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देश के निर्माण मज़दूरों की भयावह हालत, एक क्रान्तिकारी बैनर तले संगठित एकजुटता ही इसका इलाज

निर्माण कार्य में लगे मज़दूर असंगठित मज़दूर होते हैं। आज देश में लगभग 45 करोड़ संख्या इन्हीं असंगठित मज़दूरों की है, जो कुल मज़दूरों की आबादी का 90% के क़रीब है। लेकिन देश में बैठी मोदी सरकार ने आज पूरा इन्तज़ाम कर लिया है कि मज़दूरों का खून चूसने में कोई असर न छोड़ा जाये। आपको पता हो कि अभी पहले से मौजूद श्रम क़ानून इतने काफ़ी नहीं थे जो पूर्ण रूप से मज़दूरों के हकों और अधिकारों की बात कर सके, और किसी भी तरह की दुर्घटना होने पर उनके लिए किसी भी तरह की त्वरित कार्रवाई करे। अभी कहने को सही, कागज़ पर कुछ श्रम क़ानून मौजूद होते हैं। थोड़ा हाथ-पैर मारने पर और श्रम विभाग के कुछ चक्कर काटने पर गाहे-बगाहे कुछ लड़ाइयाँ मज़दूर जीत जाते हैं। साल में एक या दो बार श्रम विभाग के अधिकारी भी सुरक्षा जाँच के लिए (जो बस रस्मअदायगी ही होती है) निकल जाते हैं। लेकिन अम्बानी-अडानी जैसे पूँजीपतियों के मुनाफ़े को और बढ़ाने के लिए सरकार पुराने सारे श्रम क़ानूनों को खत्म करके चार लेबर कोड लाने की तैयारी में है।

हमारी ताक़त हमारी एकजुटता में ही है!

मेरी उम्र 30 साल है और 16 साल की उम्र से ही मैंने दिहाड़ी-मज़दूरी का काम शुरू कर दिया था। घर के आर्थिक हालात अच्छे न होने के कारण स्कूल के दिनों में खेत मज़दूरी जैसे कामों में घरवालों का हाथ बँटाना पड़ता था। खेती का काम तो मौसमी होता था और इसमें मेहनत ज़्यादा थी और पैसा कम, इसलिए स्वतन्त्र दिहाड़ी मज़दूर के तौर भी मैंने काफ़ी दिन बेलदारी का काम किया। किन्तु यहाँ भी काम में अनिश्चितता बनी रहती थी। उसके बाद मैंने एक आरा मशीन पर काम पकड़ा, यहाँ मैं लगातार आठ साल तक खटता रहा। मालिक कहा-सुनी व गाली-गलौज करता था, पैसा भी बेहद कम मिलता था। अन्त में एक दिन काम के दौरान आरा मशीन में मेरा हाथ आ गया जिसके कारण मुझे अपनी एक उँगली गँवानी पड़ी। न तो मुझे कोई मुआवज़ा मिला और काम भी मुझे छोड़ना पड़ा

आपस की बात

हम ‘मज़दूर बिगुल’ के लेखों को चाव से पढ़ते हैं साथ ही इससे सीख भी लेते हैं तथा अपने अन्य मज़दूर भाइयों को भी इसके बारे में बताते हैं। साथियो मैं आप सबसे यही कहना चाहूँगा कि हमें एकजुट होना होगा और मज़दूर राज कायम करना होगा तभी हम अपने दुखों से छुटकारा पा सकते हैं।

