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माँगपत्रक शिक्षणमाला – 12 बाल मज़दूरी और जबरिया मज़दूरी के हर रूप का ख़ात्मा मज़दूर आन्दोलन की एक अहम माँग है

बाल मज़दूरी के मुद्दे को पूरी आबादी के रोज़गार और समान एवं सर्वसुलभ शिक्षा के मूलभूत अधिकार के लिए संघर्ष से अलग करके देखा ही नहीं जा सकता। जो व्यवस्था सभी हाथों को काम देने के बजाय करोड़ों बेरोज़गारों की विशाल फौज में हर रोज़ इज़ाफा कर रही है, जिस व्यवस्था में करोड़ों मेहनतकशों को दिनो-रात खटने के बावज़ूद न्यूनतम मज़दूरी तक नहीं मिलती, उस व्यवस्था के भीतर से लगातार बाल-मज़दूरों की अन्तहीन क़तारें निकलती रहेंगी। उस व्यवस्था पर ही सवाल उठाये बिना बच्चों को बचाना सम्भव नहीं, बाल मज़दूरों की मुक्ति सम्भव नहीं।

माँगपत्रक शिक्षणमाला – 11 स्वतन्त्र दिहाड़ी मज़दूरों से जुड़ी विशेष माँगें

अलग-अलग स्वतन्त्र दिहाड़ी मज़दूरों के लिए न्यूनतम मज़दूरी तय की जाये जो ‘राष्ट्रीय तल-स्तरीय न्यूनतम मज़दूरी’ से ऊपर हो। इनके लिए भी आठ घण्टे के काम का दिन तय हो और उससे ऊपर काम कराने पर दुगनी दर से ओवरटाइम का भुगतान किया जाये। रिक्शेवालों, ठेलेवालों के लिए प्रति किलोमीटर न्यूनतम किराया भाड़ा व ढुलाई दरें तय की जायें तथा जीवन-निर्वाह सूचकांक के अनुसार इनकी प्रतिवर्ष समीक्षा की जाये व पुनर्निर्धारण किया जाये। इसके लिए राज्य सरकारों को आवश्यक श्रम क़ानून बनाने के लिए केन्द्र सरकार की ओर से दिशा-निर्देश जारी किये जायें। दिहाड़ी मज़दूरों से सम्बन्धित नियमों-क़ानूनों का अनुपालन सुनिश्चित करने के लिए हर ज़िले में डी.एल.सी. कार्यालय में अलग से पर्याप्त संख्या में निरीक्षक होने चाहिए, जिनकी मदद के लिए निगरानी समितियाँ हों जिनमें दिहाड़ी मज़दूरों के प्रतिनिधि, मज़दूर संगठनों के प्रतिनिधि तथा जनवादी अधिकारों एवं श्रम अधिकारों की हिफाज़त के लिए सक्रिय नागरिक एवं विधिवेत्ता शामिल किये जायें।

माँगपत्रक शिक्षणमाला – 10 ग़ुलामों की तरह खटने वाले घरेलू मज़दूरों को उनकी माँगों पर संगठित करना होगा

देश में इस समय 10 करोड़ लोग घरेलू मज़दूर के तौर पर काम कर रहे हैं। लेकिन यह सिर्फ़ एक अनुमान है क्योंकि इसके बारे में कोई भी ठोस आँकड़े उपलब्ध नहीं हैं। वास्तविक संख्या इससे कहीं ज्यादा हो सकती है। इनमें सबसे अधिक संख्या औरतों और बच्चों की है। अन्तरराष्ट्रीय श्रम सम्मेलन के अनुसार घरेलू मज़दूर वह है जो मज़दूरी के बदले किसी निजी घर में घरेलू काम करता है। लेकिन भारत में इस विशाल आबादी को मज़दूर माना ही नहीं जाता है। ये किसी श्रम क़ानून के दायरे में नहीं आते और बहुत कम मज़दूरी पर सुबह से रात तक, बिना किसी छुट्टी के कमरतोड़ काम में लगे रहते हैं। ऊपर से इन्हें तमाम तरह का उत्पीड़न का भी सामना करना पड़ता है। मारपीट, यातना, यौन उत्पीड़न, खाना न देना, कमरे में बन्द कर देना जैसी घटनायें तो अक्सर सामने आती रहती हैं, लेकिन रोज़-ब-रोज़ इन्हें जो अपमान सहना पड़ता है वह इनके काम का हिस्सा मान लिया गया है। इन्हें कभी भी काम से निकाला जा सकता है और ये अपनी शिकायत कहीं नहीं कर सकते।

