मोदी सरकार का अन्तिम बजट
जुमलों की भरमार में मेहनतकशों के साथ ठगी का दस्तावेज़

मुकेश असीम

1 फ़रवरी को वित्त मन्त्री पीयूष गोयल ने 2019 के लिए अन्तरिम बजट पेश किया तो आगामी चुनाव के मद्देनज़र कोशिश उन तबक़ों में से कुछ को बड़े-बड़े जुमलों के ज़रिये लुभाने की थी जो मोदी शासन के साढ़े चार सालों की जनविरोधी नीतियों से बुरी तरह तकलीफ़ का शिकार हुए हैं। मगर थोड़ी गहराई से देखें तो उन्हें तो इससे मात्र नामचारे का ही कुछ फ़ायदा हुआ, मगर पूँजीपतियों और मोदी के सोचे-समझे सामाजिक आधारों में से एक उच्च मध्य वर्ग को कई वास्तविक फ़ायदे मिले।

इस सरकार की नोटबन्दी और जीएसटी नीति से सबसे अधिक प्रभावित होने वालों में असंगठित क्षेत्र के मज़दूर व संगठित क्षेत्र के ठेका, कैजुअल श्रमिक थे। इन्हें बड़े पैमाने पर अपनी रोज़ी-रोटी से हाथ धोना पड़ा और इससे बढ़ी बेरोज़गारी से बहुत सारे श्रमिक रोज़गार के लिए बाज़ार में आ खड़े हुए जिससे एक और तो उन्हें रोज़गार बिल्कुल नहीं, या कम दिन मिलने लगा, साथ ही माँग-पूर्ति के नियम से उनकी मज़दूरी की दर भी घट गयी। इन असंगठित श्रमिकों को लुभाने के लिए बजट में इनके लिए 60 वर्ष की उम्र के बाद 3,000 रुपये महीना पेंशन की योजना का ऐलान किया गया है जो बीमा कम्पनियों के ज़रिये दी जायेगी। योजना के अनुसार, मज़दूर 18 से 40 साल की उम्र के बीच इस पेंशन के लिए पंजीकरण करा सकते हैं। 18 साल की उम्र वालों को इसके लिए 55 रुपये महीना जमा करना होगा, 29 साल से ज़्यादा उम्र हो तो 100 रुपये महीना और उम्र 40 हो तो 200 रुपये महीना। इससे अधिक उम्र के श्रमिक पंजीकरण नहीं करा सकते। जितनी रक़म ये जमा करायेंगे, उतनी ही सरकार भी इनके पेंशन खाते में जमा करायेगी। 60 साल की उम्र तक लगातार यह रक़म जमा करने पर उसके बाद 3,000 रुपये पेंशन मिलेगी।

स्पष्ट है कि श्रमिकों को अभी कुछ नहीं मिलना है। आज पंजीकरण कराने पर कम से कम इन्तज़ार 20 साल है। पहले तो समझा सकता है कि अनियमित आमदनी वाले असंगठित मज़दूरों के लिए 20 से 42 सालों तक हर महीने बीमा कम्पनी के पास किश्त जमा कराना ही लगभग नामुमकिन होगा। यह तो तुलनात्मक रूप से अधिक आय वालों के लिए भी बहुत मुश्किल होता है तथा बीमा कम्पनियों के लिए किश्त जमा कराना बीच में छोड़ देने वालों की छूट गयी जमा रक़म मुनाफ़े का एक अच्छा ज़रिया होती है। 20 से 42 वर्ष बाद 3,000 रुपये महीना की रक़म के दिवास्वप्न के लिए निरन्तर किश्त जमा कराना तो नामुमकिन ही है जबकि तब 3,000 रुपये की क्या क़ीमत होगी, वह बिल्कुल ही अनिश्चित है। दूसरे, 60 साल की उम्र के बाद तीन हज़ार रुपये मात्र की पेंशन का स्वप्न दिखाना ज़ाहिर करता है कि आने वाले वक़्त में भी सरकार के मुताबिक़ इनकी आय में कोई ख़ास वृद्धि नहीं होने वाली तभी तो 20 से 42 साल बाद भी सरकार को लगता है कि यह रक़म ललचाने वाली होगी।

