यह महँगाई ग़रीबों के जीने के अधिकार पर हमला है!
पूँजीपतियों को अरबों डॉलर के बेलआउट पैकेज देने वाली सरकार ग़रीबों को भुखमरी से बचाने की ज़ि‍म्मेदारी लेने को तैयार नहीं

सम्पादक मण्डल

यह महँगाई आने वाले भीषण संकट का पूर्व-संकेत है। हर संकट की तरह इसकी भी गाज अन्तत: ग़रीबों पर ही गिरनी है। लेकिन देश की ग़रीब जनता चुपचाप इस संकट को बर्दाश्त नहीं करती रहेगी। मेहनतकशों की भारी आबादी में सुलगता असन्तोष जगह-जगह फूट रहा है। देश के हुक्मरान महँगाई पर काबू पाने के लिए भले ही कुछ न कर रहे हों, ग़रीबों के सम्भावित विस्फोटों को रोकने के लिए वे अपने दमन तन्त्र को चाक-चौबन्द करने में जुट गये हैं।

पिछले कुछ दिनों से अख़बारों और टीवी पर लगातार ऐसी ख़बरें आ रही हैं कि भारत की अर्थव्यवस्था अब मन्दी से उबर रही है और विकास दर सभी पूर्वानुमानों से ज्यादा बनी हुई है। देश के शासकों, पूँजीपतियों और उच्च मध्‍यवर्ग के चेहरे खिले हुए हैं। लेकिन ”विकास” की इस तस्वीर का दूसरा पहलू यह है कि महँगाई बेलगाम बढ़ती जा रही है। खासकर खाने-पीने की चीज़ों के आसमान छूते दामों ने देश की 85 प्रतिशत ग़रीब और निम्न मध्‍यवर्गीय आबादी के सामने जीने का संकट पैदा कर दिया है। एक ओर आम आदमी की ज़रूरत की हर चीज़ महँगी होती जा रही है, दूसरी ओर बहुसंख्यक मेहनतकश आबादी की आमदनी लगातार कम हो रही है। बेरोज़गारी, छँटनी, वेतन में कटौती के चलते मज़दूरों की आमदनी कम हुई है और चौतरफा मन्दी तथा बहुसंख्यक आबादी की आय कम होने के कारण छोटे-मोटे धन्धे करके गुज़ारा करने वाली अर्द्धसर्वहारा आबादी भी जैसे-तैसे पेट भरने की हालत में पहुँच गयी है।

ख़ुद सरकारी ऑंकड़ों के मुताबिक खाने-पीने की चीज़ों की महँगाई 15 प्रतिशत से भी ज्यादा हो चुकी है। यह पिछले ग्यारह साल का रिकॉर्ड है। वैसे महँगाई के ऑंकड़े थोक मूल्यों पर आधारित होते हैं इसलिए 15 प्रतिशत महँगाई बढ़ने का मतलब होता है कि चीज़ों की वास्तविक महँगाई दो गुने से लेकर छह गुने तक हो चुकी है। इस महँगाई की सबसे भयंकर बात यह है कि आटा, चावल, आलू, प्याज़, चीनी, तेल जैसी चीज़ों की महँगाई कम होने का नाम ही नहीं ले रही है जिनके बिना ग़रीब के लिए दो वक्त पेट भरना भी मुश्किल हो रहा है।

वैसे तो हिन्दुस्तान जैसे देश में महँगाई कोई नयी बात नहीं है, लेकिन शायद पहली बार ऐसा है कि सरकार ने महँगाई पर काबू पाने की ज़िम्मेदारी से ही पल्ला झाड़ लिया है। कृषि मन्त्री शरद पवार ने साफ कह दिया कि रबी की फसल आने तक वे कुछ नहीं कर सकते। इतना ही नहीं, दिल्ली जैसे राज्यों की सरकारें तो बस किराये, पानी, बिजली आदि की कीमतें बढ़ाकर ग़रीबों की जेब से रही-सही कौड़ी भी लूट लेने पर आमादा हैं।

