उम्मीद है, आएगा वह दिन

(उपन्यास अंश)

एमील जोला

‘उम्मीद है, आएगा वह दिन’ को ज्यादातर आलोचक एमील जोला की सर्वोत्कृष्ट रचना मानते हैं। यह खदान मज़दूरों की जिन्दगी के वर्णन के साथ–साथ मज़दूर वर्ग और बुर्जुआ वर्ग के बीच के सम्बन्धों का प्रामाणित चित्र उपस्थित करता है। साथ ही, यह खदान मज़दूरों की एक हड़ताल के दौरान और उसके बाद घटी घटनाओं का मूल्यांकन प्रकारान्तर से उस दौर के उन राजनीतिक आन्दोलनों के सन्दर्भ में भी करता है जो सर्वहारा वर्ग की समस्याओं के अलग–अलग समाधान तथा उनके अलग–अलग रास्ते प्रस्तुत कर रहे थे। जोला द्वारा कोयला खदानों की इंसानों को लील जाने वाले राक्षस से तुलना और मज़दूरों के चरित्र–चित्रण के लिए पशुजगत और वनस्पति विज्ञान के बिम्बों का प्रयोग ऐसे उपन्यास की महाकाव्यात्मक सम्भावनाओं को उद्घाटित करने में सहायक बनते हैं जो अभिशाप और पुनरुद्धार के प्राचीन मिथक की आधुनिक सन्दर्भों में प्रतिकृति तैयार करता है।

इसके पहले के किसी भी उपन्यास में किसी औद्योगिक संघर्ष का इतना विस्तृत और प्रामाणिक चित्रण नहीं मिलता। यहाँ तक कि बीसवीं शताब्दी में भी ऐसे गिने–चुने उपन्यास ही देखने को मिलते हैं जो इस मायने में ‘उम्मीद है, आएगा वह दिन’ के आसपास ठहरते हों।
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सभा प्लां–दे–दाम में रखी गई थी। वहाँ पिछले दिनों बड़ी संख्या में पेड़ काट डाले गए थे। सो, काफी खुली जगह बन गई थी। हलकी–सी ढलान भी थी, जिसके चारों तरफ ऊँचे–ऊँचे पेड़ थे। एकदम सीधे और बराबर तनों वाले ‘बीच’ पेड़ों के झुरमुट थे, जिनके सफेद–सफेद तनों पर लाइकेन वनस्पति के धब्बे–से दिखाई पड़ते थे। जिन विशाल पेड़ों को काटकर डाला गया था, वे अब भी वहाँ पड़े थे। बार्इं ओर चिरी लकड़ी का टाल–सा लगा था। धुँधलका होने के साथ–साथ सर्दी भी बढ़ने लगी थी और नीचे गिरी सिवार और वनस्पतियाँ पैरों तले आकर चटचटाने लगती थीं। धरती पर तो एकदम अँधेरी रात थी, लेकिन ऊपर धुँधले आकाश में ऊँची टहनियों की काली छाया दिखाई पड़ती थी, जहाँ उभरता चन्द्रमा शीघ्र ही सितारों की रोशनी को मन्द कर देगा।

करीब तीन हज़ार खान मज़दूर इस खुली जगह पर आकर इकट्ठे हो गये थे-क्या मर्द, क्या औरतें, क्या बच्चे। भीड़ उमड़ी पड़ती थी। लोग आते जा रहे थे और खाली जगह को भरते जा रहे थे और फिर पेड़ों के नीचे भी फैल जा रहे थे। तिस पर भी आनेवालों का ताँता लगा था। अन्धकार में डूबे मानव सिरों का समुद्र वहाँ तक ठाठें मार रहा था जहाँ तक झाड़ियाँ उगी थीं। हल्की–हल्की मरमराहट–सी सुनाई पड़ रही थी। लगता था, जैसे निस्तब्ध हिमानी वन–प्रदेश में झंझावात चल रहा हो।

