तीन-दिवसीय द्वितीय अरविन्द स्मृति संगोष्ठी गोरखपुर में सम्पन्न
21वीं सदी का मज़दूर आन्दोलन : नयी चुनौतियाँ, नये रास्ते, नयी दिशा

2010-07-27-Gorakhpur-2nd-AMS-03साथी अरविन्द की स्मृति में पिछले वर्ष प्रथम अरविन्द स्मृति संगोष्ठी का आयोजन दिल्ली में हुआ था, जिसमें देश-विदेश से क्रान्तिकारी संगठनों के प्रतिनिधियों, कार्यकर्ताओं, बुद्धिजीवियों और शोधकर्ताओं ने शिरकत की थी। इस वर्ष द्वितीय अरविन्द स्मृति संगोष्ठी को एक दिन की बजाय तीन दिन का रखा गया और इसे गोरखपुर में आयोजित किया गया। पिछली बार के विषय को ही विस्तार देते हुए इस बार ’21वीं सदी में भारत का मज़दूर आन्दोलन : निरन्तरता और परिवर्तन, दिशा और सम्भावनाएँ, समस्याएँ और चुनौतियाँ’ विषय पर विस्तृत चर्चा हुई।

संगोष्ठी की शुरुआत 26 जुलाई को गोरखपुर के चित्रगुप्त मन्दिर के परिसर में हुई। पहले दिन ‘शहीदों के गीत’ के साथ साथी अरविन्द की तस्वीर पर माल्यार्पण किया गया और उन्हें श्रध्दांजलि अर्पित करते हुए संगोष्ठी की शुरुआत की गयी। दिल्ली विश्वविद्यालय से आयी छात्रों- नौजवानों की सांस्कृतिक टोली ने गीत पेश किये। इसके बाद पहले सत्र की शुरुआत हुई। पहले सत्र में साथी अरविन्द की जीवन-साथी कॉमरेड मीनाक्षी ने अरविन्द स्मृति न्यास की स्थापना की घोषणा की और साथ ही उसके लक्ष्यों की एक रूपरेखा प्रस्तुत की। इसके बाद राहुल फाउण्डेशन के साथी सत्यम ने अरविन्द स्मृति न्यास की योजनाओं में विभिन्न ज़िम्मेदारी उठाने वाले साथियों और प्रमुख न्यासकर्ताओं का परिचय सदन से कराया और औपचारिक रूप से अरविन्द स्मृति न्यास की स्थापना हुई। इस पहले सत्र में साथी अरविन्द को याद करते हुए गोरखपुर के वरिष्ठ बुद्धिजीवी श्री फतेह बहादुर सिंह, प्रसिद्ध हिन्दी कहानीकार मदन मोहन और मुम्बई से आये आनन्द ने वक्तव्य रखे। इस सत्र की अध्‍यक्षता मुम्बई के ‘विस्थापन विरोधी जनान्दोलन’ के साथी शिरीष मेंढी, छत्तीसगढ़ माइंस श्रमिक संघ के सचिव और छत्तीसगढ़ मुक्ति मोर्चा के उपाध्‍यक्ष साथी गणेशराम चौधरी, अनुराग ट्रस्ट की प्रमुख न्यासकर्त्री श्रीमती कमला पाण्डेय और हिन्दी की चर्चित कवयित्री कात्यायनी ने की।

