माँगपत्रक शिक्षणमाला – 7
स्त्री मज़दूर सबसे अधिक शोषित-उत्पीड़ित हैं
उन्हें साथ लिये बिना मज़दूर आन्दोलन बड़ी जीतें नहीं हासिल कर सकता! (पहली किश्त)

 
 

मज़दूर माँगपत्रक 2011 क़ी अन्य माँगों — न्यूनतम मज़दूरी, काम के घण्टे कम करने, ठेका के ख़ात्मे, काम की बेहतर तथा उचित स्थितियों की माँग, कार्यस्थल पर सुरक्षा और दुर्घटना की स्थिति में उचित मुआवज़ा, प्रवासी मज़दूरों के हितों की सुरक्षा, स्त्री मज़दूरों की विशेष माँगों, ग्रामीण व खेतिहर मज़दूरों, घरेलू मज़दूरों, स्वतन्त्र दिहाड़ी मज़दूरों की माँगों के बारे में विस्तार से जानने के लिए क्लिक करें। — सम्पादक

 

कहा जाता है कि पूँजीवादी अट्टालिका की बुनियाद में स्त्री मज़दूरों और बाल मज़दूरों की हड्डियाँ दबी हुई हैं। जब पूँजीवाद का युग आया तो सबसे सस्ते में पूँजीपतियों को इन्हीं की श्रम शक्ति मिलती थी और ज़्यादा से ज़्यादा पूँजी-संचय के लिए वे इनकी हड्डियाँ निचोड़ डालते थे।

कार्ल मार्क्‍स ने अपनी महान पुस्तक पूँजी खण्ड-1 में, उन्नीसवीं शताब्दी के इंग्लैण्ड में अत्यधिक काम से स्त्री मज़दूरों की मौतों की, खदानों में औरतों और बच्चों से जानवरों की तरह काम लेने और नहरों में नाव खींचने के लिए घोड़ों के बजाय औरतों का इस्तेमाल किये जाने जैसे चलनों की चर्चा की है।

आज निजीकरण-उदारीकरण के दौर में, भारत जैसे देश में स्त्री मज़दूरों की जो भीषण दुर्दशा है, उसकी चर्चा से पहले ज़रूरी है कि आम तौर पर, पूँजीवाद के अन्तर्गत स्त्री मज़दूरों की विशेष स्थिति और उनके शोषण के स्वरूप को समझ लिया जाये।

Women garment workerwomen brick industry 1 WOMEN_LABOURERS Dharavi-Slum-Mumbai

एक मज़दूर भरण-पोषण के लिए अपनी श्रम शक्ति को माल के रूप में पूँजीपति को बेच देता है। पूँजीपति उससे दिन में सुनिश्चित घण्टों तक काम लेने का अधिकार पा जाता है। मज़दूर का दैनिक श्रम काल दो हिस्सों में बँटा होता है : (i) आवश्यक श्रम के घण्टे और (ii) अतिरिक्त श्रम के घण्टे। आवश्यक श्रम के घण्टों के दौरान मज़दूर उतना मूल्य उत्पादित करता है जो उसकी श्रम शक्ति के पुनरुत्पादन के लिए ज़रूरी है। बाकी समय (अतिरिक्त श्रम के घण्टे) में वह पूँजीपति के लिए अतिरिक्त मूल्य का उत्पादन करता है। मज़दूर को जो मज़दूरी मिलती है वह उसे पूरे दिन के श्रम का भुगतान लगती है, जबकि वास्तव में उसे ‘आवश्यक श्रम काल’ में उत्पादित मूल्य के बराबर ही मज़दूरी मिलती है। इस तरह उसके द्वारा किया जाने वाला अतिरिक्त श्रम पूँजीपति उससे बग़ैर कोई भुगतान किये ही हासिल कर लेता है।

पूँजीवादी समाज में श्रम शक्ति एक माल होती है और मूल्य का एक स्रोत होती है, लेकिन स्वयं इसके पुनरुत्पादन की प्रक्रिया को पूँजीवादी उत्पादन के दायरे से बाहर ही रखा जाता है। एक बार मज़दूरी (श्रम का मूल्य) का एक निश्चित दर पर भुगतान करने के बाद, पूँजीपति को इस बात से कोई मतलब नहीं होता कि मज़दूर अपने को काम करने लायक़ बनाये रखने के लिए तथा मज़दूरों की नयी पीढ़ी को परवरिश करके तैयार करने के लिए क्या करता है और कैसे करता है! मज़दूर को श्रम के बदले जो मज़दूरी दी जाती है, उसका आधार बाज़ार से ज़रूरी चीजों और सेवाओं को ख़रीद पाने की क्षमता को बनाया जाता है। लेकिन महज इतने से ही श्रमशक्ति का पुनरुत्पादन सम्भव नहीं हो सकता। बाज़ार से लायी चीज़ों को उपयोग लायक़ बनाने के लिए घर में नाना प्रकार के श्रम करने पड़ते हैं। अगली पीढ़ी को तैयार करने के लिए पूरे परिवार (बुजुर्गों सहित) की देखभाल से लेकर सैकड़ों प्रकार के घरेलू काम करने पड़ते हैं। परिवार के दायरे में होने वाले इस घरेलू श्रम की मुख्य ज़िम्मेदारी स्त्रियों की होती है। यानी ‘आवश्यक श्रम’ के ‘सामाजिक हिस्से’ का मूल्य बाज़ार से ख़रीदी जाने वाली आवश्यक वस्तुओं और सेवाओं के मूल्य के बराबर होता है। दूसरा इसका ‘घरेलू हिस्सा’ होता है जो परिवार और घर में किये जाने वाले श्रम का होता है।

