विधानसभा चुनावों के नतीजे और भविष्य के संकेत
फ़ासीवादी समाधान की दिशा में तेज़ी से आगे बढ़ता भारतीय पूँजीवाद का गहराता ढाँचागत संकट

सम्‍पादकीय

पाँच राज्यों में विधानसभा चुनावों के नतीजों से यह साफ हो गया है कि भारतीय पूँजीवादी अर्थव्यवस्था लम्बे समय से जिस ढाँचागत संकट का शिकार है वह इसे एक फ़ासीवादी राजनीतिक समाधान की ओर तेज़ी से धकेल रहा है। गहराते आर्थिक संकट का बोझ भीषण महँगाई और बढ़ती बेरोज़गारी के रूप में आम जनता की कमर तोड़ रहा है। ऊपर से यूपीए के शासन में भ्रष्टाचार के एक-के-बाद-एक कारनामे उजागर होते जा रहे हैं और सरकार लगातार अलोकप्रिय होती जा रही है। घनघोर आर्थिक संकट उसे लोकलुभावन योजनाओं का पिटारा खोलने की भी खुली छूट नहीं दे रहा है। लोगों को मूर्ख बनाने की कला में माहिर किसी तेज़-तर्रार ज़मीनी नेता की कमी भी कांग्रेस पार्टी के चुनाव अभियान को बेजान बनाये हुए है।

लेकिन विधानसभा चुनाव के नतीजों को महज़ मोदी के “चमत्कारी” व्यक्तित्व या राहुल गाँधी और कांग्रेसी नेतृत्व की कमज़ोरी के नज़रिये से देखना एक सतही विश्लेषण होगा। बात सिर्फ यह भी नहीं है कि यह कांग्रेसी कुशासन, भ्रष्टाचार और कमरतोड़ मँहगाई पर लोगों के ग़ुस्से का नतीजा है। बेशक यह भी एक कारण है लेकिन बुनियादी नहीं। बुनियादी बात यह है कि पूँजीपति वर्ग ने यह समझ लिया है कि नवउदारवाद की नीतियों को डण्डे के जोर से लागू करने के सिवा इस आर्थिक संकट से राहत पाने का और कोई रास्ता नहीं है। हालाँकि वे भी यह जानते हैं कि इससे कुछ समय के लिए ही राहत मिलेगी, फिर संकट और भी गम्भीर होकर वापस मार करेगा। दुनिया के अनेक देशों में पूँजीवादी संकट से निकलने के लिए अपनाये गये ऐसे रास्तों का अंजाम भी उनके सामने है। लेकिन बदहवासी में उन्हें और कुछ नहीं सूझ रहा है। लाख कोशिशों के बावजूद औद्योगिक उत्पादन में गिरावट और मुद्रास्फीति में बढ़ोत्तरी जारी है। निर्यात बढ़ने का नाम नहीं ले रहे। वैश्विक अर्थव्यवस्था का ठहराव और मन्दी उनकी हताशा को और बढ़ा रहे हैं। ऐसे में पूँजीपति वर्ग को बस यही सूझ रहा है कि डण्डे के ज़ोर से कठोर आर्थिक नीतियों को लागू करके, मेहनतकश जनता को बुरी तरह से निचोड़कर संकट का बोझ कुछ समय के लिए थोड़ा हल्का किया जाये, अपने लिए साँस लेने की कुछ मोहलत हासिल की जाये। ऐसे में नरेन्द्र मोदी बुर्जुआ राजनीति के रंगमंच पर संघ परिवार द्वारा उभारे गये प्रधानमंत्री उम्मीदवार के रूप में वही भूमिका निभा रहा है जो शासक वर्ग की ज़रूरत है। पिछले दिनों देश के 100 प्रमुख पूँजीपतियों में से 74 ने मोदी को अपनी पहली पसन्द बताया। पूँजीपतियों के बीच मोदी की लोकप्रियता का राज़ मज़दूरों को निचोड़कर और हर विरोध को कुचलकर पूँजीपतियों के लिए लूट के रास्ते आसान बनाने वाली उसकी नीतियाँ हैं। इनकी बानगी गुजरात में दिखायी जा चुकी है और पूरे देश में इन्हें ही लागू करने का मोदी वादा कर रहा है।

