दिल्ली मेट्रो की चकाचौंध के पीछे की काली सच्चाई
ट्रेनों और स्टेशनों को चमकदार बनाये रखने वाले 1400 सफाईकर्मियों को न्यूनतम मज़दूरी तक नहीं, ठेकेदारों की मर्ज़ी के ग़ुलाम

दिल्ली मेट्रो के चमचमाते ग्रेनाइट के फर्शों व शीशे की दीवारों की चमक जिन सफाईकर्मियों की बदौलत कायम है उनकी जिन्दगी अँधेरे में डूबी हुई है। ठेका कम्पनियों के माध्यम से काम करने वाले सफाईकर्मियों को दिल्ली सरकार द्वारा तय न्यूनतम मजदूरी भी नहीं मिलती, बाकी सुविधाओं की बात तो दरकिनार। जिस दिल्ली मेट्रो की कार्यकुशलता के सर्वत्र चर्चे होते रहते हैं उसके पीछे का राज़ यह है कि उसका लगभग सारा काम ठेका कंपनियों के माध्यम से करवाया जाता है जो अपने कर्मचारियों को कोई भी सुविधा नहीं देतीं।

दिल्ली मेट्रो की शान में कसीदे पढ़ने वालों की कोई कमी नहीं। उसके प्रवक्ता मीडिया के माध्यम से दिल्ली मेट्रो की छवि को चमकाने में दिन-रात लगे रहते हैं पर उसे साफ-सुधरा रखने वाले सफाई कर्मियों की बदतर जिंदगी की ओर झाँकने की किसी को भी फुर्सत नहीं है।

दिल्ली मेट्रो के कुल 60 स्टेशनों पर लगभग 1400 सफाई कर्मचारी कार्यरत हैं जो कि आठ-आठ घंटे की शिफ़्टों में काम करते हैं। ये सभी सफाईकर्मी ए टु जेड मेंटेनेंस ग्रुप, एक्मे ग्रुप, केशव सिक्योरिटी, आल सर्विसेज़ नामक ठेका कंपनियों के माध्यम दिल्ली मेट्रो के लिए सफाई का काम करते हैं। हर तरह की रख-रखाव सुविधाएं मुहैया कराने वाली ये ठेका कंपनियाँ श्रम कानूनों को ताक पर रखते हुए सफाई कर्मियों को न्यूनतम वेतन भी नहीं दे रही हैं और प्रायः कोई साप्ताहिक अवकाश तक नहीं दिया जाता।

सरकार के न्यूनतम मजदूरी कानून के अनुसार प्रत्येक सफाईकर्मी को 186 रुपये प्रति दिन के हिसाब से वेतन मिलना चाहिए लेकिन मेट्रो में वेतन 96 से लेकर 110 रुपये प्रति दिन के हिसाब से दिया जाता है। न तो ईएसआई की सुविधा दी जाती है और न ही पीएफ काटा जाता है। श्रम कानूनों को कायदे से अमल में लाया जा रहा है यह सुनिश्चित करना प्रथम नियोक्ता का काम होता है और चूँकि यहाँ प्रथम नियोक्ता दिल्ली मेट्रो है इसलिए उसकी यह जिम्मेदारी होनी चाहिए कि सफाईकर्मियों को उनका हक दिलवाये। पर दिल्ली की मुख्यमंत्री शीला दीक्षित और मेट्रो के प्रबंध निदेशक ई. श्रीधरन को इतनी फुर्सत कहाँ कि वे इस तरह की बेकार की बातों पर गौर करें। गौरतलब है कि गुड़गाँव स्थित एक ठेका कंपनी के जीएम ने खुद स्वीकार किया कि मेट्रो जिस रेट पर ठेका देती है उसमें यह सम्भव ही नहीं है कि ठेकेदार अपनी कमाई निकालने के बाद सफाईकर्मियों को न्यूनतम मजदूरी दे। मेट्रो प्रशासन इस बात को बखूबी जानता है, लेकिन कुछ नहीं करता।

मानसरोवर के एक सफाईकर्मी ने बताया कि नौकरी पर रखने के लिए ए टु जेड नामक ठेका कंपनी के एक मैनेजर ने उससे 500 रुपये बतौर सेवा शुल्क लिया था। यह आम चलन है। सफाईकर्मियों से प्राप्त जानकारी के अनुसार काम के दौरान जरा-जरा सी बात पर ठेका कंपनी के प्रबंधक उनके साथ गाली-गलौज करते हैं तथा काम से निकालने की धमकी देते हैं। सफाईकर्मी विभिन्न मेट्रो स्टेशन प्रबंधकों से अपने साथ हो रही ज्यादतियों की शिकायत करते रहे हैं लेकिन मेट्रो प्रशासन के कान पर जूँ नहीं रेंग रही। अभी हाल ही में जब झिलमिल, मानसरोवर पार्क एवं दिलशाद गार्डेन मेट्रो स्टेशनों के सफाईकर्मियों ने न्यूनतम मजदूरी और अपने दूसरे अधिकारों की मांग उठायी तो उन्हें काम से निकालने की धमकी दी गयी और एक सफाईकर्मी अजय स्वामी को काम से हटा भी दिया गया।

लेकिन मेट्रो प्रशासन सब कुछ जानते हुए भी अनजान बना हुआ है और सारा दोष ठेका कंपनियों के मत्थे मढ़कर साफ बच निकलना चाहता है।

मेट्रो प्रशासन अपने यहाँ कार्यरत मजदूरों के मामले में कितना संवेदनशील है इसे हाल के उस वाकये से समझा जा सकता है जिसमें एक सुरक्षा गार्ड का हाथ ट्रेन के दरवाज़े में फँस  गया और वह लटकते हुए अगले स्टेशन तक चला गया। इस पूरे मामले में मेट्रा प्रशासन मामले की लीपापोती करने में लगा रहा और घटना की जिम्मेदारी खुद उस गार्ड तक पर डालने की कोशिश करता रहा। हर्जाना कम से कम देना पड़े इसके लिए मेट्रो प्रशासन  ने डॉक्टरों पर दबाव तक डाला कि वे चोट को मामूली बतायें।

सफाई कर्मचारी ही नहीं मेट्रो के सभी कामगारों के हालात कमोबेश एक जैसे हैं, चाहे अपनी जान को जोखिम में डालकर कांस्ट्रक्शन में दिन-रात खटने वाले मजदूर हों या स्टेशनों पर काम करने वाले गार्ड व अन्य वर्कर किसी को भी उनके जायज हक और सुविधाएं नहीं मिल रही हैं। किसी को कभी भी बिना कारण बताये काम पर से हटा दिया जाता है। वह दिन दूर नहीं जब एक जैसे हालात में काम करने वाले मेट्रो के सभी कर्मचारी इस बात को समझेंगे और अपने हकों के लिए एकजुट होकर आवाज बुलंद करेंगे।  अधिकार माँगने से नहीं मिलते वरन उनके लिए संघर्ष करना पड़ता है। मजदूर अपने रोजमर्रा के अनुभवों से अच्छी तरह जानते हैं कि अकेले अपने दम पर वे भ्रष्ट मेट्रो प्रशासन और लुटेरे ठेकेदारों से नहीं लड़ सकते, उन्हें एकजुट होकर संघर्ष करना ही होगा।

 

 

बिगुल, फरवरी 2009

 


 

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