माँगपत्रक शिक्षणमाला – 1
माँगपत्रक आन्दोलन-2011 शिक्षा माला : माँगपत्रक आन्दोलन-2011 के मुद्दों एवं माँगों के बारे में चर्चा
काम के दिन की उचित लम्बाई और उसके लिए उचित मज़दूरी मज़दूर वर्ग की न्यायसंगत और प्रमुख माँग है!

 

मज़दूर माँगपत्रक 2011 क़ी अन्य माँगों — न्यूनतम मज़दूरी, काम के घण्टे कम करने, ठेका के ख़ात्मे, काम की बेहतर तथा उचित स्थितियों की माँग, कार्यस्थल पर सुरक्षा और दुर्घटना की स्थिति में उचित मुआवज़ा, प्रवासी मज़दूरों के हितों की सुरक्षा, स्त्री मज़दूरों की विशेष माँगों, ग्रामीण व खेतिहर मज़दूरों, घरेलू मज़दूरों, स्वतन्त्र दिहाड़ी मज़दूरों की माँगों के बारे में विस्तार से जानने के लिए क्लिक करें। — सम्पादक

 

दुनियाभर के मज़दूर आन्दोलन में काम के दिन की उचित लम्बाई और उसके लिए उचित मज़दूरी का भुगतान एक प्रमुख मुद्दा रहा है। 1886 में हुआ शिकागो का महान मज़दूर आन्दोलन इसी मुद्दे को केन्द्र में रखकर हुआ था। मई दिवस शिकागो के मज़दूरों के इसी आन्दोलन की याद में मनाया जाता है। 1886 की पहली मई को शिकागो की सड़कों पर लाखों की संख्या में उतरकर मज़दूरों ने यह माँग की थी कि वे इंसानों जैसे जीवन के हकदार हैं। वे कारख़ानों और वर्कशॉपों में जानवरों की तरह 14 से 16 घण्टे और कई बार तो 18 घण्टे तक खटने को अस्वीकार करते हैं। उन्होंने ‘आठ घण्टे काम,आठ घण्टे आराम और आठ घण्टे मनोरंजन’ का नारा दिया। कालान्तर में दुनियाभर के पूँजीपति वर्गों को मज़दूर वर्ग के आन्दोलन ने इस बात के लिए मजबूर किया कि वे कम-से-कम कानूनी और काग़ज़ी तौर पर मज़दूर वर्ग को आठ घण्टे के कार्यदिवस का अधिकार दें। यह एक दीगर बात है कि आज कई ऐसे कानून बन गये हैं जो मज़दूर वर्ग के संघर्षों द्वारा अर्जित इस अधिकार में चोर दरवाज़े से हेर-फेर करते हैं और यह कि दुनियाभर में इस कानून को अधिकांशत: लागू ही नहीं किया जाता। आमतौर पर मज़दूर 12-14 घण्टे खटने के बाद न्यूनतम मज़दूरी तक नहीं पाते।

न्यूनतम मज़दूरी की माँग भी मज़दूर वर्ग की पुरानी माँग है जिसे मज़दूर वर्ग लगभग एक सदी से उठा रहा है। मज़दूर वर्ग ने दुनियाभर में अपने-अपने देश के पूँजीपति वर्ग को अपने संघर्षों के दम पर बाध्‍य किया कि वे और उनकी सरकारें ऐसे कानून बनायें जो मज़दूरों के लिए एक न्यूनतम मज़दूरी को तय करें। न्यूनतम मज़दूरी को इस आधार पर तय किया गया कि मज़दूर काम करने की अपनी क्षमता, परिवार के सदस्यों के जीवन का पुनरुत्पादन कर सके और जीवन की सबसे बुनियादी सुविधाएँ प्राप्त कर सके। लेकिन यहाँ भी वही कहानी दोहरायी गयी। काग़ज़ पर तो न्यूनतम मज़दूरी तय कर दी गयी, लेकिन समय बीतने के साथ इस काग़ज़ी कानून का काग़ज़ीपन सामने आने लगा। आज हालत यह है कि दुनियाभर में इस कानून का धड़ल्ले से उल्लंघन होता है। आज के पूँजीवादी समाज में बेरोज़गारी, ग़रीबी और भुखमरी-कुपोषण का मारा मज़दूर न्यूनतम मज़दूरी से भी कम दर पर और आठ घण्टे से कहीं ज्यादा काम करने को मजबूर होता है। और यह सारी नंगई भरी लूट मालिक और ठेकेदार सरकारी एजेंसियों की नाक के नीचे और घूस खिलाकर उन्हें अपने साथ लेकर करते हैं। हर आम मज़दूर जानता है कि किसी भी औद्योगिक विवाद के निपटारे में सरकारी श्रम विभाग मज़दूरों के हित की रक्षा करने और श्रम कानूनों को लागू करवाने की बजाय मालिकों और ठेकेदारों के एजेण्ट के रूप में काम करता है।