2010-07-27-Gorakhpur-2nd-AMS-11पहले दिन के दूसरे सत्र में पत्रिका ‘मुक्तिकामी छात्रों-युवाओं का आह्वान’ के सम्पादक अभिनव ने संगोष्ठी के अपने प्रमुख अवस्थिति पत्र की प्रस्तुति की। इस पेपर का विषय था – ‘भूमण्डलीकरण के दौर में मज़दूर वर्ग के आन्दोलन और प्रतिरोध के नये रूप और रणनीतियाँ’। पेपर की प्रस्तुति करते हुए अभिनव ने कहा कि पूरी दुनिया में आज मज़दूर आन्दोलन गम्भीर संकट का शिकार है। एक ओर तो इस संकट का कारण इस बात में निहित है कि ‘तीसरी दुनिया’ के अधिकांश देशों में कम्युनिस्ट क्रान्तिकारी ताकतें कार्यक्रम के मामले में एक ग़लत समझ का शिकार हैं। अधिकांश कम्युनिस्ट क्रान्तिकारी समूह तुर्की, इण्डोनेशिया, भारत, पाकिस्तान, श्रीलंका, मिस्र, ब्राज़ील, अर्जेण्टीना, मेक्सिको, दक्षिण अफ्रीका जैसे विचारणीय पूँजीवादी विकास वाले देशों में भी आज तक 1960 के दशक में माओ द्वारा तीसरी दुनिया के देशों में क्रान्ति के कार्यक्रम के लेकर पेश किये गये सामान्यीकृत सूत्रीकरण से चिपके हुए हैं और सामन्तवाद-साम्राज्यवाद विरोधी नवजनवादी क्रान्ति की कार्यदिशा को लागू कर रहे हैं। जबकि इन देशों में पूँजीवादी उत्पादन पद्धति प्रमुख उत्पादन पद्धति बन चुकी है और एक विशालकाय मज़दूर वर्ग अस्तित्व में आ चुका है। और वास्तव में तो वे नवजनवादी क्रान्ति की कार्यदिशा को भी ढंग से लागू नहीं कर रहे हैं क्योंकि वे माओ की इस शिक्षा को भूल जाते हैं कि नवजनवादी क्रान्ति की मंज़िल में भी मज़दूर वर्ग ही नेतृत्वकारी शक्ति होता है; किसान मुख्य शक्ति होते हैं। लेकिन कम्युनिस्ट पार्टी मज़दूर वर्ग की ही हिरावल होती है और मज़दूर वर्ग के बीच लेनिनवादी पद्धति से काम किये बग़ैर ऐसी किसी कम्युनिस्ट पार्टी का निर्माण सम्भव ही नहीं है। लेकिन नवजनवादी क्रान्ति की कार्यदिशा का अनुसरण करने वाले अधिकांश ग्रुप मज़दूरों के बीच काम पर या तो ज़ोर ही नहीं देते, या फिर वे मज़दूर वर्ग के बीच संशोधनवादी ट्रेडयूनियनों के समान अर्थवाद और ट्रेडयूनियनवाद करते हैं। फर्क बस इतना होता है कि वे ईमानदारी के साथ ज्यादा गर्म और जुझारू ट्रेडयूनियनवाद और अर्थवाद करते हैं। ग़लत कार्यक्रम और मज़दूर वर्ग के बीच काम पर सोच या फिर सही ज़ोर और तरीके का अभाव मज़दूर वर्ग के आन्दोलन के संकटग्रस्त होने का पहला कारण है।

2010-07-27-Gorakhpur-2nd-AMS-05अभिनव ने आगे कहा कि दूसरा कारण है 1960 के दशक के उत्तरार्द्ध से विश्व पूँजीवाद की कार्यप्रणाली में आये बदलाव। इन बदलावों की चर्चा करते हुए विश्व पूँजीवाद का एक संक्षिप्त इतिहास प्रस्तुत किया गया। 1870 से लेकर 1945 तक के समय की चर्चा करते हुए अभिनव ने मार्क्‍स के उन कथनों की ओर ध्‍यान दिलाया जिनमें मार्क्‍स ने एक रूप में भूमण्डलीकरण का पूर्वानुमान किया था। वित्तीय पूँजी के उदय से पूर्व के पूँजीवाद की चर्चा के बाद पेपर में 1870 की पहली वैश्विक पूँजीवादी संकट की चर्चा आती है। यह मन्दी साम्राज्यवाद के उदय के दौर के साथ ही आयी थी। राष्ट्रीय सीमाओं में अति-उत्पादन और पूँजी की प्रचुरता का संकट उसी रूप में उपस्थित हुआ था, जिस रूप में मार्क्‍स ने उसके बारे में बताया था। इस मन्दी के साथ ही विश्व पूँजीवाद ने अपनी कार्यप्रणाली में महत्तवपूर्ण परिवर्तन किये जिनका शानदार अध्‍ययन लेनिन ने अपनी रचना ‘साम्राज्यवाद : पूँजीवाद की चरम अवस्था’ में किया है। इसमें सबसे प्रमुख थे वित्तीय पूँजी का प्रभुत्व, बैंकों का उदय, विश्व का साम्राज्यवादी ताकतों के बीच बँटवारा और उसके लिए युद्ध और पूँजी का निर्यात। जैसा कि लेनिन ने बताया था, 20वीं सदी के दूसरे दशक में उदीयमान साम्राज्यवादी ताकतों और पारम्परिक साम्राज्यवादी ताकतों के बीच दुनिया के पूँजीवादी लूट के बँटवारे के लिए प्रथम विश्व युद्ध हुआ। इस युद्ध से उबरने की प्रक्रिया चल ही रही थी कि पूँजीवादी विश्व अब तक की सबसे बड़ी मन्दी का शिकार हो गया : 1930 के दशक की महामन्दी।

