दिल्ली के असंगठित मजदूरों का अभूतपूर्व संघर्ष
बादाम मजदूर यूनियन के नेतृत्व में दिल्ली के बादाम मजदूरों की 16 दिन लम्बी हड़ताल
वैश्विक बाजार में बादाम आपूर्ति लड़खड़ाई, मजदूरों की आंशिक विजय

 अभिनव

Almond worker strike 2009-12_316 दिसम्बर से 31 दिसम्बर तक का समय दिल्ली के असंगठित क्षेत्र के मजदूरों के लिए एक यादगार दौर था। इन 16 दिनों के दौरान उत्तर-पूर्वी दिल्ली के करावलनगर क्षेत्र के करीब 10 हजार मजदूर परिवारों ने एक ऐतिहासिक संघर्ष लड़ा। यह संघर्ष न सिर्फ़ करावलनगर क्षेत्र के लिए एक अभूतपूर्व घटना थी, बल्कि 1988 की 7 दिनों की हड़ताल की ही तरह पूरे दिल्ली के असंगठित क्षेत्र के लिए एक अभूतपूर्व घटना थी। कई मायनों में यह 1988 की असंगठित मजदूरों की 7दिनों की हड़ताल से भी बड़ी हड़ताल थी। इस हड़ताल की शुरुआत के बाद ही यह मुद्दा तमाम अख़बारों और वेबसाइटों पर छा गया। इसका कारण यह था कि यह एक ऐसे उद्योग में हुई हड़ताल थी, जो करीबी से वैश्विक मण्डी से जुड़ा हुआ है। हमने पहले भी ‘बिगुल’ के अंकों में दिल्ली के बादाम संसाधन उद्योग के बारे में लिखा है। करावलनगर व दिल्ली के कुछ अन्य इलाकों में स्थित यह उद्योग छोटे-छोटे ठेकेदारों और मालिकों द्वारा चलाया जाता है जिन्होंने इन इलाकों में अपने गोदाम खोल रखे हैं। ये गोदाम वास्तव में छोटे कारख़ाने के समान हैं। यहाँ पर वे 40 से लेकर 200 तक की संख्या में मजदूरों से काम लेते हैं। दिल्ली के कुल बादाम गोदामों का 80 प्रतिशत करावलनगर क्षेत्र में स्थित है। ये ठेकेदार पूरी तरह गैर-कानूनी हैं। इनके पास न तो कोई लाईसेंस है और न ही सरकार द्वारा प्राप्त किसी भी किस्म की मान्यता। दिल्ली के श्रम विभाग की नाक के नीचे कई करोड़ रुपये की कीमत का एक अवैध कारोबार पिछले लगभग दो दशकों से जारी है। इस उद्योग में काम करने वाले मजदूरों को बेहद कम मजदूरी मिलती है और उनकी काम करने की स्थितियाँ अमानवीय हैं। करावलनगर क्षेत्र में ऐसे करीब 10 हजार मजदूर परिवार हैं जो बादाम संसाधन के काम में लगे हैं। ये टुटपूँजिया ठेकेदार/मालिक असंसाधित बादाम खारी बावली के बड़े मालिकों से ले आते हैं। खारी बावली के ये बड़े मालिक अमेरिका और ऑस्ट्रेलिया से असंसाधित बादाम आयात करते हैं और उनका संसाधन यहाँ करवाते हैं। वैश्विक असेम्बली लाइन का एक जीता-जागता उदाहरण हमें बादाम संसाधन उद्योग में मिलता है। खारी बावली के कई बड़े मालिकों के अमेरिका और ऑस्ट्रेलिया में अपने फार्म हैं जिनपर वे बादाम की खेती करवाते हैं। लेकिन संसाधन के लिए भारत को चुना गया है क्योंकि यहाँ जितना सस्ता श्रम और भ्रष्ट श्रम विभाग पूरी दुनिया में इन मालिकों को कहीं नहीं मिल सकता है।

बादाम मजदूरों के संघर्ष का इतिहास

बादाम मजदूर अपने अधिकारों के लिए पिछले 2 वर्षों से लड़ते रहे हैं। उसके पहले भी कुछ स्वत:स्फूर्त संघर्ष हुए थे लेकिन वे किसी मुकाम तक नहीं पहुँच पाये थे। इस इलाके में सी.पी.आई. (एम.एल.) लिबरेशन की ट्रेड यूनियन एक्टू का कुछ प्रभाव मौजूद था। लेकिन पिछले कई वर्षों से मौजूदगी के बावजूद एक्टू बादाम मजदूरों का कोई बड़ा संघर्ष संगठित नहीं कर पायी थी। उल्टे होता यह था कि एक्टू का स्थानीय नेता मालिकों के साथ मिलकर कमीशनखोरी और दलाली का काम ज्यादा करता था, और संघर्षों में मजदूरों की अगुवाई कम। जो एकाध संघर्ष लड़े भी गये वे असफल रहे थे और आर्थिक मुद्दों पर संघर्ष करने के अतिरिक्त,एक्टू का स्थानीय नेता मजदूरों में न तो कोई राजनीतिक प्रचार करता था और न ही उनके बीच राजनीतिक शिक्षण-प्रशिक्षण का कोई काम करता था। जिस प्रकार एक्टू अन्य जगहों पर भी जुझारू अर्थवाद और ट्रेडयूनियनवाद को लागू कर रही है, उसी प्रकार इस इलाके में भी वह अधिक से अधिक यही कर सकती थी।

पिछले वर्ष बादाम मजदूरों के एक संघर्ष की शुरुआत हुई जिसका करावल नगर इलाके में लम्बे समय से सक्रिय ‘नौजवान भारत सभा’ ने समर्थन किया। इस संघर्ष के दौरान ही कुछ युवा राजनीतिक कार्यकर्ताओं का यह प्रस्ताव आया कि बादाम मजदूरों की अपनी यूनियन होनी चाहिए। इस पर एक्टू की आपत्ति होने के बावजूद बादाम मजदूरों ने अपनी अलग यूनियन ‘बादाम मजदूर यूनियन’ का गठन किया। पिछले वर्ष के ही अगस्त माह में मजदूरों ने एक हड़ताल शुरू की लेकिन एक्टू के स्थानीय नेता ने शुरुआत में हड़ताल में शामिल होने का नाटक किया और फिर एक बसपा के स्थानीय गुण्डे धर्मेन्द्र भइया के साथ मिलकर मालिकों से हाथ मिला लिया और मजदूरों से ग़द्दारी की। इसके बाद से ही मजदूरों के सामने एक्टू के स्थानीय नेताओं की छवि धन्धोबाज ट्रेडयूनियनबाज की बनने लगी और वे एक्टू से निर्णायक रूप से अलग हो गये। पिछले एक वर्ष में ‘बादाम मजदूर यूनियन’ विभिन्न संघर्षों के जरिये मजबूत होती गयी है और 16दिसम्बर को ‘बादाम मजदूर यूनियन’ ने बादाम मजदूरों की ऐतिहासिक हड़ताल को अंजाम दिया जो दिल्ली के मजदूर आन्दोलन के इतिहास की एक परिघटना है।