एतियन ढलान की सबसे ऊँची जगह पर खड़ा था। उसके साथ खड़े थे रासनर और माह्अ। तभी झगड़ा शुरू हो गया। बीच–बीच में उनकी बातें सुनाई पड़ जाती थीं। निकट खड़े लोग सुन रहे थे। एक तो लवाक था, जिसकी मुट्ठियाँ भिंची हुई थीं। दूसरा पियरों था, जो उनकी तरफ पीठ करके खड़ा था और इसलिए व्याकुल हो रहा था कि बीमारी का स्वाँग अब नहीं कर पाया। फिर बोनमोर्त और बूढ़ा मूक था, जो एक ठूँठ पर साथ–साथ बैठे थे और गहरी सोच में डूबे लगते थे। उनके पीछे मसखरी करनेवाले लोग खड़े थे-जकारी, मूके और दूसरे लोग, जो सबकी खिल्ली उड़ाने के इरादे से ही आए थे।

इनके विपरीत, स्त्रियाँ एकदम गम्भीर बनी खड़ी थीं, मानो चर्च में आई हों। ला लवाक दबी जबान में गाली–गुफ्तार कर रही थी। फिलोमेन खाँस रही थी, क्योंकि जाड़े के कारण साँस लेने में उसे तकलीफ होती थी। मूकेत ही ऐसी औरत थी जिसका चेहरा खिला हुआ था। वह प्रसन्न इस बात से थी कि ला ब्रूले अपनी बेटी को फटकारते हुए कह रही थी कि तू एकदम बेहूदा छोकरी है। कहती थी-माँ को इसलिए कहीं भेज दिया था इसने ताकि पीछे बैठकर खुद सारा खरगोश चट करें। एकदम बेहया लड़की है, जो अपने मरद की कायरता के कारण मुटिया रही है! यांलैं टाल के ऊपर चढ़ गया था। फिर लिडी को भी उसने खींचकर अपने साथ बैठा लिया और बेबेर को झिड़ककर कहा कि वह ऊपर क्यों नहीं आता। आकाश की पृष्ठभूमि में उनकी आकृतियाँ सबसे ऊपर नुमायाँ थीं।

वास्तव में, झगड़ा रासनर ने ही शुरू किया था। वह चाहता था कि संसदीय प्रणाली का अनुसरण करते हुए कमेटी चुनी जाए। बां–ज्वाइयो में हारने से वह तिलमिलाया हुआ था और इस फिराक में था कि किसी तरह बदला चुकाए। फिर डींग मार रहा था कि प्रतिनिधियों के ही नहीं, खान मज़दूरों के सामने जाकर खड़े होने की देर है, खोई प्रतिष्ठा वह पुन: प्राप्त कर लेगा। एतियन समझता था कि जंगल के बीच किसी कमेटी की बात सोचना निरी मूर्खता है। क्या ये लोग नहीं जानते कि जंगली जानवरों की तरह उनका पीछा किया जा रहा है और अब हालत ऐसी है कि उन्हें वहशियों की तरह ही आचरण करने को विवश होना पड़ेगा। और ऐसा करने के लिए इंकलाबी तौर–तरीके अपनाने की आवश्यकता थी।

एतियन ने जब देखा कि यह बहस–मुबाहिसा तो खत्म होनेवाला नहीं, सो वह दौड़ा और धरती पर पड़े पेड़ के तने पर खड़ा हो गया और सबका ध्यान आकर्षित करने के लिए ऊँचे स्वर में बोला : ‘कामरेडो! कामरेडो!’