माँगपत्रक आन्दोलन-2011 ‘उचित काम की उचित मज़दूरी’ के लिए संघर्ष का आह्वान करता है! ऐसे में ‘भारत के मज़दूरों का माँगपत्रक-2011’ कार्यदिवस की उचित लम्बाई और काम की उचित मज़दूरी को लेकर कई माँगें रखता है। यह एक दीर्घकालिक और महत्तवपूर्ण आन्दोलन है जो आने वाले समय में मज़दूर आन्दोलन को एक नयी दिशा देने की सम्भावना रखता है। इसलिए सभी मज़दूर भाइयों और बहनों के लिए यह समझना अहम है कि माँगपत्रक आन्दोलन-2011 इन माँगों को किस प्रकार उठा रहा है। माँगपत्रक आन्दोलन-2011 ने काम के घण्टे और उचित न्यूनतम मज़दूरी के सवाल पर निम्न माँगें भारत सरकार के सामने रखी है।

सरकार सभी प्रकार के मज़दूरों और सभी सेक्टरों के लिए भोजनावकाश समेत आठ घण्टे के कार्यदिवस के कानून को सख्ती से लागू करे। जिन कानूनों में यह कार्यदिवस भोजनावकाश समेत नौ घण्टे का रखा गया है उन्हें संशोधित करे, जैसे कि ठेका मज़दूर कानून, 1971। सभी प्रकार के मज़दूरों को एक साप्ताहिक अवकाश मिलना चाहिए, चाहे वे स्थायी हों, अस्थायी हों, ठेके पर हों या दिहाड़ी पर हों। आठ घण्टे के कार्यदिवस और एक साप्ताहिक अवकाश के नियम को सरकार सभी निजी व सार्वजनिक उपक्रमों पर सख्ती से लागू करे और इसका उल्लंघन करने वाले मालिक या ठेकेदार और श्रम विभाग के ज़िम्मेदार अफसर पर भी त्वरित और सख्त कार्रवाई करे। किसी भी मज़दूर से कोई नियोक्ता जबरिया ओवरटाइम नहीं करा सकता है। मज़दूर स्वेच्छा से ओवरटाइम करे तो ही उससे ओवरटाइम कराया जाना चाहिए और ओवरटाइम के लिए उसे दोगुनी दर से भुगतान किया जाना चाहिए। इस कानून को न लागू करने वाले नियोक्ता पर भी सख्त कार्रवाई को सुनिश्चित किया जाना चाहिए।

इसके साथ ही माँगपत्रक आन्दोलन यह माँग करता है कि आज की बढ़ी हुई उत्पादकता के मद्देनज़र छह घण्टे के कार्यदिवस और दो साप्ताहिक अवकाश का कानून बनाया जाये। जब आठ घण्टे के कार्यदिवस का कानून बना था, तब से श्रम की उत्पादकता, यानी पैदा करने की रफ्तार काफी बढ़ चुकी है और उसके अनुसार कार्यदिवस की लम्बाई को छोटा किया जाना चाहिए।