हड़ताल का घटनाक्रम

तैयारी

करावलनगर के बादाम मजदूर किसी एक कारख़ाने में काम नहीं करते। ये मजदूर पूरी तरह से एक अनौपचारिक उद्योग में काम करते हैं। मजदूर के तौर पर उनकी कोई कानूनी पहचान नहीं है। उनके पास कोई पहचान पत्र, वेतन कार्ड, मजदूरी कार्ड, या ऐसा कोई भी दस्तावेज नहीं है जिससे कि वे अपनी श्रमिक पहचान का दावा कर सकें। ये मजदूर करीब 60 छोटे-बड़े गोदामों में काम करते हैं या अपने घर पर बादाम की बोरियाँ लाकर बादाम संसाधन का काम करते हैं। इनके काम करने का कोई निश्चित समय नहीं होता और ये मजदूर पूरी तरह असंगठित थे। इन्हें संगठित करना अपने आप में एक बहुत बड़ी चुनौती थी। पिछले वर्ष बादाम मजदूर यूनियन के गठन के बाद एक वर्ष तक यूनियन ने इन मजदूरों के बीच अपनी सघन गतिविधियाँ चलायीं। इन मजदूरों को इनके काम की जगह पर संगठित करना तो दूर उनसे काम की जगह पर सम्पर्क करना भी सम्भव नहीं था। इन्हें सिर्फ़ इनकी रिहायश की जगह पर ही पकड़ा जा सकता था। नतीजतन, बादाम मजदूर यूनियन ने करावलनगर के प्रकाश विहार और भगतसिंह कॉलोनी के पूरे इलाके में घर-घर प्रचार, गली मीटिंगों, सांस्कृतिक जुटानों और पर्चा वितरण की सघन कार्रवाइयाँ चलायीं। प्रकाश विहार, भगतसिंह कॉलोनी ही वे इलाके हैं जहाँ करीब 10 हजार मजदूर परिवार रहते हैं। ये मजदूर छोटे-छोटे लॉजों या कोठरियों में रहते हैं। इन कार्रवाइयों के जरिये ‘बादाम मजदूर यूनियन’ एक वर्ष में एक-एक मजदूर तक पहुँची। इस बीच मालिकों द्वारा मजदूरों के उत्पीड़न और कार्यस्थल पर दुर्घटनाओं की कुछ वारदातें हुईं जिस पर यूनियन ने आन्दोलन चलाये। इन कार्रवाइयों के नतीजे के तौर हजारों बादाम मजदूरों में बादाम मजदूर यूनियन एक स्वीकार्य नेतृत्व बन चुकी है।

पिछले 3-4 महीनों के दौरान यूनियन में इस बात पर चर्चा चल रही थी कि बढ़ती महँगाई के चलते मौजूदा मजदूरी पर गुजारा सम्भव नहीं है। इस आन्दोलन के पहले तक बादाम मजदूरों को एक बोरी बादाम के संसाधन पर मात्र 50 रुपये मिलते थे। इसके अतिरिक्त, बादाम के छिलके को, जो कि संसाधन के परिणामस्वरूप निकलता है, मालिक मजदूरों को 20 रुपये प्रति बोरी की दर से बेचते थे। बादाम के छिलके का इस्तेमाल मजदूर ईंधन के रूप में करते हैं। नतीजतन, मजदूरों की वास्तविक मजदूरी काफ़ी कम हो जाती थी। इसलिए यूनियन ने गली मीटिंगों द्वारा बड़े पैमाने पर मजदूरों की राय ली और यह तय किया कि मजदूरी को बढ़ाने के लिए बड़े पैमाने पर एक हड़ताल संगठित की जाये। स्पष्ट था कि जब अक्टूबर में यह निर्णय लिया गया तब बादाम उद्योग की तेजी का दौर नहीं था। दशहरा और दीपावली बीत चुके थे। अगला तेजी का दौर नये साल के ठीक पहले शुरू होना था। इसीलिए यह निर्णय लिया गया कि दिसम्बर मध्‍य के आस-पास हड़ताल की शुरुआत की जायेगी। उसके पहले बड़े पैमाने पर गली मीटिंगें करके एक-एक मजदूर परिवार तक यह बात पहँचानी होगी और मजदूर स्वयंसेवकों के दस्ते तैयार करने होंगे जो हड़ताल की केन्द्रीय संगठनकर्ता टीम होगी। महज यूनियन नेतृत्व 8 किलोमीटर की परिधि में फैली मजदूर आबादी तक हरेक बात और सूचना नहीं पहुँचा सकती। इसलिए संघर्ष के संगठन का काम यूनियन नेतृत्व अकेले नहीं कर सकता, बल्कि मजदूर संगठनकर्ताओं की एक कोर टीम को मिलकर यह जिम्मेदारी उठानी होगी।

