जनता की कार, जनता पर सवार

कपिल स्वामी

tata nanoटाटा की बहुचर्चित और बहुप्रतीक्षित लखटकिया कार नैनो बाजार में आ गयी है। इस कार को सस्ती ही नहीं बल्कि जनता के लिए बेहद उपयोगी बताकर भी प्रचारित किया गया है। इसे पीपुल्स कार यानी जनता की कार बताया जा रहा है। इस कार को लेकर पूँजीपति वर्ग ही नहीं सरकार भी काफी उत्साहित हैं। नैनो वाकई उत्सुकता पैदा करने वाली कार है। 20 रुपया रोजाना कमाने वाली 80 फीसदी आबादी वाले देश में जनता की कार किसके लिए है, इसकी असली कीमत किससे वसूली जाने वाली है और आखिर यह कार लायी ही क्यों जा रही है? और यह कि इसमें मोदी फैक्टर जुड़ने का मतलब क्या है? आइये देखें कि आखिर एक लाख की कार जनता को देने के पीछे माजरा क्या है?

एक लाख की कार को जनता की कार बताना पहली बात तो सिरे से ही बेवकूफी की बात है। हमारे देश की एक बहुत बड़ी आबादी सुबह से लेकर रात तक दो वक्त की रोटी जुटाने के लिए हाड़तोड़ मेहनत करती है। जिन्दा रहने के लिए बुनियादी चीजें हासिल करने में ही उसके बदन का सारा खून निचुड़ जाता है। अपने बच्चों को अच्छी पढ़ाई-लिखाई करवाना और बीमार होने पर दवा-इलाज करवाना उसके लिए बहुत बड़ी बात है। यह आबादी ज्यादातर अपनी काम की जगह पर बसों में लटककर जाती है। मजदूरी इतनी कम है कि बस का किराया भी इनके बस से बाहर है सो साइकिलों से भी काफी दूर काम करने जाते हैं। दिल्ली में रहने वाले मजदूर फरीदाबाद, गुडगाँव, नोएडा, गाजियाबाद जाते हैं तो इन शहरों के मजदूर दिल्ली में काम करने आते हैं। इस बड़ी आबादी के लिए कार की बात करना एक गन्दे मजाक के सिवाए कुछ नहीं है।

लेकिन असल में यह कार इस 80 फीसदी आबादी के लिए है भी नहीं। इस कार को खरीदने वालों में कुछ तो काफी पैसे वाले होंगे जो महज “शौक या क्रेज के लिए यह कार खरीदेंगे। असल में इसे खरीदने वाला सबसे बड़ा तबका मध्य-मध्यवर्ग और निम्न मध्यवर्ग का वह हिस्सा होगा जो जल्दी से जल्दी अमीरों की कतार में शामिल हो जाने का सपना देखता है। जिस तबके का एक बड़ा सपना अपनी गाड़ी और लग्जरी अपार्टमेंट होना होता है। इसी तबके के लिए यह कार बनायी गयी है ताकि यह तबका खुशहाली के अहसास में जीये और पूँजीपतियों-मालिकों की ज्यादा तन-मन लगाकर सेवा करें। इसे जनता की कार बताना उस नजरिये को सामने लाता है जिसमें बाजार के उपभोक्ता से आगे देखने की कोई जरूरत नहीं होती है। टाटा और तमाम पूँजीपति वर्ग और सरकार के लिए भी यही छोटा सा तबका वाकई “आम जनता” है और इसी की खुशहाली और बेहतरी के लिए ठोस कोशिशें की भी जाती हैं।

नैनो कार का बहुसंख्यक आबादी के लिए न होने और उससे इसका कोई सरोकार न होने के बावजूद इसी बहुसंख्यक मेहनतकश आबादी की टैक्स के रूप में जमा गाढ़ी कमाई के बदौलत इसे तैयार किया गया है। प. बंगाल में मुख्य कारखाना हटने और गुजरात में लगने के बाद मोदी सरकार ने इसमें विशेष रूचि दिखायी और जनता का करोड़ो रूपया पानी की तरह इसपर बहा दिया। एक अनुमान के मुताबिक 1 लाख की कीमत वाली हरेक नैनो कार पर जनता की गाढ़ी कमाई का 60,000 रूपया लगा है। नैनो संयंत्र के लिए गुजरात सरकार ने टाटा को 0.1 प्रतिशत साधारण ब्याज की दर से पहले चरण के लिए 2,900 करोड़ का भारी-भरकम कर्ज दिया है जिसकी अदायगी बीस वर्षों में करनी है। कम्पनी को कौड़ियों के भाव 1,100 एकड़ जमीन दी गयी है। इसके लिए स्टाम्प ड्यूटी और अन्य कर भी नहीं लिये गये हैं। कम्पनी को 14,000 घनमीटर पानी मुफ्त में उपलब्ध कराया जा रहा है साथ ही संयंत्र में बिजली पहुँचाने का सारा खर्च सरकार वहन करेगी।