इस महामन्दी के बाद द्वितीय विश्वयुद्ध हुआ और इसका समापन फासीवादी जर्मनी और इटली की हार, विश्व के समाजवादी और पूँजीवादी शिविरों में बँटवारे और पुनर्निर्माण कार्यक्रमों के बूते विश्व पूँजीवाद के चौधरी के तौर पर संयुक्त राज्य अमेरिका के उदय के साथ हुआ। सोवियत संघ के अजेय शक्ति के रूप में उभर चुका था और वहाँ समाजवाद के महान प्रयोगों के ज़रिये जनता के जीवन-स्तर में ज़बर्दस्त स्तरोन्नयन हो रहा था। औद्योगिक उत्पादन से लेकर वैज्ञानिक तरक्की तक, सोवियत संघ विश्व में सबसे तेज़ी से आगे बढ़ रहा था। मन्दी के अनुभव और समाजवादी शिविर की मौजूदगी के दबाव में पूँजीवादी देशों में ”कल्याणकारी” राज्य का उदय हुआ जिसके तहत कीन्सियाई नुस्खों को अमल में लाया गया। उत्पादन को पूरी तरह बाज़ार के रहम पर छोड़ने की बजाय पूँजीवादी राज्य का प्रत्यक्ष हस्तक्षेप होता था और मज़दूरों और कर्मचारियों को तरह-तरह की छूटें और सहूलियतें दी गयीं। वित्तीय पूँजी पर भी कई तरह के विनियमन लादे गये। 1930की मन्दी के बाद के दौर में अमेरिका में फोर्डिज्म की उत्पादन तकनीक का उदय हुआ जिसके तहत एक ही दैत्याकार कारख़ाने में पूरे माल का उत्पादन किया जाता था। इन कारख़ानों में कई बार 30 से 40 हज़ार मज़दूर भी काम करते थे। वे वास्तव में कारख़ाने नहीं बल्कि एक छोटी-सी बस्ती हुआ करते थे। फोर्डिज्म के दौर में ही आज हम जिस प्रकार के ट्रेडयूनियन आन्दोलन को जानते हैं उसका उदय हुआ। यानी, पूरी तरह कारख़ाना-केन्द्रित मज़दूर आन्दोलन। फोर्डिस्ट असेम्बली लाइन पर हज़ारों मज़दूरों के साथ होने वाला उत्पादन लम्बे समय तक पूँजीवाद का प्रमुख अधिशेष नियोजन का मैकेनिज्म बना रहा। द्वितीय विश्वयुद्ध के बाद से लेकर 1970 के दशक के शुरुआती वर्षों तक का दौर विश्व पूँजीवाद के लिए एक स्वर्णिम काल था। इस दौर में उत्पादक शक्तियों के युद्ध में हुए विनाश की भरपाई के बूते पूँजीवाद तेज़ी के एक दौर का साक्षी बना और विशेष रूप से अमेरिकी पूँजीवाद। पूँजी के कार्य का क्षेत्र राष्ट्र-राज्य थे क्योंकि ”कल्याणकारी”भूमण्डलीकृत विश्व में काम ही नहीं कर सकता। वह हस्तक्षेपकारी नीतियों के ज़रिये श्रम को एक हद तक संरक्षण प्रदान करता है और पूँजी के राष्ट्रपारीय प्रवाह पर तरह-तरह की रोक लगाकर देशी पूँजी को भी संरक्षण प्रदान करता है।