इस निर्णय के बाद से योजनाब) गली मीटिंगों का सिलसिला अक्टूबर माह के पहले सप्ताह से शुरू हुआ। नवम्बर मध्‍य तक करीब तीन दर्जन गली मीटिंगें की जा चुकी थीं। इस दौरान लगभग 60 मजदूरों ने स्वयंसेवक के तौर पर बा.म.यू. में पंजीकरण कराया। इसके बाद नवम्बर मध्‍य में हड़ताली स्वयंसेवक दस्ते की पहली बैठक बुलायी गयी जिसमें तब तक की तैयारियों का समाहार किया गया और आगे की योजना बनायी गयी। अब तक मालिकों तक यूनियन की गतिविधिायों की सूचना पहुँच चुकी थी और मालिक अपने दलालों के जरिये, जिसमें एक्टू का स्थानीय नेता भी शामिल था, यह अफवाहें फैलाने लगे कि हड़ताल शुरू हो गयी है। इसका कारण यह था कि अगर उस समय मजदूर सुनी-सुनायी बातों पर हड़ताल शुरू कर देते तो मालिकों को कोई नुकसान नहीं होता क्योंकि अभी उनपर बाजार का कोई दबाव नहीं था। ऐसे में हड़ताल करते हुए मजदूर थक जाते और उन्हें कोई लाभ नहीं मिलता। लेकिन यूनियन का हड़ताली स्वयंसेवक दस्ता कदम-कदम पर इन अफवाहों का जवाब दे रहा था और मजदूरों के दिमाग़ में यह बात बैठ चुकी थी कि जब तक बा.म.यू. के नेतृत्व से सीधो तौर पर हड़ताल शुरू करने की घोषणा की सूचना नहीं मिलती तब तक हड़ताल शुरू नहीं करनी है। नवम्बर माह के अन्त में स्वयंसेवक दस्ते की दूसरी बैठक हुई और यह तय किया गया कि अब धीरे-धीरे काम जोर पकड़ रहा है और दिसम्बर के दूसरे सप्ताह के अन्त तक हड़ताल शुरू करने की स्थिति पैदा हो सकती है। दिसम्बर के पहले सप्ताह के अन्त में आखिरी स्वयंसेवक बैठक हुई और हड़ताल की तिथि 15 दिसम्बर तय की गयी।

शुरुआत

15 दिसम्बर की शाम को प्रकाश विहार में एक विशाल जनसभा करके यूनियन नेतृत्व ने अगले दिन सुबह से हड़ताल की घोषणा की। 16 दिसम्बर की सुबह से हड़ताल शुरू हो गयी। मजदूर कार्यकर्ताओं ने सारे ठेकेदारों के पास अपना माँगपत्रक पहुँचाया। इस माँगपत्रक में माँग की गयी थी कि प्रति बोरा मजदूरी को 50रुपये से बढ़ाकर 80 रुपये किया जाये। मजदूरों को बादाम का छिलका निशुल्क दिया जाये या फिर हफ्ते में एक बोरा निशुल्क छिलके का कोटा तय किया जाये। तीसरी माँग थी कि देय मजदूरी का भुगतान हर माह के पहले सप्ताह में हो जाना चाहिए। चौथी माँग थी कि मजदूरों के साथ गोदाम के भीतर बदसलूकी बन्द होनी चाहिए। और आख़िरी प्रमुख माँग थी कि मजदूरों को किसी न किसी प्रकार का पहचान पत्र मिलना चाहिए। हड़ताल शुरू होने के बाद मजदूरों के दस्ते प्रचार करते हुए पूरे इलाके में घूमने लगे। ग़ौरतलब है कि बादाम संसाधन का काम मुख्य तौर पर महिला मजदूर करती हैं। महिला मजदूरों के हड़ताली दस्ते घर-घर जाकर मजदूरों को हड़ताल में शामिल करने लगे और गोदामों में जो मुट्ठीभर मजदूर जा रहे थे, उन्हें बाहर निकालने लगे। 17 दिसम्बर को भी यह प्रक्रिया जारी थी, लेकिन इसी दौरान एक महत्वपूर्ण घटना घट गयी। सुबह के समय जब यूनियन नेतृत्व के कुछ सदस्यों के साथ महिला मजदूर हड़ताल को विस्तारित करने की मुहिम में लगी हुई थीं, उसी समय एक्टू के स्थानीय नेता शोहराय बिन्द के इशारे पर मालिकों के कुछ गुण्डों ने यूनियन के कुणाल, प्रेमप्रकाश और गौरव पर हमला कर दिया। शोहराय बिन्द ने मालिकों को समझा रखा था कि यूनियन के नेतृत्व के कुछ लोगों की पिटाई कर दी जाये तो सारा मामला ठण्डा पड़ जायेगा। लेकिन, इस हमले की ख़बर मिलते ही सैकड़ों की संख्या में महिला मजदूर वहाँ एकत्र हो गयीं और उन्होंने आत्मरक्षा में पथराव शुरू कर दिया। गुण्डों को पीछे धकेल दिया गया और कुछ वहाँ से भाग खड़े हुए। इसी समय यूनियन के संयोजक आशीष ने वहाँ पहुँचकर स्थिति को सम्भाला। इस घटना के बाद मालिकों और उनके गुण्डों के सामने यह साफ़ हो चुका था कि इस हड़ताल को गुण्डागर्दी के बल पर नहीं तोड़ा जा सकता। हालाँकि, इस घटना के बाद यूनियन के संयोजक आशीष, कुणाल और प्रेमप्रकाश को पुलिस ने गिरफ्तार करके दो दिनों के लिए जेल भेज दिया, जबकि गुण्डों और मालिकों को छोड़ दिया गया। लेकिन, इससे मजदूरों का उत्साह गिरने की बजाय और मजबूत हो गया। 19 तारीख की रात को यूनियन के तीनों लोग रिहा हो गये और मजदूरों ने हड़ताल स्थल पर उनका गर्मजोशी से स्वागत किया।

