उत्तर प्रदेश, उत्तराखण्ड, पंजाब, मणिपुर और गोवा में विधानसभा चुनाव
जनता के पास चुनने के लिए कुछ भी नहीं है! सिवाय इंक़लाब के!

 

उत्तर प्रदेश, उत्तराखण्ड, पंजाब, मणिपुर और गोवा में विधानसभा चुनाव हो रहे हैं। एक बार फिर सभी चुनावी मेंढकों ने अपने-अपने बिलों से निकलकर टर्राना शुरू कर दिया है। इस टर्राहट के शोर में गाहे-बगाहे विकास, ग़रीबी और बेरोज़गारी के मुद्दे भी सुनायी पड़ जाते हैं। लेकिन सभी जानते हैं कि तमाम चुनावी पार्टियों को किसी चुनाव में ग़रीबी, बेरोज़गारी, महँगाई आदि जैसे मुद्दों की याद आती भी है, तो उसका कारण यह होता है कि वोटर जाति, धर्म, आदि की राजनीति से बुरी तरह ऊबे हुए होते हैं। जब तक साम्प्रदायिकता और जातिवाद की कढ़ाही फिर से गर्म नहीं होती तब तक ये चुनावी पार्टियाँ विकास, रोज़गार, महँगाई आदि के बारे में कुछ जुबानी जमा ख़र्च कर लेती हैं। इस बार भी सारे के सारे चुनावी मदारी जाति और धर्म की अँगीठी पर रोटी सेंककर, साम-दाम-दण्ड-भेद अपनाकर किसी भी तरह से वोट बटोरकर सत्ता में आने में इस क़दर मगन हैं, कि उनके सामने न तो रोज़गार मुद्दा है, न ग़रीबी, न भुखमरी, न मज़दूरों के हालात। वर्तमान विधानसभा चुनाव एक बार फिर सड़ाँध मारती पूँजीवादी राजनीति को हमारे सामने बेपर्द कर रहे हैं। इन चुनावों में आम मेहनतकश जनता कहीं भी नहीं है। उसका मोल सिर्फ़ उसके वोट के लिए है। जाति, धर्म, आरक्षण, मन्दिर, क्षेत्रवाद आदि जैसे मुद्दों से उसे भरमाकर वोट बटोरने की होड़ में कोई किसी से पीछे नहीं है।