यह भी तय है कि 2014 के आम चुनावों में यदि भाजपा गठबन्धन की जगह कांग्रेस गठबन्धन या उसके द्वारा समर्थित कोई तीसरा गठबन्धन भी सत्ता में आयेगा तो उसे भी नवउदारवादी नीतियों को लागू करने के लिए ज़्यादा दमनकारी रवैया अपनाना ही पड़ेगा, भले ही सीमित अर्थों में उसे हिन्दुत्ववादी फासिस्टों के मुकाबले कुछ बेहतर विकल्प माना जाये। व्यवस्था के असाध्य ढाँचागत संकट के चलते पूँजीवादी जनवाद का स्पेस लगातार सिकुड़ता जा रहा है। पूँजीवादी दायरे में आर्थिक संकट से उबरने का रास्ता किसी पार्टी के पास नहीं है। भूमण्डलीकरण की नवउदारवादी नीतियों को कोई भी पार्टी नहीं छोड़ सकती। मुनाफ़े की गिरती दर ने पूँजीपति वर्ग के लिए कल्याणकारी नीतियों को लागू कर पाना और भी असम्भव बना दिया है। ऐसे में, सरकार में बैठे लोग न तो बेरोज़गारी पर काबू कर सकते हैं और न ही महँगाई और भ्रष्टाचार पर। जो भी पार्टी सत्ता में आयेगी उसे भी इन्हीं नीतियों को आगे बढ़ाना है। ऐसे में, किसी भी पार्टी के लिए किसी तरह के लोकलुभावन नारे देना नामुमकिन है। बाँटो और राज करो के अलावा उनके पास चुनाव जीतने का और कोई हथकण्डा बचता ही नहीं है। और इस खेल में भाजपा सबसे आगे है।

विभ्रमग्रस्त प्रगतिशील बुद्धिजीवी अक्सर संसदमार्गी वाम पार्टियों से उम्मीद लगाये रहते हैं कि वह साम्प्रदायिक फ़ासीवाद और कारपोरेट लूट के ख़िलाफ़ जनता को अब भी प्रभावी विकल्प दे सकता है और ऐसा न होने पर उसे कोसते हैं। वे इस बात को नहीं समझ पाते कि संशोधनवादी पार्टियाँ अब चाहें भी तो उनमें ऐसा करने का दम नहीं रह गया है। दूसरे, आज उनका मॉडल भी “बाज़ार समाजवाद” है। एक ज़्यादा “कल्याणकारी” राज्य और थोड़ा ज़्यादा “मानवीय चेहरे” के साथ नवउदारवाद – इससे आगे एक क्रान्तिकारी विकल्प के बारे में वे सोच ही नहीं सकते। इसीलिए उन्हें भूमण्डलीकरण के समर्थक अमर्त्य सेन भी प्रगतिशील लगते हैं। ब्राज़ील की लूला की पार्टी और सरकार की नीतियाँ भी उन्हें प्रगतिशील लगती थीं, ये अलग बात है कि अब ब्राज़ील के संकट और वहाँ फूट पड़े जनान्दोलनों से यह बात साफ हो चुकी है कि आज के भूमण्डलीय पूँजीवादी परिवेश में सामाजिक जनवाद के लिए ज़्यादा गुंजाइश नहीं रह गयी है। यूरोप में सामाजिक जनवाद की सीमाएँ पहले ही उजागर हो गयीं थीं। व्यवस्था की दूसरी सुरक्षापंक्ति के रूप में संसदीय वाम की ज़रूरत अभी बनी रहेगी, लेकिन यह भी तय है कि कुछ विशेष परिस्थितियों में कुछ अन्य पार्टियों के साथ मिलकर थोड़े समय के लिए स्टेपनी बनने से ज़्यादा ये कुछ नहीं कर सकते।