Almond worker strike 2009-12_1इसके बाद यूनियन के नेतृत्व में मजदूरों ने और अधिक आक्रामक रूप से हड़ताल को फैलाने का काम शुरू कर दिया। 20 तारीख तक 25 प्रतिशत मजदूर ऐसे थे जो हड़ताल में शामिल नहीं थे। इनमें से अधिकांश मजदूर उत्तर प्रदेश और उत्तरांचल के मजदूर थे। इन मजदूरों के बीच हड़ताल को लागू करवाने के लिए महिला मजदूरों ने समझाने-बुझाने का रास्ता अपनाया। इन मजदूरों को हड़ताली मजदूरों के दस्ते लगातार समझाने-बुझाने के काम में लगे रहे। हड़ताली मजदूर आबादी अधिकांशत: बिहार से थी और उस इलाके में यह अन्तर लम्बे समय से काम करता रहा है। इस हड़ताल के दौरान यह अन्तर अगर पूरी तरह से मिटा नहीं तो कम जरूर हुआ। इस समझाने- बुझाने की प्रक्रिया के फलस्वरूप 23-24 तारीख तक उत्तर प्रदेश के मजदूरों का एक हिस्सा हड़ताल में शामिल हो गया। मालिकों की साजिश थी कि किसी तरह से बिहारी और उत्तर प्रदेश के मजदूरों के बीच मारपीट या झगड़ा हो जाये। लेकिन बिहार के मजदूरों के समझाने- बुझाने के रुख़ के कारण यह साजिश कामयाब नहीं हो पाई। लेकिन अभी भी 15 प्रतिशत मजदूर काम पर जा रहे थे जिसके कारण मालिकों पर दबाव थोड़ा ही सही,लेकिन कम हो रहा था। काफी विचार-विमर्श के बाद यूनियन ने यह फैसला किया कि मजदूरों को समझाने के साथ अब यह करना होगा कि महिला मजदूर उन गोदामों के सामने जाम लगा दें और उन्हें चलने ही न दें। अगर गोदाम ही बन्द हो जायेंगे तो बचे-खुचे मजदूर स्वयं ही हड़ताल में शामिल हो जायेंगे। यह तरकीब काम कर गयी और 26 दिसम्बर तक सभी गोदाम बन्द हो चुके थे। इसके लिए यूनियन ने कानूनी रास्ता भी अख्तियार किया। पुलिस स्टेशन में लगातार यह शिकायतें की गयीं कि ये गोदाम अवैध और गैर-कानूनी तौर पर चल रहे हैं। इसके कारण कुछ गोदामों को पुलिस को दबाव के कारण बन्द करवाना पड़ा। इस बीच यूनियन ने करीब 1000 मजदूरों को लेकर जन्तर-मन्तर पर एक विशाल प्रदर्शन करके दिल्ली की सरकार और पूरे समाज तक भी अपनी आवाज पहुँचाई।

विस्तार और ठहराव

26 दिसम्बर से लेकर 30 दिसम्बर तक हड़ताल लगभग 100 प्रतिशत सफलता के साथ चलती रही। खारी बावली में हड़कम्प मच गया था क्योंकि अमेरिका और ऑस्ट्रेलिया से संसाधन के लिए आये बादाम के बोरे उनके पास डम्प पड़े थे और उनका अम्बार लग रहा था। वे लगातार करावलनगर के ठेकेदारों पर हड़ताल का हल निकालने का दबाव डाल रहे थे। इस बीच यूनियन नेतृत्व और मजदूरों के बीच एक वार्ता भी हुई लेकिन वह सफल नहीं हो सकी। इस हड़ताल का फायदा उठाते हुए नरेला और सन्तनगर-बुराड़ी में चलने वाले इने-गिने गोदामों के मजदूर अधिक मजदूरी भी वसूल रहे थे। लेकिन ये चन्द गोदाम काम करते भी रहते तो दबाव पर कोई ख़ास फर्क नहीं पड़ने वाला था। अखबारों में जल्दी ही रिपोर्टें आने लगीं कि बादाम मजदूरों की हड़ताल के कारण करीब 40 करोड़ रुपये का नुकसान हो चुका है। हड़ताल के दौरान ही बादाम की बाजार दरों में करीब 20 रुपये की बढ़ोत्तरी हो चुकी थी। एक तरफ़ ठेकेदारों पर दबाव बढ़ रहा था तो दूसरी तरफ़ मजदूरों के लिए भी यह हड़ताल अब काफ़ी लम्बी हो चुकी थी।

Almond worker strike 2009-12_2हड़ताल शुरू होने से पहले मजदूरों और यूनियन नेतृत्व का यह मूल्यांकन बना रहा था कि अगर तेजी के सीजन में 6 दिनों तक सफल हड़ताल चल गयी तो मालिक झुक जायेँगे। लेकिन यह मालिकों को कम करके ऑंकना था। मालिकों को थोड़ा झुकाने में 15 दिन ख़र्च हो गये थे। 29 से 30 तारीख के दौरान जितने छोटे मालिक थे वे यूनियन के नेतृत्व से सम्पर्क करने लगे थे। वे कई माँगों पर झुकने के लिए तैयार थे। लेकिन बड़े मालिक अभी और लड़ने का मूड बना चुके थे। हालाँकि वे काफ़ी नुकसान झेल रहे थे, लेकिन वे जानते थे कि अगर बा.म.यू. के नेतृत्व में यह हड़ताल सफल हो गयी तो सवाल एक बार हारने का नहीं रह जायेगा। आगे लम्बे समय के लिए मजदूरों का पलड़ा भारी हो जायेगा और राजनीतिक तौर पर बा.म.यू. हमेशा के लिए हावी हो जायेगी। ज्ञात हो कि करीब 40ठेकेदारों में से आधे राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ या भारतीय जनता पार्टी से जुड़े हुए हैं और बाकी ठेकेदार भी कांग्रेस या बसपा के करीब हैं। ऐसे में हड़ताल इनके लिए एक राजनीतिक प्रतिष्ठा का प्रश्न भी बन गयी थी। छोटे मालिकों के लिए तो स्थिति तबाह होने की बन रही थी और कई छोटे मालिक 29 दिसम्बर को ही समझौते के लिए तैयार हो चुके थे। लेकिन बड़े मालिकों के अड़ने के कारण कोई समझौता नहीं हो पा रहा था। इधर मजदूरों के लिए भी अब इस हड़ताल को लम्बा खींच पाना बहुत मुश्किल था। बादाम मजदूर रोज कमाकर खाने वाले मजदूर हैं। उन्होंने हड़ताल की तैयारी हफ्ते-दस दिन के हिसाब से तो की थी, लेकिन अब हड़ताल 15 दिन चल चुकी थी और तत्काल समझौता होने के आसार भी नजर नहीं आ रहे थे। नतीजतन, यह साफ़ हो चुका था कि अब मालिकों के सामने हर शर्त पर अड़ना सम्भव नहीं होगा। मालिकों का पक्ष लगातार कह रहा था कि वह प्रति बोरा मजदूरी को 60 रुपये करने के लिए तैयार है। लेकिन छिलका मुफ्रत देने को मालिक तैयार नहीं थे। हर बार जब मजदूरी बढ़ती है तो छिलके का रेट भी बढ़ता है। लेकिन मालिक इस बात पर राजी थे कि इस बार मजदूरी बढ़ने पर छिलके की दर नहीं बढ़ाई जायेगी।