रासनर ने प्रतिवाद किया, तो माह्अ ने उसका मुँह बन्द कर दिया। भीड़ में जो बड़बड़ाहट–कुड़कुड़ाहट–सी हो रही थी, वह भी धीरे–धीरे थम गई।

एतियन गर्जन–तर्जन के साथ बोल रहा था : ‘कामरेडो! उन लोगों ने हमारे बोलने पर पाबन्दी लगाई है, और हमारे पीछे पुलिस भी छोड़ रखी है, मानो हमने कोई अपराध किया हो। यही वजह है कि इस जगह आकर सभा करने के अलावा हमारे पास कोई चारा नहीं था। यहाँ हम आजाद हैं। यह हमारा अपना घर है। यहाँ हमारी जबान को कोई पकड़ नहीं सकता, जिस तरह कोई परिन्दों का या जानवरों का बोलना बन्द नहीं कर सकता।’

भीड़ ने चिल्ला–चिल्लाकर उसका समर्थन किया।

‘हाँ, यह जंगल हमारा है। यहाँ हमें बोलने का हक… बोलो, बोलो।’

एक क्षण एतियन तने पर निश्चल–सा खड़ा देखता रहा। चन्द्रमा अभी बहुत नीचे था और चाँदनी सबसे ऊपर वाली टहनियों पर पड़ रही थी। अँधेरे में डूबी भीड़ धीरे–धीरे शान्त और स्थिर होती जा रही थी। एतियन भी एकदम छाया–सा लग रहा था-देखकर ऐसे लगता था जैसे अन्धकार में कोई श्लाका खड़ी हो।

एतियन ने बाँह उठाकर धीरे–धीरे बोलते हुए भाषण शुरू किया। लेकिन उसके स्वर में अब वह गर्जन–तर्जन नहीं था। उसने ऐसा सन्तुलित लहजा अपनाया, जैसा कि जनता का साधारण प्रतिनिधि सारी स्थिति की जानकारी देने के लिए बोलता है। सबसे पहले उसने वही बातें कहीं जिन पर पुलिस के मुखिया ने बां ज्वाइयों में रोक लगाई थी। इसके बाद उसने हड़ताल का सारा इतिहास बताया और वैज्ञानिक शब्दावली की उधार ली गई शैली में अपनी बात समझाने की कोशिश की। मात्र तथ्य ही उसने बताए और तथ्यों के अलावा और कोई बात नहीं कही। पहले तो बोला कि वह हड़ताल के ख़िलाफ है, खान मज़दूर भी तो हड़ताल नहीं करना चाहते थे। मगर उन्हें हड़ताल करने को विवश होना पड़ा है, क्योंकि प्रबन्धकों ने बल्लियाँ–शहतीर लगाने की मजूरी अलग से देने की प्रणाली लागू कर दी है। फिर उसने प्रतिनिधियों की पहली मुलाकात के बारे में बताया जो मैनेजर के बँगले पर हुई थी, और प्रबन्धकों की बदनीयती की चर्चा की। फिर ऐसी ही दूसरी मुलाकात का जिक्र किया जिसमें उन्होंने दो सांटीम की रिआयत देने की बात कही थी, और यह रकम असल में वही थी जिसे उन्होंने मज़दूरों से छीनने की कोशिश की थी। यह था सारा किस्सा–कोताह।

इसके बाद उसने उस खर्च का हिसाब उनके सामने रखा जिस कारण इमरजेंसी फंड चुक गया था और यह भी बताया कि बाहर से जो धन आया, उसका उपयोग भी किस तरह किया गया, और फिर कुछ वाक्यों में इण्टरनेशनल यानी कि प्लूकार्ट और दूसरे लोगों का पक्ष लेते हुए बताया कि किस तरह वे दुनिया को फतह करने की लड़ाई लड़ रहे हैं और इस लड़ाई में आनेवाली कठिनाइयों के कारण वे क्योंकर यहाँ के मज़दूरों की ज्यादा मदद नहीं कर पा रहे हैं। इसीलिए हालात दिन–ब–दिन बिगड़ते जा रहे हैं-कम्पनी हाजिरी की किताबें लौटा रही है और बेल्जियम से मज़दूरों को लाने की बात कहकर डरा रही है और इसके साथ–साथ उनके उन साथियों को भी धमकियाँ देने लगी हैं जो थोड़ा डगमगा रहे हैं। यही नहीं, कुछेक खान मज़दूरों को बहला–फुसलाकर उन्होंने काम पर आने के लिए राजी भी कर लिया है।