माँगपत्रक शिक्षणमाला – 9 (दूसरी किस्‍त) ग्रामीण व खेतिहर मज़दूरों की प्रमुख माँगें और उनकी अपनी यूनियन की ज़रूरत

खेतिहर और ग्रामीण मज़दूर अधिकांश मौकों पर न्यूनतम मज़दूरी से बेहद कम मज़दूरी पर काम करने के लिए मजबूर होते हैं। कई बार उन्हें मिलने वाली मज़दूरी उन्हें ज़िन्दा रखने के लिए भी मुश्किल से ही काफ़ी होती है। खेती के सेक्टर में जारी मन्दी के समय तो उनके लिए हालात और भी भयंकर हो गये हैं। आज देश के अधिकांश कम्युनिस्ट क्रान्तिकारी खेती में मन्दी के कारण मंझोले और धनी किसानों की दिक्कतों पर तो काफ़ी टेसू बहाते हैं, लेकिन उन खेतिहर और ग्रामीण मज़दूरों के बारे में कम ही शब्द ख़र्च करते हैं, जो तेज़ी और मन्दी दोनों के ही समय में ज्यादातर भुखमरी और कुपोषण में जीते रहते हैं। यह एक त्रासद स्थिति है और भारत के कम्युनिस्ट आन्दोलन में नरोदवाद की गहरी पकड़ की ओर इशारा करता है। बहरहाल, ग्रामीण और खेतिहर मज़दूरों के लिए जो दूसरी सबसे अहम माँग है वह है न्यूनतम मज़दूरी के क़ानून की माँग। अभी ये मज़दूर पूरी तरह बाज़ार की शक्तियों और धनी और मँझोले किसानों के भरोसे होते हैं। वे पूर्णतया अरक्षित हैं और उनके हितों की रक्षा के लिए कोई भी क़ानून मौजूद नहीं है।

माँगपत्रक शिक्षणमाला – 9 (पहली किस्‍त) सर्वहारा आबादी के सबसे बड़े और सबसे ग़रीब हिस्से की माँगों के लिए नये सिरे से व्यवस्थित संघर्ष की ज़रूरत

भारत में सर्वहारा आबादी, यानी ऐसी आबादी जिसके पास अपने बाजुओं के ज़ोर के अलावा कोई सम्पत्ति या पूँजी नहीं है, क़रीब 70 करोड़ है। इस आबादी का भी क़रीब 60 प्रतिशत हिस्सा ग्रामीण सर्वहारा आबादी का है। यानी, गाँवों में खेतिहर और गैर-खेतिहर मज़दूरों की संख्या क़रीब 40 करोड़ है। भारत की मज़दूर आबादी का यह सबसे बड़ा हिस्सा सबसे ज्यादा ग़रीब, सबसे ज्यादा असंगठित, सबसे ज्यादा शोषित, सबसे ज्यादा दमन-उत्पीड़न झेलने वाला और सबसे अशिक्षित हिस्सा है। इस हिस्से को उसकी ठोस माँगों के तहत एकजुट और संगठित किये बिना भारत के मज़दूर अपनी क्रान्तिकारी राजनीति को देश के केन्द्र में स्थापित नहीं कर सकते हैं। सभी पिछड़े पूँजीवादी देशों में, जहाँ आबादी का बड़ा हिस्सा खेती-बारी में लगा होता है और गाँवों में रहता है, वहाँ खेतिहर मज़दूरों को संगठित करने का सवाल ज़रूरी बन जाता है

माँगपत्रक शिक्षणमाला – 8 स्त्री मज़दूर सबसे अधिक शोषित-उत्पीड़ित हैं (दूसरी किस्‍त)