पूँजीवादी उत्पादन-प्रणाली सामाजिक श्रम और घरेलू श्रम के विभाजन को पुख्ता बनाता है। उद्योगीकरण घरेलू श्रम और सामाजिक श्रम के बीच स्थान और काल का अन्तर बनाता और बढ़ाता है।

पूँजीवादी व्यवस्था में सारा लेखा-जोखा इस बात को लेकर होता है कि ज़्यादा से ज़्यादा अधिशेष कैसे पैदा हो, यानी ज़्यादा से ज़्यादा अतिरिक्त श्रम कैसे निचोड़ा जाये। अतिरिक्त श्रम के दायरे से घरेलू श्रम को अलग कर देने का नतीज़ा यह होता है कि घरेलू श्रम आर्थिक लेखा-जोखा से बाहर हो जाता है और ‘अदृश्य’ हो जाता है। इससे राष्ट्रीय आय के कुल बँटवारे में पूँजी की हिस्सेदारी बढ़ जाती है और श्रम की हिस्सेदारी कम हो जाती है। पूँजीवादी बाज़ार के नियमों के अनुसार भी, मज़दूरों को जो मज़दूरी मिलती है वह श्रम शक्ति के पुनरुत्पादन की ज़रूरतों की आंशिक पूर्ति ही कर पाती है। इस तरह परिवार के पुराने पुरुष वर्चस्ववादी ढाँचे के तथा स्त्रियों की पुरानी घरेलू ग़ुलामी को पूँजीवाद नये भौतिक आधार पर स्थापित करता है और उनके श्रम की उपेक्षा करके ज़्यादा अधिशेष निचोड़ने में सफल रहता है।

श्रम के पुनरुत्पादन के लिए आवश्यक श्रम के घरेलू अंश की अधिकांश ज़िम्मेदारियाँ मज़दूर परिवारों की स्त्रियाँ ही उठाती हैं। दूसरी ओर आवश्यक श्रम के सामाजिक अंश की ज़िम्मेदारी उठाने वाले पुरुष मज़दूर को इतनी मज़दूरी नहीं मिलती कि वह पूरे परिवार की न्यूनतम ज़रूरतों को भी आसानी से पूरा कर सके। एक व्यक्ति की आमदनी से परिवार नहीं चल पाता। तब औरतों की मजबूरी हो जाती है कि वे सीधे तौर पर, आवश्यक सामाजिक श्रम में भी भागीदारी करें। पूँजीवादी समाज में उनकी दोहरी भूमिका हो जाती है। वे घरेलू श्रम भी करती हैं और उजरती मज़दूरी (वेज लेबर या पगार पर मज़दूरी) भी करती हैं।

मशीनों ने शारीरिक बल के अतिशय प्रयोग को अनुपयोगी बना दिया और स्त्रियों-बच्चों सहित मज़दूर परिवार के अधिकांश सदस्यों को मज़दूरी करने में लगाकर पूँजी का प्रत्यक्ष दास बना दिया। पूँजीवाद एक ओर जहाँ स्त्रियों के उजरती मज़दूरों की कतार में शामिल कर रहा था, वहीं वह यह भी चाहता था कि परिवार श्रम के पुनरुत्पादन की इकाई बना रहे, स्त्रियाँ बिना किसी एवज़ के सामाजिक श्रम करती रहें और राष्ट्रीय आमदनी के कुल बँटवारे में पूँजी के मुक़ाबले श्रम का हिस्सा कम बना रहे। ये परस्पर-विरोधी स्थितियाँ पूँजीवादी श्रम-प्रक्रियाओं के गठन में गुँथी-बुनी रहती हैं। स्त्रियों को तरह-तरह से ऐसी ”सहूलियतें” दी जाती हैं कि वे अपनी तमाम घरेलू ज़िम्मेदारियों को निपटाने के साथ-साथ उजरती मज़दूरी कर सकें। उनकी सुविधा के हिसाब से काम की पाली रखी जाती है, उन्हें पार्टटाइम और कैजुअल कामों पर रखा जाता है और पीस रेट पर काम दिये जाते हैं ताकि वे घर पर चूल्हे-चौके, बाल-बच्चे आदि की साज-सम्हार करते हुए काम कर सकें। पुरुष स्वामित्ववादी सामाजिक-पारिवारिक संरचना में स्त्रियों, और पूरे मज़दूर वर्ग के, दिमाग़ में यह बात भर दी जाती है कि ”घर का काम निपटाते हुए औरतें कुछ ऊपरी कमाई कर ले रही हैं और पारिवारिक बोझा हल्का करने में हाथ बँटा रही हैं” (इसमें यह भी निहित होता है कि घरेलू काम ही उनकी मुख्य और स्वाभाविक ज़िम्मेदारी होती है) और फिर इसका पूरा लाभ उठाकर उन्हें कम वेतन वाली, अकुशल, अर्द्धकुशल और अनियमित श्रम-प्रक्रियाओं तक सीमित रखा जाता है। यही नहीं, समान काम के लिए भी उन्हें पुरुषों के मुक़ाबले कम वेतन दिया जाता है। आज भी, माइक्रोचिप, गारमेण्ट्स, खाद्य-प्रसंस्करण आदि तमाम नये उद्योगों में सर्वाधिक श्रमसाध्य तथा सेहत पर बेहद ख़राब प्रभाव डालने वाले बारीक़ कामों में ठेका या पीसरेट पर स्त्री मज़दूरों को लगाया जाता है। उन्नत मशीनी काम करने पर भी उन्हें अकुशल या अर्द्धकुशल माना जाता है और कार्यस्थल की सुविधाओं पर भी मालिक कम से कम ख़र्च करके मज़दूरी पर ख़र्च घटाने और मुनाफा बढ़ाने का काम करते हैं। परिवार में संसाधनों पर पुरुषों का अधिकार होता है, फैसले की ताक़त उनके हाथों में होती है और घरेलू कामों का सारा बोझ स्त्रियों पर होता है। दूसरी ओर, बाहर काम करने की जगहों पर भी उनकी स्थिति दोयम दर्जे की होती है, उनका श्रम सस्ता होता है, काम की परिस्थितियाँ कठिन होती हैं और जनवादी अधिकार बेहद कम होते हैं।