एतियन एक ही लहजे में बोलता जा रहा था, जैसे इन सारी अप्रिय बातों के बारे में उन्हें कायल करना चाहता हो। कहता था कि भूखों मरने की नौबत आ गई है और आशा का दामन छूटता जा रहा है, संघर्ष करते–करते हिम्मत पस्त होने लगी है। मगर फिर एकाएक अपनी आवाज़ बुलन्द करते हुए उसने संक्षेप में दूसरी बातें बतार्इं।

‘कामरेडो! इन हालात में आप लोगों को आज यहाँ फैसला करना होगा। क्या हड़ताल जारी रखना चाहते हैं ? अगर हाँ, तो कम्पनी को नीचा दिखाने के लिए क्या किया जाना चाहिए ?’

तारों भरे आसमान के नीचे एकदम सन्नाटा छा गया। अन्धकार की चादर में अदृश्य भीड़ इन दहला देनेवाले शब्दों की मार से जैसे एकदम मौन और अवाक हो गई थी। उस वक्त, बस, एक ही आहट थी-पेड़ों में से छनकर आती भीड़ की हताश आहें!

एतियन ने पुन: बोलना शुरू किया। अबकी बार उसका स्वर एकदम भिन्न था। ऐसे बोल रहा था, जैसे किसी एसोसिएशन का सेक्रेटरी नहीं, बल्कि फौज का कमाण्डर हो, कोई धर्मप्रचारक हो, जो सच्चाई का दिग्दर्शन कराने आया हो। कह रहा था-क्या तुम लोग इतने कायर हो कि काम पर वापस जाना चाहते हो ? क्या बेकार की महीने–भर से तकलीफें बरदाश्त करते आ रहे हो ? क्या टाँगों में पूँछ दबाकर तुम लोग कोयला–खानों में चले जाओगे ? क्या अपनी तकलीफों का सिलसिला फिर से शुरू करने को तैयार हो, जिन्हें जमाने से भोगते आ रहे हो ? क्या यह बेहतर नहीं होगा कि इसी वक्त जान दे दें जिससे कामगारों को भूखों मारनेवाले पूँजीपतियों के अत्याचारों का अन्त हो ? क्या वह वक्त नहीं आ गया कि भूख के आगे नासमझ लोगों की तरह घुटने टेकना बन्द करें ? अगर इस वक्त घुटने टेकोगे, तो भुखमरी से ऐसे हालात फिर पैदा हो जाएँगे कि हलीम से हलीम आदमी भी फिर से बगावत करने के लिए मजबूर हो जाएगा…

और इस तरह एतियन ने शोषण की चक्की में पिसते खान मज़दूरों की तस्वीर पेश की। बोला कि जब भी होड़ में कीमतें घटानी पड़ जाती हैं, तो तबाही लानेवाले इस संकट की सारी मार किस तरह उन्हीं लोगों को झेलनी पड़ती है और ऐसे हालात पैदा हो जाते हैं कि भुखमरी की नौबत आ जाती है। न! बल्लियाँ–शहतीर लगाने के लिए मजूरी की नई प्रणाली हमें मंजूर नहीं-इसकी ओट में कम्पनी बचत करना चाहती है। यह कोशिश है एक–एक मज़दूर की हर रोज़ एक घण्टे की मजूरी हड़प लेने की और इस बार तो इन लोगों ने हद ही कर दी है। अब वह दिन दूर नहीं जब दीन–दुखी लोग धीरज खो बैठेंगे और इंसाफ लेकर रहेंगे।

एतियन तनिक रुका। बाँहें पसारे देख रहा था। ‘इंसाफ’ शब्द कानों में पड़ते ही भीड़ में उत्तेजना फैल गई थी और लोग जोर–जोर से तालियाँ बजाने लगे थे और करतल–ध्वनि ऐसे गूँज रही थी, जैसे आँधी में सूखे पत्ते सरसराते हैं।

‘इंसाफ!…! इंसाफ हो! इंसाफ हो!’