सबसे निचले पायदान पर स्त्री मज़दूर हैं। उन्हें सबसे कम दामों पर, सबसे निचले दर्जे के, कमरतोड़, आँखफोड़ू और ऊबाऊ कामों में लगाया जाता है। मोबाइल फोन के चार्जर, माइक्रोचिप्स, सिले-सिलाये कपड़ों से लेकर गाड़ियों के सी.एन.जी. किट और प्लास्टिक के सामान बनाने वाले उद्योगों तक में औरतें काम कर रही हैं। घण्टों तक खड़े-खड़े कपड़ों की कटिंग, पुर्जों की वेल्डिंग, बेहद छोटे-छोटे पुर्जों की छँटाई, या फिर पूरे-पूरे दिन झुके हुए बैठकर कागज़ की प्लेटों की गिनती, पंखे की जाली की सफ़ाई, पेण्टिंग, पैकिंग, धागा कटिंग, बटन टाँकने, राख में से धातु निकालने जैसे अनगिनत काम बेहद कम दरों पर स्त्री मज़दूरों से कराये जाते हैं। स्त्रियाँ पहले से ही सबसे सस्ती श्रम शक्ति रही हैं जिन्हें जब चाहे धकेलकर बेकारों की रिज़र्व आर्मी में फेंका जा सकता है। आज उनकी स्थिति और भी कमज़ोर हो गयी है।

माँगपत्रक शिक्षणमाला -7 स्त्री मज़दूर सबसे अधिक शोषित-उत्पीड़ित हैं (पहली किश्त)

उद्योगीकरण के अलग-अलग दौरों और पूँजी-संचय की प्रक्रिया के अलग-अलग चरणों में विभिन्न तरीक़ों से स्त्रियों को उन निकृष्टतम कोटि की उजरती मज़दूरों की कतारों में शामिल किया गया जो सबसे सस्ती दरों और सबसे आसान शर्तों पर अपनी श्रम शक्ति बेच सकती हों, सबसे कठिन हालात में काम कर सकती हों और घरेलू श्रम की ज़िम्मेदारियों के चलते संगठित होकर पूँजीपतियों पर सामूहिक सौदेबाज़ी का दबाव बना पाने की क्षमता जिनमें कम हो।

माँगपत्रक शिक्षणमाला – 6 प्रवासी मज़दूरों की दुरवस्था और उनकी माँगें मज़दूर आन्दोलन के एजेण्डा पर अहम स्थान रखती हैं

काम की तलाश में लगातार नयी जगहों पर भटकते रहने और पूरी ज़िन्दगी अनिश्चितताओं से भरी रहने के कारण प्रवासी मज़दूरों की सौदेबाज़ी करने की ताक़त नगण्य होती है। वे दिहाड़ी, ठेका, कैजुअल या पीसरेट मज़दूर के रूप में सबसे कम मज़दूरी पर काम करते हैं। सामाजिक सुरक्षा का कोई भी क़ानूनी प्रावधान उनके ऊपर लागू नहीं हो पाता। कम ही ऐसा हो पाता है कि लगातार सालभर उन्हें काम मिल सके (कभी-कभी किसी निर्माण परियोजना में साल, दो साल, तीन साल वे लगातार काम करते भी हैं तो उसके बाद बेकार हो जाते हैं)। लम्बी-लम्बी अवधियों तक ‘बेरोज़गारों की आरक्षित सेना’ में शामिल होना या महज पेट भरने के लिए कम से कम मज़दूरी और अपमानजनक शर्तों पर कुछ काम करके अर्द्धबेरोज़गारी में छिपी बेरोज़गारी की स्थिति में दिन बिताना उनकी नियति होती है।

पिछले इक्कीस वर्षों से जारी उदारीकरण-निजीकरण का दौर लगातार मज़दूरी के बढ़ते औपचारिकीकरण, ठेकाकरण, दिहाड़ीकरण, ‘कैजुअलीकरण’ और ‘पीसरेटीकरण’ का दौर रहा है। नियमित/औपचारिक/स्थायी नौकरी वाले मज़दूरों की तादाद घटती चली गयी है, यूनियनों का रहा-सहा आधार भी सिकुड़ गया है। औद्योगिक ग्रामीण मज़दूरों की कुल आबादी का 95 प्रतिशत से भी अधिक असंगठित/अनौपचारिक है, यूनियनों के दायरे के बाहर है (या एक हद तक है भी तो महज़ औपचारिक तौर पर) और उसकी सामूहिक सौदेबाज़ी की ताक़त नगण्य हो गयी है। ऐसे मज़दूरों का बड़ा हिस्सा किसी भी तरह के रोज़गार की तलाश में लगातर यहाँ-वहाँ भागता रहता है। उसका स्थायी निवास या तो है ही नहीं या है भी, तो वह वहाँ से दूर कहीं भी काम करने को बाध्य है। तात्पर्य यह कि नवउदारवाद ने मज़दूरों को ज़्यादा से ज़्यादा यहाँ-वहाँ भटकने के लिए मजबूर करके प्रवासी मज़दूरों की संख्या बहुत अधिक बढ़ा दी है।

माँगपत्रक शिक्षणमाला-5 कार्यस्थल पर सुरक्षा और दुर्घटना की स्थिति में उचित मुआवज़ा हर मज़दूर का बुनियादी हक़ है!