जहाँ तक ‘आप’ पार्टी को मिली अप्रत्याशित कामयाबी का सवाल है, यह मँहगाई-बेरोज़गारी-भ्रष्टाचार से परेशान आम मध्यवर्ग के आदर्शवादी यूटोपिया और साफ-सुथरे पूँजीवाद तथा तेज़ विकास करके पश्चिम से टक्कर लेते भारत की कामना करने वाले कुलीन मध्यवर्ग के प्रतिक्रियावादी यूटोपिया का मिलाजुला परिणाम है। यह पूँजीवादी संकट से पैदा हुई अस्थिरता के बीच के दौर की एक अस्थायी परिघटना है। यह लम्बे समय तक चल नहीं सकती। कुछ लोकरंजक हवाई नारों के अलावा इसके पास कोई ठोस आर्थिक-राजनीतिक कार्यक्रम है ही नहीं। निजीकरण-उदारीकरण की नीतियों का इसके पास कोई विकल्प नहीं है, बस भ्रष्टाचार, मँहगाई हटा देने या कम कर देने के खोखले वायदे हैं। वास्तव में, पूर्व एन.जी.ओ. पंथियों-समाजवादियों-सुधारवादियों का यह जमावड़ा नवउदारवादी नीतियों का विरोधी है ही नहीं। ऐसे में, ज़्यादा सम्भावना इसी बात की है कि यह पार्टी राष्ट्रीय स्तर पर कभी भी एक विकल्प नहीं बन सकती और यह आगे चलकर या तो एक दक्षिणपंथी दल के रूप में संसदीय राजनीति में व्यवस्थित हो जायेगी या फिर बिखर जायेगी। इसके बिखरने की स्थिति में इसके सामाजिक समर्थन-आधार  का बड़ा भाग हिन्दुत्ववादी फ़ासीवाद के साथ जुड़ जायेगा। ‘आप’ के एक आन्तरिक सर्वेक्षण के ही अनुसार उसके समर्थकों में से 31 प्रतिशत की पसन्द नरेन्द्र मोदी है। रामदेव आज खुले तौर पर भाजपा के साथ हैं और “गैरराजनीतिक” अन्ना आन्दोलन की पूरी विचारधारा भी फ़ासीवाद की राजनीति को ही मज़बूत करने का काम करती है।

यहीं पर ज़रा यह भी देख लें कि अरविन्द केजरीवाल की पार्टी की नीतियाँ और सोच आख़िर क्या है। विधानसभा चुनाव के लिए जारी उनके घोषणापत्र में पन्द्रह दिनों में जनलोकपाल, मुफ़्त पानी, आधी कीमत पर बिजली जैसे शहरी मध्यवर्ग के लिए ढेरों लोकलुभावन वायदे भरे हुए थे! मगर ज़रा उनसे कोई पूछे कि ऊपर से नीचे तक नेताशाही और नौकरशाही पर निगरानी रखने वाले जनलोकपाल का विराट नौकरशाही तंत्र (कुछ अर्थशास्त्रियों का अनुमान है कि इसके लिए 10 लाख कर्मचारियों की फौज की ज़रूरत होगी!) भला भ्रष्ट क्यों नहीं हो सकता? नौकरशाही तंत्र को नेताशाही से स्वायत्त करने का मतलब यह हुआ कि अफसर नेताओं से कम भ्रष्ट होते हैं (या वे बस नेताओं के दबाव में भ्रष्टाचार करने को मजबूर होते हैं)। यहाँ केजरीवाल का वर्ग-भाईचारा बोल रहा है। उच्च मध्यवर्ग के अफसर नेताओं से कम भ्रष्ट और जनविरोधी नहीं है। बल्कि सच तो यह है कि नौकरशाही ही राज्यसत्ता की रीढ़ है, नेता तो आते-जाते रहते हैं। नेता और अफसर मिलकर पूँजी की सेवा करते हैं और लूट एवं शोषण के तंत्र में भ्रष्टाचार की जो रकम उनकी जेबों में जाती है, वह मज़दूरों से निचोड़े गये अधिशेष (सरप्लस) का ही एक भाग होती है। नेताओं को बुरा बताकर जो नौकरशाही को खुले हाथ देने की बात करता है, वह रहे-सहे बुर्जुआ जनवाद को भी नगण्य बनाकर पूँजी के नग्न-निरंकुश सर्वसत्तावाद का पैरोकार है।