लेकिन, सबसे बड़ी बात तो यह है कि असंगठित क्षेत्र के मज़दूरों से हर महीने निश्चित रक़म वसूलने के बाद उन्हें 60 वर्ष की आयु के बाद पेंशन देने की बात ही इस सरकार द्वारा एक क्रूर मज़ाक़ के अतिरिक्त और कुछ हो ही नहीं सकता। भारत में औसत जीवन प्रत्याशा ही 65 वर्ष के क़रीब है, और आज के दौर में 70-90 साल की उम्र तक तो अधिकांशतः सिर्फ़ खाता-पीता मध्यवर्ग और साधन-सम्पन्न लोग ही जी पाते हैं, जिनके पास निजी स्वास्थ्य सेवाएँ ख़रीदने की क्रय शक्ति है और जिनके शरीर ने असंगठित मज़दूरों की तरह जीवन-भर उस हाड़तोड़ श्रम का ताप नहीं झेला है, जो मज़दूरों की आयु के चौथाई हिस्से को खा जाता है। रही असंगठित मज़दूरों की बात, तो महानगरों में बेहद नारकीय हालत में जीने वाले, बीमारियों से भरपूर तंग झुग्गियों में रहने वाले, फ़ैक्टरियों में काम के बेहद कष्टकर व असुरक्षित वातावरण में बिना सुरक्षा उपकरणों के अपना श्रम बेचने वाले मज़दूर 52-55 साल से ज़्यादा तो बमुश्किल ही जी पाते हैं। कभी कोयला-लोहा खानों, भवन निर्माण, रबड़ फै़क्टरी, काँच फै़क्टरी, धातुओं की रोलिंग भट्ठियों, सफ़ाईकर्मियों, तेज़ाब व केमिकल की छोटी-छोटी इकाइयों में जाकर देखेंगे तो पायेंगे कि इनमें ठेका/दिहाड़ी पर कच्चे में खटने वाले मज़दूर, जिनके पास न पर्याप्त सुरक्षा उपकरण मुहैया हैं, न ईएसआई है, न हेल्थ कवर है, न निजी अस्पतालों तक पहुँच है, वे 50 की आयु भी बेहद कम ही पार करते हैं। उनसे 60 साल के बाद पेंशन देने के नाम पर वसूली करने से घटिया मज़ाक़ उनके साथ हो नहीं सकता।

दूसरा ललचाने-भरमाने वाला ऐलान लघु-सीमान्त किसानों के लिए किया गया जिनकी ज़िन्दगी पिछले सालों में बेहद कंगाली की हालत में पहुँच गयी है। इनकी छोटी जोतों में कम पूँजी के साथ ऊँची उत्पादन लागत पर की गयी खेती में हानि के अतिरिक्त कुछ हासिल नहीं होता। सही मायने में देखा जाये तो इन्हें इन छोटे खेतों में लगायी-खपायी गयी अपनी श्रम शक्ति के बाज़ार मूल्य के बराबर आय भी नहीं होती। मगर आज की भयंकर बेरोज़गारी की स्थिति में खेती छोड़कर मज़दूरी ही कर लेने का विकल्प भी खुला नहीं रह गया है। बड़ी तादाद में इनके उस रास्ते पर जाने और रोज़गार की माँग करने से बचने के लिए सरकार इन्हें उनकी मौजूदा तंगहाल-बदहाल ज़िन्दगी में ही फँसे रहकर कुछ सुधार का लालच दिखा रही है। इसके अन्तर्गत 2 हेक्टेयर अर्थात 5 एकड़ से कम ज़मीन के मालिकों को सरकार किसान सम्मान निधि के नाम पर साल में 3 बार दो हज़ार रुपये अर्थात 6 हज़ार रुपये सालाना देगी अर्थात 5 सौ रुपये महीने।