जहाँ तक उचित न्यूनतम मज़दूरी का सवाल है तो माँगपत्रक आन्दोलन- 2011 माँग करता है कि मज़दूरों की न्यूनतम मज़दूरी को नये सिरे से निर्धारित किया जाये। इसका आधार महज़ 2400 या 2100 कैलोरी खाद्यान्न के उपभोग को नहीं बनाया जाना चाहिए, बल्कि जीने के लिए आवश्यक कई पैमानों को बनाया जाना चाहिए। जैसे कि न्यूनतम मज़दूरी के निर्धारण में मज़दूर वर्ग के कपड़े, ईंधन, मकान का किराया, बिजली, शिक्षा और इलाज, शादी-ब्याह, उत्सवों-त्योहारों के ख़र्चों को भी सम्मिलित किया जाना चाहिए। साथ ही, सरकार राष्ट्रीय श्रम सम्मेलन 1957 द्वारा की गयी सिफारिशों को भी लागू करे। इस सम्मेलन ने कहा था कि पोषणयुक्त आहार के लिए मज़दूरों को प्रतिदिन 2700 कैलोरी खाद्यान्न मिलना चाहिए। इसलिए न्यूनतम मज़दूरी में खाद्यान्न आवश्यकता को बढ़ाकर 2400/2100 से 2700 पर किया जाये और उसे गाँव और शहर के लिए अलग नहीं बल्कि एक बराबर रखा जाये। साथ ही, माँगपत्रक आन्दोलन माँग करता है कि जब तक नयी न्यूनतम मज़दूरी तय नहीं होती तब तक देशभर में एक समान न्यूनतम मज़दूरी को लागू किया जाये और इसे11,000 रुपये प्रति माह पर तय किया जाये। इस न्यूनतम मज़दूरी को सभी प्रकार के उपक्रमों, औद्योगिक, व्यावसायिक,कृषि और सेवा, में एक समान रूप से लागू करने के लिए कानून बनाया जाना चाहिए और संवैधानिक संशोधन किया जाना चाहिए। साथ ही, न्यूनतम मज़दूरी में जीवन-निर्वाह के बढ़ते ख़र्च के अनुसार नियमित तौर पर बढ़ोत्तरी की जानी चाहिए। इसके लिए उसे जीवन-निर्वाह सूचकांक से जोड़ दिया जाना चाहिए। न्यूनतम मज़दूरी के कानून को संविधान की नवीं सूची में लाया जाना चाहिए ताकि औद्योगिक विवाद की सूरत में मालिक उस पर स्टे न ले सके। आम तौर पर मज़दूरों की मज़दूरी को इसी तरह से मारा जाता है। न्यूनतम मज़दूरी का कानून कहीं भी लागू नहीं होता और इसे लागू करने को सुनिश्चित करने के लिए देशभर के श्रम विभागों में एक अलग सेल (प्रकोष्ठ) बनाया जाये और विशेष अधिकारी नियुक्त किये जायें। किसी भी प्रकार के जुर्माने के रूप में आमतौर पर मालिक/ठेकेदार मज़दूर की मज़दूरी मार लेते हैं। ऐसा कानून बनाया जाना चाहिए जो न्यूनतम मज़दूरी को किसी भी प्रकार के कानूनी विवाद से सम्बद्ध न करे। और अन्त में माँगपत्रक आन्दोलन-2011, अन्य माँगों के अतिरिक्त यह माँग रखता है कि पीस रेट पर काम करने वाले मज़दूरों के पीस रेट को उनके पेशे/उद्योग की औसत कुशलता/उत्पादकता और कार्यदिवस की लम्बाई के आधार पर ऐसे तय किया जाना चाहिए कि वह न्यूनतम मज़दूरी के बराबर हो जाये।

उपरोक्त तरीके से माँगपत्रक आन्दोलन-2011 सरकार से यह माँग करता है कि ‘उचित काम की उचित मज़दूरी’ का कानूनी हक वह मज़दूरों के लिए सुनिश्चित करे और इसकी ज़िम्मेदारी ले। अगर वह ऐसा नहीं करती है तो उसे अपने बनाये सारे कानूनों को रद्दी की टोकरी में फेंक देना चाहिए। अगर वह मज़दूर वर्ग की इन जायज़ कानूनी माँगों को नहीं मानती है तो उसे अपने आपको जनप्रतिनिधि कहना छोड़ देना चाहिए। हम वही माँग रहे हैं जो हमें कानून देता है या जिसे देने का वायदा सरकार और उसकी एजेंसियों ने किया है। इससे ज्यादा हम कुछ भी नहीं माँग रहे हैं। हम सिर्फ उसी तर्क के आधार पर अपनी माँगें रख रहे हैं जिस तर्क के आधार पर पूँजीपति वर्ग मज़दूरी तय करता आया है। मज़दूरों को इतनी मज़दूरी मिलनी चाहिए और उसका कार्यदिवस इतना होना चाहिए कि वह स्वस्थ रहते हुए काम करना जारी रख सके और अपनी नस्ल का पुनरुत्पादन कर सके। लेकिन आज तो पूँजीवाद मज़दूरों को इतना भी नहीं दे रहा है और उन्हें कुपोषण,बीमारी और मौत के गङ्ढे में धकेलता जा रहा है। ऐसे में माँगपत्रक आन्दोलन-2011 शासक वर्गों को उनके द्वारा मज़दूरों के किये गये वायदों की याद दिलाते हुए यह माँग कर रहा है कि श्रम कानूनों को सख्ती से लागू किया जाये; अपर्याप्त श्रम कानूनों में संशोधन किया जाये, जिसकी सिफारिश सरकारी आयोगों ने ही की है; और पुराने पड़ चुके या अप्रासंगिक हो चुके श्रम कानूनों को रद्द कर नये उचित और प्रासंगिक श्रम कानून बनाये जायें।

