कैसा है यह लोकतंत्र और यह संविधान किसकी सेवा करता है (इक्कीसवीं किश्त)
भारतीय राज्यसत्ता: पूँजीपति वर्ग की तानाशाही को मूर्त रूप देता एक दमनकारी तन्त्र

आनन्‍द सिंह

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भारतीय संविधान के जिन प्रावधानों की हम इस धारावाहिक लेख में विवेचना कर चुके हैं उनके अतिरिक्त संविधान में एक बहुत बड़ा हिस्सा भारतीय राज्यसत्ता और उसके विभिन्न अंगों – कार्यपालिका, विधायिका और न्यायपालिका – पर केन्द्रित है। लोकतन्त्र का मायाजाल बिछाने के लिए संविधान में ऐसे तमाम गौढ़ प्रावधानों पर भी खूब स्याही ख़र्च की गयी है जिन्हें दरअसल संविधान में रखने की ज़रूरत ही नहीं थी क्योंकि उनके लिए विशेष विधेयक बनाने से ही काम चल जाता। मिसाल के लिए राष्ट्रपति, उप-राष्ट्रपति और मंत्रिमंडल का निर्वाचन कैसे होगा, राष्ट्रपति पद, उप-राष्ट्रपति और संसद सदस्य के उम्मीदवार के लिए पात्रता और शर्तें क्या होंगी, राष्ट्रपति, उप-राष्ट्रपति और मंत्रिमण्डल क्या शपथ लेंगे, संसद का गठन कैसे होगा, संसद के सत्र कितने होंगे, हर साल संसद के पहले सत्र में राष्ट्रपति का भाषण होगा, संसद का एक सचिवालय होगा, उच्चतम न्यायालय के न्यायधीशों को वेतन कैसे मिलेगा, उच्चतम न्यायालय के अधिकारी और सेवक का व्यय आदि-आदि। यही वजह है कि भारतीय संविधान इतना मोटा हो गया है कि इसे दुनिया का सबसे लम्बा संविधान कहा जाता है। लेकिन संविधान के पोथे के मोटेपन से भ्रमित होने की बजाय जब हम इसके द्वारा स्थापित राज्यसत्ता के चरित्र के बारे में गहराई से पड़ताल करते हैं तो पाते हैं कि यह समाज में मौजूद वर्गों से ऊपर कोई स्वायत्त और तटस्थ तन्त्र न होकर वास्तव में पूँजीपति शासक वर्गों के हितों की नुमाइंदगी करने वाली एक दमनकारी दैत्याकार मशीनरी है जो आम मेहनतकश जनता के हितों के ख़िलाफ़ है और उसके ऊपर बलपूर्वक स्थापित है। इस लेख की पिछली किश्तों में हम देख चुके हैं कि यह राज्यसत्ता जनता की बेहद बुनियादी ज़रूरतों – भोजन, वस्त्र, आवास, शिक्षा, स्वास्थ्य – को भी पूरा करने की भी गारण्टी नहीं देती। यानी कि क्लासिकीय बुर्जुआ जनवाद के पैमाने से भी भारतीय राज्यसत्ता को जनवादी नहीं कहा जा सकता है।

