ग़रीबों से वसूले टैक्सों के दम पर अमीरों की मौज

सत्यप्रकाश

हर साल बजट के पहले और उसके बाद भी पूँजीपतियों के संगठन हाय-तौबा मचाते रहते हैं कि टैक्सों के बोझ से उद्योगपतियों-व्यापारियों की कमर टूटी जा रही है और अगर उन्हें और रियायतें नहीं दी गयीं तो देश का विकास ठप्प हो जायेगा। अपनी चीख़-पुकार और धमकियों के दम पर सरकार से वे तमाम तरह की छूटें हासिल करते रहते हैं। दूसरी तरफ़ आम मेहनतकश लोगों पर तरह-तरह से न दिखायी पड़ने वाले टैक्सों का बोझ लादा जाता रहता है। (पूँजीपति हमेशा ऐसी तिकड़में करते आये हैं। देखिए आज से 105 वर्ष पहले लिखा गया लेनिन का लेख।)

ज़्यादातर मध्यवर्गीय लोगों के दिमाग़ में यह भ्रम बैठा हुआ है कि उनके और अमीर लोगों के चुकाये हुए टैक्सों की बदौलत ही सरकारों का कामकाज चलता है। कल्याणकारी कार्यक्रमों या ग़रीबों को मिलने वाली थोड़ी-बहुत रियायतों पर अक़सर वे इस अन्दाज़ में ग़ुस्सा होते हैं कि सरकार उनसे टैक्स वसूलकर लुटा रही है।

सच्चाई इसके ठीक विपरीत है। हक़ीक़त यह है कि आम मेहनतकश आबादी से बटोरे गये टैक्सों से पूँजीपतियों को मुनाफ़ा पहुँचाने के इन्तज़ाम किये जाते हैं और समाज के ऊपरी तबक़ों को सहूलियतें मुहैया करायी जाती हैं। ग़रीबों के लिए जो कल्याणकारी कार्यक्रम चलते हैं, जिनमें अब लगातार कटौती की जा रही है, उनका ख़र्च भी देशभर की ग़रीब आबादी ही तमाम परोक्ष करों के ज़रिये उठाती है।

टैक्स न केवल बुर्जुआ राज्य की आय का मुख्य स्रोत है बल्कि यह आम जनता के शोषण और पूँजीपतियों को मुनाफ़ा पहुँचाने का एक और ज़रिया भी है। सरकार के ख़ज़ाने में पहुँचने वाले करों का क़रीब तीन-चैथाई हिस्सा आम आबादी पर लगाये गये करों से आता है, जबकि एक चैथाई से भी कम निजी सम्पत्ति और उद्योगों पर लगे करों से। उद्योगों पर लगने वाले कर की वसूली भी आम जनता से ही होती है। इन्हीं टैक्सों से सरकार चलाने का भारी-भरकम ख़र्च भी निकाला जाता है जो वास्तव में पूँजीपतियों की मैनेजिंग कमेटी ही होती है।

टैक्स मोटे तौर पर दो तरह के होते हैं : प्रत्यक्ष और परोक्ष। प्रत्यक्ष करों में मुख्यतः कारपोरेशन कर, आय कर, ब्याज कर, सम्पत्ति कर, उपहार कर, भू-राजस्व आदि होते हैं। मालों और सेवाओं पर वसूले जाने वाले परोक्ष करों में उत्पाद एवं सीमा शुल्क, मनोरंजन कर, सेवा कर, बिजली, पानी, सड़क आदि हर चीज़ के इस्तेमाल पर लिए जाने वाले कर और शुल्क शामिल हैं जिनमें से ज़्यादातर अब जीएसटी के दायरे में आ गये हैं।

भारत में कर राजस्व का भारी हिस्सा परोक्ष करों से आता है। केन्द्र सरकार की कुल कर वसूली का लगभग तीन चैथाई हिस्सा परोक्ष करों से आता है। राज्य सरकारों के कुल कर संग्रह का 90 प्रतिशत से भी ज़्यादा परोक्ष करों से मिलता है। इस तरह केन्द्र और राज्य सरकारों, दोनों के करों को मिलाकर देखें तो कुल करों का क़रीब 80 प्रतिशत परोक्ष कर हैं जबकि सिर्फ़ 20 प्रतिशत प्रत्यक्ष कर।

