प्रधान चौकीदार की देखरेख में रिलायंस ने की हज़ारों करोड़ की गैस चोरी और अब कर रही है सीनाज़ोरी

मुकेश असीम

गिद्ध बने बग़ैर पूँजीवादी व्यवस्था को नहीं चलाया जा सकता। तुम मुझे एक पूँजीपति दिखाओ और मैं तुम्हें एक परजीवी दिखा दूँगा।” – मैल्कम एक्स (अमेरिकी नस्लवाद-पूँजीवाद विरोधी नेता)

जुलाई का अन्तिम सप्ताह ही था जब प्रधानमन्त्री नरेन्द्र मोदी ने उत्तर प्रदेश में कथित रूप से हज़ारों करोड़ की विकास व निवेश परियोजनाओं की नींव रखते हुए देश के 50 बड़े पूँजीपतियों को सम्बोधित करते हुए कहा था कि ‘अगर नेक नीयत हो तो उद्योगपतियों के साथ खड़े होने में दाग़ नहीं लगता!’ इसके 3-4 दिन बाद की ही बात है, जब 31 जुलाई को ठीक जिस समय पूरे देश की जनता को कॉर्पोरेट मीडिया के भोंपुओं द्वारा एनआरसी, आसामी-बंगाली, हिन्दू-मुस्लिम में उलझाया हुआ था, एक बड़ी ख़बर चुपके से पता चली कि ‘चौकीदार’ मोदी सरकार सेंधमार मुकेश अम्बानी की रिलायंस इण्डस्ट्रीज़़ से 30 हज़ार करोड़ रुपये की प्राकृतिक गैस चोरी का मुक़दमा अन्तरराष्ट्रीय मध्यस्थता पंचाट में हार गयी! आन्ध्र के कृष्णा-गोदावरी बेसिन में ओएनजीसी के गैस भण्डार में सेंध लगाकर रिलायंस द्वारा हज़ारों करोड़ रुपये की प्राकृतिक गैस चुराने का यह मामला कई साल से चल रहा था। इस पंचाट ने जो रिलायंस ओर मोदी सरकार की सहमति से चुना गया था, उसने ओएनजीसी की शिकायत को रद्द कर रिलायंस पर लगा 10 हज़ार करोड़ का वह जुर्माना हटा दिया जो 2016 में जस्टिस ए पी शाह आयोग द्वारा रिलायंस को दण्डित करने की सिफ़ारिश के चलते सरकार को लगाना पड़ा था। इससे भी बडी बात यह कि पंचाट ने आदेश दिया है कि अब उलटा सरकार को ही हरजाने के तौर पर लगभग 50 करोड़ रुपये रिलायंस को देने होंगे। लेकिन यह इस कि़स्म का पहला मामला नहीं है। 2016 में भारत सरकार और इसरो देवास मल्टीमीडिया के साथ ऐसा ही एक मध्यस्थता का मामला हार चुके हैं और उन्हें देवास को 4400 करोड़ रुपये 18% ब्याज के साथ चुकाने का फ़ैसला मानना पड़ा था।

पहले यह समझ लेते हैं कि मामला क्या था।

आन्ध्र प्रदेश की दो प्रमुख नदियों कृष्णा और गोदावरी के डेल्टा क्षेत्र में स्थित कृष्णा-गोदावरी (केजी) बेसिन कच्चे तेल और गैस का विशाल भण्डार माना जाता है। 1997-98 में भारत सरकार कच्चे तेल और गैस की खोज के लिए न्यू एक्सप्लोरेशन और लाइसेंस पॉलिसी (नेल्प) लेकर आयी। इस नीति का मुख्य मक़सद तेल खदान क्षेत्र में लीज के आधार पर सरकारी और निजी क्षेत्र की कम्पनियों को एक समान अवसर देना था। इस नीति से रिलायंस का प्रवेश तेल और गैस के अथाह भण्डार वाले इस क्षेत्र में हो गया। रिलायंस ने इन तेल-गैस क्षेत्रों में अपना अधिकार बनाना शुरू किया, जहाँ सार्वजनिक क्षेत्र की कम्पनी ओएनजीसी पहले से खुदाई कर रही थी।