एतियन धीरे–धीरे जोश में आता जा रहा था। रासनर की तरह उसे कोई बात एकदम साफ–स्पष्ट और सहज तरीके से कहने का ढंग तो आता नहीं था। प्राय: उपयुक्त शब्द ही नहीं मिलते थे और वह अपने ही वाक्यों में उलझकर रह जाता था और सायास बोलने से सारी देह तन जाती थी। मगर इसका एक फायदा यह मिलता था कि हकलाते–लड़खड़ाते हुए उसे मज़दूरों के कठोर परिश्रम को अभिव्यक्त करनेवाले कुछ ऐसे सटीक रूपक सूझ जाते थे जो श्रोताओं के दिलों को गहराई तक छू लेते थे। फिर एक मज़दूर के हाव–भाव-कोहनियों को पीछे ले जाना, भिंची हुई मुट्ठियों के साथ उन्हें आगे लाना, जबड़ों को इस तरह भींचना मानो काटने को तत्पर हो-इन सबका मज़दूरों पर विलक्षण प्रभाव पड़ता। हरेक की जबान पर एक ही बात होती-बहुत बड़ा आदमी तो नहीं है यह, लेकिन अपनी बात कहने का ढंग जानता है।

‘वेतन गुलामी का ही एक नया डौल है,’ वह थरथराते लहजे में बोलता जा रहा था। ‘कोयला–खान पर मिल्कियत खान मज़दूर की होनी चाहिए, बिल्कुल उसी तरह, जिस तरह समुन्दर मछुआरे का होता है, उसी तरह जिस तरह जमीन की मिल्कियत किसान की होती है… मेरी बात आप लोग गौर से सुनें। कोयला–खान तुम लोगों की है, यानी उन सब लोगों की है जिन्होंने सौ साल से ज्यादा समय तक अपने खून से, अपने दुख–दर्द से इसकी कीमत अदा की है!’

और उसने पूरे दम–खम के साथ दुरूह किस्म के कानूनी प्रश्नों का हवाला देना शुरू किया, जिसका नतीजा यह हुआ कि कोयला–खानों से सम्बन्धित विशेष कानूनों की अन्तहीन श्रृंखला में बुरी तरह उलझता चला गया। जो चीज़ धरती के नीचे है, वह जनता की है। केवल एक कुत्सित विशेषाधिकार के तहत कम्पनियों को इजारेदारी मिली हुई है, और खास तौर से मोंसू के बारे में ऐसा हुआ, जहाँ रियायतों की तथाकथित वैधता उन समझौतों की बदौलत पेचीदा बनी जो बहुत पहले हेनो की प्राचीन पद्धति के अनुसार भूतपूर्व जागीरदारों के साथ किए गए थे। इसलिए अब, बस, करना यह है कि खान मज़दूरों को उस चीज़ को फिर से वापस पाना है जो असल में उनकी अपनी ही थी-और यह कहते हुए एतियन ने बाँहें फैलाकर जंगल के पार सारे देहाती इलाके को घेरे में समेट लिया। उसी समय चन्द्रमा ऊँची शाखाओं को लाँघकर आया और एतियन चाँदनी में एकदम नहा गया। अब जब अँधेरे में खड़ी भीड़ ने उसे ज्योत्सना की उज्ज्वलता के बीच खुले हाथों धन–सम्पदा बाँटते हुए देखा, तो तुमुल करध्वनि से उसका अभिनन्दन किया।

‘हाँ, बिल्कुल सही कहता है, बिल्कुल सही कहता है!’