उद्योगीकरण के अलग-अलग दौरों और पूँजी-संचय की प्रक्रिया के अलग-अलग चरणों में विभिन्न तरीक़ों से स्त्रियों को उन निकृष्टतम कोटि की उजरती मज़दूरों की कतारों में शामिल किया गया जो सबसे सस्ती दरों और सबसे आसान शर्तों पर अपनी श्रम शक्ति बेच सकती हों, सबसे कठिन हालात में काम कर सकती हों और घरेलू श्रम की ज़िम्मेदारियों के चलते संगठित होकर पूँजीपतियों पर सामूहिक सौदेबाज़ी का दबाव बना पाने की क्षमता जिनमें कम हो।

पूँजीवादी उत्पादन प्रक्रिया का बुनियादी गुण है — पूँजी संचय, और पूँजी संचय के निरन्तर जारी रहने के लिए ज़रूरी है कि राष्ट्रीय आय में मज़दूरी का हिस्सा बढ़ने न दिया जाये। पूँजीवादी समाज में बेरोज़गार, अर्द्धबेरोज़गार, आंशिक व सीज़नल काम करके गुजारा करने वाले कामगारों की एक ऐसी रिज़र्व श्रमशक्ति हरदम मौजूद रहती है, जो पूँजीवादी उत्पादन प्रक्रिया में नियमित सक्रिय भागीदारी नहीं करती, लेकिन पूँजीपतियों को जब ज़रूरत हो तब काम में लगा देने के लिए उपलब्ध रहती है। मज़दूरों की इस रिज़र्व सेना की मौजूदगी से, श्रम बाज़ार में लगातार यह दबाव बना रहता है कि मज़दूरी की दरें बढ़ने न पायें। काम करने वाले मज़दूरों की सामूहिक सौदेबाज़ी की ताक़त कम हो जाती है। इस रिज़र्व सेना में केवल बेरोज़गार-अर्द्धबेरोज़गार मज़दूर ही शामिल नहीं होते। खेती-बाड़ी और उससे जुड़े कई एक पूँजीवादी उत्पादन के ढाँचे से बाहर के कामों में लगकर गुजर-बसर करने वाली ग़रीब आबादी, पूँजीवादी खेती के कामों से फाज़िल हो चुकी आबादी और घरेलू कामों में लगी कामगार परिवारों की स्त्रियाँ भी मज़दूरों की उक्त रिज़र्व सेना का हिस्सा होती हैं। रिज़र्व सेना का यह हिस्सा पूँजीपतियों के लिए प्रत्यक्ष बेरोज़गारों से अधिक सुविधाजनक होता है। जब पूँजीवादी उत्पादन तन्त्र में श्रम की माँग बढ़ती है तो रिज़र्व सेना के इस हिस्से को कम से कम पगार पर उत्पादन कार्य में लगा दिया जाता है। इससे श्रम की माँग में आयी उछाल से मज़दूरी की दर में पैदा होने वाली स्वाभाविक वृद्धि रुक जाती है। फिर अगले दौर में श्रम की माँग में जब कमी आ जाती है, तो औरतों को उनकी घरेलू भूमिका में आसानी से वापस भेजा जा सकता है, इससे समाज में प्रत्यक्षत: न तो बेरोज़गारी बढ़ती दीखती है, न ही कोई सामाजिक-राजनीतिक संकट पैदा होता है।

पूँजीवाद के इतिहास में कई बार ऐसा भी हुआ कि श्रम की अतिरिक्त माँग नहीं होने पर भी मज़दूर आन्दोलन की संगठित ताक़त के चलते मज़दूरी की दरों में वृद्धि हो जाती थी। तब नयी तकनीक और उत्पादन प्रक्रिया के पुनर्गठन के द्वारा पूँजी श्रम की माँग को घटाने की कोशिश करती थी। नयी तकनीक संख्या की दृष्टि से श्रम की माँग घटाने की साथ ही कार्य की परिभाषा और कुशलता का पैमाना ही बदल डालती थी। इससे श्रम की माँग का पूरा ढाँचा भी बदल जाता था। उन्नीसवीं सदी में इंग्लैण्ड के कपड़ा उद्योग में यही हुआ। पहले बुनाई-कताई में मानवश्रम का अधिक इस्तेमाल होता था। फिर मशीनों का उपयोग बढ़ा और शारीरिक ताक़त की जगह उँगलियों की फुर्ती ने ले ली। इससे न केवल कुल श्रम की माँग में कमी आई बल्कि पुरुष मज़दूरों का स्थान बड़े पैमाने पर स्त्री मज़दूरों व बाल मज़दूरों ने ले लिया। मिलों में स्त्री मज़दूरों को बेहद कम वेतन पर कठिन स्थितियों में और प्रतिकूल सेवा शर्तों पर काम करना पड़ता था और कार्यस्थल पर उनका शोषण भी होता था। साथ ही, समूचे मज़दूर वर्ग पर भी इस नयी स्थिति का भयंकर असर पड़ा।