धीरे-धीरे रिलायंस की ओर से मीडिया में ख़बरें आने लगीं कि उसे इस क्षेत्र में करोड़ों घनमीटर प्रतिदिन प्राकृतिक गैस उत्पादन करने वाले कुएँ मिल गये हैं। इन ख़बरों से रिलायंस के शेयर के बाज़ार मूल्य आसमान पर जा पहुँचे। 2008 में रिलायंस ने तेल और अप्रैल 2009 में गैस का उत्पादन शुरू किया। लेकिन हक़ीक़त यह थी कि रिलायंस को अपनी घोषणाओं के विपरीत बेहद कम तेल और गैस इन क्षेत्रों से प्राप्त हो रही थीं और पास के क्षेत्र में स्थित ओएनजीसी अपने कुओं से भरपूर मात्रा में तेल व गैस का उत्पादन कर रहा था।

2011 में केजी बेसिन में रिलायंस इण्डस्ट्रीज़ की परियोजना से गैस उत्पादन में भारी गिरावट आयी और सरकार ने रिलायंस को ग़ैर-प्राथमिक क्षेत्र के उद्योगों को गैस की आपूर्ति बन्द करने का आदेश दिया। लेकिन रिलायंस ने इस्पात उत्पादन करने वाले समूहों को साथ लेकर सरकार पर दबाव बनाना शुरू किया। पेट्रोलियम मन्त्रालय और रिलायंस में यह विवाद गहराता चला गया। पेट्रोलियम मन्त्रालय का कहना था कि रिलायंस को लेखा महापरीक्षक (कैग) द्वारा ऑडिट कराना होगा, लेकिन रिलायंस इसके लिए तैयार नहीं हुआ। उसने इस क्षेत्र में अपने वादे के मुताबिक़ अरबों करोड़ का नया निवेश करने से भी इनकार कर दिया।

रिलायंस कम्पनी ने यह शर्त भी रखी कि वह अपने दस्तावेज़ लेखा महापरीक्षक के पास नहीं भेजेगा, लेखा परीक्षा उसके परिसर में होनी चाहिए और इस रिपोर्ट को पेट्रोलियम मन्त्रालय को सौंपी जाये, संसदीय लोकलेखा समिति (पीएसी) के तहत संसद को नहीं।

यूपीए सरकार में मुकेश अम्बानी की रिलायंस इतनी शक्तिशाली मानी जाती थी कि कहा जाता था कि मुकेश अम्बानी की मर्जी से पेट्रोलियम मन्त्री हटाये और बहाल किये जाते थे। उस सरकार में तीन पेट्रोलियम मन्त्री बदले गये थे जिसके बारे में यह चर्चा आम थी। ऐसे ही हटाये गये एक पेट्रोलियम मन्त्री जयपाल रेड्डी ने खुलकर इस ओर इंगित किया था।

इस बीच 2013 में रिलायंस और ओएनजीसी के बीच गैस चोरी को लेकर विवाद की थोड़ी–थोड़ी भनक मिलना शुरू हो गयी थी। ओएनजीसी ने 15 मई 2014 को दिल्ली उच्च न्यायालय में एक मुक़दमा दायर किया, जिसमें यह आरोप लगाया गया था कि रिलायंस इण्डस्ट्रीज़ ने उसके गैस ब्लॉक से हज़ारों करोड़ रुपये की प्राकृतिक गैस चोरी की है। ओएनजीसी का कहना था कि रिलायंस ने जानबूझकर दोनों ब्लॉकों की सीमा के बिल्कुल क़रीब से गैस निकाली, जिसके चलते ओएनजीसी के ब्लॉक की गैस आरआईएल के ब्लॉक में चली गयी।

ओएनजीसी के चेयरमैन डीके सर्राफ़ ने 20 मई 2014 को अपने बयान में कहा कि ओएनजीसी ने रिलायंस इण्डस्ट्रीज़ के खि़लाफ़ जो मुक़दमा दायर किया है, उसका मक़सद अपने व्यावसायिक हितों की सुरक्षा करना है। क्योंकि रिलायंस की चोरी के चलते उसे लगभग 30,000 करोड़ रुपये का नुक़़सान हुआ है। 23 मई 2014 को एक बयान में रिलायंस इण्डस्ट्रीज़ ने कहा कि ‘हम केजी बेसिन से कथित तौर पर गैस की ‘चोरी’ के दावे का खण्डन करते हैं। सम्भवत: यह इस वजह से हुआ कि ओएनजीसी के ही कुछ तत्त्वों ने नये चेयरमैन और प्रबन्ध निदेशक सर्राफ़ को गुमराह किया जिससे वे इन ब्लॉकों का विकास न कर पाने की अपनी विफलता को छुपा सकें।’

