों की स्थापित क्षमता का भी मात्र 70-72% इस्तेमाल हो रहा है। ऐसे में ब्याज दरों को 6 वर्ष के निम्नतम स्तर पर लाने के बाद भी उद्योगों में नया पूँजी निवेश होता दिखायी नहीं दे रहा है और नया रोज़गार सृजन लगभग बन्द हो चुका है। बल्कि नोटबंदी के बाद तो कम से कम 15 लाख नौकरियाँ ख़त्म हो चुकी हैं|

कृषि क्षेत्र अर्थव्यवस्था में सबसे कम योगदान – 14% – करता है लेकिन इसमें सबसे अधिक 52% लोग लगे हुए हैं। इसलिए इसमें संलग्न अधिकाँश मज़दूरों-किसानों की आय बेहद कम है और वे जीवन की समस्त मूल ज़रूरतों से वंचित रहते हुए बस किसी तरह ज़िन्दा हैं। जिन राज्यों-क्षेत्रों में हरित क्रान्ति के बाद कृषि में तकनीकी विकास तुलनात्मक रूप से अधिक हुआ था वहाँ अधिक पूँजी निवेश की आवश्यकता के चलते अधिसंख्य छोटे-सीमान्त किसानों के लिए कृषि घाटे का सौदा बन चुकी है और ये किसान और खेत मज़दूर कम आय में गुज़ारा न कर पाने के चलते कर्ज़ में डूबते चले जा रहे हैं। आन्ध्रप्रदेश-तेलंगाना जैसे राज्यों में तो कुल ग्रामीण आबादी का 93% तक कर्ज़ में डूबा है। इनमें भी लगभग सारे ही खेत मज़दूर-छोटे किसान कर्ज़ में हैं जबकि बड़े धनी किसान कम तादाद में। दूसरे, बड़े किसानों द्वारा लिये गये कर्ज़ बैंकों की कम दरों पर कृषि में विकास हेतु पूँजी निवेश के लिए हैं जबकि ग़रीब किसान-मज़दूरों के ज़्यादातर कर्ज़ उपभोग या बीमारी जैसे संकटों से निपटने हेतु सूदखोरों-धनी किसानों से भारी ब्याज दरों पर लिये जाते हैं। इसीलिए ग्रामीण क्षेत्र में आत्महत्या के अधिकांश मामले इन्हीं ग़रीब किसान-मज़दूरों के तबके के हैं। हाल के वर्षों में धान, गेहूँ, गन्ना, आदि सभी फसलों की बुआई-रोपाई, निराई-गुड़ाई से लेकर कटाई-छिलाई, पेराई में मशीनीकरण की रफ़्तार जिस तरह तेज़ हुई है, उससे पूँजी निवेश की ज़रूरत बढ़ेगी और कृषि में श्रमिकों की माँग कम होगी। कुछ किसान श्रम की कम आवश्यकता तथा अधिक पूँजीनिवेश के सहारे अधिक जमीन पर कृषि कार्य में सक्षम होंगे – खरीदकर या पट्टे/ठेके पर लेकर – तथा कम लागत और परिमाण की मितव्ययता से अधिक लाभ कमा पायेंगे किंतु अधिकांश मज़दूर-किसानों का आर्थिक संकट और बढ़ने वाला है, और गाँवों से शहरों की ओर पलायन तेज़ होगा|

नतीजा यह कि तमाम मनभावन नारों और लुभावनी स्कीमों के बावजूद मोदी सरकार के पास ऐसी कोई नीति नहीं है जो हमारे मुल्क की बहुसंख्यक आबादी यानी मज़दूरों, छोटे किसान और निम्न मध्य तबके के जीवन में कोई सुधार ला सके। यह निहायत बेशर्मी से पूँजीपति घरानों का मुनाफ़ा बढ़ाने के लिए उन्हें तमाम तरह के फ़ायदे पहुँचाने के लिए काम करती रहेगी और इससे पैदा होने वाले असन्तोष को काबू में करने के लिए जनता को हिन्दू-मुस्लिम, गाय-गोबर के नाम पर आपस में बाँटती-लड़ाती रहेगी। आतंकवाद-माओवाद-पाकिस्तान का हौआ खड़ा करेगी ताकि लोग अपने जीवन पर मँडराते सबसे भयावह ख़तरों को देख ही नहीं सकें, अपनी वास्तविक समस्याओं पर लड़ने के लिए एकजुट ही न हो सकें और आपस में कटते-मरते रहें। इन मंसूबों को लोगों के सामने उजागर करना और अपने वाजिब हक़ माँगने के लिए उन्हें एकजुट और संगठित करना आज की सबसे बड़ी ज़रूरत है।

 

मज़दूर बिगुल, जून 2018


 

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