शासन के कार्यभारों को विधायिका (कानून बनाना) और कार्यपालिका (कानून लागू करना) में बाँटने के पीछे तर्क यह दिया जाता है कि इससे संसद के माध्यम से सरकार पर जनता का नियन्त्रण रहेगा। परन्तु संसदीय लोकतन्त्र का हास्यास्पद पहलू यह है कि चूँकि संसद में बहुमत प्राप्त करने वाली पार्टी या पार्टियों का गठबन्धन ही सरकार बनाता है इसलिए सरकार जिस तरह का कानून चाहे वैसा कानून पास करा सकती है। यही नहीं पिछले कुछ दशकों से इस तथाकथित लोकतन्त्र में एक नयी परम्परा पनपी है जिसमें कि सरकार अहम नीतिगत निर्णयों में भी संसद की मंजूरी लेने की औपचारिकता भी निभाने की जहमत नहीं उठाती, बल्कि कार्यकारी आदेशों से ही ये निर्णय ले लिये जाते हैं। मिसाल के लिए देश के नागरिकों के निजता के जनवादी अधिकार का हनन करने का प्रावधान करने वाली आधार योजना को बिना संसद की मंजूरी लिये लागू कर दिया गया है। ऐसे में सरकार पर संसद के नियन्त्रण का कोई ख़ास मायने नहीं रह जाता। वैसे भी भारतीय संसद (और राज्यों की विधान सभाओं) ने पिछले छह दशकों में निर्विवाद रूप से यह सिद्ध कर दिया है कि यह बहसबाजी, सिरफुड़ौव्वल, गुण्डागर्दी और अभद्रता के अड्डे से ज़्यादा कुछ नहीं है। संसद और विधान सभाओं के अधिकांश सदस्य करोड़पति होते हैं और उनमें से अच्छी खासी संख्या हत्या, बलात्कार और डकैती जैसे जघन्य अपराधों में लिप्त हिस्ट्रीशीटरों की होती है। मौजूदा लोकसभा में किसी भी दल को स्पष्ट बहुमत नहीं है, परन्तु एक ऐसा समूह है जो निर्विवाद रूप से बहुमत में है और वो है करोड़पतियों का समूह! जी हाँ! मौजूदा लोकसभा के सदस्यों की घोषित सम्पत्ति के अनुसार 545 सदस्यों में से 306 करोड़पति हैं। पिछली लोकसभा की तुलना में करोड़पतियों की संख्या में सौ फ़ीसदी से भी ज़्यादा का इज़ाफ़ा हुआ है। यह एक खुला रहस्य है कि इन महानुभावों की घोषित आय इनकी वास्तविक आय का एक छोटा सा हिस्सा भर होती है। एक ऐसे देश में जिसकी तीन चौथाई से भी ज़्यादा आबादी 20 रुपये प्रतिदिन से भी कम आय में अपना गुजर बसर करती है, ऐसे धनपशुओं को जनप्रतिनिधि कहना जनता का अपमान करना है।

इन धन्नासेठों और अपराधियों की तू-तू-मैं-मैं और नूराकुश्ती के लिए संसद के सत्र के दौरान प्रतिदिन करोड़ो रुपये खर्च होते हैं जो देश की जनता के खून-पसीने की कमाई से ही सम्भव होता है। उसमें भी सत्र के ज़्यादातर दिन तो किसी न किसी मुद्दे को लेकर संसद में कार्यस्थगन हो जाता है और फिर जनता के लुटेरों को अय्याशी के लिए और वक़्त मिल जाता है। आम जनता की ज़िन्दगी से कोसों दूर ये लुटेरे आलीशान बंगलों में रहते हैं, सरकारी ख़र्च से हवाई जहाज और महँगी गाड़ियों से सफर करते हैं और विदेशों और हिल स्टेशनों पर छुट्टियाँ मनाते हैं। एक ऐसे देश में जहाँ बहुसंख्यक जनता को दस-दस बारह-बारह घण्टे खटने के बाद भी दो जून की रोटी के लाले पड़े रहते हैं, जनता के तथाकथित प्रतिनिधियों की विलासिता भरी ज़िन्दगी अपने आप में लोकतन्त्र के लम्बे-चौड़े दावों को एक भद्दा मज़ाक बना देती है।