 किन्तु विभिन्न सर्वेक्षणों के अनुसार गाँवों की लगभग 54% आबादी तो भूमिहीन सर्वहारा है। ‘सम्मान निधि’ में मिलने में तो उनके लिए कुछ नहीं है पर इस 6 हज़ार के बदले में जो बन्द होगा – शिक्षा, स्वास्थ्य, आदि पर ख़र्च में कटौती – उससे सबसे ज़्यादा पीड़ित तो वही होंगे। सीमान्त-ग़रीब किसान को भी 6 हज़ार सालाना से हासिल कुछ नहीं होगा। वास्तविकता यही है कि इससे सीमान्त-ग़रीब किसानों के जीवन में आने वाली बदहाली-बरबादी भी रुक नहीं सकती। ज़मीन के इन छोटे-छोटे टुकड़ों में खेती किसी हालत में भी लाभकारी नहीं बन सकती। इस तबक़े का हित गाँव-शहर के श्रमिक वर्ग के साथ एकता क़ायम कर रोज़गार, न्यूनतम मज़दूरी में वृद्धि, श्रमिक अधिकारों, सार्वजनिक शिक्षा-स्वास्थ्य-आवास-यातायात की व्यवस्था, आदि के लिए संघर्ष में ही है। पूँजीवादी व्यवस्था के लिए सबसे बड़ा ख़तरा इस बरबाद होती 85% लघु-सीमान्त किसान आबादी का श्रमिक वर्ग के साथ एकजुट होकर इन अधिकारों के लिए संघर्ष के लिए खड़े हो जाना ही है। इनके लिए रोज़गार की कोई व्यवस्था पूँजीवादी व्यवस्था में मुमकिन नहीं रह गयी है। इस ‘सम्मान निधि’ में 500 रुपये महीना का एक टुकड़ा फेंककर इन सीमान्त-ग़रीब किसानों और खेतिहर श्रमिकों के बीच भी दीवार खड़ी करने का प्रयास है। इन्हें बताया जा रहा है कि वह तो श्रमिक नहीं ज़मीन का मालिक है, सरकार उसकी मदद करेगी, उसे लाभ पहुँचायेगी, उसके लिए इसी व्यवस्था में जीवन में सुधार और सम्मान की सम्भावना है। वह रोज़गार एवं मज़दूरी के सवालों पर श्रमिक वर्ग के साथ एकजुट न हो बल्कि अपने शोषक कुलकों-फ़ार्मरों के पीछे लाभकारी खेती और डेढ़ गुना एमएसपी की मृगमरीचिका में ही उलझा रहे।

यहाँ एक मार्के की बात हमारे देश के भोंपू मीडिया और टुकड़खोर अर्थविशेषज्ञों की प्रतिभा और मानसिकता पर। पीयूष गोयल ने अपने भाषण में इस ‘सम्मान-निधि’ से 12.5 करोड़ किसानों को फ़ायदे की बात कही, और पूरे मीडिया और ‘विशेषज्ञ’ अभी तक वही दोहराते आ रहे हैं। लेकिन दो हज़ार वाली पहली किश्त के लिए पीयूष गोयल ने मात्र 20 हज़ार करोड़ का बजट प्रावधान किया है। अब इस राशि में दो हज़ार रुपये अधिकतम 10 करोड़ व्यक्तियों को ही मिलना मुमकिन है, मगर बग़ैर कोई सवाल पूछे संख्या में पूरे 25% का झूठा इज़ाफ़ा कर दिया गया है जबकि यह हिसाब लगा पाना इनमें से किसी के लिए भी क़तई मुश्किल नहीं। यह बताता है कि हमारे देश के मीडिया और अकादमिक जगत में गिरे हुए टुकड़खोरों की कितनी बड़ी जमात इकट्ठा हो गयी है जो कुछ टुकड़े पाने के लालच में सरकार तथा पूँजीपतियों के लिए किसी भी हद तक झूठा प्रचार कर सकते हैं, और आम मेहनतकश जनता को इनके द्वारा प्रचारित किसी भी बात को बिना तर्क-सवाल के कभी स्वीकार नहीं करना चाहिए।