15 मई 2014 को ओएनजीसी ने जो केस दिल्ली हाईकोर्ट में दाखि़ल किया था उसमें एक विशेष बात यह थी कि ओएनजीसी ने रिलायंस पर तो चोरी का आरोप लगाया ही था, उसने सरकार को भी आड़े हाथों लिया था। ओएनजीसी का कहना था कि पेट्रोलियम उद्योग के नियामक डायरेक्टर जनरल ऑफ़ हाइड्रोकार्बन्स (डीजीएच) और पेट्रोलियम मन्त्रालय द्वारा निगरानी नहीं किये जाने के कारण ही रिलायंस ने यह चोरी की। यानी कि एक पक्ष मतलब ओएनजीसी कह रहा था कि दूसरे पक्ष यानी रिलायंस और तीसरे पक्ष अर्थात सरकार ने मिलकर इस डकैती को अंजाम दिया है। लेकिन ओएनजीसी को उसकी औक़ात मोदी सरकार ने 9 दिन के अन्दर ही याद दिला दी। सरकार ने 23 मई को रिलायंस, ओएनजीसी और पेट्रोलियम मन्त्रालय के अधिकारियों की एक बैठक करवायी और सबने मिलकर इस मामले के अध्ययन के लिए एक समिति बनाने का निर्णय लिया, जिसमें रिलायंस ओर सरकारी प्रतिनिधि शामिल थे। समिति ने मामले की जाँच का ठेका दुनिया की जानी-मानी पेट्रोलियम तकनीकी सलाहकार अमेरिकी कम्पनी डिगॉलियर एण्ड मैकनॉटन (डी एण्ड एम) को दे दिया।

डी एण्ड एम ने अपनी रिपोर्ट में कहा कि ओएनजीसी के ब्लॉक से आरआईएल के ब्लॉक में 11,000 करोड़ रुपये की गैस गयी है। दूसरे, उसने यह सलाह भी दे डाली कि इन ब्लॉकों में बची गैस को रिलायंस से ही निकलवा लिया जाये, क्योंकि वह इस काम को करने में माहिर है। इस रिपोर्ट पर निर्णय देने के लिए मोदी सरकार ने न्यायमूर्ति (सेवानिवृत्त) ए पी शाह की अध्यक्षता में एक जाँच समिति का गठन किया। समिति का काम इस मामले में हुई भूलचूक की जाँच करना और ओएनजीसी को दिये जाने वाले मुआवज़े के बारे में सिफ़ारिश करना था।

शाह समिति ने इस मामले में स्पष्ट रूप से कहा कि मुकेश अम्बानी की अगुवाई वाली रिलायंस इण्डस्ट्रीज़ को ओएनजीसी के क्षेत्र से अपने ब्लाॅक में बह या खिसककर आयी गैस के दोहन के लिए उसे सरकार को 1.55 अरब डॉलर का भुगतान करना चाहिए। रिपोर्ट के मुताबिक़ रिलायंस अनुचित तरीक़े से फ़ायदे की स्थिति में रही है। लेकिन मोदी सरकार ने रिलायंस द्वारा इस फ़ैसले को मानने से इनकार करते हुए उसके द्वारा अन्तरराष्ट्रीय पंचाट में जाने के निर्णय को स्वीकार कर लिया, जिसके द्वारा दिये गये फ़ैसले ने देश की जनता को सदा के लिए महँगे दामों पर गैस ख़रीदने पर अब मजबूर कर दिया है। दरअसल वहाँ पर मोदी सरकार की नहीं भारत की जनता की हार हुई है और एक पूँजीपति की जीत हुई है और वो भी एक ऐसे केस में जो साफ़-साफ़ चोरी और सीनाज़ोरी का मामला था।