2010-07-27-Gorakhpur-2nd-AMS-01लेकिन 1970 के दशक के साथ ही पूँजी फिर से इतनी फूल चुकी थी कि राष्ट्रीय सीमाओं के भीतर और ”कल्याणकारी” ढाँचे के भीतर उसका दम घुटने लगा। नतीजे के रूप में 1973 का विश्वव्यापी पूँजीवादी संकट, डॉलर-गोल्ड मानक का ढहना और ओपेक तेल संकट पैदा हुआ। इस संकट के बाद विश्व में उस प्रक्रिया की शुरुआत हुई जिसे हम भूमण्डलीकरण के रूप में जानते हैं। इसके साथ ही विश्व में फोर्डिज्म का भी पतन शुरू हुआ। 1980 के दशक में वे सभी संस्थाएँ एक-एक करके अस्तित्व में आने लगीं जिनसे भूमण्डलीकरण की पहचान की जाती है। भूमण्डलीकरण के दौर में अभिनव ने तीन महत्तवपूर्ण परिवर्तनों की ओर ध्‍यानाकर्षित किया। पहला था नवउदारवादी भूमण्डलीकरण की नीतियों के ज़रिये श्रम बाज़ारों को पूरी तरह लचीला बना देना; दूसरा था, फोर्डिज्म का पतन; और तीसरा था, सूचना प्रौद्योगिकी और संचार क्रान्ति। इन परिवर्तनों ने दुनियाभर में श्रम के अनौपचारिकीकरण को जन्म दिया, बढ़ाया और सम्भव बनाया। श्रम के अनौपचारिकीकरण के साथ ही एक वैश्विक असेम्बली लाइन अस्तित्व में आने लगी। अब उत्पादन विशालकाय कारख़ानों की बजाय कई छोटे कारख़ानों में होने लगा। कारख़ाना के आधार पर मज़दूरों को बिखराया जाने लगा। यह प्रक्रिया विकासशील देशों में अभी भी जारी है। इसके साथ ही पारम्परिक ट्रेडयूनियन आन्दोलन का ह्रास होने लगा। ऑंकड़ों के ज़रिये, पेपर में दिखलाया गया कि कुल औद्योगिक मज़दूर वर्ग का 90 प्रतिशत से भी ज्यादा हिस्सा अनौपचारिक क्षेत्र में काम करता है। इसके बाद इस अनौपचारिक क्षेत्र के मज़दूर वर्ग की चारित्रिक विशेषताओं पर चर्चा की गयी। यह बताया गया कि यह अनौपचारिक मज़दूर वर्ग एक प्रकार से ‘फुटलूज़ लेबर’ है। इसे किसी एक कार्यस्थान पर नहीं पकड़ा जा सकता। पेशागत गतिमानता इतनी ज्यादा है कि इस मज़दूर वर्ग को उसकी रिहायश में पकड़ना होगा। कारख़ाना आधारित ट्रेडयूनियन आन्दोलन की असफलता के पीछे एक बड़ा कारण यह है कि फोर्डिज्म के दौर की कार्यप्रणाली को वह उत्तरफोर्डिस्ट दौर में लागू करना चाहता है और वह अब सम्भव रह नहीं गया है। दूसरे, आज का प्रभुत्वशाली ट्रेडयूनियन आन्दोलन इस मज़दूर वर्ग को पिछड़ा हुआ मानता है और उनमें से भी संशोधनवादी ट्रेडयूनियनों के लिए इस 90 फीसदी मज़दूर आबादी की समस्याएँ सरोकार का विषय ही नहीं हैं।