समझौता और समापन

31 दिसम्बर की शाम को यूनियन नेतृत्व और मालिक पक्ष के बीच वार्ता हुई जिसमें यूनियन की तरफ से आशीष, अभिनव, रामप्रीत, पटेल और बिपत ने हिस्सा लिया। इस वार्ता में समझौता हुआ और मजदूरी 60 रुपये प्रति बोरा और छिलका 20 रुपये प्रति बोरा तय हुआ। महीने के पहले सप्ताह में भुगतान के लिए मालिक राजी हो गये। लेकिन कोई पहचान पत्र देने के लिए मालिक तैयार नहीं थे क्योंकि उनका कहना था कि यह पूरा उद्योग ही बिना किसी लाईसेंस या सरकारी मान्यता के चल रहा है इसलिए कोई भी लिखित पहचान पत्र आदि देना उनके लिए सम्भव नहीं है। इस पर यूनियन नेतृत्व ने इस मसले को आगे के लिए टाल दिया।

इस समझौते के साथ दिल्ली के बादाम मजदूरों की यह ऐतिहासिक हड़ताल एक आंशिक विजय के साथ समाप्त हुई। यह आंशिक विजय भी आज के दौर में एक बड़ी विजय थी। हड़ताल के ये 16 दिन पूरे करावलनगर इलाके के लिए यादग़ार थे। पूरे इलाके का नजारा ही बदल गया था। मंगल बाजार का प्रकाश विहार का चौराहा अब ‘हड़ताल चौक’ बन चुका था। हड़ताल चौक सुबह से रात तक मजदूरों से खचाखच भरा रहता था। मजदूर अपने परिवारों समेत वहाँ जमे रहते थे। पुलिस द्वारा हड़ताल का टेण्ट उखाड़े जाने के बाद करीब ढाई हजार मजदूरों ने हड़ताल चौक पर रास्ता जाम कर दिया और पुलिस के अधिाकारियों तक को वहाँ आना पड़ा। इसके बाद भी मजदूर वहीं डटे रहे। 25 दिसम्बर के बाद पुलिस ने तय कर लिया था कि अब इस मसले में वह हाथ नहीं डालेगी। इसका कारण यह था कि ये गोदाम ग़ैर-कानूनी तौर पर पुलिस को घूस खिलाकर इस इलाके में चलते हैं। ऐसे में अगर पुलिस से मजदूरों के टकराव की कोई बड़ी घटना होती तो यह आगे करावलनगर पुलिस के लिए मुश्किल पैदा कर सकती थी। यूनियन के नेताओं को गिरफ्रतार करने का एक बार पुलिस ने प्रयास किया तो सैकड़ों महिला मजदूरों ने पुलिस पर हल्ला बोल दिया। नतीजतन, पुलिस को वहाँ से पीछे हटना पड़ा। बीच में महिला मजदूरों ने एक बड़े गोदाम मालिक की पिटाई भी कर दी। इस गोदाम मालिक वासुदेव मिश्रा ने एक महिला मजदूर पर हमला किया तो जवाब में महिला मजदूरों ने उसकी पिटाई कर दी। इस पिटाई के बाद से मालिकों में मजदूरों की दहशत घर कर गयी। कहीं भी मालिक मजदूरों से उलझने की जरा भी कोशिश नहीं कर रहे थे। महिला मजदूरों के हड़ताली दस्तों के गली में प्रवेश के साथ ही मालिक आम तौर पर ग़ायब हो जाते थे। यह उन मजदूरों के लिए बहुत बड़ी बात थी जिनके साथ गोदामों के भीतर रोज बदसलूकी की जाती थी। मजदूरों की वर्ग शक्ति के स्थापित और प्रतिष्ठित होने की नजर से यह पिटाई प्रतीक घटना थी। ऐसा पहले कभी नहीं हुआ था, जब मजदूरों ने मालिकों की हिंसा का आक्रामक तरीके से जवाब दिया हो। मालिक वर्ग और पुलिस प्रशासन, दोनों के सामने ही यह स्पष्ट हो चुका था कि बल प्रयोग या हिंसा से मजदूरों के इतने बड़े हुजूम को कुचल पाना सम्भव नहीं है। मजदूरों को भी वर्ग और उसके शासन के नुमाइन्दों – दोनों से ही निपटने का प्रत्यक्ष अनुभव हो गया।

हड़ताल के समापन के बाद बादाम मजदूर यूनियन की ओर से एक समाहार पर्चा निकाला गया और फिर से घर-घर जाकर यूनियन के कार्यकर्ताओं ने इस हड़ताल के सकारात्मक और नकारात्मक पक्षों को मजदूरों तक पहुँचाया और आगे अपनी पुरानी ग़लतियों से बचने और सकारात्मक पक्षों को जारी रखने का सन्देश पहुँचाया।

हड़ताल का निचोड़

सकारात्मक शिक्षण

इस हड़ताल का सबसे बड़ा सकारात्मक यह था कि असंगठित क्षेत्र के मजदूरों को संगठित करने और इतने बड़े पैमाने पर उनके संघर्ष को 16 दिनों तक संगठित रूप में चलाने का यह अपने आप में अनोखा प्रयोग था। दिल्ली के मजदूर आन्दोलन के इतिहास में असंगठित मजदूर इतनी बड़ी संख्या में कभी संगठित नहीं हुए थे। इससे पहले संगठित मजदूरों की बड़ी हड़ताल 1988 में हुई थी, लेकिन वह कोई इलाका – आधारित हड़ताल नहीं थी। वह पेशा-आधारित हड़ताल थी, जो चमड़ा मजदूरों की लाल झण्डा यूनियन (सीटू से सम्बध्द) के नेतृत्व में शुरू हुई थी।