कमाल की बात यह कि हमारी ‘राष्ट्रवादी चौकीदार’ सरकारों ने रिलायंस जैसी कम्पनियों के साथ, उन्हें ऐसे संकट से बचाने के लिए, यह समझौता किया हुआ है कि भारत सरकार और भारतीय कम्पनी के बीच भारत में ही हुए किसी विवाद का फ़ैसला भारतीय अदालतों के बजाय कुछ विदेशी पंचों से कराया जायेगा जिन्हें सरकार और कम्पनी दोनों की पसन्द से चुना जायेगा! वैसे तो भारतीय अदालतें भी पूँजीपतियों के खि़लाफ़ ज़्यादा कुछ नहीं करतीं, पर साफ़-साफ़ चोरी वाले मामलों में न्याय का दिखावा करने की विवशता या कभी-कभी ग़लत जज के पास मामला फँस जाने से गड़बड़ की आशंका रहती है, इसलिए दुनिया-भर में से आरोपी कम्पनी की सहमति से छाँटे गये पंचों से फ़ैसला कराने से पूरा ‘न्याय’ होता है, पूँजीपतियों के पक्ष में। तो रिलायंस की सहमति से चुने गये पंचों से जो उम्मीद थी, वही हुआ है। पर आखि़र ये फ़ैसला सामान्य अदालती व्यवस्था के बजाय इस मध्यस्थता पंचाट में क्यों हुआ?

मध्यस्थता पंचाट क्या है?

वैसे तो न्यायालय सहित पूँजीवादी राजसत्ता के सभी अंग पूँजीपति वर्ग के हितों की सुरक्षा हेतु ही काम करते हैं। मगर बुर्जुआ जनतन्त्र का संविधान, नियम-कायदे देश के सभी नागरिकों को एक औपचारिक क़ानूनी समानता का अधिकार ज़रूर देता है जिसे लागू करते वक़्त पूँजीवादी जनतन्त्र के क़ानून और न्याय की सामाजिक मान्यता क़ायम रखने हेतु औपचारिक संवैधानिक अंगों को क़ानून के समक्ष समानता और न्याय करते हुए दिखने की आवश्यकता मौजूद रहती है। इसलिए सीधे-सीधे अन्यायपूर्ण दिखने वाले कुछ मामलों में कभी-कभी किसी ख़ास पूँजीपति के विरुद्ध फ़ैसला होने की सम्भावना पूरी तरह ख़ारिज़ नहीं की जा सकती। इसलिए पूँजीपति वर्ग इस संवैधानिक व्यवस्था की औपचारिक समानता से भी मुक्त होने के रास्ते ढूँढ़ता रहा है। ख़ास तौर पर जब द्वितीय विश्व युद्ध के बाद साम्राज्यवादी देशों का सीधे औपनिवेशिक शासन समाप्त होने लगा और नवउपनिवेशवाद का दौर आया तो इन नवस्वाधीन देशों में साम्राज्यवादी देशों की पूँजी के हितों की हिफ़ाज़त के लिए आवश्यक व्यवस्था स्थापित करने की ज़रूरत खड़ी हुई। इण्टरनेशनल मोनेटरी फ़ण्ड (आईएमएफ़) और विश्व बैंक जैसी संस्थाओं को तो सभी जानते हैं लेकिन 1950 के दशक में विभिन्न व्यापार और निवेश सन्धियों के ज़रिये एक और व्यवस्था अस्तित्व में आयी जिसका नाम है निवेशक-राज्य विवाद निपटान या इंवेस्टर-स्टेट डिस्प्यूट सेटलमेण्ट (आईएसडीएस) जिसके अन्तर्गत अन्तरराष्ट्रीय व्यापार व निवेश को प्रबन्धित-संचालित करने वाली द्विपक्षीय एवं बहुपक्षीय सन्धियों में यह शर्त शामिल की गयी कि निजी पूँजीपति निगमों और उनकी पूँजी निवेश वाले देशों के बीच विवाद की स्थिति में इन निगमों को यह अधिकार होगा कि वे देशों के खि़लाफ़ मामला उस देश की न्यायपालिका के बजाय एक मध्यस्थता पंचाट में ले जा सकें, जिनके द्वारा दिये गये फ़ैसले दोनों पक्षों पर बाध्यकारी होंगे। धीरे-धीरे इन सन्धियों के माध्यम से यह व्यवस्था पूरी दुनिया में व्यापक तौर पर स्थापित हो गयी।  