इस स्थल पर एतियन ने अपना प्रिय विषय उठाया-उत्पादन के उपकरणों पर सामूहिक नियंत्रण, और जब वह अपने इस सिद्धान्त को शब्दों में व्यक्त करने लगता था, तो इस तरह की अपनी अण्ड–बण्ड शब्दावली का प्रयोग करके एकदम उल्लसित हो उठता था। उसमें एक जबर्दस्त तब्दीली आ गई थी। जिस तरह नया मुल्ला ऊँची बाँग देता है, उसी तरह उसे यह कहने की झक सवार हुई थी कि वेतन–प्रणाली में सुधार करने की आवश्यकता है-और उसने यह राजनीतिक सिद्धान्त प्रतिपादित करना शुरू किया था कि वेतन–प्रणाली को पूर्णत: समाप्त कर देना चाहिए। उसके समष्टिवाद ने-जो बां ज्वाइयो की सभा होने तक अमूर्त और लोकोपकारी था-अब एक जटिल कार्यक्रम का रूप ले लिया था, जिसके प्रत्येक पक्ष की वह वैज्ञानिक विवेचना करने लगता था। पहले तो वह यह कल्पना किया करता था कि राज्य या राष्ट्र को नष्ट करके ही स्वाधीनता प्राप्त की जा सकती है। उसके बाद, जब सरकार पर जनता का नियंत्रण हो जाएगा, तभी सुधार–कार्य आरम्भ होगा : यानी प्राचीन कम्यून वाले जीवन का आविर्भाव होगा, ओछे और दमनकारी परिवार की जगह समतावादी और स्वतंत्र परिवार की स्थापना होगी, नागरिक, राजनीतिक और आर्थिक मामलों में पूर्ण समानता होगी और श्रम के उपकरणों का तथा श्रमजनित फल का अधिग्रहण करके वैयक्तिक स्वाधीनता सुनिश्चित की जाएगी, और अन्तत: नि:शुल्क तकनीकी प्रशिक्षण देने की व्यवस्था की जाएगी जिसका सारा खर्च समाज वहन करेगा। इन सब उद्देश्यों की प्राप्ति के लिए पुराने भ्रष्ट समाज का आमूलचूल रूपान्तरण करना आवश्यक होगा।

एतियन ने विवाह–प्रथा तथा उत्तराधिकार की पद्धति पर भी आक्रमण किया और व्यक्तिगत धन–सम्पदा की सीमा भी निर्धारित की, और मृत शताब्दियों के अन्यायपूर्ण कीर्ति–स्तम्भों को भी ध्वस्त करना शुरू किया-ये सब बातें उसने एक हाथ भाँज–भाँजकर कहीं। उसके हाव–भाव उस दराँती की तरह थे जो पकी फसल को काटती जाती है। फिर, दूसरे हाथ से उसने भावी मानवता का निर्माण करने की बात प्रतिपादित करनी शुरू की, सच्चाई और इंसाफ की ऐसी इमारत की तामीर की जो बीसवीं शताब्दी के आगमन के साथ खड़ी होगी। इस बौद्धिक विलास का प्रतिपादन करते–करते तर्क खण्ड–खण्ड हो जाता और एकनिष्ठ मतान्धता हावी होने लगती। ऐसे में उसके भीतर जो थोड़ी–बहुत संवेदनशीलता और सहज बुद्धि थी, वह तिरोहित हो जाती और इस नई दुनिया की प्राप्ति से सहज–सरल और कोई चीज़ उसे दिखाई न पड़ती : इसकी सारी योजना उसके मस्तिष्क में थी और उसके बारे में इस तरह बताने लगता कि यह एक ऐसा तंत्र है जिसकी स्थापना एक–दो घण्टों के भीतर ही वह कर सकता है, और इसके लिए आग और रक्त की शक्ल में जितनी भी कीमत चुकानी पड़ेगी, इसकी कोई चिन्ता नहीं है उसे।

‘अब हमारी बारी है,’ अन्तत: वह चिल्लाकर बोला। ‘अब सत्ता और सम्पत्ति लेने की बारी हमारी है।’