लेकिन हमारी मुक्ति महज़ पूँजीवादी ‘उचित काम की उचित मज़दूरी’ से नहीं होगी! अपनी मुक्ति के लिए हम ज्यादा नहीं,बस सारी दुनिया माँगते हैं!

माँगपत्रक आन्दोलन-2011 मज़दूरों को अपने कानूनी हकों से अवगत कराता है। लेकिन हमें यह भी समझ लेना चाहिए कि यह इसी व्यवस्था के दायरे में शासक वर्गों से अपने वायदों को पूरा करवाने की लड़ाई है। पूँजीवादी व्यवस्था के भीतर मज़दूर वर्ग के लिए जो उचित काम के घण्टे और उसके लिए उचित मज़दूरी है, वह वास्तव में इस व्यवस्था के उत्पादन सम्बन्धों और नियम- कानूनों के अनुसार उचित है। वह पूँजीपति वर्ग की निगाह में उचित है। मज़दूर की मेहनत करने की ताकत भी पूँजीपति वर्ग के लिए बेचा-ख़रीदा जाने वाला एक माल है। इसलिए उसके लिए उचित मज़दूरी का अर्थ है इस माल के उत्पादन में लगने वाली लागत! यानी कि पूँजीपति वर्ग के लिए उचित मज़दूरी का अर्थ है मज़दूर को इतना दे देना कि वह जीवित रह सके और हर दिन आकर उसके लिए बेशी पैदावार कर सके। यानी उसके कारख़ाने में खट सके और अपने आपको काम करने की हालत में बनाये रख सके और अपनी नस्ल को ज़िन्दा रख सके।

मज़दूर पूँजीवादी समाज में अपने दिनभर काम करने की ताकत को पूँजीपति को बेच देता है और बदले में उसे पूँजीपति जीने की खुराक दे देता है। पूँजीवादी अर्थशास्त्र कहता है कि मज़दूरी और कार्यदिवस की लम्बाई बाज़ार की प्रतियोगिता से तय होते हैं। बाज़ार में पूँजीपतियों के बीच की प्रतिस्पर्द्धा और रोज़गार के सीमित अवसरों के लिए प्रतिस्पर्द्धा श्रमशक्ति के मोल को कई बार उस न्यूनतम स्तर से भी नीचे लेती जाती है जो मज़दूर को ज़िन्दा और काम करने योग्य बनाये रख सके। यही कारण है कि न्यूनतम मज़दूरी के कानून को पूँजीपति कहीं भी लागू नहीं कर पाते। पूँजीपति के पास पैसे की ताकत होती है और इसलिए मज़दूर से मोलभाव में वह हावी होता है। अगर मज़दूर किसी निश्चित मज़दूरी पर काम करने के लिए राज़ी नहीं है तो पूँजीपति तो अपने पैसे के बल पर कुछ समय तक काम चला लेता है लेकिन मज़दूर नहीं चला पाता क्योंकि उसके पास जीने के लिए अपनी श्रमशक्ति को बेचने के अलावा और कोई रास्ता नहीं होता। इसलिए इस प्रतियोगिता में हमेशा पूँजीपति जीतता है और मज़दूर हारता है। इसलिए मज़दूर अन्तत: जहाँ और जिन शर्तों पर काम पाता है, उसे करने के लिए मजबूर होता है। मज़दूरों की ताकत बेरोज़गारी की बढ़ती रिज़र्व आर्मी के साथ और कम होती जाती है। पूँजीपति वर्ग के सामने मोलभाव की उसकी ताकत लगातार कम होती रहती है। पूँजीवादी अर्थशास्त्र के लिए यह एक न्यायपूर्ण प्रतियोगिता होती है। लेकिन स्पष्ट है कि यह कोई न्यायपूर्ण प्रतियोगिता नहीं है। इसमें मज़दूर निर्भर है और पूँजीपति हावी।

