कॉमनवेल्‍थ गेम्‍स के लिए सजती दिल्‍ली में – उजड़ती गरीबों की बस्तियां

रूपेश

पिछले एक दिसम्बर को बादली रेलवे स्टेशन से सटी बस्ती, सूरज पार्क की लगभग एक हज़ार झुग्गियों को दिल्ली नगर निगम ने ढहा दिया। सैकड़ों परिवार एक झटके में उजड़ गये और दर-दर की ठोकरें खाने के लिए सड़कों पर ढकेल दिये गये। दरअसल 2010 में होने वाले राष्ट्रमण्डल (कॉमनवेल्थ) खेलों की तैयारी के लिए दिल्ली के जिस बदनुमा चेहरे को चमकाने की मुहिम चलायी जा रही है उसकी असलियत खोलने का काम ये झुग्गियाँ कर रही थीं। दिल्ली का चेहरा चमकाने का यह काम भी इन्हीं और ऐसी ही दूसरी झुग्गियों में बसनेवालों के श्रम की बदौलत हो रहा है, लेकिन उनके लिए दिल्ली में जगह नहीं है।

Tehelka slum demolitionउस दिन सुबह से ही बैरिकेडिंग कर सूरज पार्क इलाके की नाकाबन्दी कर दी गयी। भारी संख्या में दिल्ली पुलिस तथा केन्द्रीय रिज़र्व पुलिस के जवान वहाँ पहुँचने लगे और पूरी झुग्गी बस्ती में उन्होंने दहशत का माहौल बनाना शुरू कर दिया। नगर निगम के अधिकारी भी लोगों को कोई मोहलत देने को तैेयार नहीं थे और इस बात की धमकी दे रहे थे कि यदि उन्होंने झुग्गियों से अपना सामान नहीं हटाया तो उनके मालअसबाब समेत झुग्गियों पर बुलडोज़र चढ़ा दिया जायेगा। लोगों में काफी ग़ुस्सा था लेकिन किसी एकजुटता के अभाव में वे कुछ नहीं कर पाये और सुबह लगभग दस बजे बुलडोज़रों ने तबाही मचानी शुरू कर दी। देखते ही देखते हज़ारों परिवारों की बरसों की मेहनत से तिनका-तिनका जोड़कर खड़े की गयी झुग्गियों को मलबे में तब्दील कर दिया गया। आलम यह था कि वहाँ लोगों के बर्तन-भाण्डे इधर-उधर बिखरे पड़े थे, बच्चे भूख-प्यास से बिलख रहे थे। बहुतों के पास तो कोई ठौर-ठिकाना भी नहीं था, जाते भी कहाँ। सरकार ने उनके पुनर्वास की कोई व्यवस्था तक नहीं की है। जबकि पुनर्वास की ज़िम्मेदारी सरकार की है।

इसके पहले 16 नवम्बर को सूरज पार्क के झुग्गीवासियों को पुलिस वालों ने यह सूचना दी थी कि 18 नवम्बर को झुग्गियाँ तोड़ी जायेंगी और कि सभी लोग जल्दी से जल्दी अपनी झुग्गियाँ ख़ाली कर दें। लोगों में अफरा-तफरी मच गयी। स्थानीय दल्लों और छुटभैय्या नेताओं ने इस मौके का जमकर फायदा उठाया। दिखावटी शोशेबाज़ी की। लोगों को गाड़ियों में ठूँसकर शीला दीक्षित के दरबार में हाज़िर किया, उनके साथ फोटो खिंचवाये और इस प्रकार कुछ दिनों की मोहलत हासिल कर ली। इस दरमियान सूरजपार्क के इन लोगों को राहत देने के नाम पर तगड़ी वसूली की गयी। ‘बिगुल मज़दूर दस्ता’ के कार्यकत्तर्ााओं ने झुग्गीवासियों को इन दलाल स्वयंभू नेताओं से आगाह किया, उन्हें यह समझाने की कोशिश की कि बिना लड़े कुछ हासिल नहीं होगा, कि पुनर्वास उनका अधिकार है और उन्हें इस माँग के लिए लामबन्द होना पड़ेगा, कि एकजुट होकर ही इस अन्याय का मुकाबला किया जा सकता है। लेकिन जनता की मानसिकता तात्कालिक राहत की होती है और उनका पलड़ा उन दलालों के पक्ष में झुक गया जो उन्हें लगातार भरमाने की कोशिशों में लगे हुए थे। वे लोगों को बता रहे थे कि एक महीने तक झुग्गियों को तोड़ा नहीं जायेगा। लेकिन 30 नवम्बर को पुलिस वालों ने फिर आकर लोगों को यह बताया कि 2 दिसम्बर को झुग्गियाँ तोड़ दी जायेंगी। नगर निगम और प्रशासन जनता से इस कदर डरा हुआ था कि उसने 1 दिसम्बर को ही झुग्गियाें पर बुलडोजर चढ़ा दिया। शाम तक एक हज़ार झुग्गियाँ ढहायी जा चुकी थीं।