महँगाई के मसले पर यूपीए सरकार लगातार बहानेबाज़ी और चालाकी का रवैया अपनाती रही है। कभी वह सूखे को, कभी वैश्विक आर्थिक संकट को तो कभी बिचौलियों और जमाखोरों या राज्य सरकारों को ज़िम्मेदार ठहराकर खुद किनारे हो जाने की कोशिश करती रही है। असलियत यह है कि इस महँगाई की सबसे बड़ी ज़िम्मेदार केन्द्र सरकार की नीतियाँ हैं। इस महँगाई की वजह सिर्फ यह नहीं है कि अनाज और फल-सब्ज़ियों की आपूर्ति में सूखे या अन्य कारणों से तात्कालिक तौर पर कमी आ गयी है। इसके कारण कहीं गहरे हैं। इस स्थिति के लिए कृषि की लगातार उपेक्षा, खाद्यान्न के प्रबन्धन में नौकरशाहाना लापरवाही और भ्रष्टाचार, बिचौलियों और जमाख़ोरों को खुली छूट, खाद्यान्न और कृषि उपज के वायदा कारोबार की छूट देने जैसे बहुतेरे कारण ज़िम्मेदार हैं। पूँजीवाद में उद्योग के मुकाबले कृषि हमेशा ही पिछड़ती जाती है और उदारीकरण के इस दौर में कृषि की उपेक्षा और भी ज्यादा बढ़ गयी है। तुरन्त मुनाफा देने वाली नकदी फसलों पर ज़ोर अधिक होने के कारण खाद्यान्नों के उत्पादन का रकबा लगातार कम होता जा रहा है। एक अनुमान के अनुसार देशभर में बन रहे विशेष आर्थिक क्षेत्रों (सेज़) के लिए किसानों से ली गयी ज़मीन देश की कुल खेती लायक ज़मीन के करीब एक प्रतिशत के बराबर है। एक प्रतिशत सुनने में तो कम लगता है लेकिन अगर देश के कुल खाद्यान्न उत्पादन पर पड़ने वाले इसके असर का अनुमान लगाया जाये तो समझा जा सकता है कि सरकार पूँजीपतियों को मुनाफा पहुँचाने के लिए किस तरह देश की जनता के मुँह से निवाले छीनने का काम कर रही है।

बेशर्मी का आलम यह है कि केन्द्र सरकार के मन्त्री इस महँगाई को भी अपनी नीतियों की सफलता का आईना बता रहे हैं। उनके हिसाब से नरेगा और दूसरी योजनाओं के कारण ग़रीबों की आय बढ़ी है और अब वे पहले से ज्यादा अनाज आदि ख़रीद रहे हैं जिसके कारण इनकी कीमतें बढ़ रही हैं। यह वही बेहूदा तर्क है जो पिछले साल तत्कालीन अमेरिकी राष्ट्रपति जॉर्ज बुश दे रहे थे। जब दुनिया में खाद्यान्न की कीमतें बेतहाशा बढ़ रही थीं तो बुश ने कहा था कि भारत और चीन जैसे देशों में ग़रीबों की आमदनी बढ़ने के कारण खाद्यान्न की माँग बढ़ने से महँगाई बढ़ रही है। तबके वित्त मन्त्री चिदम्बरम ने भी तोते की तरह यही तर्क दोहराया था। अब यही दलील फिर से दी जा रही है। यह अपनेआप में कितना अमानवीय तर्क है कि महँगाई इसलिए बढ़ गयी है क्योंकि ग़रीब अब भरपेट खाने लगे हैं। वैसे तो यह बात ही सिरे से गलत है। विश्व खाद्य संगठन के मुताबिक देश के 22 करोड़ से ज्यादा लोगों को दो जून खाना नहीं मिलता। कई अर्थशास्त्रियों के मुताबिक वास्तविक संख्या इससे कहीं ज्यादा है। उनका मानना है कि देश की एक तिहाई आबादी को भरपेट खाना नहीं मिलता। भूख के पैमाने पर दुनिया के 119 देशों की सूची में भारत 94वें स्थान पर है, और भूखे लोगों की कुल संख्या के हिसाब से पहले स्थान पर। जो लोग किसी तरह पेट भर भी लेते हैं उनमें भी ज्यादातर को ज़रूरी पौष्टिक भोजन नहीं मिल पाता जिसके कारण देश में पचास प्रतिशत से ज्यादा महिलाएँ और बच्चे कुपोषण के शिकार हैं। औसत भारतीय को उपलब्ध कुल अनाज लगातार कम होता जा रहा है। 1980 के दशक में देश में प्रतिवर्ष प्रति व्यक्ति खाद्यान्न की खपत 178 किलोग्राम थी जो कि 1990 के दशक से घटते-घटते 2006 में सिर्फ 156 किलो प्रति व्यक्ति रह गयी थी।

अगर इस बात को ध्‍यान में रखें कि इसी दौर में देश के 10-15 प्रतिशत ऊपरी तबके की आय में बेतहाशा बढ़ोत्तरी के साथ खासकर मध्‍यवर्गों द्वारा खाद्यान्न की खपत और बर्बादी तेज़ी से बढ़ी है, तो समझा जा सकता है कि ग़रीबों द्वारा अनाज की वास्तविक खपत में किस कदर कमी आयी है।