यह हड़ताल मजदूरों की भागीदारी के मामले में 1988 की हड़ताल से बड़ी थी और साथ ही यह गुणात्मक रूप से उस हड़ताल से अलग थी। यह एक पूरे इलाके के मजदूरों की एक इलाकाई यूनियन के नेतृत्व में हुई हड़ताल थी। वास्तव में, इस हड़ताल का प्रभाव अन्य उद्योगों पर भी पड़ने लगा था। महिला मजदूरों के पति आम तौर पर गाँधीनगर और ट्रॉनिका सिटी जैसे करीब के औद्योगिक क्षेत्रों में काम करते हैं। हड़ताल के दौरान उन्होंने काम पर जाना बन्द कर दिया था और अपनी पत्नियों के साथ हड़ताल चौक पर ही जम गये थे। नतीजा यह हुआ था कि उन उद्योगों में भी दिक्कत पैदा होने लगी थी, जिनमें ये पुरुष मजदूर काम करते थे। यह करावलनगर के प्रकाश विहार, भगतसिंह कॉलोनी और पश्चिमी करावलनगर के मजदूरों की हड़ताल में तब्दील हो गयी थी। आज जब देश के 93प्रतिशत मजदूर छोटे कारखानों, वर्कशॉपों, गोदामों में या घर में काम कर रहे हैं, या फिर रेहड़ी-खोमचे वालों, रिक्शेवालों या पटरी दुकानदारों के रूप में सेवा प्रदाता के तौर पर अनौपचारिक क्षेत्र में काम कर रहे हैं; जब देश के केवल 7 फीसदी मजदूर बड़े कारख़ानों में औपचारिक क्षेत्र में काम कर रहे हैं; जब औपचारिक क्षेत्र के भी अच्छे-ख़ासे मजदूर ठेके/दिहाड़ी पर काम करते हुए असंगठित मजदूर आबादी में शामिल हैं और कुल असंगठित मजदूरों की आबादी कुल मजदूर आबादी की97 प्रतिशत हो चुकी हो; तो ऐसे समय में इलाकाई मजदूर यूनियन के रूप में बादाम मजदूर यूनियन और उसके संघर्ष का यह प्रयोग गहरा महत्तव रखता है। मजदूर आन्दोलन में ही कुछ लोग अनौपचारिक/औपचारिक क्षेत्र और संगठित/असंगठित क्षेत्र के दो किस्म के बँटवारे को नहीं समझ पाते हैं। जब हम कहते हैं कि आज मजदूर आबादी को इलाकाई पैमाने पर संगठित करने की आवश्यकता है, तो इसका यह अर्थ ऐसे अपचयनवादी ही निकाल सकते हैं कि हम कारख़ाने के स्तर पर मजदूरों को संगठित करने का विरोध कर रहे हैं। जैसा कि हमने बताया, बड़े कारखानों (औपचारिक क्षेत्र के कारखानों) में भी असंगठित मजदूर बड़े पैमाने पर काम कर रहे हैं, और उनकी तादाद बढ़ रही है। औपचारिक क्षेत्र के भी असंगठित मजदूरों को संगठित करने काम को प्राथमिकता बनाना होगा। चूँकि यह मजदूर आबादी लगातार गतिमान रहती है और कारख़ाने बदलती रहती है, इसलिए कारख़ाना मजदूरों की भी इलाकाई यूनियनें बनानी होंगी। ऐसी इलाकाई यूनियनें अनौपचारिक क्षेत्र के असंगठित मजदूरों और औपचारिक क्षेत्र के असंगठित मजदूरों – दोनों को ही संगठित करने का काम करेंगी।

बादाम मजदूर यूनियन के संयोजक आशीष कुमार ने बताया कि बादाम मजदूर यूनियन तमाम ऐसे मजदूरों के हकों के लिए भी लड़ी है जो बादाम मजदूर नहीं हैं और इसकी अन्तर्वस्तु करावलनगर के मजदूरों की यूनियन की ज्यादा है और बादाम मजदूरों की यूनियन की कम। ऐसे में हम जल्दी ही बादाम मजदूर यूनियन के नाम को बदलकर ‘करावलनगर मजदूर यूनियन’ करने के विषय में गम्भीरतापूर्वक सोच रहे हैं। इलाकाई मजदूर यूनियन और आन्दोलन की पूरी अवधारणा को लागू करने के रूप में बादाम मजदूरों का यह संघर्ष एक अद्वितीय प्रयोग था। इसके परिणामस्वरूप अगर मजदूरों को आंशिक विजय ही मिल सकी तो भी यह राजनीतिक तौर पर मजदूरों की चेतना को कई सीढ़ियाँ ऊपर चढ़ाने वाला आन्दोलन था।

इस आन्दोलन का दूसरा सकारात्मक पहलू यह था कि यह आन्दोलन कारखाना-केन्द्रित मजदूर आन्दोलनों के मुकाबले कहीं ज्यादा वर्ग सचेत था। बादाम मजदूरों की आबादी वह मजदूर आबादी है जिसे घुमक्कड़ मजदूर आबादी कहा जा सकता है। बादाम मजदूरों के परिवार के पुरुष आम तौर पर कई जगहों पर काम कर चुके होते हैं। मजदूर महिलायें भी बादाम संसाधन का काम करने में अपने गोदाम बदलती रहती हैं। वे किसी एक गोदाम या एक मालिक के तहत लम्बे समय तक कम ही रहते हैं। नतीजतन, वे व्यापक तौर पर पूरे मालिक वर्ग का व्यवहार देखते हैं और उनकी घृणा के निशाने पर कोई एक विशेष मालिक नहीं बल्कि पूरा मालिक वर्ग ही होता हैं क्योंकि अपने वैविध्‍यपूर्ण वर्ग अनुभव से वे पूरे मालिक वर्ग के ही व्यवहार को समझते और पहचानते हैं। इसलिए इस पूरे आन्दोलन का काफी राजनीतिक चरित्र रहा और मजदूरों की वर्ग नफरत लगातार अपने आपको राजनीतिक रूप में अभिव्यक्त करती रही।

इस आन्दोलन का तीसरा सकारात्मक पहलू इसका क्षेत्रवाद- विरोधी और जातिवाद-विरोधी चरित्र रहा। अधिकांश बादाम मजदूर बिहार से हैं और बिहार के भी कुछ विशिष्ट इलाकों से आते हैं। बाकी बचे बादाम मजदूर उत्तर प्रदेश और उत्तरांचल से आते हैं। बिहारी और गैर-बिहारी मजदूरों के बीच एक विभाजन काम करता है जिसे मालिक भी बढ़ावा देते हैं। लेकिन इस आन्दोलन के दौरान सचेतन राजनीतिक प्रचार के जरिये इस क्षेत्रवादी विभाजन को तोड़ा गया। यह विभाजन निश्चित रूप से पूरी तरह एक ही आन्दोलन के दौरान नहीं ख़त्म हो सकता है। लेकिन निस्सन्देह यह विभाजन इस राजनीतिकीकरण के परिणामस्वरूप कमजोर पड़ा है। इसके अतिरिक्त, बिहारी मजदूर आपस में भी गोत्र और जाति के प्रश्न पर बँटे हुए थे। इस बँटवारे को तो इस आन्दोलन ने काफ़ी हद तक तोड़ दिया है। इन विभाजनों के कमजोर पड़ने और टूटने के साथ इलाके के मजदूरों की वर्ग एकता निश्चित तौर पर मजबूत हुई है।