कुछ लोग तर्क देते हैं कि अमीर या उच्च मध्य वर्ग के लोग ही परोक्ष करों का भी ज़्यादा बोझ उठाते हैं क्योंकि वे उपभोक्ता सामग्रियों पर ज़्यादा ख़र्च करते हैं। पर सच यह है कि लगभग 85 प्रतिशत आम आबादी अपनी रोज़मर्रा की चीज़ों की ख़रीद पर जो कर चुकाती है उसकी कुल मात्रा मुट्ठीभर ऊपरी तबक़े द्वारा चुकाये गये करों से कहीं ज़्यादा होती है। ग़रीब मेहनतकश लोग अपनी ज़रूरत की जो छोटी से छोटी चीज़ भी ख़रीदते हैं, उसकी क़ीमत में टैक्स पहले ही शामिल होता है। उन्हें तो ये टैक्स चुकाने ही चुकाने पड़ते हैं। न तो वे अपने लिए रियायतें माँग सकते हैं और न ही टैक्स चोरी कर सकते हैं।

दूसरी ओर सरकार पूँजीपतियों को तमाम तरह के विशेषाधिकार और छूटें देती है। उन पूँजीपतियों को जो तमाम तरह की तिकड़मों, फर्ज़ी लेखे-जोखे आदि के ज़रिये अपनी कर-योग्य आय का भारी हिस्सा छुपा लेते हैं। इसके लिए वे मोटी तनख्वाहों पर वकीलों और कर विशेषज्ञों को रखते हैं। उसके बाद जितना टैक्स बनता है उसका भुगतान भी वे प्रायः कई-कई साल तक लटकाये रखते हैं और अक़सर उसे पूर्णतः या अंशतः माफ़ कराने में भी कामयाब हो जाते हैं।

आम लोगों को शिक्षा, चिकित्सा, आदि के लिए दी जाने वाली सब्सिडियों के बारे में शोर मचा-मचाकर उनमें भारी कटौती करा दी गयी, लेकिन असलियत यह है कि आज लाखों करोड़ की सब्सिडी उद्योगों को दी जाती है। इसके अलावा आम लोगों से उगाहे गये करों से पूँजीपतियों के लाभार्थ अनुसन्धान कार्य होते हैं, उनके प्रतिनिधिमण्डलों के विदेशी दौरे कराये जाते हैं, मुख्यतः उनकी सुविधा के लिए सड़कें और रेलें बिछायी जाती हैं, रेलों में माल ढुलाई पर भारी छूट दी जाती है, मिट्टी के मोल ज़मीनें मुहैया करायी जाती हैं, आदि। नये उद्योग लगाने पर अक़सर कुछ साल तक उनके सभी टैक्स माफ़ कर दिये जाते हैं। इस सबके बाद उन्हें जो कर चुकाने पड़ते हैं, उसकी वसूली भी वे चीज़ों के दाम बढ़कर आम जनता से कर लेते हैं।

पिछले तीन दशकों के दौरान उदारीकरण की नीतियों के तहत एक ओर जनता पर करों का बोझ तमाम तिकड़मों से बढ़ाया गया, दूसरी ओर मीडिया में आक्रामक और झूठ से भरे प्रचार से ऐसा माहौल बनाया गया मानो देश की आर्थिक दुरवस्था का कारण शिक्षा, स्वास्थ्य, कृषि आदि में दी जाने वाली सब्सिडी ही हो। लेकिन इसकी क़ीमत पर हर बजट में देशी-विदेशी पूँजीपतियों को तरह-तरह की रियायतें और छूटें परोसी जाती रही हैं। इस दौरान पूँजीपतियों-व्यापारियों की दौलत में सैकड़ों-हज़ारों गुना की बढ़ोत्तरी हो गयी, देश में अरबपतियों की संख्या एक लाख और खरबपतियों की संख्या एक सौ पार कर गयी है लेकिन उनसे वसूले जाने वाले प्रत्यक्ष करों में महज़ कुछ प्रतिशत की ही बढ़ोत्तरी हुई है।

सरकारी विशेषज्ञ और बुर्जुआ कलमघसीट दलील देते रहते हैं कि सरकार का काम सरकार चलाना है, स्कूल, रेल, बस और अस्पताल चलाना नहीं, इसलिए इन सबको निजी पूँजीपतियों के हाथों में सौंप देना चाहिए। दूसरी ओर सरकार दोनों हाथों से आम लोगों से टैक्स वसूलने में लगी हुई है। इसके उलट क्या यह नहीं होना चाहिए कि मज़दूरों और ग़रीब कामगारों को लूटकर पैसे में लोट रहे धनपशुओं पर भारी टैक्स लगाकर उस धन से समूची आम आबादी के लिए शिक्षा, स्वास्थ्य, यातायात आदि सुविधाएँ मुफ़्त उपलब्ध करायी जायें? मगर यह काम पूँजीपतियों की चाकर सरकार तो करने से रही।

मज़दूर बिगुल, जुलाई 2018


 

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