निर्माण क्षेत्र में मन्दी और ईंट भट्ठा मज़दूर

सनी

दिल्ली के करावल नगर इलाके के लगभग हर लेबर चौक पर आजकल खड़े होने वाले मज़दूरों को मुश्किल से ही काम मिल पाता है। निर्माण मज़दूरों की रिहायश हरिजन बस्ती से लेकर राम स्वरूप चक्की तक निर्माण मज़दूरों की लॉजें खाली हैं। ज़्यादातर मज़दूर घर चले गये हैं और जो बचे हैं वे मुश्किल से काम पा रहे हैं। मज़दूरों से बात करने पर पता चला कि आजकल यही हाल बिहार में भी है। दरअसल यही हाल देश के हर हिस्से में है। गुजरात से लेकर तमिलनाडु लगभग हर जगह मकान निर्माण से जुडे़ मज़दूर बेरोजगार हो रहे हैं। जिसे काम मिल पाता है उसमे भी मालिक अधिक मोलभाव कर लेता है। इसके पीछे कारण है कि देश भर में कईं ईंटे बेचने वाले भट्ठे बन्द हैं और जो चल रहे हैं वे बेहद महँगी ईंटें बेच रहे हैं। पंजाब से लेकर पश्चिमी उत्तर प्रदेश और हरियाणा, गुजरात के भट्ठों में ईंटो का कारोबार ठप्प पड गया है क्योंकि फ़रवरी 2012 में  सुप्रीम कोर्ट के एक फैसले के अनुसार अब भट्ठा मालिकों को खेत की सतह से 5 फ़ुट मिटटी (जो कि उपजाऊ होती है) से ईंट बनाने के लिए राज्य सरकार से पंजीकरण लेना होगा। यह पंजीकरण बेहद कम भट्ठा मालिकों को मिलेगा और इसका दाम भी ऊँचा रखा गया है। सुप्रीम कोर्ट ने पर्यावरण के क्षरण को कारण बताते हुए यह कदम उठाया है परन्तु असलियत तो यह है कि 4000 करोड़ के इस व्यापार का मानकीकरण किया जा रहा है जिससे कि बड़ी पूँजी आसानी से इस क्षेत्र में प्रवेश कर सके। उन्नत विदेशी तकनीक पर आधारित नये ईंट प्लांट अभी से ही देश में खडे़ होने लगे हैं। 2011 तक देश में करीब 35 ऐसे प्लांट थे जहाँ आधुनिक संसाधन सक्षम ईंट (आरईबी) का उत्पादन किया जा रहा है। जहाँ तक छोटी पूँजी का सवाल है देश भर में छोटे- बडे़ सबको मिलाकर 1,40,000 भट्ठे हैं जिनमे करीब 40-50 लाख ईंट बनाने वाले मज़दूर कार्यरत थे जो अब दूसरे क्षेत्रों में खपने लगे हैं। परन्तु यही पूँजीवाद का आम नियम है – बड़ी पूँजी हमेशा छोटी पूँजी को खा जाती है और इसको व्यवस्था के स्तम्भ – न्यायपालिका, सरकार, नौकरशाही और मीडिया ही निगलने की प्रक्रिया की योजना बनाते और उसका आधार तैयार करते हैं। भले ही फौरी तौर पर निर्माण कार्य में मन्दी आये और ईंटो के दाम 5-6 गुने बढ़ गये हो, तमाम मज़दूर बेरोजगार हों फिर भी यह होना ही है, क्योंकि इस व्यवस्था का मूल सिद्धान्त गलाकाटू प्रतियोगिता है। ईंट उत्पादन में भारत दुनिया में दूसरे नम्बर पर है, 250 लाख टन कोयला की खपत के साथ देश भर में एक साल में लगभग 200 अरब ईंटे बनाने वाले इन मज़दूरों की जि़न्दगी नारकीय है। भट्ठा मज़दूर सबसे अमानवीय हालात में काम करने को मजबूर होते हैं। इनमें से अधिकतर मज़दूरों से भट्ठा मालिक गुलामो की तरह काम कराते हैं। देश भर से कईं ऐसी घटनाएँ सामने आयीं हैं जहाँ भट्ठा मालिकों ने मज़दूरों को आग में झोंककर मार दिया। न तो ईंट मज़दूरों के बच्चे पढ़ ही पाते हैं और ज़्यादातर की किस्मत में इसी उद्योग में खपना लिखा होता है। भट्ठों में बिना किसी सुरक्षा साधन या मास्क के 7000-10000 डिग्री तापमान में काम करने से मज़दूर को फेफड़ों से लेकर आँख की बीमारियाँ होती हैं। ज़्यादातर प्रवासी मज़दूर यहाँ बारिश के मौसम को छोड़कर सालभर काम में लगे रहते हैं। बच्चे से लेकर औरतें सभी को ये भट्ठे निगल जाते हैं। यह कार्य हरियाणा, पंजाब, उत्तर प्रदेश, गुजरात, तमिलनाडु, बंगाल से लेकर लगभग हर जगह फैला हुआ है। परन्तु अब बडे़ कारोबारियों के इस क्षेत्र में उतरने पर कई छोटे भट्टे बर्बाद होंगे और भट्ठों में कार्यरत मज़दूरों को दूसरे क्षेत्रों में खपना होगा। चाहे फौरी तौर पर यह भट्टा मज़दूरों को शहरो और अन्य जगह पर काम ढूँढने को मजबूर करे पर अगर पूरे मज़दूर वर्ग के दृष्टिकोण से देखा जाये तो पूरे उद्योग का मानकीकरण और मशीनीकरण एक प्रगतिशील कदम है। यह इस क्षेत्र के मज़दूरों का राजनीतिक स्तरोनयन करेगा। आधुनिक मशीनों से ईंट बनाने वाला वर्ग सचेत मज़दूर होगा जो अपना दुश्मन सिर्फ भट्ठे के मालिक को नहीं परन्तु उत्पादन प्रणाली को ठहराने में अधिक सक्षम हो जाता है। भट्ठों में जानवरों जैसे खटने वाले मज़दूरों को भी अन्य काम देखना होगा।

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मज़दूर बिगुलअप्रैल-मई  2013

 


 

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