कांग्रेस, सपा और बसपा उत्तर प्रदेश में मुसलमान वोटों को समेटने की अन्धी प्रतिस्पर्द्धा में लगी हुई हैं। कांग्रेस ने पहले दावा किया कि वह 27 प्रतिशत पिछड़ी जाति के आरक्षण में से 4.5 प्रतिशत मुसलमानों को दे देगी। जब इतना काफ़ी नहीं लगा तो कांग्रेस के सलमान खुर्शीद ने वायदा किया कि 4.5 प्रतिशत की बजाय मुसलमानों को 9 प्रतिशत का आरक्षण दिया जायेगा। समाजवादी पार्टी मुसलमान वोटरों को याद दिला रही है कि बाबरी मस्जिद के ध्वंस में जितना हाथ भाजपा का था, उतना ही हाथ कांग्रेस की केन्द्र सरकार की निष्क्रियता का भी था। राहुल गाँधी दौरे पर दौरे मारे जा रहे हैं तो सपा के अखिलेश यादव ने भी यात्राओं का ताँता लगा दिया है। कांग्रेस मुसलमानों, पिछड़ी जातियों और ब्राह्मणों के वोटों का समीकरण बनाने के चक्कर में है, तो सपा यादवों, कुछ अन्य पिछड़ी जातियों और मुसलमानों का फ़ार्मूला पका रही है। वहीं भाजपा अपने पुराने सवर्ण वोट बैंक को ही सेंधा लगने से बचाने में दुबली हुई जा रही है। मायावती अपनी सरकार के दाग़ी मन्त्रियों को हटाने, हड़काने, धमकाने आदि की कवायद से साफ़-सुथरी छवि बनाने में लगी हुई हैं। बसपा अपने दलित वोट बैंक पर सबसे ज्यादा ज़ोर दे रही है और इस बार उसका निशाना पश्चिमी उत्तर प्रदेश की जाटव दलित आबादी पर है, जो आबादी का क़रीब 18 प्रतिशत है। उसे लग गया है कि पिछले चुनावों में उसके साथ आया ब्राह्मण वोट बैंक उसके पास से खिसक रहा है। बड़े मदारियों के अलावा पीस पार्टी आदि जैसे कुछ छोटे मदारी भी एक-दो सीट पाकर अपने मोलभाव की ताक़त बढ़ाने और कमाई करने की आस लगाये बैठे हैं। भ्रष्टाचारी नेता और गुण्डों के एक दल से दूसरे दल और दूसरे से तीसरे दल में प्रवास की रफ्तार आश्चर्यजनक रूप से बढ़ गयी है। बसपा से कुशवाहा को भ्रष्टाचार के आरोप में निकाला गया तो भाजपा ने उसके लिये दरवाज़े खोल दिये; डी.पी. यादव को सपा ने वापस लेने से इंकार कर दिया तो वह किसी अन्य दरवाज़े की तलाश में घूम रहा है; तमाम बाहुबली नेताओं की ख़रीद-फ़रोख्त बड़े पैमाने पर शुरू हो गयी है। आये दिन उत्तर प्रदेश के कभी किसी तो कभी किसी इलाक़े में नोटों और महँगी विदेशी शराबों से भरी गाड़ियाँ पकड़ी जा रही हैं, जो तोहफ़ों के तौर पर एक जगह से दूसरी जगह भेजी जा रही थीं।

इस पूरे महाप्रपंच में आम मेहनतकश जनता कहाँ है? उत्तर प्रदेश के करोड़ों मज़दूर और भूमिहीन कहाँ हैं? लाखों-लाख उजड़ते ग़रीब किसान कहाँ हैं? ग़रीब दलित आबादी कहाँ हैं? मेहनतकश मुसलमान आबादी कहाँ है? जवाब सीधा है : कहीं नहीं! सारे के सारे चुनावी दलों का लक्ष्य है पाँच साल तक सत्ता में रहकर, पूँजीपतियों, ठेकेदारों, दलालों, धनी किसानों, कुलकों-फार्मरों, कारपोरेट घरानों की सेवा करना और बदले में अपनी सेवा की फ़ीस वसूलना। यही हाल पंजाब, उत्तराखण्ड, आदि प्रान्तों के विधानसभा चुनावों का भी है। सभी चुनावी पार्टियों की आर्थिक नीतियों से लेकर चाल-चेहरा-चरित्र तक, सबकुछ इस क़दर मिलता-जुलता है कि कई बार इनके नेताओं में फ़र्क़ कर पाना मुश्क़िल हो जाता है। इनमें फ़र्क़ सिर्फ़ इस आधार पर किया जा सकता है कि कौन किसे लुभाने में लगा है। इनके पास समाज की मेहनतकश आबादी के लिए इसके अलावा और कुछ भी नहीं है। चुनावों की पूरी प्रक्रिया को देखते ही साफ़ हो जाता है कि इसमें हम मेहनकशों के पास चुनने के लिए कुछ भी नहीं है। विकल्पहीनता की स्थिति में आम ग़रीब आबादी का भी एक हिस्सा कभी कमल, पंजे, हाथी, या साइकिल पर मुहर लगा आता है। उसे पता है कि कोई भी चुनावी पार्टी उसके लिए कुछ भी नहीं करने वाली है। लेकिन कोई विकल्प न होने पर वह जाति, धर्म, क्षेत्र आदि के आधार पर वोट डाल आता है। कुछ वोट गाँव में चलने वाले गुटवाद के आधार पर भी पड़ जाते हैं। इन सबके बावजूद 40 से 50 फ़ीसदी वोटर वोट डालने नहीं जाते। इसलिए नहीं कि वे अपढ़ या अज्ञानी हैं। वे जानते हैं कि किसी को वोट डालने से कोई लाभ नहीं है। लिहाज़ा, वोट डालने में उनकी कोई दिलचस्पी नहीं रह गयी है। जो वोट पड़ते भी हैं उनका बड़ा हिस्सा ख़रीद-फ़रोख्त, बूथ कब्ज़ाने, जातिवाद, गुटपरस्ती, साम्प्रदायिकता आदि के आधार पर पड़ जाता है। यह सब कुछ यही साबित करता है कि जनता के बड़े हिस्से का पूँजीवादी व्यवस्था पर से भरोसा उठ चुका है। जीतने वाली पार्टी को आम तौर पर कुल गिरे वोटों में से मुश्क़िल से 20-22 फ़ीसदी वोट मिलते हैं। साधारण गणित जानने वाला व्यक्ति भी देख सकता है जातिवाद, साम्प्रदायिकता, भ्रष्टाचार, ख़रीद-फ़रोख्त, बूथ कब्ज़ा आदि के दन्द-फन्द अपनाने के बाद भी जीतने वाली पार्टी कुल आबादी के मुश्क़िल से 10-12 फ़ीसदी की नुमाइन्दगी का दावा कर सकती है। यही है पूँजीवादी लोकतन्त्र! इसमें ‘लोक’ कहीं नहीं है, बस तन्त्र-मन्त्र ही है!