जहाँ तक अभी देश की मेहनतकश जनता के सामने मौजूद सबसे बड़ी समस्याओं में से एक बेरोज़गारी का सवाल है, उसके लिए बजट में कुछ बताया ही नहीं गया। बस मुद्रा लोन से स्वरोज़गार का जि़क्र किया गया। बजट भाषण के अनुसार अब तक मोदी ने 7,53,000 करोड़ रुपये के 5 करोड़ 56 लाख मुद्रा लोन बँटवाये हैं। उनका कहना है कि मुद्रा लोन लेने वाले स्वाभिमानी होते हैं, रोज़गार माँगते नहीं, रोज़गार प्रदाता बन जाते हैं। इसलिए उनकी बात को ही पूरा सच मानकर हिसाब लगाते हैं।

इस हिसाब से मुद्रा लोन लेने वाले ख़ुद तो रोज़गार से लगे ही हैं, इसलिए साढ़े 15 करोड़ रोज़गार तो यही हो गये। अगर इनमें से हरेक ने औसत सिर्फ़ एक व्यक्ति को ही रोज़गार दिया हो तो साढ़े 15 करोड़ वो भी हुए। अर्थात कुल मिलाकर 31 करोड़ रोज़गार सिर्फ़ मुद्रा लोन से ही सृजित हुए जबकि मोदी ने सिर्फ़ 2 करोड़ रोज़गार का वादा किया था। कमाल का विकास है ना! लेकिन उधर ख़ुद सरकारी एनएसएसओ का सर्वेक्षण बता रहा है कि बेरोज़गारी 45 साल के उच्चतम स्तर पर है। सीएमआईई के अनुसार पिछले साल 1 करोड़ 10 लाख रोज़गार नष्ट हो गये।

तीसरा बड़ा ऐलान 2.5 लाख से 5 लाख रुपये सालाना आमदनी वाले निम्न मध्यवर्ग के लिए किया गया। इन्हें 10 हज़ार रुपये की आयकर छूट दी गयी है – अर्थात 833 रुपये महीना का फ़ायदा। ये टटपूँजिया वर्ग है जो नोटबन्दी-जीएसटी के बाद से प्रतियोगिता में इजारेदार पूँजीपतियों के मुक़ाबले कमज़ोर पड़ा है और बरबाद होकर सर्वहारा-अर्धसर्वहारा बनने की आशंका से जूझ रहा है। क्रान्तिकारी राजनीतिक दिशा के अभाव में यह पिछले सालों में फासिस्ट समूहों का बड़ा आधार रहा है किन्तु इसकी आर्थिक दिक़्क़तों और बढ़ती बेरोज़गारी ने इसे असन्तुष्ट भी किया है जिसे शान्त करने की चाह में यह फ़ायदा दिया गया है।

लेकिन बड़ा फ़ायदा किन्हें मिला? जिनके पास दो करोड़ रुपये तक के मुनाफ़े पर बिक सकने वाला घर या दूसरी कमर्शियल सम्पत्ति है, उन्हें इस लाभ पर आयकर में छूट का सबसे ज़्यादा लाभ दिया गया है। उच्च मध्यम वर्ग के लिए सम्पत्ति और मकान किराये पर टीडीएस प्रावधानों में ढील के ज़रिये प्रत्यक्ष करों में चोरी की गुंजाइश बढ़ा दी गयी है। पिछले सालों में मकान ख़रीदने से हिचक रहे लोगों को फिर से सम्पत्ति में निवेश के लिए प्रोत्साहित करने एवं मकानों और अन्य रियल एस्टेट के दाम बढ़ाकर अर्थव्यवस्था में तेज़ी का साफ़ प्रयास नज़र आता है। आख़ि‍र सम्पत्ति और शेयर बाज़ार में सट्टेबाजी ही तो वो चीज़ है जो आजकल पूँजीवादी आर्थिक व्यवस्था में बीच-बीच में चमक लाती रहती है। बजट के बाद 7 फ़रवरी को ही रिज़र्व बैंक द्वारा ब्याज़ दरों में कटौती के द्वारा भी यही प्रयास किया गया। किन्तु ब्याज़ दरें घटाकर पूँजीपति व मध्य वर्ग में जोश पैदा कर अर्थव्यवस्था को संकट से निकालने की यह कोशिश वो एक दिन में ही टाँय-टाँय फिस्स हो गयी। ब्याज़ दरें घटाने का मक़सद होता है – एक, क़र्ज़ लेकर ख़रीदारी के लिए प्रोत्साहित कर बाज़ार में माँग बढ़ाना, ख़ास तौर पर मकानों, कारों, आदि की। दो, मुनाफ़े की कम होती दर से जूझ रहे पूँजीपतियों के लिए ऋण पूँजी की लागत कम करना क्योंकि श्रमिकों की श्रम शक्ति से जितना अधिशेष पूँजीपति हासिल करते हैं उसमें से ही एक हिस्सा उन्हें ऋण पूँजी पर ब्याज़ के रूप में बैंक के वित्तीय पूँजीपतियों को देना पड़ता है।