ई पी डब्ल्यू पत्रिका में छपे एक लेख के मुताबिक वर्ष 2009 के लोकसभा चुनावों के दौरान प्रति निर्वाचन क्षेत्र में बड़ी पार्टियों के उम्मीदवारों ने औसतन 30 करोड़ रुपये खर्च किये और छोटी पार्टियों के उम्मीदवारों ने औसतन 9 करोड़ रुपये खर्च किये। ग़ौरतलब है कि यह औसत खर्च है यानी कि जो महानुभाव इन चुनावों में जीत हासिल कर संसद में विराजमान हैं उन्होंने इससे भी ज़्यादा ख़र्च किये हैं। अब तो इसकी ताईद विभिन्न दलों के नेता खुद ही कर रहे हैं। अभी हाल ही में महाराष्ट्र के पूर्व उपमुख्यमन्त्री भाजपा के गोपीनाथ मुण्डे मीडिया के सामने रौ में आकर ये कह गये कि पिछले लोकसभा चुनावों में उन्होंने 8 करोड़ रुपये ख़र्च किये। इसी प्रकार कांग्रेस के राज्यसभा सांसद चौधरी बीरेन्द्र सिंह के मुँह से बरबस ही यह सच्चाई निकल गयी जब उन्होंने कहा कि राज्य सभा की टिकट पाने के लिए 100 करोड़ रुपये ख़र्च करने पड़ते हैं। अब इस सवाल का ज़वाब देने में कोई ईनाम नहीं है कि ये करोड़ों रुपये आते कहाँ से हैं! जी हाँ ! यह काला धन इस देश के नामी गिरामी उद्योगपतियों, व्यापारियों और सटोरियों की तिजोरी से आता है जो वे आम मेहनतकश जनता का हाड़-माँस गलाकर इकट्ठा करते हैं। ज़ाहिर है कि ये उद्योगपति, व्यापारी और सटोरिये धर्मार्थ में इतना धन नहीं फूँकते हैं, वे इसका ‘रिटर्न’ भी चाहते हैं। इसलिए संसद सदस्य और मन्त्रिमण्डल के सदस्य अपने पूँजीपति आकाओं के हित में नीतियाँ और कानून बनाकर अपना कर्ज़ अदा करते हैं। पूँजीपतियों में जो दूरंदेश और शातिर होते हैं वे किसी एक पार्टी को चन्दा देने की बजाय कई पार्टियों का चन्दा देते है ताकि सत्ता में चाहे जो भी पार्टी आये वह उनके ही हितों को साधे! यही नहीं, इनमें से कई पूँजीपति तो सत्ता में प्रत्यक्ष दख़ल देने के मक़सद से राज्य सभा के चोर रास्ते से संसद में भी पहुँच जाते हैं। इस प्रकार हम पाते हैं कि भारतीय बुर्जुआ लोकतन्त्र मार्क्स एवं एंगल्स द्वारा लिखे गये कम्युनिस्ट घोषणापत्र की उन पंक्तियों का जीता जागता उदाहरण है जिसमें उन्होंने कहा था कि बुर्जआ सरकारें समूचे पूँजीपति वर्ग के साझा हितों को साधने वाली मैनेजिंग कमेटी के रूप में काम करती हैं।