आन्दोलन का चौथा सकारात्मक पहलू था महिला मजदूरों की बड़े पैमाने पर सक्रिय और जुझारू भागीदारी। महिलाओं ने राजनीतिक पहलकदमी की ही नहीं बल्कि राजनीतिक दृष्टि की भी मिसालें पेश कीं। वास्तव में, गोदामों के आगे जाम लगाने की योजना महिला मजदूरों ने ही यूनियन नेतृत्व के सामने रखी थी। इस योजना को लेकर यूनियन नेतृत्व शुरू में उहापोह में था और महिला मजदूरों के आत्मविश्वास को देखते हुए इस योजना को रजामन्दी दी गयी। यूनियन नेतृत्व पर पुलिस या गुण्डों के हमलों का जवाब देने का काम भी महिला मजदूरों ने ही किया और मालिकों के आतंक के जवाब में मजदूरों के आतंक को स्थापित करने का काम भी महिला मजदूरों ने ही किया। वास्तव में, यह आन्दोलन महिला मजदूरों के बूते ही यहाँ तक पहुँचा।

इस आन्दोलन के दौरान मजदूरों के सामने करावलनगर के पूरे क्षेत्र का वर्ग सन्तुलन भी स्पष्ट हो गया। आन्दोलन के दौरान जो पक्ष जिसकी ओर था वह खुलकर उसके साथ आ गया। जितने भी चुनावी पार्टियों के नेता थे, वे पिछले वर्ष तक होने वाली हड़तालों के दौरान चक्कर लगाने लगते थे। लेकिन इस बार वे ग़ायब थे। मालिकों के पक्ष में कुछ दुकानदार थे और इलाके के कुछ हैसियतदार गुज्जर नागरिक। इसके अतिरिक्त, समस्त आबादी या तो तटस्थ थी या आन्दोलन के मौन समर्थन में थी। आम नागरिकों की बहुसंख्या मजदूरों का समर्थन कर रही थी।

कुल मिलाकर इस पूरे आन्दोलन के दौरान मजदूरों ने बहुत-कुछ सीखा। पूँजीपति वर्ग और पूँजीवादी राज्यसत्त के स्तम्भों – दोनों से ही टकराने और उन्हें समझने का अवसर मजदूरों को मिला। चुनावी पार्टियों की असलियत भी सामने आयी और मीडिया की असलियत भी। सबसे बड़ी बात यह रही कि करावलनगर इलाके के हजारों असंगठित मजदूरों (औपचारिक क्षेत्र के भी और अनौपचारिक क्षेत्र के भी) के अन्दर यह आत्मविश्वास पैदा हुआ कि वे संगठित और एकजुट हो सकते हैं और इतनी बड़ी और जुझारू लड़ाई लड़ सकते हैं। बादाम मजदूर यूनियन का पुख्ता तौर पर एकमात्र मान्य नेतृत्व के रूप में स्थापित होना, आन्दोलन का ऐतिहासिक तौर पर बड़े पैमाने और लम्बे समय तक चलना, इलाकाई मजदूर यूनियन और आन्दोलन के रूप में एक नये प्रयोग का स्थापित होना, और असंगठित मजदूरों की इतनी बड़ी आबादी के बीच एकजुट, संगठित हो सकने और लड़ सकने का आत्मविश्वास पैदा होना इस आन्दोलन के सबसे बड़े सकारात्मक पहलू रहे।

नकारात्मक शिक्षण

जहाँ तक नकारात्मक पहलू का सवाल है मजदूरों और उनके नेतृत्व की सबसे बड़ी भूल थी मालिकों की आर्थिक तौर पर टिक पाने की ताकत को कम करके ऑंकना। आन्दोलन की तैयारी के दौरान हुई सभी बैठकों में मजदूर प्रतिनिधियों, स्वयंसेवकों और यूनियन नेतृत्व के सदस्यों का यही मूल्यांकन था कि तेजी के मौसम में मालिक अधिक से अधिक एक हफ्रता हड़ताल झेल सकते हैं; उसके बाद उन्हें झुकना ही पड़ेगा। लेकिन ऐसा नहीं हुआ। संचित पूँजी के दम पर मालिक और लम्बा टिक सकते थे और टिके। इससे हड़ताल के अन्त के दौर में कई मजदूर साथी थकने लगे थे। आर्थिक दबाव इस थकान में उतना अहम नहीं था,जितना कि मालिकों के हफ्ते भर में झुकने की अपेक्षा का पूरा न होना। अगर हड़ताल तीन दिन और जारी रह पाती तो यह आंशिक जीत पूर्ण जीत हो सकती थी।

दूसरा बड़ा नकारात्मक था उत्तर प्रदेश और बिहार के मजदूरों के बीच पूर्ण एकता स्थापित नहीं हो पाना। यह सच है कि गोदामों को बन्द कराकर हड़ताल को100 प्रतिशत तक पहुँचाया गया। लेकिन उत्तर प्रदेश और उत्तरांचल के अधिकांश मजदूर अपनी पहल पर हड़ताल में शामिल नहीं हुए थे। इसका एक कारण यह भी है कि बादाम मजदूर यूनियन का अभी उन इलाकों में इतना काम और प्रचार ही नहीं था कि वह उत्तर प्रदेश और उत्तरांचल के मजदूरों को उनकी पहल पर शामिल करवा पाती। आगे के कार्यभारों में यूनियन के समक्ष एक महत्तवपूर्ण कार्यभार यह है कि उत्तर प्रदेश के बादाम मजदूरों को एकजुट करे और हर प्रकार के क्षेत्रवादी बँटवारे को ख़त्म करके मजदूरों की वर्ग एकता को कायम करे।