केजरीवाल नवउदारवादी आर्थिक नीतियों पर कुछ नहीं बोलते। वे साम्राज्यवादी लूट, भारतीय पूँजीपतियों की अँधेरगर्दी पर, राष्ट्रीयताओं के संघर्षों तथा जनसंघर्षों के दमन पर भी कुछ नहीं बोलते। वे देशभर में मज़दूरों के नग्न और बर्बर शोषण पर चुप रहते हैं, इस बात पर भी कुछ नहीं बोलते कि श्रम क़ानूनों का कहीं कोई मतलब नहीं रह गया है और मज़दूरों को दिये गये जनवादी अधिकार संविधान और क़ानून की किताबों से बाहर ही नहीं आ पाते। केजरीवाल यह क्यों नहीं बोलते कि सभी लोगों को समान स्तर की शिक्षा और समान स्तर की स्वास्थ्य सेवा मुहैया कराने के लिए सभी प्राइवेट स्वास्थ्य संस्थानों और शिक्षा संस्थानों का राष्ट्रीकरण कर दिया जाना चाहिए? दरअसल केजरीवाल जैसे लोकलुभावन नारों की फेरी लगाने वाले इसी लुटेरी व्यवस्था की चिथड़ी चादर को सिलने वाले रफूगर हैं, उसके दामन पर लगे ख़ून और गन्दगी के धब्बों को साफ करने वाले ड्राई-क्लीनर हैं। इन्हें पूँजीवाद का नाश नहीं, “भ्रष्टाचार-मुक्त पूँजीवाद” चाहिए। ऐसा अजूबा जो दुनिया में पहले न कभी देखा गया और न कभी देखा जायेगा। भ्रष्टाचार-मुक्त पूँजीवाद असम्भव है। पूँजीवाद स्वयं में ही भ्रष्टाचार है। सफेद धन के साथ काला धन भी पैदा होगा ही। पूँजीपति कर-चोरी करेंगे ही, आपसी होड़ के चलते वे नेताओं-अफसरों को घूस देंगे ही। और जहाँ तक नेताओं-अफसरों की बात है, तो लुटेरों के वेतनभोगी कर्मचारियों से सदाचारी होने की उम्मीद भला कैसे की जा सकती है?

सरकार पूँजीपतियों की मैनेजिंग कमेटी के सिवा और कुछ नहीं है। नौकरशाही पूँजीवादी उत्पादन एवं विनिमय की मशीनरी के सुचारु संचालन की देख-रेख करती है। संसद बस बहसबाज़ी का अड्डा है। न्यायपालिका धनपतियों के आपसी विवादों में पंच की भूमिका निभाती है और अमीरों-ग़रीबों या  लुटेरों- मज़दूरों के बीच के विवादों में हमेशा ही अमीरों-लुटेरों का हितसाधन करती है। जनता के बीच अपनी छवि बनाये रखने के लिए कुछ मामलों में वह मालिक वर्गों को भी नियंत्रित करती है। सशस्त्र बल राज्यसत्ता की असली ताक़त है जो कभी-कभी दमन और ज़्यादातर आतंक के दम पर उत्पीड़ितों को नियंत्रित करता है और पूँजी के तंत्र की हिफ़ाज़त करता है। पूँजीपतियों और उनकी राज्यसत्ता के स्वामित्व एवं नियंत्रण वाला बुर्जुआ मीडिया जन समुदाय पर बुर्जुआ वर्ग का वैचारिक-राजनीतिक- सांस्कृतिक वर्चस्व स्थापित करता है, उसके दिमाग को अनुकूलित करता है कि वह बुर्जुआ शासन को स्वीकार कर ले, क्योंकि उसके पास दूसरा कोई भी व्यावहारिक या बेहतर विकल्प नहीं है।