शासक वर्ग के टुकड़ों पर पलने वाले बुर्जुआ कलमघसीट और भाड़े के पत्रकार यह बताते नहीं थकते कि भारत में बहुदलीय संसदीय लोकतान्त्रिक व्यवस्था होने की वजह से जनता को पर्याप्त विकल्प मिल जाते हैं और यदि एक पार्टी सत्ता में आने के बाद अच्छा प्रदर्शन नहीं करती तो जनता को यह अधिकार है कि वह अगले चुनावों में उस पार्टी को हटाकर सत्ता की बागडोर दूसरी पार्टी को सौंपे दे। लेकिन इन लफ़्फ़ाजियों पर यकीन करने की बजाय जब हम इस तथाकथित लोकतन्त्र की ज़मीनी हक़ीकत पर ग़ौर करते हैं तो यह दिन के उजाले की तरह साफ़ हो जाता है कि विकल्प के रूप में जो तमाम रंग बिरंगी पार्टियाँ मौजूद हैं वो सभी लुटेरे पूँजीपति वर्ग के ही विभिन्न धड़ों का प्रतिनिधित्व करती हैं। उनके दिखावी मतभेद महज़ जनता को भ्रमित करने के मक़सद से उभारे जाते हैं। जनता की मेहनत की लूट और पूँजीपतियों के मुनाफ़े को बढ़ाने वाली आर्थिक नीतियों के सवाल पर कमोबेश सभी पार्टियों में आम सहमति है। इस प्रकार इस लोकतन्त्र के प्रपंच में होने वाले चुनाव जनता को महज़ इतना अधिकार देते हैं कि वो अपने ही लुटेरों के विभिन्न गिरोहों में से किसी एक को चुन ले! राष्ट्रीय और क्षेत्रीय स्तर पर होने वाले चुनावों में हिस्सा लेने वाली अधिकांश पार्टियाँ किसी विचारधारा पर नहीं बल्कि एक राजनीतिक परिवार के प्र्रति वफ़ादारी और चाटुकारिता के आधार पर संगठित होती हैं। जो पार्टियाँ विचारधारा के आधार पर संगठित  होने का दंभ भरती हैं वे या तो जनता को धर्म या जाति के नाम पर बाँटकर अपना वोटबैंक सुनिश्चित करती हैं या फिर वे मेहनतकश जनता के हितों की नुमाइंदगी के नाम पर गरमागरम बातें करने वाली मज़दूर आन्दोलन की गद्दार पार्टियाँ हैं। इन तमाम रंग-बिरंगी पार्टियों में एक और चीज़ साझा है और वह यह कि इन सभी में अन्तरपार्टी जनवाद जैसी कोई चीज़ नहीं होती क्योंकि सारे अहम फैसले हाई कमाण्ड की ओर से लिये जाते हैं। वित्त के मामले में भी ये सभी पार्टियाँ निहायत ही गैर-पारदर्शी तरीके से काम करती हैं, इनके द्वारा उगाहे जाने वाले धन का कोई भी ब्योरा जनता के सामने नहीं आता और न ही उनकी कोई ऑडिट होती है। अभी हाल ही में जब मुख्य सूचना अधिकारी ने इन पार्टियों को सूचना के अधिकार के दायरे में लाने की बात की तो अपने तमाम दिखावी मतभेदों को किनारे कर इन सभी पार्टियों ने एक सुर में इसका विरोध कर अपनी असलियत जनता के सामने खुद ही उघाड़ कर रख दी।

जनता की मेहनत से अर्जित धन को पानी की तरह बहा कर और पुलिस और पैरामिलिटरी बलों की भारी मौजूदगी में होने वाली चुनावों की नौटंकी के बाद जब यह तय हो जाता है कि अगले पाँच साल सत्ता चलाने का ठेका लुटेरों के किस गिरोह को मिला है, तो फिर मन्त्रिमण्डल बनाने के लिए जोड़तोड़ शुरू हो जाती है। पिछले दो दशकों से चूँकि किसी एक पार्टी को स्पष्ट बहुमत नहीं मिलता इसलिए कई पार्टियों का गठबन्धन सरकार चलाता है। मिलीजुली सरकारों के इस दौर में क्षेत्रीय पार्टियों की भूमिका बढ़ने की वजह से देश की विभिन्न राज्यों की क्षेत्रीय बुर्जुआजी की राजनीतिक ताकत बढ़ी है। नीरा राडिया टेप काण्ड में यह सच्चाई साफ़ उभर कर आयी कि मन्त्रिमण्डल बनाने की जोड़तोड़ में राष्ट्रीय और क्षेत्रीय पूँजीपतियों के विभिन्न गुट मोलतोल कर यह तक तय करते हैं कि अमुक मन्त्रालय में कौन मन्त्री बनेगा। ज़ाहिर है कि पूँजीपतियों के विभिन्न गुटों के मोलतोल से बनी सरकार पूँजीपतियों के ही हित में काम करेगी। ऐसी सरकार से यह अपेक्षा कोई अनाड़ी ही कर सकता है कि वह जनहित में काम करे।