सारा वन उसकी जय–जयकार करने लग गया। तब तक चाँद अपनी चाँदनी से उस सारे स्थल को नहला चुका था और मनुष्यों के सिरों का उमड़ता सागर एकदम साफ दिखाई पड़ने लगा था जो बड़े–बड़े धूसर पेड़ों के तनों के बीच झाड़–झंखाड़ की अस्पष्ट पंक्तिरेखा तक ठाँठे मार रहा था। उस हिमानी आकाश तले उत्तेजित चेहरों का वह विशाल जनसमुह था-जो धधकती आँखों से देख रहे थे, मुँह खुले थे उनके, एक–एक व्यक्ति जोश से उफन रहा था। भुखमरी के कगार पर पहुँचे स्त्रियों–पुरुषों–बालकों को खुला आमंत्रण दिया जा रहा था कि वे उस प्राचीन थाती को न्यायत: लूट लें जिससे उन्हें बेदखल किया गया है। अब तो उन्हें जाड़ा भी नहीं सता रहा था। एतियन के गर्म शब्दों ने उन्हें एकदम भीतर तक तपा दिया था। एक प्रकार की श्रद्धापूर्ण उत्प्रेरणा उन्हें धरती से उठाकर ऊपर ले गई थी। यह बिल्कुल वैसी ही आशावादिता थी जैसी कि शुरू–शुरू के ईसाइयों में हुआ करती थी, जो भावी न्यायपूर्ण शासन पद्धति के लिए पलकें बिछाए रखते थे। उसके अनेक वाक्य इतने अस्पष्ट थे कि उनके पल्ले पड़ ही नहीं सकते थे। तकनीकी और अमूर्त तर्क–वितर्क भी उनकी समझ में नहीं आ सकता था। मगर प्रतीत होता था इस दुर्बोधता और अमूर्तता ने उनके भीतर और अधिक आशाओं का संचार कर दिया था और वे उस दैदीप्यमान, चकाचौंधपूर्ण भविष्य की ओर आस लगाए देखने लगे थे। यह कैसा स्पप्न था!-वे लोग मालिक बनेंगे, सारे कष्ट, दुख–दर्द मिट जाएँगे और अन्तत: सारी धन–सम्पदा पर उन्हीं का स्वत्व हो जाएगा।

‘यह सही बात है। अब हमारी बारी है!… शोषण करने वाले… मुर्दाबाद!

स्त्रियाँ तो एकदम उन्मत्त हो उठी थीं-ला माह्द भूख की घुमेरी के कारण आपा खो बैठी थी। ला लवाक चिल्ला रही थी। बूढ़ी ला ब्रूले आवेश में आकर अपनी डायन जैसी बाँहें भाँज रही थी। फिलोमेन को खाँसी का दौरा पड़ गया था और मूकेत इतनी उत्साहित थी कि एतियन की वाहवाही करते हुए जैसे बिछती चली जा रही थी।

पुरुषों में माह्अ तो एतियन पर एकदम न्योछावर हो गया था। वह काँपते–थरथराते पियरों तथा बकते–झकते लवाक के मध्य खड़ा था और आवेश में आकर चिल्ला रहा था। ज़कारी और मूके जैसे मसख़रे आए तो थे खिल्ली उड़ाने, मगर लज्जित और चकित थे कि कोई आदमी एक घूँट पिए बिना भी इतनी देर तक निरन्तर बोलने की सामर्थ्य रखता है। लकड़ियों के टाल पर चढ़कर बैठा यांलैं चीखते हुए बेबेर और लिडी को उकसा रहा था और इसके साथ ‘पोलैण्ड’ खरगोश वाली टोकरी भी झुलाता जा रहा था।