‘आप’ पार्टी की राजनीति के पीछे जो सुधारवादी और प्रतिक्रियावादी यूटोपिया है उन दोनों का तार्किक विकास समाज में फ़ासीवाद के समर्थन-आधार को विस्तारित करने की ओर ही जाता है। मान लें कि 2014 नहीं तो 2019 तक ‘आप’ पार्टी का बुलबुला न फूटे और वह एक राष्ट्रीय विकल्प बन जाये (जिसकी सम्भावना बेहद कम है) और वह सत्ता में भी आ जाये तो वह नवउदारवादी नीतियों को निरंकुश नौकरशाही और ‘पुलिस स्टेट’ के सहारे निरंकुश स्वेच्छाचारिता के साथ लागू करेगी। इसके सिवा और कुछ हो ही नहीं सकता क्योंकि मुनाफे की गिरती दर के जिस पूँजीवादी संकट ने आवर्ती चक्रीय क्रम में आने वाले मन्दी व दुष्चक्रीय निराशा के दौरों की जगह विश्व पूँजीवाद के असाध्य ढाँचागत संकट को जन्म दिया है वह नवउदारवाद की नीतियों और लगातार सिकुड़ते बुर्जुआ जनवाद के सर्वसत्तावाद की ओर बढ़ते जाने के अतिरिक्त अन्य किसी विकल्प की ओर ले ही नहीं जा सकता। विकसित पश्चिम के देश हों या पिछड़े पूरब के, सामाजिक-आर्थिक संरचना और राजनीतिक अधिरचना की यही गतिकी आज अलग-अलग रूपों में, अलग-अलग संवेग के साथ हर जगह काम कर रही है। यूरोप में, यूनान और उक्रेन से लेकर अन्य देशों तक में नवनात्सी उभार के पीछे वही कारक तत्व हैं, जो वहाँ की सत्ताओं के बढ़ते दमनकारी चरित्र और सामाजिक ताने-बाने में मौजूद बुर्जुआ जनवादी मूल्यों के क्षरण-विघटन के लिए ज़िम्मेदार हैं। वही कारक तत्व भारत में यहाँ की राज्यसत्ता को भी ज़्यादा निरंकुश दमनकारी बना रहे हैं और दूसरी ओर समाज की जमीन को फ़ासीवादी प्रवृत्तियों के फलने-फूलने के लिए ज़्यादा उर्वर बना रहे हैं। इसका लाभ ज़ाहिरा तौर पर संघ परिवार और भाजपा ही राष्ट्रीय राजनीतिक पटल पर ज़्यादा उठायेंगे, क्योंकि एक संगठित धुर-प्रतिक्रियावादी सामाजिक आन्दोलन के रूप में वे ही हैं जो काफी पहले से मौजूद रहे हैं।

हम यदि पूँजीवाद के राजनीतिक अर्थशास्त्र की बुनियाद पर राजनीतिक परिदृश्य के घटनाक्रम विकास को समझने की कोशिश करें तो उसकी ज़्यादा तर्कसंगत व्याख्या के साथ ही भविष्य की सम्भावित दिशा का भी ज़्यादा सही आकलन कर सकते हैं। जो ऐसा नहीं कर पाते वही कठिन और चुनौतीपूर्ण परिस्थितियों के सामने किंकर्तव्यविमूढ़ या पस्तहिम्मत हो जाते हैं या फिर ‘आप’ पार्टी जैसी किसी सामयिक परिघटना से (आगे चलकर और अधिक मायूस हो जाने के लिए) अधिक उम्मीदें लगा बैठते हैं। फिर जब मोहभंग होता है तो ऐसे बहुतेरे अपेक्षतया सुलझे हुए या जनवादी किस्म के मध्यवर्गीय लोग भी फ़ासीवाद के पाले में लुढ़क जाते हैं। इतिहास में ऐसे अनेक उदाहरण हैं। जर्मनी और इटली में पूँजीवादी जनवाद के दायरे में सोचने वाली मध्यवर्गीय आबादी भी सामाजिक जनवाद से मोहभंग के बाद फ़ासीवादियों के लोकलुभावन नारों और उग्र अन्धराष्ट्रवाद के नारों की ओर तेज़ी से आकृष्ट हुई थी। शेष एक ऐसी आबादी थी, जो फ़ासीवाद के सत्ता में आने के बाद घरों में दुबक गयी। सिर्फ मज़दूर वर्ग ने एकदम हवा के विरुद्ध जाकर फ़ासीवादियों से मोर्चा लिया और अपनी क़ुर्बानियों और शहादतों से कीमत चुकाकर कम्युनिस्टों ने मेहनतकशों की अगुवाई की।

यह पक्की बात है कि पूँजीवाद अपने संकटों से अपनेआप ध्वस्त नहीं होगा, जबतक कि क्रान्ति का सचेतन हरावल दस्ता संगठित नहीं होगा। पूँजीवादी संकट का यदि क्रान्तिकारी समाधान नहीं होगा तो प्रतिक्रान्तिकारी समाधान फ़ासीवाद के रूप में सामने आयेगा। बेशक आज की परिस्थितियों  में भारत जैसे देशों में यह फ़ासीवाद, हिटलर और मुसोलिनी के फ़ासीवाद की तरह नहीं होगा, पर जनता के विरुद्ध पूँजीपति वर्ग ज़ंजीर में बँधे कुत्ते के समान इसका इस्तेमाल करने का विकल्प हमेशा अपने हाथ में रखेगा। 2014 में यदि भाजपा सत्ता में न भी आये, तो एक ताक़तवर प्रतिक्रियावादी सामाजिक आन्दोलन के रूप में फ़ासीवाद यहाँ के सामाजिक- राजनीतिक परिदृश्य पर मौजूद रहेगा। इसका प्रभावी तोड़ केवल एक क्रान्तिकारी सामाजिक आन्दोलन ही दे सकता है।