पेपर में यह भी दिखलाया गया कि अनौपचारिक मज़दूरों के बढ़ते जाने और उनके क्रान्तिकारी चरित्र को लेकर मार्क्‍स से लेकर लेनिन तक ने लिखा है और यह फोर्डिस्ट दौर में पैदा हुआ एक पूर्वाग्रह और उसका हैंगओवर है जो आन्दोलन को कारख़ाने से निकलने नहीं दे रहा है और कारख़ाने के भीतर उसकी मौजूदगी बिना रिहायशी संगठन के आधार के, अधिक से अधिक मुश्किल होती जा रही है। अभिनव ने कहा कि जब तक मज़दूर आन्दोलन असंगठित/अनौपचारिक मज़दूर आबादी के प्रति अपने इस रवैये को छोड़ता नहीं है, तब तक मज़दूर आन्दोलन का यह संकट बरकरार रहेगा। आज के समय में मज़दूरों के हिरावल को उन्हें संगठित करने के लिए उनकी बस्तियों और रिहायशी इलाकों में जाना होगा; वहाँ उनकी इलाकाई और पेशागत ट्रेडयूनियनें खड़ी करनी होंगी। इन ट्रेडयूनियनों को संगठित किये बिना कारख़ाने में भी मज़दूरों की संगठित लड़ाई खड़ी कर पाना आज अधिक से अधिक कठिन होता जा रहा है। दूसरी बात यह कि इन इलाकाई ट्रेडयूनियनों को खड़ा कर पाना और मज़दूर वर्ग को रिहायशी इलाकों और पेशों के आधार पर संगठित करना एक तरफ चुनौतीपूर्ण है तो वहीं इसकी क्रान्तिकारी सम्भावनाएँ असीम हैं। अनौपचारिक मज़दूर वर्ग पेशागत संकुचन, अर्थवाद,ट्रेडयूनियनवाद, अराजकतावादी संघाधिपत्यवाद आदि जैसी मज़दूर वर्ग-विरोधी प्रवृत्तियों से अपेक्षाकृत कम प्रभावित होता है और किसी एक कारख़ाना-मालिक को दुश्मन समझने की बजाय पूरे कारख़ाना मालिकों के वर्ग को दुश्मन मानता है और अधिक वर्ग सचेत होता है। यह मज़दूर राज्यसत्ता के चरित्र को भी अपेक्षाकृत जल्दी समझता है। यह (जैसा कि पारम्परिक ट्रेडयूनियनवादी समझते हैं) पिछड़ा और अकुशल नहीं होता है। यह नया अनौपचारिक मज़दूर वर्ग अत्यधिक विशाल,बहुकुशल, वर्ग सचेत और राजनीतिक रूप से अधिक सम्भावना-सम्पन्न है। चुनौती बस यह है कि इसे रिहायशी और पेशागत आधार पर संगठित करने का कार्य रचनात्मक रूप से किया जाये।

इसके अलावा कोई भी रिहायशी ट्रेडयूनियन ऐसे मसलों पर संघर्ष कर सकती है जिन पर एक पारम्परिक कारख़ाना-आधारित ट्रेडयूनियन नहीं कर सकती। जैसे कि पानी, बिजली, आवास, सड़क, शिक्षा और चिकित्सा जैसे अधिकार जिन्हें कई बार नागरिक माँगों की संज्ञा दी जाती है। लेकिन ये माँगें मज़दूर वर्ग को सीधे पूँजीवादी राज्यसत्ता के समक्ष खड़ा करती हैं और पूँजीवाद को कठघरे में लाती हैं। राजनीतिक चेतना के स्तरोन्नयन के मद्देनज़र और बुर्जुआ जनवाद के छल-छद्म उजागर करने के मद्देनज़र इन माँगों में ज़बर्दस्त सम्भावना होती है क्योंकि तब मज़दूर वर्ग अपनी नागरिक पहचान पर दावा ठोंकता है। साम्राज्यवाद की कार्यप्रणाली में हुए परिवर्तनों ने जहाँ पारम्परिक ट्रेडयूनियनों को मुश्किल बनाकर मज़दूर वर्ग के सामने एक चुनौती पेश की, वहीं इसने मज़दूर आन्दोलन को राजनीतिक तौर पर एक नयी मंज़िल में ले जाने के लिए एक नयी सम्भावना भी उत्पन्न कर दी है। लेकिन इस सम्भावना को यथार्थ में बदलने के लिए मज़दूर वर्ग के हिरावल दस्ते को नयी सोच और नयी दिशा के साथ काम करना होगा और इसके लिए इन परिवर्तनों को गहराई से समझना होगा।