लेकिन जब तक पूँजीवादी व्यवस्था का कोई विकल्प पेश नहीं किया जाता तब तक हर चुनाव की नौटंकी में जनता का एक हिस्सा कभी इस तो कभी उस चुनावी मदारी के निशान पर ठप्पा लगाता रहेगा। जनता बिना किसी विकल्प के भी स्वत:स्फूर्त तरीक़े से सड़कों पर उतरती है। लेकिन ऐसे जनउभार किसी व्यवस्थागत परिवर्तन तक नहीं जा सकते हैं। वे ज्यादा से ज्यादा कुछ समय के लिए पूँजीवादी शासन-व्यवस्था को हिला सकते हैं। लेकिन ऐसी उथल-पुथल से पूँजीवादी व्यवस्था देर-सबेर उबर जाती है। पूँजीवादी व्यवस्था पूरी दुनिया में कई वर्षों से आर्थिक संकट में है और अब यह आर्थिक संकट अपने आपको राजनीतिक संकट के रूप में भी अभिव्यक्त कर रहा है। लेकिन हर जगह संकट विकल्प का है। जिस मज़दूर वर्ग और उसकी हिरावल पार्टी को पूँजीवाद का विकल्प पेश करना है, वह हर जगह बिखरा हुआ है, विचारधारात्मक और राजनीतिक रूप से कमज़ोर है।

भारत में भी यही स्थिति बनी हुई है। आज मज़दूर वर्ग को एक नयी शुरुआत की ज़रूरत है। उसे मार्क्‍सवाद के विज्ञान से लैस होकर अपनी नयी इन्क़लाबी पार्टी बनाने की ज़रूरत है; अपनी क्रान्तिकारी पार्टी के जरिये ही मज़दूर वर्ग संगठित रूप से अपनी राजनीति को केन्द्र में स्थापित कर सकता है, और इन्क़लाब के रास्ते समाजवाद और मज़दूर सत्ता की स्थापना कर सकता है। पूँजीवाद का केवल यही एक विकल्प है। मौजूदा चुनाव एक बार फिर हमें इन सवालों पर सोचने के लिए मजबूर कर रहे हैं कि आख़िर कब तक हम इस ख़र्चीली नौटंकी के तमाशबीन बने रहेंगे? आख़िर कब तक हम अपनी ही ज़िन्दगी को तबाहो-बर्बाद होते देखते रहेंगे? एक पल भी गँवाए बिना हमें एक क्रान्तिकारी विकल्प खड़ा करने की तैयारियों में जुट जाना चाहिए!

 

मज़दूर बिगुलमार्च 2012

 


 

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