पूँजी के विरुद्ध मज़दूर वर्ग का संघर्ष यूरोप और अमेरिका में जब आगे बढ़ा तो उसमें स्त्री मज़दूरों की भी भूमिका बढ़ी। पेरिस कम्यून (1871) में स्त्री कम्युनार्डों ने भी शौर्यपूर्ण भूमिका निभाई थी। काम के घण्टों के आन्दोलन में भी उनकी शिरक़त थी, हालाँकि ट्रेड यूनियन आन्दोलनों में स्त्री मज़दूरों के प्रति पुरुष मज़दूरों का व्यवहार मैत्रीपूर्ण नहीं था। समाजवादियों द्वारा राजनीतिक शिक्षा और स्त्री मज़दूरों द्वारा पुरुष-स्वामित्व की संस्कृति के विरुद्ध लगातार संघर्ष से स्थिति में बदलाव आया। मज़दूर हड़तालों में स्त्री मज़दूरों की जुझारू भूमिका ने भी पुरुष मज़दूरों की सोच बदलने में भूमिका निभाई। 1880 के आसपास, ट्रेड यूनियनों में भागीदारी बढ़ने के साथ-साथ स्त्री मज़दूरों के स्वतन्त्र संगठन बनने लगे। बीसवीं शताब्दी के दूसरे दशक में यूरोप में जब ट्रेड यूनियन आन्दोलन पर सुधारवादी काबिज़ हो गये थे तो बड़े पैमाने पर इसका असर स्त्री मज़दूरों की स्थिति पर भी पड़ा। जर्मनी में (जहाँ स्त्री मज़दूर आन्दोलन काफी सशक्त रहा था) लाखों स्त्री मज़दूरों को उजरती मज़दूरों की पाँतों से वापस घरों की चारदीवारी में धकेल दिया गया था। इसी बीच अक्टूबर 1917 में सोवियत संघ में मज़दूर क्रान्ति के बाद दुनिया की पहली समाजवादी सत्ता अस्तित्व में आयी। इस क्रान्ति में स्त्री मज़दूरों की भी महत्वपूर्ण भूमिका थी। क्रान्ति के बाद, भुखमरी और गृहयुद्ध के वर्षों से जूझकर सोवियत सत्ता जैसे ही सुस्थिर हुई, वैसे ही स्त्रियों की सामाजिक स्थिति में अभूतपूर्व बदलाव आया। देखते ही देखते, घरेलू ग़ुलामी के बन्धनों से बाहर निकलकर करोड़ों स्त्रियाँ उत्पादक गतिविधियों और समाजवाद के निर्माण में सक्रिय भागीदारी करने लगीं। केवल क़ानूनी तौर पर ही उन्हें समानता के अधिकार नहीं मिले, बल्कि वास्तविक जीवन में भी मिले। राजनीति और प्रबन्धन के कामों में उनकी भागीदारी बढ़ी। इसका पूरी दुनिया के मज़दूर आन्दोलन पर और स्त्री मज़दूरों पर प्रभाव पड़ा। पूँजीवादी सत्ताओं पर दबाव बढ़ा और पहली बार स्त्री मज़दूरों के अधिकार सुनिश्चित करने वाले कुछ क़ानून बने। साम्राज्यवादियों का आपसी अन्तरविरोध भी एक कारण था। अन्तरराष्ट्रीय श्रम सम्मेलन के कन्वेंशंस ने दबाव बनाया कि उपनिवेशवादी देश अपने देशों के अतिरिक्त उपनिवेशों में भी स्त्री मज़दूरों को कुछ अधिकार देने वाले क़ानून बनायें। लेकिन बदलाव के मुख्य कारण स्त्री मज़दूरों के संघर्ष, समाजवाद का प्रभाव और समूचे मज़दूर वर्ग के संघर्षों का अग्रगामी विकास थे।