यह भी गौर करने वाली बात है कि गुजरात सरकार और टाटा के बीच हुए समझौते को गुप्त रखा गया है। मोदी ने विशेष आदेश देकर नैनो से संबंधित सारी कागजी प्रक्रिया 3 दिन में खत्म करवा दी थी। गुजरात सरकार की इस तत्परता ने पूँजीपतियों को अभिभूत कर दिया है। पिछले दिनों गुजरात में एक कार्यक्रम में देश के तमाम उद्योगपतियों ने मोदी की खूब जयजयकार की। रतन टाटा ने तो यहाँ तक कहा कि जो गुजरात में नहीं है वह मूर्ख है।

दूसरी तरफ आँकड़े बताते हैं कि गुजरात सरकार शिक्षा और स्वास्थ्य पर सरकारी सब्सिडी लगातार घटाती जा रही है। लोगों को बुनियादी सुविधाएँ मुहैया कराने में भी गुजरात सरकार का रिकार्ड बहुत खराब है। इसके अलावा देश के पैमाने पर भी स्थिति काफी खराब है। पिछले दिनों जारी संयुक्त राष्‍ट्र की रिपोर्ट में भारत में भुखमरी की समस्या पर चिंता जतायी गयी थी। हमारे देश 70 फीसदी बच्चे अच्छा खाना न मिलने से कुपोषण का शिकार हैं। इन हालातों में एक लाख की कार के लिए सरकारों का चिन्तित होना उनकी प्राथमिकताओं को सामने लाता है।

कारें बढ़ने से आम जनता पर कई प्रत्यक्ष और अप्रत्यक्ष दबाव पड़ेंगे। एक तो सरकार द्वारा कार-निर्माताओं को सब्सिडी देने से जरूरी मदों के लिए राशि में कटौती होना तय है। दूसरे कारों के उत्पादन के साथ फ्लाईओवरों, ओवरब्रिजों आदि का निर्माण करवाना जरूरी होता है। इसपर भी भारी धनराशि खर्च होगी। इसके अलावा सीधे तौर पर सड़कों पर बोझ बढ़ जायेगा। बसों, साइकिलों से काम पर जाने वाली बहुत बड़ी आबादी को ट्रैफिक जाम का सबसे ज्यादा खामियाजा भुगतना पड़ेगा। कारों से होने वाले प्रदूषण में भी कई गुना की वृद्धि हो जाएगी।

नैनो के लिए बेशक मोदी सरकार ने सबसे ज्यादा दिलचस्पी दिखायी हो लेकिन असल में यह पूरे शासक वर्ग की चाहत है कि सस्ती कार बाजार में हो। एक तो इससे खुशहाली का भ्रम पैदा किया जाता है, दूसरे जनता का ध्यान जरूरी बुनियादी चीजों से हटाया जाता है ताकि लोग इसमें उलझे रहें और पूँजीवाद का लूट का चक्र बिना गड़बड़ी के घूमता रहे। साथ ही अपेक्षाकृत कम गरीब आबादी को अपने पाले में लाने का शासक वर्ग का मकसद भी ऐसी चीजों से पूरा होता है।

यह अनायास ही नहीं है कि सस्ती या जनता की कार में सबसे ज्यादा दिलचस्पी पूँजीवाद के संकटमोचक फासीवाद के अवतारों ने दिखलायी है। जर्मनी में भी हिटलर ने बदहाल जनता को सस्ती फोक्सवैगन कार का सपना दिखाकर अपना समर्थक बनाने की कोशिश की थी। पूँजीवाद जैसे-जैसे ज्यादा से ज्यादा लोगों के जीवन को बर्बाद करता जाता है, वैसे-वैसे उसे उलझाने-भरमाने की कोशिशें बढ़ती जाती हैं। सस्ती कार और सस्ता मोबाईल देकर पूँजीवादी व्यवस्था अपनी उम्र बढ़ाने की कोशिश कर रही है। लेकिन इतिहास बताता है कि जनता इन बहकावों में ज्यादा समय तक नहीं रहती है और आखिरकार जिन्दगी का सवाल सब पर भारी पड़ता है और हुक्मरानों के इस तरह के तमाम हथकण्डे धरे के धरे रह जाते हैं।

 

बिगुल, मार्च 2009

 


 

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