आय बढ़ने से खाद्यान्न की खपत बढ़ने के तर्क के बेहूदेपन को समझना हो तो दिल्ली, नोएडा, गाज़ियाबाद, गुड़गाँव आदि के किसी भी मज़दूर इलाके में जाकर देखा जा सकता है। एक ओर बेरोज़गारी का फायदा उठाकर और मन्दी का बहाना बनाकर कारख़ानेदार मज़दूरों को कम से कम पैसे देकर निचोड़ लेने पर आमादा हैं, दूसरी ओर खाने-पीने की चीज़ों के साथ ही कमरों के किराये और बस भाड़े आदि में हुई बढ़ोत्तरी ने काम करने वाले मज़दूरों के सामने भी पेट भरने का संकट पैदा कर दिया है। पिछले कुछ महीनों में सभी मज़दूर इलाकों में कमरों के किराये बढ़ गये हैं। दिल्ली में बसों के किराये डयोढ़े से दोगुने तक बढ़ गये हैं। दूसरी ओर, मज़दूरी में पिछले कई साल में कोई बढ़ोत्तरी नहीं हुई है, बल्कि कई इलाकों में मज़दूरी कम हो गयी है। स्त्री मज़दूरों, पीस रेट पर काम करने वालों आदि की मज़दूरी में कई जगह भारी कमी आयी है। ऐसे में यह दलील ग़रीबों के साथ एक गन्दे मज़ाक जैसी लगती है। मन्दी के कारण मज़दूरों की एक अच्छी-ख़ासी आबादी को अक्सर काम छूट जाने और बेरोज़गारी का सामना करना कर पड़ रहा है।

अगर कुछ ग़रीबों की आमदनी में थोड़ी-बहुत बढ़ोत्तरी हुई भी है, तो खाद्य पदार्थों की भीषण महँगाई के कारण वे फिर से पुरानी हालत में पहुँच गये हैं। यानी एक हाथ से सरकार ने अगर उनकी जेब में कुछ पैसे डाले तो दूसरे हाथ से उसे निकालने का इन्तज़ाम भी कर दिया है।

वैसे तो ग़रीबी की रेखा का पैमाना ही बेहद नीचे है, लेकिन हाल में आई सुरेश तेन्दुलकर रिपोर्ट के मुताबिक एक तिहाई से ज्यादा लोग इस ग़रीबी रेखा से भी नीचे हैं। बिहार की 54 प्रतिशत और उड़ीसा की 60 प्रतिशत जनसंख्या ग़रीबी रेखा से नीचे है। पिछले डेढ़ साल से जारी महँगाई के चलते करोड़ों लोग फिर से ग़रीबी रेखा के नीचे चले गये हैं। इसलिए यह महँगाई आम महँगाई से अलग है क्योंकि इसकी सबसे अधिक मार सबसे ग़रीब और मेहनतकश लोगों पर पड़ रही है।

यूपीए सरकार वादा करती रही है कि वह भोजन के अधिकार को मौलिक अधिकार का दर्जा देने के लिए कानून बनायेगी। लेकिन असलियत यह है कि बढ़ती कीमतों के ज़रिये करोड़ों ग़रीब भोजन के अधिकार से वंचित किये जा रहे हैं। भूलना नहीं चाहिए कि सरकार की ही एक कमेटी अपनी रिपोर्ट में बता चुकी है कि देश की 77 प्रतिशत आबादी रोज़ाना बीस रुपये से भी कम पर गुज़ारा करती है। यह आबादी किस तरह पेट भर रही होगी, यह सोचकर भी सिहरन होती है।

ग़रीबों तक सस्ता अनाज पहुँचाने के लिए बनी सार्वजनिक वितरण प्रणाली में भ्रष्टाचार के बावजूद थोड़ा बहुत अनाज आदि नीचे तक पहुँच जाता था, पर उदारीकरण के दौर में उसे धीरे-धीरे धवस्त किया जा चुका है। पूँजीपतियों को हज़ारों करोड़ की सब्सिडी लुटाने वाली सरकार ग़रीबों को भुखमरी से बचाने के लिए दी जाने वाली खाद्य सब्सिडी में लगातार कटौती कर रही है। इस महँगाई ने यह भी साफ कर दिया है कि जनता की खाद्य सुरक्षा की गारण्टी करना सरकार अब अपनी ज़िम्मेदारी मानती ही नहीं है। लोगों को बाज़ार की अन्‍धी शक्तियों के आगे छोड़ दिया गया है। यानी, अगर आप अपनी मेहनत, अपना हुनर, अपना शरीर या अपनी आत्मा बेचकर बाज़ार से भोजन ख़रीदने लायक पैसे कमा सकते हों, तो खाइये, वरना भूख से मर जाइये!

जैसा कि कुछ विश्लेषक कह रहे हैं; लगातार जारी यह महँगाई एक बड़े ख़तरे की पूर्व-सूचना हो सकती है। अर्थव्यवस्था पर आने वाले हर बड़े संकट की गाज अन्तत: ग़रीबों पर ही गिरती है। लेकिन देश की ग़रीब जनता चुपचाप इस संकट को बर्दाश्त नहीं करती रहेगी। मेहनतकशों की भारी आबादी में सुलगता असन्तोष जगह- जगह फूट रहा है। देश के हुक्मरान महँगाई पर काबू पाने के लिए भले ही कुछ न कर रहे हों, ग़रीबों के सम्भावित विस्फोटों को रोकने के लिए वे अपने दमन तन्त्र को चाक-चौबन्द करने में जुट गये हैं। मेहनतकशों को भी इस लुटेरी और ग़रीबों की दुश्मन हुकूमत से लड़ने के लिए संगठित और जुझारू आन्दोलन की तैयारी में जुट जाना होगा।

बिगुल, दिसम्‍बर 2009


 

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