कहने की ज़रूरत नहीं कि खण्ड-खण्ड में बिखरा हुआ, ठहराव का शिकार कम्युनिस्ट क्रान्तिकारी आन्दोलन आज विकल्प पेश कर पाने की स्थिति में क़त्तई नहीं है। इसके भीतर, एक छोर पर यदि वामपंथी” दुस्साहसवाद का भटकाव है, तो दूसरे छोर पर तरह-तरह के रूपों में दक्षिणवादी विचलन भी मौजद है। दोनों के ही मूल में है विचारधारात्मक कमज़ोरी और कठमुल्लावाद। आज की दुनिया और भारत में पूँजीवादी संक्रमण की गतिकी को नहीं समझ पाने के चलते ये अधिकांश संगठन आज भी नयी सच्चाइयों को बीसवीं शताब्दी की लोकजनवादी क्रान्तियों के साँचे-खाँचे में फिट करने की निष्फल कोशिश करते रहे हैं। जूते की नाप से पैर काटने में लगे हुए हैं। इस गतिरोध से उबरने के लिए पुरानी निरन्तरता को तोड़कर एक नयी साहसिक शुरुआत की ज़रूरत है। मार्क्सवाद-लेनिनवाद की गम्भीर समझ से लैस, एक बोल्शेविक साँचे-खाँचे में ढली पार्टी के निर्माण के लिए संकल्पबद्ध कम्युनिस्ट क्रान्तिकारियों की नयी पीढ़ी ही इस काम को अंजाम दे सकती है। इसके लिए, सारे भ्रमों से मुक्त होकर, पार्टी-निर्माण के काम को साहसपूर्वक हाथ में लेना होगा। नयी समाजवादी क्रान्ति के परचम को उठाकर, भारतीय सर्वहारा वर्ग के सभी हिस्सों के बीच उन साहसी क्रान्तिकारियों की टीम को लेकर जाना होगा, जिन्होंने अब तक धारा के विरुद्ध जूझते हुए अपने बोल्शेविक साहस को खरा सिद्ध किया है। सभी दिशाओं में, जनता के सभी हिस्सों के बीच जाकर क्रान्तिकारी प्रोपेगैण्डा एवं एजिटेशन की घनीभूत, जुझारू और निरन्तर कार्रवाई चलाते हुए उन्नत चेतना के युवाओं के बीच से पेशेवर क्रान्तिकारी संगठनकर्ताओं की भरती पर विशेष ज़ोर देना होगा, क्योंकि देश के लाखों मेहनतकश और मध्यवर्गीय युवाओं के बीच आज क्रान्तिकारी भरती की प्रचुर सम्भावनाएँ मौजूद हैं और आने वाले दिनों में ये सम्भावनाएँ बढ़ती ही चली जायेंगी। हमें पूरी व्यवस्था के ढाँचे और कार्यप्रणाली को, साम्राज्यवादी-पूँजीवादी शोषण के तौर-तरीक़ों को समझना होगा और मेहनतकश जनता को समझाना होगा। इसके क्रान्तिकारी विकल्प की सही समझ बनानी होगी और उसे लेकर लोगों के बीच जाना होगा।

बेशक यह एक लम्बा और कठिन रास्ता है। मगर कोई दूसरा रास्ता है ही नहीं। यदि एकमात्र विकल्प यह लम्बा रास्ता ही है, तो हमें इसी पर चलने की तैयारी करनी पड़ेगी। दूसरे, रास्ते की लम्बाई कोई निरपेक्ष अटल सत्य नहीं है। कोशिशें रास्ते की लम्बाई को कम कर देती हैं। दूरियाँ तय करने से ही कम होती हैं, बैठे रहने से नहीं। हालात इसके लिए ज़्यादा से ज़्यादा दुर्निवार दबाव बना रहे हैं। मार्क्स का यह कथन आज बहुत मायने रखता है कि कभी-कभी प्रतिक्रान्ति का कोड़ा क्रान्ति को आगे गतिमान करने में अहम भूमिका निभाता है। अगर हम समय रहते नहीं चेते और क्रान्ति को क़रीब लाने के लिए अपना जी-जान लगाकर नहीं जूझे, तो हमारी सज़ा होगी फ़ासीवादी बर्बरता!

 


 

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