इसके बाद सबसे कारगर तरीका यही हो सकता था कि लोगों में इसके चलते जो ग़ुस्सा उबल रहा था उसे एक सही दिशा दी जाये। ‘बिगुल मज़दूर दस्ता’ के कार्यकर्ताओं ने यही किया भी। उन्होंने 2 दिसम्बर की सुबह इस पूरे प्रकरण पर, स्थानीय दलालों की भूमिका के बारे में, पूरे हालात पर संजीदगी से सोचने के बारे में और पुनर्वास के हक के लिए दूसरी झुग्गियों से उजड़े लोगों के साथ मिलकर संघर्ष करने के बारे में विस्तार से बातचीत शुरू की तथा इस सम्बन्ध में एक पर्चा बाँटा। लेकिन लोगों की नासमझी और ग़ुस्से का एक बार फिर स्थानीय दल्लों ने अपने हित में इस्तेमाल कर लिया। इनके उकसावे में आकर लोगों की भीड़ ने पुलिस पर पथराव किया और दिल्ली-अमृतसर रेल मार्ग को जाम कर दिया। जैसा कि होना था आनन-फानन में केन्द्रीय रिज़र्व पुलिस तथा दिल्ली पुलिस के जवान लोगों पर टूट पड़े। लाठी चार्ज, ऑंसू गैस के गोले, हवाई-फायर, और गिरफ्तारी! थोड़ी देर में भीड़ तितर-बितर हो गयी। दल्ले नेता पहले ही नौ दो ग्यारह हो चुके थे।

सूरज पार्क की झुग्गियों में रहने वाले लोग पिछले लगभग पच्चीस वर्षों से यहाँ रह रहे थे। यहाँ सभी लोगों के पास अपना राशन कार्ड, मतदाता पहचान-पत्र आदि होने के बावजूद दिल्ली नगर निगम इन्हें अनधिकृत मानता है। पिछले साल चुनावों से पहले दिल्ली नगर निगम की ओर से यहाँ कुछ झुग्गियों का सर्वेक्षण करवाया गया था और झुग्गियों के भविष्य में तोड़े जाने की सूचना दी गयी थी लेकिन साथ ही यहाँ के बाशिन्दों को यह भी आश्वासन दिया गया था कि झुग्गियाँ तोड़ने के पहले उनका पुनर्वास किया जायेगा। दिल्ली विकास प्राधिकरण (डीडीए) की ओर से ‘राजीव रत्न आवास योजना’ के अन्तर्गत दिल्ली के निम्न आय वर्ग के लाखों लोगों से फ्लैट देने के नाम पर सौ-सौ रुपये का फार्म भी भरवाया गया था। सूरज पार्क के भी हज़ारों लोगों ने ये फार्म भरे थे। लेकिन किसी को भी यह जानकारी नहीं है कि फ्लैट कब और कहाँ मिलेगा। लोगों ने उस समय शीला दीक्षित से गुहार भी लगायी थी पर उस समय तक वे तीसरी बार मुख्यमन्त्री की कुर्सी कब्जिया चुकी थीं लिहाजा उनके कानों पर तो वैसे भी जूँ नहीं रेंगनी थी।

दिल्ली को साफ-सुथरा बनाने के नाम पर सरकारी अमला पहले भी ग़रीबों की झुग्गियाँ उजाड़ता रहा है। और अब तो दिल्ली को झुग्गी-झोपड़ी से मुक्त करने का सरकार का ‘मास्टर प्लान 2021’ भी आ चुका है। राष्ट्रमण्डल खेलों के आयोजन से पहले कई फ्लाईओवर तथा अण्डरपास बनने वाले हैं, पाँच सितारा होटलों, अपार्टमेण्टों, मल्टीप्लेक्सों, मॉलों की पूरी शृंखला तैयार होनी है, मेट्रो का जाल दूरस्थ इलाकों तक बिछाया जाना है। ज़ाहिर है इसके लिए ढेरों झुग्गियाँ-झोपड़ियाँ उजाड़ी जायेंगी तथा वहाँ रहने वाले हज़ारों परिवार दर-दर की ठोकरें खाने को सड़कों पर ढकेल दिये जायेंगे।

इन झुग्गी झोपड़ियों में रहने वाली आबादी सिर पर छत के बावजूद एक नारकीय ज़िन्दगी जीती है तथा बुनियादी हक व सुविधाओं से वंचित और अनजान है। ज़िन्दगी की कठिनाई और परेशानियाँ यदि उनके ग़ुस्से को भड़काती भी हैं तो उनपर छींटा मारने का काम वहाँ गहराई से पैठे एनजीओ (गैर सरकारी संगठन) के लोग करते हैं। और स्थानीय दलाल व छुटभैय्ये नेता उन्हें उकसाकर या बहला-फुसलाकर अपना उल्लू सीधा करते हैं। कुछ मामलों में बिल्ली के भाग से कभी-कभी छींका फूट भी जाता है लेकिन ज्यादातर इन्हें नाउम्मीदी ही नसीब होती है।

आज ज़रूरत इस बात को समझने की है कि बस्तियों में रिहाइश और पुनर्वास का हक, बुनियादी सुविधाओं को पाने का हक एक जनतान्त्रिक अधिकार है। मुनाफे के लिए काम करने वाली इस व्यवस्था में विकास की सारी परियोजनाएँ मुट्ठी भर धन्नासेठों को ध्‍यान में रखकर बनायी जाती है और इस सरकार के लिए मेहनत-मशक्कत करने वाले लोगों, झुग्गी-झोपड़ियों में रहने वाले लोगों की कोई अहमियत नहीं है। एकजुटता और संघर्ष के बदौलत ही वे अपना हक हासिल कर सकते हैं। दूसरा कोई रास्ता नहीं है।

बिगुल, दिसम्‍बर 2009


 

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