भारत में स्त्री मज़दूरों का इतिहास उतना ही पुराना है जितना उद्योगों का इतिहास। 1818 में बावरिया (हावड़ा) में पहली कपड़ा मिल खुली थी तो उसमें भारतीय स्त्री मज़दूरों को काम सिखाने के लिए लंकाशायर से फैक्ट्री गर्ल्स लायी गयी थीं। चाय बागानों में शुरू से ही स्त्रियाँ मज़दूरी कर रही थीं। उन्नीसवीं शताब्दी के मध्य से जूट, टेक्सटाइल, माइनिंग आदि उद्योगों की स्थापना में तेजी आयी और इन सबमें स्त्री मज़दूर अच्छी-ख़ासी तादाद में काम कर रही थीं। उनकी दशा उतनी ही भयंकर थी जितनी 19 वीं शताब्दी के मध्य में ब्रिटेन की स्त्री मज़दूरों की थी (जिसका चित्रण पूँजी खण्ड-एक के कुछ पृष्ठों पर भी देखने को मिलता है)। उन्नीसवीं शताब्दी के आठवें-नवें दशक में भारत के औद्योगिक मज़दूरों में 25 प्रतिशत हिस्सा स्त्री मज़दूरों का था। सभी मज़दूरों की दशा नारकीय थी, पर स्त्री मज़दूरों की दशा पुरुष मज़दूरों से दूनी बदतर थी। आर्थिक शोषण के अतिरिक्त सामाजिक तौर पर भी उन्हें लांछित-अपमानित जीवन जीना पड़ता था। समाज में कारख़ाना मज़दूर औरतों की छवि ”बुरी स्त्री” की होती थी। भारत में पूँजी लगाकर ज़्यादा मुनाफा कमाने वाली उद्योगपति लॉबी से ख़तरा महसूस करने वाली मैंचेस्टर लॉबी के उद्योगपतियों के दबाव में 1881 में भारत का पहला कारख़ाना क़ानून बना था। उसी समय बहुतेरे ब्रिटिश और भारतीय समाज सुधारकों ने भारतीय स्त्री मज़दूरों की जीवन स्थिति में सुधार के लिए जब क़ानूनी क़दम की माँग की तो मैंचेस्टर लॉबी के ब्रिटिश उद्योगपतियों ने अपने स्वार्थवश उनका समर्थन किया था। बीसवीं शताब्दी के पहले दशक तक मज़दूर हड़तालों में स्त्री मज़दूरों की भागीदारी के अथवा उनके अपने स्वतन्त्र आन्दोलनों के दस्तावेज़ी प्रमाण नहीं मिलते हैं। दूसरे दशक के अन्तिम कुछ वर्ष भारतीय मज़दूर आन्दोलन के तेज़ी से संगठित होने के वर्ष थे और समूचा तीसरा दशक हड़तालों और मज़दूर संघर्षों की देशव्यापी लहर का दशक था। ग़ौरतलब है कि इस समय टेक्सटाइल उद्योग में लगभग 20 प्रतिशत, जूट उद्योग में 25 प्रतिशत तथा माइनिंग और प्लाण्टेशन में 50 प्रतिशत आबादी स्त्री मज़दूरों की थी। 1920 के दशक की मज़दूर हड़तालों में, बम्बई, कलकत्ता और अन्य औद्योगिक केन्द्रों में स्त्री मज़दूरों ने जुझारू भूमिका निभाई थी। स्त्री मज़दूर दब्बू और आसानी से नियन्त्रण में रखने लायक श्रमशक्ति होती है, मालिकों की यह धारणा टूटने लगी थी। तत्कालीन बम्बई के जुझारू ट्रेड यूनियन हड़तालों में स्त्री मज़दूरों की अग्रणी भूमिका थी। इसी समय विशेष तौर स्त्री मज़दूरों की छँटनी की शुरुआत हुई, जिसके ख़िलाफ 1926 से 1933 के बीच स्त्री मज़दूरों की कई हड़तालें (अकेले 1932-33 में 12) हुईं। यूनियनों ने भी स्त्री मज़दूरों की इन हड़तालों का समर्थन किया, क्योंकि साझा हड़तालों में स्त्री मज़दूरों की भूमिका अग्रणी रही थी और बम्बई के पुरुष मज़दूरों पर भी वाम प्रभाव के कारण पुरुषवादी संस्कारों का प्रभाव कम था। भूमिगत कामों में स्त्री मज़दूरों पर रोक के बाद कोयला उद्योग में स्त्रियों की संख्या में तेज़ गिरावट आयी। अब प्लाण्टेशन ही एक ऐसा क्षेत्र था जिसमें स्त्रियाँ पर्याप्त संख्या में कार्यरत थीं। बंगाल के जूट उद्योग में स्त्री मज़दूरों की छँटनी इतनी तेज़ी से हुई कि उनका प्रतिशत भाग 25 प्रतिशत से घटकर 2 प्रतिशत हो गया।

औद्योगिक मज़दूरी के कामों से स्त्री मज़दूरों के बाहर किये जाने का यह सिलसिला 1950 के दशक तक, यानी सभी बड़े उद्योगों के मज़दूरों के लगभग पूर्ण यूनियनीकरण होने तक लगातार जारी रहा। 1950 के बाद राजकीय क्षेत्र में जितने भी बड़े कारख़ाने लगे, खदान शुरू हुए, बाँध बने, उनमें स्त्री मज़दूरों की भरती नगण्य रही। जो पहले से उद्योगों में काम कर रही थीं, वे स्त्रियाँ भी नेहरूकालीन आधुनिक ”कल्याणकारी राज्य” और उद्योगीकरण के दौर में फिर से घरेलू चौहद्दियों के भीतर धकेल दी गयीं। हाँ, सदियों से घरेलू ग़ुलामी के साथ-साथ जिन कृषि कार्यों और परम्परागत घरेलू एवं कुटीर उद्योगों (कताई, करघा, रंगसाज़ी आदि) में वे काम करती आई थीं, वह यथावत् जारी रहे। प्लाण्टेशन के अतिरिक्त निर्माण उद्योग और ईंट भठ्टा उद्योग में स्त्री मज़दूरों की भारी आबादी कार्यरत थी जहाँ काम के घण्टे या न्यूनतम मज़दूरी जैसे किसी भी क़ानूनी अधिकार का उनके लिए कोई मतलब नहीं होता था।