इन मध्यस्थता पंचाटों की कल्पना एक वैश्विक, निजी, सुपर अदालत के रूप में की जा सकती है। इसमें जज और वकील विभिन्न देशों ख़ासतौर पर विकसित पूँजीवादी देशों के अभिजात कॉर्पोरेट वकील होते हैं। एक ही व्यक्ति किसी मामले में जज होता है तो दूसरे मामले में वकील! इससे उनके आपसी सम्बन्ध भी अच्छी तरह समझे जा सकते हैं। इन पंचाटों में तीन मध्यस्थ होते हैं जिनमें से एक कम्पनी व एक सरकार द्वारा चुना जाता है और एक दोनों की सहमति से। सिद्धान्त में यह व्यवस्था बड़ी उचित व न्यायपूर्ण प्रतीत होती है। पर ये पंचाट सम्बन्धित देश में नहीं बल्कि दुनिया के किसी और कोने में सुनवाई करते हैं, इनके ऊपर न्यायालयों में मामला सिद्ध करने के औपचारिक नियम लागू नहीं होते और सम्बन्धित देश के क़ानूनों से मुक्त ये पंचाट समझौतों की व्याख्या बड़ी मनमर्जी से कर सकते हैं। पर ये सब मध्यस्थ पंच ख़ुद ही कॉर्पोरेट वकील होते हैं, बड़ी-बड़ी कम्पनियों के लिए वकालत करते हैं, उन्हें ऐसे सब मामलों में सलाह-मशविरा देते हैं और इस सबसे भी बड़ी बात यह कि इनकी करोड़ों की कमाई इसी पर निर्भर करती है कि कम्पनियाँ इन पंचाटों को सामान्य न्याय व्यवस्था से अपने हित के लिए बेहतर मानें और अधिक से अधिक मामले इनमें ले जायें। ख़ुद अमेरिकी सुप्रीम कोर्ट के मुख्य न्यायाधीश जॉन रॉबर्ट्स ने 2014 में एक फ़ैसले में चेतावनी देते हुए कहा कि इन पंचाटों की शक्ति बहुत भयावह है क्योंकि ये किसी भी देश के सार्वभौम क़ानूनों पर पुनर्विचार कर ‘उस देश की विधायिका, कार्यपालिका और न्यायपालिका के आधिकारिक फ़ैसलों को रद्द कर सकते हैं।’ इस तरह ये पंचाट किसी देश के सार्वभौम क़ानूनों को भी ताक पर रख दे सकते हैं।

अपनी इस बेहद ख़तरनाक शक्ति के कारण ये पहले विदेशों में निवेश करने वाली कम्पनियों के बीच बहुत लोकप्रिय हुए, क्योंकि उस देश में पर्यावरण के विनाश, श्रमिकों की जान से खिलवाड़, ख़राब गुणवत्ता वाले या ज़हरीले उत्पाद बेचने वाली, रिश्वतबाजी/भ्रष्टाचार से ठेके लेने वाली कम्पनियाँ इस ज़रिये जनमत और जन आन्दोलनों के दबाव में अपने अपराधों के लिए मिल सकने वाले हर किस्म के दण्ड से सुरक्षित हो गयीं। बाद में रिलायंस, देवास आदि घरेलू कम्पनियों ने भी इसी रास्ते को पकड़ा और स्वयं अपने देश में सरकारी योजनाओं में निवेश करने वाली या ठेके लेने वाली कम्पनियाँ भी समझौतों-संविदाओं में मामलों को देश के सामान्य क़ानूनों और सामान्य न्यायालयों में निपटाने के बजाय इन पंचाटों में निपटाने का प्रावधान डलवाने लगीं। इस तरह वे ख़ुद पूँजीवादी व्यवस्था के अपने क़ानूनों से भी काफ़ी हद तक मुक्त होकर शोषण और संसाधनों की लूट की खुली छूट पा गयीं।

मज़दूर बिगुल, अगस्‍त 2018


 

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