वास्तव में जो मज़दूरी पूँजीपति मज़दूर को देता है वह श्रम की पैदावार का ही एक हिस्सा होता है। समस्त सम्पदा का स्रोत प्रकृति और श्रम होता है। कोई भी उत्पादन पूँजी द्वारा अपने आप नहीं होता। वास्तव में पूँजी स्वयं भौतिक उत्पादन का एक रूप है, यानी मुद्रा रूप। समस्त उत्पादन मज़दूर अपने श्रम से करता है। इसलिए पूँजी और कुछ नहीं बल्कि भण्डारित श्रम है। इस प्रकार मज़दूरों को उन्हीं की उपज से मज़दूरी दी जाती है, जो वास्तव में उन्हें महज़ ज़िन्दा रखने के लिए पर्याप्त होती है। बाकी सारी उपज को पूँजीपति हड़प जाता है और यही उसकी अमीरी का कारण होता है। कायदे से तो श्रम की समस्त उपज समस्त श्रमिकों की सामूहिक सम्पत्ति होनी चाहिए। इसलिए वास्तव में अगर पूँजीपति वर्ग अपनी’उचित मज़दूरी’ मज़दूर को देता भी हो (जो 10 में से 9 मामलों में वह नहीं देता) तो भी वह न्यायपूर्ण नहीं है। पूँजीवादी उचित मज़दूरी का अर्थ महज़ इतना होता है कि मज़दूर को पेट भरने के साधन नसीब हो जायें ताकि वह पूँजीपति के मुनाफे के लिए काम करने की हालत में अपने को बनाये रख सके।

इसलिए जब हम पूँजीपति से ‘उचित न्यूनतम मज़दूरी’ देने की माँग कर रहे हैं तो यह हम कोई बहुत बड़ी क्रान्तिकारी माँग नहीं कर रहे हैं। हम सिर्फ पूँजीपति वर्ग से उसके वायदों को पूरा करने की माँग कर रहे हैं। यह माँग अगर पूरी हो भी जाये तो मज़दूर वर्ग केवल जीने की खुराक को नियमित और व्यवस्थित तरीके से पाने लग जायेगा। यह अपने आप में न्यायपूर्ण नहीं होगा। न्यायपूर्ण केवल एक ही चीज़ हो सकती है – जो समस्त भौतिक सम्पदा का उत्पादन कर रहे हैं,उन्हीं का उस उत्पादन पर कब्ज़ा होना चाहिए और उन्हीं को उसके वितरण का अधिकार होना चाहिए; उत्पादक वर्गों के पास ही कानून बनाने, उसे लागू करने और शासन चलाने का अधिकार होना चाहिए। यही एकमात्र सच्ची न्यायपूर्ण व्यवस्था हो सकती है।

माँगपत्रक आन्दोलन-2011 पूँजीवादी व्यवस्था के दायरे के भीतर मज़दूर वर्ग के जायज़ कानूनी अधिकारों को हासिल करने की लड़ाई है। लेकिन इस संघर्ष की प्रक्रिया में हम पूँजीवादी व्यवस्था की सच्चाई को भी समस्त सर्वहारा वर्ग के समक्ष उजागर करते जायेंगे और यह प्रत्यक्ष होता जायेगा कि यह कैसी और किसकी व्यवस्था है? इसे कौन लोग चलाते हैं और यह किसके हितों की सेवा करती है?

इस लड़ाई को लड़ते हुए हम जो भी हासिल कर सकेंगे, उसे हासिल करेंगे। लेकिन हम इस लड़ाई को लड़ते हुए भी यह कभी नहीं भूल सकते कि सर्वहारा वर्ग का ऐतिहासिक लक्ष्य क्या है और सर्वहारा वर्ग की मुक्ति ‘उचित काम कि उचित मज़दूरी’ से नहीं होगी, बल्कि एक ऐसी व्यवस्था में होगी जिसमें उत्पादन, राजकाज और समाज के पूरे ढाँचे पर उत्पादन करने वाले वर्गों का हक होगा और फैसला लेने की ताकत उनके हाथों में होगी।

 

 

मज़दूर बिगुल, नवबर 2010

 


 

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