आख़िर क्या कारण था कि 1930 के दशक से उद्योगों से इतने बड़े पैमाने पर स्त्री मज़दूर बाहर होती रहीं और 1960 के आसपास तक उनकी भागीदारी बस नाममात्र की ही रह गयी? इसके कारणों को समझना स्त्री मज़दूरों के लिए और समूचे मज़दूर आन्दोलन के लिए बेहद ज़रूरी है।

पहली बात तो यह थी कि 1920 के दशक की हड़तालों में स्त्रियों की जुझारू भूमिका ने मालिकों के इस भ्रम को तोड़ दिया था कि स्त्री मज़दूरों को दबाकर रखना और उनसे सस्ते में ज़्यादा काम ले लेना अधिक आसान होता है। स्त्री मज़दूर अब बेहतर सुविधाओं और वेतन-वृद्धि की माँग अलग से और साझा यूनियन मंचों से खुलकर (विशेषकर बम्बई में) उठाने लगी थीं। उधर राष्ट्रीय आन्दोलन में भी स्त्रियों की भागीदारी बढ़ रही थी। उपनिवेशवादी शासक इन दोनों चीजों को जोड़कर देख रहे थे। श्रम संघर्षों के दबाव में तथा समाजवाद के प्रभाव को कम करने के लिए इसी समय दुनिया में क़ानून बनाकर मज़दूरों को कुछ छूट एवं अधिकार देने की लहर चल रही थी। अन्य साम्राज्यवादियों का भी दबाव था कि ब्रिटेन भी अपने उपनिवेशों में श्रम क़ानून लागू करे और इस माँग को एक हद तक मानना ब्रिटेन की भी मजबूरी थी। मज़दूर वर्ग को अतिसीमित ही सही, पर कुछ क़ानूनी अधिकार मिले और इसी क्रम में स्त्रियों को भी मातृत्व अवकाश जैसे कुछ क़ानूनी अधिकार मिले। पिछली हड़तालों ने मालिकों की निगाहों में स्त्री मज़दूरों की दब्बू और ग़ुलामों की तरह मेहनत करने वाली छवि को तो पहले ही तोड़ दिया था। अब उनकी श्रम शक्ति भी उतनी सस्ती नहीं रह गयी थी। इसलिए उन्हें औद्योगिक कार्यस्थलों से घरों की चारदीवारी में धकेलने की प्रक्रिया शुरू हुई। एक बार फिर वे उस रिज़र्व सेना” का हिस्सा बना दी गयीं जिसका भय दिखलाकर (वह मन्दी का ज़माना था) मज़दूर वर्ग की श्रम शक्ति सस्ती से सस्ती दरों पर निचोड़ी जा सकती थी।

लेकिन इस पूरे मामले का एक दूसरा पहलू भी है, जो राजनीतिक पहलू होने के नाते, मज़दूर वर्ग के लिए और स्त्री मज़दूरों के लिए अत्यधिक महत्वपूर्ण है। 1930 के दशक में मज़दूर आन्दोलन के नेतृत्व ने मज़दूर हितों को लेकर बातचीत-सौदेबाज़ी के दौरान स्त्री मज़दूरों की माँगों को हमेशा दरकिनार किया और स्त्री मज़दूरों की छँटनी को उन्होंने कभी भी मुद्दा नहीं बनाया। तब हालाँकि कम्युनिस्ट पार्टी अभी संशोधनवादी नहीं बनी थी, लेकिन दक्षिणपन्थी और अर्थवादी भटकाव उसमें गम्भीर रूप में मौजूद थे। हम याद करें कि जर्मनी और अन्य यूरोपीय देशों में संशोधनवादी पार्टियाँ स्त्रियों के कारख़ानों में मज़दूरी करने और ट्रेड यूनियन गतिविधियों में भाग लेने की विरोधी थी। पहले महायुद्ध के बाद, जर्मन सरकार ने जब लाखों महिला मज़दूरों को नौकरी से घरों में वापस भेज दिया था तो संशोधनवादी पार्टी व उसकी यूनियनों से जुड़े पुरुष मज़दूरों ने इस सरकारी फैसले का खुलकर समर्थन किया था। दुनिया में कहीं भी संशोधनवादी पार्टियाँ और उनसे जुड़ी पुछल्ली यूनियनें स्त्री मज़दूरों की समस्याओं और मसलों की यदि रस्मी तौर पर अपने चार्टर में शामिल कर भी लेती हैं तो उनपर कभी ज़ोर नहीं देती।