हरियाणा के नरवाना में निर्माण मज़दूरों ने संघर्ष के दम पर जीती हड़ताल

15 तारीख़ को ही निर्माण मज़दूर यूनियन की तरफ़ से पर्चा छपवा दिया गया और सभी मज़दूरों को एकजुट करके हड़ताल करने का निर्णय लिया गया। उसी दिन यूनियन की 11 सदस्यीय कार्यकारी कमेटी का चुनाव भी कर लिया गया। पहले दिन काम बन्द करवाने को लेकर कई मालिकों के साथ कहा-सुनी और झगड़ा भी हुआ, किन्तु अपनी एकजुटता के बल पर यूनियन ने हर जगह काम बन्द करवा दिया। 16 तारीख़ को यूनियन ने नौभास और बिगुल मज़दूर दस्ता की मदद से पूरे शहर में पर्चा वितरण और हड़ताल का प्रचार किया। मज़दूरों के संघर्ष और जुझारू एकजुटता के सामने 16 तारीख़ को ही दोपहर में मालिकों यानी भवन निर्माण से जुड़ी सामग्री बेचने वाले दुकानदारों ने हाथ खड़े कर दिये। मज़दूरी में किसी सामग्री में 100 तो किसी में 50 प्रतिशत तक की बढ़ोत्तरी हुई। जैसे पहले सीमेण्ट का एक कट्टा 1.25 से 1.50 रुपये तक में उतारा और लादा जाता था, हड़ताल के बाद इसका रेट न्यूनतम 2.50 रुपये तय हुआ। रेती की ट्राली उतारने और लादने का रेट 60-70 से बढ़कर 130 रुपये न्यूनतम तय हुआ।

नारकीय जीवन जीने को मजबूर हैं निर्माण उद्योग में काम करने वाले मज़दूर

इस क्षेत्र में काम करने वाली मज़दूर आबादी ठेके पर बेहद कम मज़दूरी पर तथा बिना किसी सामाजिक सुरक्षा के अमानवीय जीवन जीने को मजबूर है। कार्यस्थल पर सुरक्षा के पुख्ता इन्तज़ाम न होने के कारण हर दिन मज़दूरों के साथ कोई न कोई दुर्घटना होती रहती है, जिनमें कई बार उन्हें अपनी जान तक से हाथ धोना पड़ता है। इसके अलावा हर समय धूल-भरे वातावरण में काम करने के कारण, आवश्यक सुरक्षा उपकरणों के अभाव, और आस-पास फैली गन्दगी के कारण मज़दूरों को कई जानलेवा बीमारियाँ अपना शिकार बना लेती हैं। लेकिन चूँकि मज़दूरों को अलग-अलग ठेकेदारों के माध्यम से काम पर रखा जाता है, और उनके पास रोज़गार सम्बन्धी कोई भी रिकॉर्ड नहीं होता है। इसलिए अगर कोई दुर्घटना हो जाती है तो मालिक और ठेकेदार पुलिस के साथ मिल मज़दूर के परिवार को डरा-धमकाकर या थोड़ी सी रक़म देकर पूरे मामले को वहीं ख़त्म कर देते हैं।

नोएडा के निर्माण मज़दूरों पर बिल्डर माफिया का आतंकी कहर

जिस बस्ती में मज़दूर रहते हैं उसके हालात नरकीय हैं। इस बात की कल्पना करना मुश्किल है कि टिन के शेड से बनी इस अस्थायी बस्ती में मज़दूर कैसे रहते हैं। मुर्गी के दरबों जैसे कमरों में एक साथ कई मज़दूर रहते हैं और उनमें से कई अपने परिवार के साथ भी रहते हैं। बस्ती में पीने के पानी की कोई व्यवस्था नहीं है। मज़दूरों को पानी खरीद कर पीना पड़ता है। बिजली भी लगातार नहीं रहती। शौचालय के प्रबन्ध भी निहायत ही नाकाफी हैं और समूची बस्ती में गन्दगी का बोलबाला है। नाली की कोई व्यवस्था न होने से बस्ती में पानी जमा हो जाता है और बरसात में तो हालत और बदतर हो जाती है। यही नहीं, जैसे ही यह प्रोजेक्ट पूरा हो जायेगा, इस बस्ती को उजाड़ दिया जायेगा और मज़दूरों को इतनी ही ख़राब या इससे भी बदतर किसी और निर्माणाधीन साइट के करीब की मज़दूर बस्ती में जाना होगा।