इसमें से पहला मक़सद तो इसलिए पूरा नहीं होगा क्योंकि रोज़गार सृजन व आय में वृद्धि की सम्भावनाओं के अभाव में सिर्फ़ ब्याज़ दर कम होने से ही लोग क़र्ज़ नहीं लेने लगते।

जहाँ तक पूँजीपतियों का सवाल है पिछले 30 साल में क़र्ज़ लेकर जो भारी पूँजी निवेश उन्होंने अचल पूँजी (ज़मीन, इमारतों, मशीन, तकनीक, आदि) में किया, बिक्री उसके मुक़ाबले उतनी बढ़ी नहीं, बल्कि स्थापित क्षमता से बहुत नीचे (70-72% ही) उत्पादन से मुनाफ़े की दर बहुत नीचे आ गयी। निफ्टी में जो सबसे बड़ी 50 कम्पनियाँ हैं उनकी निवेश की गयी पूँजी पर मुनाफ़ा दर 2007 में 23.1% थी, 2015 में यह 15.5% हो गयी, 2017 में 13.6% पर आयी और 2018 में 12.9% ही रह गयी। ये तो सबसे बड़े पूँजीपतियों का हाल है, अगर छोटी-मझोली कम्पनियों को देखें तो उनकी पूँजी पर मुनाफ़ा दर 5-6% तक आ पहुँची है! यही वजह है कि पूँजीपतियों का एक हिस्सा अपने क़र्ज़ का ब्याज़ और किश्त जमा करने में असफल है जिससे डूब गये क़र्ज़ से वित्तीय क्षेत्र भी संकट में घिरा हुआ है। इसलिए अपनी पूँजी पर मुनाफ़े की कमी से जूझते बैंक ऋण पर ब्याज़ दर कम करने में ख़ुद को नुक़सान में पा रहे हैं। एचडीएफ़सी के दीपक पारीख ने तो उसी दिन ही रोना-धोना शुरू कर दिया। ख़ुद सरकारी एसबीआई ने ब्याज़ दरें नहीं घटायीं। असल में मुनाफ़ा दर में गिरावट से पैदा पूँजीवाद का संकट ब्याज़ दरों में इस कमी से नहीं सुलझ सकता।

बजट पर वापस आयें तो अगर कुछ भरमाने-ललचाने वाले ऐलान हैं तो निश्चय ही कहीं पर कटौती भी की ही जानी थी। सिर्फ़ एक शिक्षा का उदाहरण लेते हैं। 2014-15 से 2019-20 के बजट में स्कूली शिक्षा पर ख़र्च 3% घट गया। मुद्रास्फीति को जोड़ें तो इन सालों में यह सम्भवतः एक तिहाई कम हो गया। अब ये कुल जीडीपी का आधे % से भी कम 0.45% रह गया है। इसी तरह 2014-15 में शिक्षकों के प्रशिक्षण का बजट 1158 करोड़ रुपये था। 2019-20 के लिए यह बस 150 करोड़ ही है। मात्र 87% की कटौती! यही स्थिति अन्य समाज कल्याण कार्यक्रमों की है। वास्तविकता तो यह है कि शिक्षा पर अब बजट से कोई ख़र्च नहीं होता, व्यक्तिगत/कॉर्पोरेट आयकर से जीएसटी तक पर एक शिक्षा सेस लगता है। इस बार के बजट में जितना कोष इस सेस से एकत्र होगा, वह भी पूरा शिक्षा पर ख़र्च नहीं होगा।