जो पार्टियाँ और उनकी यूनियनें केवल मज़दूरों के तात्कालिक आर्थिक हितों को लेकर ही लड़ने में मशग़ूल रहती हैं और पूँजीवाद विरोधी व्यापक वर्गीय मोर्चेबन्दी और मज़दूर वर्ग के ऐतिहासिक मिशन के बारे में सोचती तक नहीं, वे स्त्री मज़दूरों के हितों की लड़ाई क़तई नहीं लड़ सकतीं। सत्ताधारियों से सौदेबाज़ी में स्त्री मज़दूरों के हितों का ही उनका नेतृत्व सबसे पहले सौदा करता है। पूँजीपति स्त्रियों की सहस्राब्दियों पुरानी पारिवारिक ग़ुलामी का लाभ उठाकर उन्हें सबसे सस्ती श्रम शक्ति का आरक्षित स्रोत बनाये रखना चाहते हैं। स्वयं पुरुष मज़दूरों का बड़ा भाग भी पुरुष स्वामित्ववाद का शिकार होता है। वह सोचता है कि स्त्री बाहर जाकर काम करने के बजाय घर में ही बाल-बच्चे पालते हुए पीस रेट पर या पार्ट टाइम कुछ कर ले तो बेहतर है। वेतन यदि कुछ बेहतर हो जाये तो वह चाहता है कि औरत सिर्फ घर की साज-सम्हाल करे। पिछड़े समाजों में औरतों के बाहर काम करने को मर्द मज़दूर बेइज्ज़ती मानता है और हिफाज़त के नाम पर उसे घरेलू ग़ुलामी की बेड़ियों में क़ैद रखना चाहता है। जो यूनियनों के सुधारवादी सौदेबाज़ नेता होते हैं वे ख़ुद मर्दवादी होते हैं और पुरुष मज़दूरों की मर्दवादी मानसिकता से वे लड़ भी नहीं पाते क्योंकि उन्हें डर लगता है कि इससे उनका अपना समर्थन-आधार खिसक जायेगा। वे सर्वहारा वर्ग को यह बता ही नहीं सकते कि पूँजी के ख़िलाफ लड़ाई को तभी जीत की दिशा में बढ़ाया जा सकता है जब औरत-मर्द और जाति-धर्म का भेद मिटाकर सभी मज़दूर साथ आयें। आधी आबादी को घरों में क़ैद रखकर पुरुष मज़दूर अपनी मुक्ति नहीं हासिल कर सकते। जो आम पुरुष मज़दूर होता है, उसे यदि राजनीतिक रूप से शिक्षित नहीं किया जाये तो नाक के ठीक सामने का सच उसे यही दीखता है कि कम मज़दूरी पर औरतों के काम करने से उसकी नौकरी ख़तरे में पड़ जायेगी। जबतक उसे राजनीतिक-सांस्कृतिक रूप से शिक्षित नहीं किया जायेगा तब तक वह नहीं समझेगा कि स्त्री-पुरुषों की समान मज़दूरी और स्त्री मज़दूरों की माँगों को भी उठाकर जब वह लड़ेगा तो मज़दूर आन्दोलन की ताक़त कितनी बढ़ जायेगी। जबतक उसे राजनीतिक रूप से सचेत नहीं बनाया जायेगा तबतक बेरोज़गारों और स्त्री श्रम शक्ति की रिज़र्व सेना को बनाकर श्रम बाज़ार में पूँजी की मोल-तोल की ताक़त बढ़ाने तथा बेरोज़गारी के मूल कारणों के बारे में और पूँजीवादी शोषण के बुनियादी रहस्य के बारे में वह खुद नहीं समझ पायेगा। संशोधनवादी यह काम नहीं करते, क्योंकि उन्हें मज़दूर मुक्ति के लक्ष्य से कोई लेना-देना ही नहीं होता।