आज देश के किसी भी औद्योगिक क्षेत्र में जाकर पूछा जाये तो पता चलेगा कि मज़दूर हर जगह जान पर खेलकर काम कर कर रहे हैं। कोई दिन नहीं जाता जब छोटी-बड़ी दुर्घटनाएँ नहीं होती हैं। मुनाफ़ा बटोरने के लिए कारख़ाना मालिक सुरक्षा के सभी इन्तज़ामों, नियमों और सावधानियों को ताक पर रखकर अन्धाधुन्ध काम कराते हैं। ऊपर से लगातार काम तेज़ करने का दबाव, 12-12, 14-14 घण्टे की शिफ़्टों में हफ़्तों तक बिना किसी छुट्टी के काम की थकान और तनाव – ज़रा-सी चूक और जानलेवा दुर्घटना होते देर नहीं लगती। बहुत बार तो मज़दूर कहते रहते हैं कि इन स्थितियों में काम करना ख़तरनाक है लेकिन मालिक-मैनेजर-सुपरवाइज़र ज़बर्दस्ती काम कराते हैं और उन्हें मौत के मुँह में धकेलने का काम करते हैं। और फिर दुर्घटनाओं के बाद मामले को दबाने और मज़दूर को मुआवज़े के जायज़ हक़ से वंचित करने का खेल शुरू हो जाता है। जिन हालात में ये दुर्घटनाएँ होती हैं उन्हें अगर ठण्डी हत्याएँ कहा जाये तो ग़लत नहीं होगा। कारख़ानेदार ऐसी स्थितियों में काम कराते हैं जहाँ कभी भी कुछ भी हो सकता है। श्रम विभाग सब कुछ जानकर भी आँख-कान बन्द किये रहता है। पुलिस, नेता-मन्त्री, यहाँ तक कि बहुत-से स्थानीय डॉक्टर भी मौतों पर पर्दा डालने के लिए एक गिरोह की तरह मिलकर काम करते हैं।

माँगपत्रक शिक्षणमाला – 4 काम की बेहतर और सुरक्षित स्थितियों की माँग इन्सानों जैसे जीवन की माँग है!

मज़दूर भाइयों और बहनों को पशुवत जीवन को ही अपनी नियति मान लेने की आदत को छोड़ देना चाहिए। हम भी इन्सान हैं। और हमें इन्सानों जैसी ज़िन्दगी के लिए ज़रूरी सभी सुविधाएँ मिलनी चाहिए। यह बड़े दुख की बात है कि स्वयं मज़दूर साथियों में ही कइयों को ऐसा लगता है कि हम कुछ ज्यादा माँग रहे हैं। वास्तव में, यह पीढ़ी-दर-पीढ़ी उजरती ग़ुलाम की तरह खटने चले जाने से पैदा होने वाली मानसिकता है कि हम ख़ुद को बराबर का इन्सान मानना ही भूल जाते हैं। जीवन की भयंकर कठिन स्थितियों में जीते-जीते हम यह भूल जाते हैं कि देश की सारी धन-दौलत हम पैदा करते हैं और इसके बावजूद हमें ऐसी परिस्थितियों में जीना पड़ता है। हम भूल जाते हैं कि यह अन्याय है और इस अन्याय को हम स्वीकार कर बैठते हैं। माँगपत्रक अभियान सभी मज़दूर भाइयों और बहनों का आह्नान करता है साथियो! मत भूलो कि इस दुनिया की समस्त सम्पदा को रचने वाले हम हैं! हमें इन्सानों जैसे जीवन का अधिकार है! काम, आराम, मनोरंजन हमारा हक़ है! क्या हम महज़ कोल्हू के बैल के समान खटते रहने और धनपशुओं की तिजोरियाँ भरने के लिए जन्म लेते हैं? नहीं! हमें काम की जगह पर उपरोक्त सभी अधिकारों के लिए लड़ना होगा। अपने दिमाग़ से यह बात निकाल दीजिये कि हम कुछ भी ज्यादा माँग रहे हैं। हम तो वह माँग रहे हैं जो न्यूनतम है।