दूसरी ओर, ख़र्च कहाँ से होगा इस पर भी नज़र डालते हैं। ख़ुद पीयूष गोयल ने ही बजट घाटे का अनुमान बढ़ाकर 3.4% कर दिया, लेकिन नवम्बर तक के सामने आये आँकड़े और बजट के ऐलान बताते हैं कि यह और भी ज़्यादा होने वाला है। जीएसटी से वसूली में 23% वृद्धि का अनुमान पिछले बजट में था, पर अब यह घटकर 6% ही रह गया है। जीएसटी से कुल वसूली बजट अनुमान से 1 लाख करोड़ रुपये कम है। अन्य आय अनुमान भी लक्ष्य से नीचे हैं, जबकि ख़र्च के बड़े ऐलान इसमें जुड़ गये हैं। बजट घाटे को कम दिखाने के लिए सरकार ने अन्य कई चालाकियाँ भी दिखायी हैं। जैसे कर वसूली में राज्यों का हिस्सा घटा दिया गया है। फिर सरकार अपने क़र्ज़ों को सार्वजनिक क्षेत्र की कम्पनियों के नाम पर लेकर अपना क़र्ज़ कम दिखा रही है। खाद्य निगम ही इसका एक बड़ा उदाहरण है जिसे खाद्यान्न ख़रीद का मूल्य सरकार द्वारा देने के बजाय बैंक क़र्ज़ से चुकाने को कहा गया है। एक सरकारी कम्पनी द्वारा दूसरी को ख़रीद कर सरकार को क़ीमत चुकाना भी ऐसी ही जादूगरी है जो ओएनजीसी व पीएफ़सी दोनों से करवायी जा चुकी है। 13 फ़रवरी के इण्डियन एक्सप्रेस में अमर्त्य लाहिरी द्वारा लगाये गये हिसाब के अनुसार केन्द्र, राज्यों व सार्वजनिक कम्पनियों को जोड़ा जाये तो कुल घाटा 8% तक पहुँचने का अनुमान है।

फिर घाटे को इस तरह छिपाये जाने का नतीजा क्या होगा? साधारण जमा-घटा का हिसाब कहता है कि इसका एक ही नतीजा मुमकिन है। भरमाते-ललचाते ऐलानों वाले ‘नक़ली’ बजट का पूरा बदला चुनाव बाद के ‘असली’ बजट में निकाला जायेगा, जिसमें आम लोगों के लिए सुविधाओं पर ख़र्च में भारी कटौती होगी, नये-नये कर लगेंगे, नयी-नयी वसूलियों की योजनाएँ होंगी। ये साल इस देश की मेहनतकश जनता के लिए बहुत भारी होने वाला है। इसकी योजनाएँ अभी से बनकर तैयार हैं। चुनाव बाद मेहनतकश जनता को कैसे बेदर्दी से लूटा जायेगा, उसकी स्कीमें तैयार करने में पूँजीवादी व्यवस्था के प्रबन्धक अभी से जुटे हैं। इनमें से एक स्कीम की ख़बर तो किसी तरह अभी से बाहर आ गयी है। 6 फ़रवरी के बिज़नेस स्टैण्डर्ड के अनुसार चुनाव बाद रेलवे के भाडों में वृद्धि की योजना अभी से ही बनाकर तैयार रखी गयी है। और इस ग़लत़फहमी में भी न रहें कि चुनाव के नतीजों से, कौन दल चुनाव जीतेगा, उससे इसमें कुछ फ़र्क़ पड़ेगा। जहाँ तक मेहनतकश जनता की लूट का सवाल है, वो मौजूदा व्यवस्था में चुनाव नतीजों से बिल्कुल निरपेक्ष है, नतीजा कुछ भी हो, ये लुटेरी योजनाएँ हर रंग की सरकार पूरे सेकुलर तरीक़े से लागू करेगी; हिन्दू, मुस्लिम, दलित, सवर्ण, कश्मीरी, बिहारी, तमिल किसी के साथ भी कोई भेदभाव की शिकायत कम से-कम इस मामले में तो न होगी।

 

मज़दूर बिगुल, फरवरी 2019


 

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