यूरोप-अमेरिका में, विश्वव्यापी मन्दी की समस्या के समाधान के लिए और समाजवाद के प्रभाव में आ रहे मज़दूरों के तुष्टीकरण के लिए, कीन्स द्वारा प्रस्तुत कल्याणकारी राज्य के नुस्ख़े के तहत, पूँजी और श्रम के बीच के अन्तरविरोधों को कम करने वाला एक समझौता फार्मूला निकाला गया। राष्ट्रीय आय में श्रम की भागीदारी सुनिश्चित की गयी, राज्य के ख़र्च से माँग प्रबन्धन की तरक़ीब निकाली गयी तथा मज़दूरों की सापेक्षिक रोज़गार सुरक्षा और अन्य लाभों की गारण्टी देने वाला एक व्यापक ढाँचा खड़ा किया गया। भारत जैसे नवस्वाधीन देशों में जनता की गाढ़ी कमाई से (और नियन्त्रित विदेशी पूँजी व तकनोलॉजी के सहकार के सहारे) पब्लिक सेक्टर में बुनियादी और ढाँचागत उद्योगों का जो विराट ढाँचा खड़ा किया गया, उसमें भी कीन्सवादी नुस्ख़े ही अपनाये गये। इन सेक्टरों के संगठित, यूनियनीकृत मज़दूरों को बेहतर वेतन और सेवा शर्तें मिलीं। फलत: जो निजी क्षेत्र के बड़े उद्योग थे, उनके संगठित मज़दूरों ने भी बेहतर सौदेबाज़ी करके अच्छी तनख्वाहें और रोज़गार सुरक्षा हासिल की। लेकिन इन पिछड़े देशों की विडम्बना यह थी कि अधिकांश श्रम शक्ति अभी भी हाशिए पर थी। वह कृषि क्षेत्र के अतिरिक्त करघा, रंगसाज़ी, ईंट-भट्टा, निर्माण उद्योग आदि में काम करती थी या बड़ी परियोजनाओं में ठेकेदारों के मज़दूरों के रूप में काम करती थी। स्त्री मज़दूर भी इन्हीं क्षेत्रों में काम करती थीं जहाँ न यूनियनें थीं न श्रम क़ानूनों की कोई सुरक्षा (वैसे संशोधनवादी पार्टियों ने रस्मी तौर पर कुछ साइनबोर्ड ज़रूर लटका रखे थे)। भारी मशीनरी, माइनिंग, बिजली आदि उद्योगों में स्त्रियाँ थी ही नहीं। 1930 के पहले टेक्सटाइल, जूट आदि जिन उद्योगों में उनकी भागीदारी 20-30 प्रतिशत तक थी वह अब घटकर 2 प्रतिशत तक पहुँच चुकी थी। मज़दूर संघर्षों में जुझारू भागीदारी का 40-50 वर्षों पुराना उनका इतिहास भुलाया जा चुका था। घरेलू ग़ुलामी के अलावा, सर्वाधिक असंगठित सर्वहारा कतारों में वे अभी भी हाड़तोड़ मेहनत कर रही थीं और हाशिए का जीवन बिता रही थीं, लेकिन मज़दूर राजनीति के परिदृश्य पर उनकी आवाज़ कहीं मौजूद नहीं थी। अर्थवादी राजनीति ने बड़े उद्योगों के संगठित मज़दूरों को जो सुविधाएँ दिलवायी थीं, उनमें स्त्री मज़दूरों की कोई हिस्सेदारी नहीं थी। और मज़दूर आन्दोलन को इसका दण्ड जल्दी ही भुगतना पड़ा। यूँ तो दुनिया के स्तर पर पूँजीवादी लूट के तौर-तरीक़ों में बदलाव की प्रक्रिया 1980 का दशक शुरू होते ही शुरू हो गयी थी, पर भारत में निजीकरण-उदारीकरण के रूप में यह लहर 1990 के दशक में आयी। राज्य ने कीन्सवादी नुस्ख़ों का परित्याग कर दिया। नयी तकनीक और नये तौर-तरीक़ों ने अनौपचारिकीकरण, ठेकाकरण की मुहिम चला दी। संगठित क्षेत्र के सुविधाप्राप्त मज़दूरों का हिस्सा सिकुड़कर छोटा से छोटा होता चला गया। ज़्यादा काम ठेके पर, पीस रेट पर, असंगठित क्षेत्र में होने लगे और बड़े-बड़े कारख़ानों तक में रोज़गार सुरक्षा और सामाजिक सुरक्षा में कटौतियाँ होने लगीं तथा थोड़े से कुशल, अनुभवी मज़दूरों को छोड़कर ज़्यादा काम ठेके पर ही कराया जाने लगा। क़रीब साठ वर्षों बाद फिर एक उल्टी प्रक्रिया चली। श्रमिक आबादी में औरतों की भागीदारी तेज़ी से बढ़ने लगी।

स्त्री सर्वहारा की भारी संख्या आज नयी तकनोलॉजी आधारित उत्पादन कार्यों में लगी है, पर सारा काम अनौपचारिक क्षेत्र में, ठेके पर, दिहाड़ी पर और पीसरेट पर होता है। इन स्त्री मज़दूरों को और तमाम असंगठित मज़दूरों को किसी प्रकार की रोज़गार सुरक्षा या सामाजिक सुरक्षा हासिल नहीं है। श्रम क़ानूनों का इनके लिए कोई मतलब नहीं है। आगे हम इस नये ढंग की पूँजीवादी उत्पादन प्रणाली में करोड़ों स्त्री मज़दूरों के अतिशोषण की, उनकी माँगों की और उनके संघर्ष की नयी तैयारियों की चर्चा करेंगे।

(अगले अंक में जारी)

मज़दूर बिगुल, जूलाई 2011

 


 

‘मज़दूर बिगुल’ की सदस्‍यता लें!

 

वार्षिक सदस्यता - 125 रुपये

पाँच वर्ष की सदस्यता - 625 रुपये

आजीवन सदस्यता - 3000 रुपये

   
ऑनलाइन भुगतान के अतिरिक्‍त आप सदस्‍यता राशि मनीआर्डर से भी भेज सकते हैं या सीधे बैंक खाते में जमा करा सकते हैं। मनीऑर्डर के लिए पताः मज़दूर बिगुल, द्वारा जनचेतना, डी-68, निरालानगर, लखनऊ-226020 बैंक खाते का विवरणः Mazdoor Bigul खाता संख्याः 0762002109003787, IFSC: PUNB0185400 पंजाब नेशनल बैंक, निशातगंज शाखा, लखनऊ

आर्थिक सहयोग भी करें!

 
प्रिय पाठको, आपको बताने की ज़रूरत नहीं है कि ‘मज़दूर बिगुल’ लगातार आर्थिक समस्या के बीच ही निकालना होता है और इसे जारी रखने के लिए हमें आपके सहयोग की ज़रूरत है। अगर आपको इस अख़बार का प्रकाशन ज़रूरी लगता है तो हम आपसे अपील करेंगे कि आप नीचे दिये गए बटन पर क्लिक करके सदस्‍यता के अतिरिक्‍त आर्थिक सहयोग भी करें।
   
 

Lenin 1बुर्जुआ अख़बार पूँजी की विशाल राशियों के दम पर चलते हैं। मज़दूरों के अख़बार ख़ुद मज़दूरों द्वारा इकट्ठा किये गये पैसे से चलते हैं।

मज़दूरों के महान नेता लेनिन

Related Images:

Comments

comments