निर्माण क्षेत्र में मन्दी और ईंट भट्ठा मज़दूर

ईंट उत्पादन में भारत दुनिया में दूसरे नम्बर पर है, 250 लाख टन कोयला की खपत के साथ देश भर में एक साल में लगभग 200 अरब ईंटे बनाने वाले इन मज़दूरों की जि़न्दगी नारकीय है। भट्ठा मज़दूर सबसे अमानवीय हालात में काम करने को मजबूर होते हैं। इनमें से अधिकतर मज़दूरों से भट्ठा मालिक गुलामो की तरह काम कराते हैं। देश भर से कईं ऐसी घटनाएँ सामने आयीं हैं जहाँ भट्ठा मालिकों ने मज़दूरों को आग में झोंककर मार दिया। न तो ईंट मज़दूरों के बच्चे पढ़ ही पाते हैं और ज़्यादातर की किस्मत में इसी उद्योग में खपना लिखा होता है। भट्ठों में बिना किसी सुरक्षा साधन या मास्क के 7000-10000 डिग्री तापमान में काम करने से मज़दूर को फेफड़ों से लेकर आँख की बीमारियाँ होती हैं। ज़्यादातर प्रवासी मज़दूर यहाँ बारिश के मौसम को छोड़कर सालभर काम में लगे रहते हैं। बच्चे से लेकर औरतें सभी को ये भट्ठे निगल जाते हैं।

दिहाड़ी मज़दूरों की जिन्दगी!

मैं एक भवन निर्माण मज़दूर हूँ। मैं बिहार प्रदेश से रोजी-रोटी के लिए दिल्ली आया हूँ। यहाँ मुश्किल से 30 दिनों में 20 दिन ही काम मिल पाता है। जिसमें भी काम करने के बाद पैसे मिलने की कोई गारण्टी नहीं होती है। कहीं मिल भी जाते हैं तो कहीं दिहाड़ी भी मार ली जाती है। कोई-कोई मालिक तो जबरन पूरा काम करवाकर (ज़मींदारी समय के समान) ही पैसे देते हैं और अधिक समय तक काम करने पर उसका अलग से मज़दूरी भी नहीं देते हैं। कई जगह मालिक पैसे के लिए इतना दौड़ाते हैं कि हमें लाचार होकर अपनी दिहाड़ी ही छोड़नी पड़ती है। यहाँ करावल नगर में लेबर चौक भी लगता है। जहाँ न बैठने की जगह है न पानी पीने की। चौक से जबरन कुछ मालिक काम पर ले जाते हैं नहीं जाने पर पिटाई भी कर देते हैं। दूसरी तरफ दिहाड़ी मज़दूरों की बदतर हालात सिर्फ काम की जगह नहीं बल्कि उनकी रहने की जगह पर भी है जहाँ हम तंग कमरे में रहते हैं।

ये तो निर्माण मज़दूरों के भीतर सुलगते ग़ुस्से की एक बानगी भर है

आज भारत की कुल मज़दूर आबादी का 93 प्रतिशत हिस्सा असंगठित मज़दूर आबादी का है, जिनके लिए कोई श्रम क़ानून लागू नहीं होता। निर्माण उद्योग में काम करने वाले ठेका मज़दूरों की संख्या में तेज़ी से बढ़ोत्तरी हो रही है जो इस असंगठित मज़दूर आबादी का एक हिस्सा हैं। इन मज़दूरों की समस्याओं की सुनवाई न तो श्रम विभाग में होती है, न किसी अन्य सरकारी दफ्तर में। ठेकेदार इन मज़दूरों को दासों की तरह मनमर्ज़ी से जहाँ चाहे वहाँ स्थानान्तरित करते रहते हैं।

राजधानी की चमकती इमारतों के निर्माण में : ठेका मजदूरों का नंगा शोषण

उत्पादन और निर्माण कार्य में ठेकाकरण के चलते, राष्ट्रीय राजधानी क्षेत्र में सी.डब्ल्यू.जी. और अन्य निर्माण कार्य में लगे कितने ही ठेका मजदूर विकास की चमक-दमक के खोखले दिखावे के चलते मौत के शिकार हो चुके हैं। एक अख़बार की रिपोर्ट के अनुसार (टाइम्स ऑॅफ इण्डिया, 23 अक्टूबर, 2010, ”सी.डब्ल्यू.जी. में मरने वालों की संख्या सरकार को नहीं पता!”) सी.डब्ल्यू.जी. के निर्माण कार्य में लगे 70,500 मजदूरों में से 101 मजदूरों की दुर्घटना से मृत्यु हुई, लेकिन किसी के पास, यहाँ तक कि सरकार के पास भी मजदूरों की मृत्यु से सम्बन्धित ”सही आँकड़े” नहीं हैं।