तीसरा महत्तवपूर्ण नकारात्मक पक्ष बा.म.यू. के नेतृत्व का था। यूनियन के नेतृत्व का मजदूरों की पहलकदमी और विवेक पर पर्याप्त विश्वास नहीं था। यही कारण था कि महिलाओं के हड़ताली दस्तों को शुरुआती तीन दिनों के दौरान यूनियन नेतृत्व आक्रामक रुख़ अख्तियार नहीं करने दे रहा था। मजदूरों के हुजूम को भीड़ के रूप में देखने की निम्न पूँजीवादी प्रवृत्ति भी कुछ नेतृत्व के साथियों में मौजूद थी। लेकिन ज्यों-ज्यों दिन बीतते गये, यूनियन का नेतृत्व आपसी बहस-मुबाहिसे और जमीनी अनुभव के आधार पर इस अविश्वास से निजात पाता गया और मजदूरों की वर्ग पहलकदमी और वर्ग विवेक पर उसका भरोसा पैदा हुआ। सही मायनों में मजदूरों ने नेतृत्व को व्यावहारिक मामलों में सही समय पर सही अवस्थिति अपनाने में काफ़ी जगह मदद की और नेतृत्व की किंकर्तव्य- विमूढ़ता को दूर किया। पुलिस और गुण्डों से निपटने के मामले में मजदूरों ने ऐन मौके पर स्वयं निर्णय लिये और सही निर्णय लिये। यूनियन के नेतृत्व ने मजदूरों के विचारों और निर्णयों को परिष्कृत कर वापस मजदूरों तक पहुँचाने का काम निश्चित रूप से किया। लेकिन इस पूरी प्रक्रिया में कई जगह अपने अनिर्णय की स्थिति को दूर करने में नेतृत्व ने मजदूरों से काफ़ी कुछ सीखा। वर्ग पहलकदमी और वर्ग विवेक पर भरोसा – यह इस आन्दोलन के नेतृत्व ने आन्दोलन के दौरान ही सीखा।

चौथी अहम नकारात्मक शिक्षा करावलनगर के बादाम मजदूरों के लिए ख़ास महत्तव रखती है। इस पूरे आन्दोलन के दौरान मालिकों के दलालों ने अफवाहों के जरिये मजदूरों के हौसले को तोड़ने के प्रयास लगातार जारी रखे। मालिकों के दलालों की भूमिका विशेष तौर पर गोदामों में स्टाफ (सुपरवाइजर) के रूप में काम करने वाले लोगों और एक्टू के स्थानीय नेता शोहराय बिन्द ने निभायी। चूँकि ये स्टाफ वाले लोग मजदूरों में से ही कुछ के रिश्तेदार या पट्टीदार हैं, इसलिए इनकी बातों का मजदूरों पर प्रभाव पड़ रहा था। ये स्टाफ के लोग मजदूरों के बीच में बिल्कुल मजदूरों की ही तरह रहते हैं, उन्हीं की भाषा बोलते हैं, उन्हीं की तरह खाना खाते और कपड़े पहनते हैं। कोई देखकर यह नहीं बता सकता है कि कौन स्टाफ वाला है और कौन मजदूर है। नतीजतन, मजदूर स्वयं उन्हें अपने से बहुत अधिक भिन्न करके नहीं देखते। लेकिन वास्तव में, स्टाफ के लोग ही मालिकों की सबसे बड़ी ताकत हैं। मजदूरों के हौसले को तोड़ने का काम मालिक पुलिस या गुण्डों के बूते नहीं कर पाये। लेकिन स्टाफ के लोगों के जरिये अफवाहें फैलाकर वे कई बार भ्रम की स्थिति पैदा कर देते थे और कई बार अराजकता फैलाने में भी सप्फल हो जाते थे। साथ ही, एक्टू के शोहराय बिन्द ने जान- बूझकर कई जगह मारपीट करवाकर आन्दोलन को भटकाने की कोशिश की। लेकिन शोहराय बिन्द अब मजदूरों के बीच इतना बेनकाब हो चुका है कि कोई मजदूर उसकी बात पर यकीन नहीं करता। एक जगह मजदूरों के एक जुलूस को जब उसने अपने भाकपा (माले) के बैनर तले समेट लेने की कोशिश की तो मजदूरों ने उसे वहाँ से उसके झण्डे-बैनर समेत खदेड़ दिया। इसके बाद शोहराय बिन्द दोबारा आन्दोलन के इर्द-गिर्द नहीं फटका। लेकिन स्टाफ के दलालों ने अपना काम अन्तिम दिन तक जारी रखा। मजदूरों की सचेत आबादी के बीच तो उनका चरित्र साफ़ हो चुका है लेकिन वे भी अभी पुराने रिश्तों आदि के कारण उनके ख़िलाप्फ़ कोई आक्रामक रुख नहीं अपना पाते हैं। इसके कारण मजदूरों के संगठन के ढाँचे में इन दलालों के घुसने के लिए गुंजाइश बन जाती है और कई बार वे आन्दोलन में घुस जाते हैं। बादाम मजदूर साथियों को यह समझना होगा कि जिसने मालिक वर्ग की वर्ग अवस्थिती और पक्ष अपना लिया वह मालिक वर्ग का हो गया। उसका अब हमारे वर्ग से कोई लेना-देना नहीं और उसके प्रति हमारा रुख़ और दृष्टिकोण वही होना चाहिए जो मालिकों के प्रति होता है। इस कमजोरी के दूर हुए बग़ैर हमें आगे के संघर्षों में नुकसान उठाना पड़ सकता है।

कुल मिलाकर यह लड़ाई बहुत कुछ सीखने, हासिल करने और याद रखने की लड़ाई थी। इलाकाई पैमाने की ट्रेड यूनियन के रूप में बादाम मजदूर यूनियन का खड़ा होना, दिल्ली के इतिहास में एक यादगार मजदूर आन्दोलन का खड़ा होना, एक पूरे इलाके में मजदूरों की वर्ग शक्ति का स्थापित होना, अर्थवाद और ट्रेडयूनियनवाद से मुक्त एक मजदूर आन्दोलन का खड़ा होना, जाति और क्षेत्र के बँटवारों पर मजदूरों की वर्ग एकता के जरिये चोट किया जाना; यह सब दिल्ली के मजदूर आन्दोलन की एक उपलब्धिा थी और इसे हमेशा याद रखा जायेगा। जिस दौर में अधिकांश मजदूर आन्दोलन असफलता और हताशा में ख़त्म हो रहे हैं,उस दौर में मजदूरों का, और वह भी पूरी तरह असंगठित मजदूरों का यह शानदार संघर्ष आंशिक आर्थिक विजय के बावजूद एक शानदार राजनीतिक विजय था।

 

 

बिगुल, जनवरी-फरवरी 2010

 


 

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