कोलाहल फिर शुरू हो गया था और एतियन इस लोकप्रियता का पान करते हुए धुत्त था। उसके मुख से निकले एक शब्द पर जब तीन हजार छातियों के दिल जोर–जोर से धड़कने लगे थे, तो उसे अपनी शक्ति–सामर्थ्य का भी डंका बजता सुनाई पड़ने लगा था। यदि सूवारीन ने आने की कृपा की होती, और उसके विचारों को वह अंगीकार करता, तो अवश्य ही उसकी कद्र करता और अराजकतावादी सिद्धान्त में अपने शिष्य की प्रगति देख उसे इत्मीनान होता और उसके इस सारे कार्यक्रम से-प्रशिक्षण के मुद्दे को छोड़कर, जो कि भावुकतापूर्ण मूर्खता का चिह्न था-सन्तुष्ट ही होता, क्योंकि स्वस्थ अज्ञान एक ऐसा कुण्ड है जिसमें मनुष्य का जीवन पुन: परखा जाता है। जहाँ तक रासनर का सम्बन्ध था, वह हिकारत और झुँझलाहट से कन्धे उचका रहा था।

‘मुझे बोलने दे!’ उसने चिल्लाकर एतियन से कहा।

एतियन पेड़ के तने से कूद पड़ा।

‘जा, बोल, अगर तू बोलना ही चाहता है-देखते हैं, कौन तेरी बात सुनता है!’

रासनर जाकर उसकी जगह पर खड़ा हो गया और लोगों को चुप कराने का जतन करने लगा। लेकिन कोलाहल थमा नहीं। भीड़ में लोग उसका नाम ले–लेकर चिल्ला रहे थे। पहले निकट के उन लोगों ने उसे लक्ष्य किया जो उसे जानते–पहचानते थे। फिर दूर के लोगों ने उसे देखा, जो पेड़ों के नीचे मँडरा रहे थे। लेकिन कोई भी उसकी बात सुनने को तैयार नहीं था। इस शख़्स का पतन हो चुका था और उसे देखते ही वे लोग भड़क उठे थे जो कभी उसके मुरीद थे। जो लोग उसके भाषा–कौशल से, उसकी सरल–सहज वाक्पटुता से खिंचे चले आते थे, मतलब कि उसकी हर बात पर फिदा थे, अब वही लोग अब ऐसे बिदक रहे थे उससे, जैसे उस शीरगरम चाय को देखकर मुँह बिचकाते हैं जो कायरों का ही पान हो सकती है। इस सारे कोलाहल के बीच उसने व्यर्थ ही बोलने की कोशिश की। वह चाहता तो यह था कि एक बार फिर वैसा ही भाषण दे और उन्हें बताए कि कानूनों के सहारे दुनिया को बदलना कतई नामुमकिन है और समाज के क्रमिक विकास के लिए पर्याप्त समय देना अनिवार्य है। यह सुनते ही सब लगे उसकी हँसी उड़ाने। बां ज्वाइयों में उसने पराजय का मुँह देखा था। यहाँ भी उसे मुँह की खानी पड़ी जिसका कोई निस्तार नहीं था। नतीजा यह हुआ कि लोगों ने उस पर जमी हुई काई उठा–उठाकर मारनी शुरू की। एक स्त्री तो तीखी आवाज में चिल्लाकर बोली : ‘वतन के दुश्मन… मुर्दाबाद!’

वह उन्हें समझाने की भरसक कोशिश कर रहा था-देखिए, जैसे करघा बुनकर का होता है, वैसे कोयला–खान मज़दूर की कभी नहीं हो सकती। और उसने यह माँग की कि मुनाफ़ा बाँटने के लिए पद्धति लागू की जानी चाहिए। बोला कि उसका लाभ यह होगा कि कोयला–खान में मज़दूर का अन्तर्निहित स्वार्थ हो जाएगा, मानो वह भी परिवार का एक सदस्य है।

‘वतन के दुश्मन… मुर्दाबाद…’ हजारों लोगों ने चिल्ला–चिल्लाकर कहना शुरू किया, और फिर पथराव भी होने लगा।


 

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