भारतीय संविधान में कार्यपालिका की संरचना को लेकर एक पूरा अध्याय लिखा गया है। यह संरचना भी ब्रिटेन की संसदीय प्रणाली से उधार ली गयी है और इसको देशी दिखाने के लिए महज़ नामों में कुछ शाब्दिक बदलाव कर दिये गये हैं। यह संरचना अपने आप में संविधान निर्माताओं की बौद्धिक गुलामी का ही एक नमूना है। ब्रिटेन में सरकार की नीतियों को लागू करने की ज़िम्मेदारी कैबिनेट की होती है और सारे फैसले  महारानी के नाम पर लिये जाते हैं। इसी तर्ज़ पर भारत में भी मन्त्रिमण्डल का सारा कामकाज राष्ट्रपति के नाम किया जाता है। ये महामहिम आम तौर पर राजनीति से रिटायर हुए नेता होते हैं जो आलीशान महलनुमा राष्ट्रपति भवन में रहते हैं जिसकी देखरेख, रखरखाव में और बुजुर्ग राष्ट्रपति महोदय की सुरक्षा के तामझाम में प्रतिदिन जनता की गाढ़ी कमायी से अर्जित लाखों रुपये खर्च होते हैं। राष्ट्रपति महोदय का काम महज़ इतना होता है कि वे संसद द्वारा पास किये गये बिलों और मन्त्रिमण्डल द्वारा लिये गये फैसलों पर दस्तख़त करें, भारतीय राज्यसत्ता के प्रधान के तौर पर विदेशों का भ्रमण करें और सरकार द्वारा तय किये भाषण का पाठ करें। साफ है राष्ट्रपति का पद एक रबर स्टैम्प से ज़्यादा कुछ नहीं है। ऐसे देश में जहाँ 20 करोड़ से भी ज़्यादा लोग झुग्गी झोपड़ियों में रहते हैं और उससे भी ज़्यादा लोग फुटपाथ पर सोते हैं, एक रबर स्टैंप का काम करने वाले महामहिम राष्ट्रपति महोदय के लिए जनता के ख़ून पसीने की कमायी से अर्जित रोज़ाना लाखों रुपये ख़र्च एक निर्लज्ज स्तर की विलासिता है! लेकिन यह विलासिता पिछले 63 सालों से बदस्तूर ज़ारी है।

शासन प्रशासन के फैसले लेने और उनको अमल में लाने की ज़िम्मेदारी मन्त्रिमण्डल की होती है जिसका नेतृत्व प्रधानमन्त्री करता है। लेकिन सरकारें तो आती जाती रहती हैं, शासन प्रशासन चलाने का असली काम तो सचिवालय से लेकर ब्लॉक तक फैले विराट नौकरशाही तन्त्र करता है जिसको स्थायी कार्यपालिका कहते हैं। ग़ौरतलब है कि  नौकरशाही के इस विराट तन्त्र की नींव भी औपनिवेशिक ब्रिटिश सत्ता के जमाने में ही रखी गयी थी और आज़ादी मिलने की छह दशकों बाद भी नौकरशाही की संरचना, उसके काम करने का तौर-तरीके और नौकरशाहों की मानसिकता में औपनिवेशिक अतीत की प्रेतछाया मौजूद है। अपने चरित्र से यह नौकरशाही उतनी ही जनविरोधी है जितनी औपनिवेशिक जमाने में! मन्त्रिमण्डल, नौकरशाही एवं भारतीय राज्यसत्ता के अन्य अंगों-उपांगों की सविस्तार चर्चा हम इस लेख की अगली कड़ी में करेंगे।

(अगले अंक में जारी)

 

मज़दूर बिगुलअगस्‍त  2013

 


 

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