इस प्रमुख अवस्थिति पत्र के समापन के बाद पहला दिन समाप्त होने की ओर था और दो वक्ताओं स्त्री मुक्ति लीग की शिवानी और नौजवान भारत सभा के प्रेमप्रकाश, के हस्तक्षेप के बाद पहला दिन समाप्त हुआ।

2010-07-27-Gorakhpur-2nd-AMS-09दूसरे दिन के पहले सत्र की अध्‍यक्षता राहुल फाउण्डेशन के साथी जी.पी. भट्ट और छत्तीसगढ़ मुक्ति मोर्चा के साथी शेख़ अंसार ने की। पहले सत्र में अभिनव द्वारा पेश प्रमुख पत्र पर अपनी बात रखने वालों में ‘इन्कलाबी मज़दूर’ के नगेन्द्र, ‘उज्ज्वल ध्रुवतारा’ के कॉमरेड जी.पी. मिश्रा, नौजवान भारत सभा के नवीन, बिहार से आये कॉमरेड चन्द्रेश्वर राम और दिल्ली मेट्रो कामगार यूनियन के अजय स्वामी प्रमुख थे। ‘इन्कलाबी मज़दूर’ के नगेन्द्र ने पेपर पर टिप्पणी करते हुए कहा कि आज भी कारख़ाना-केन्द्रित मज़दूर आन्दोलन ही प्रमुख हैं और फोर्डिज्म के पराभव के बाद भी संघर्ष को उत्पादन के स्थल पर ही संगठित किया जा सकता है। इसे रिहायश के इलाके में ले जाने का अर्थ होगा संघर्ष उत्पादन से उपभोग की ओर ले जाना; नगेन्द्र ने अपनी अवस्थिति को स्पष्ट करते हुए कहा कि रिहायशी यूनियनें भी बनानी होंगी लेकिन कारख़ाना-आधारित ट्रेडयूनियनों का ज़माना बीता नहीं है। बाकी वक्ताओं ने प्रमुखत: पेपर की अवस्थिति का समर्थन किया।

साथी नगेन्द्र की आलोचनात्मक टिप्पणी का जवाब देते हुए अभिनव ने कहा कि कारख़ाना-केन्द्रित मज़दूर पर ज़िद के साथ ज़ोर देना आज की सच्चाइयों से मुँह मोड़ने जैसा है। निश्चित रूप से जहाँ भी सम्भव हो वहाँ कारख़ाना-आधारित यूनियनें भी बनायी जानी चाहिए, लेकिन वे भी आगे तभी बढ़ सकती हैं जब रिहायशी आधार पर संगठित यूनियन मौजूद हो। इसके अतिरिक्त, उत्पादन से उपभोग के क्षेत्र में जाने की बात बेतुकी है। साथी नगेन्द्र यह भूल गये कि पूँजीवादी समाज में मज़दूर की श्रमशक्ति भी एक माल होती है और उसके उत्पादन और पुनरुत्पादन की जगह कारख़ाना नहीं बल्कि रिहायश होती है। अभिनव ने कहा कि साथी नगेन्द्र की अवस्थिति में पारम्परिक ट्रेडयूनियनवाद और अर्थवाद की गन्ध आ रही है। उन्होंने नगेन्द्र के इस तर्क की आलोचना की कि आवास, चिकित्सा, पानी, बिजली, सड़क, सफाई जैसे नागरिक मुद्दों पर संघर्ष एन.जी.ओ. का काम है। अभिनव ने कहा कि यह एक त्रासद स्थिति है कि इन मुद्दों को एन.जी.ओ. ले उड़े हैं। वास्तव में तो यह ज़बर्दस्त राजनीतिक सम्भावना-सम्पन्नता वाले मुद्दे हैं जिन्हें क्रान्तिकारी कम्युनिस्ट संगठनों को उठाना चाहिए। अभिनव ने कहा कि साथी नगेन्द्र की सोच केवल कारख़ाना-केन्द्रित आर्थिक मुद्दों पर संघर्ष की है और यह मज़दूर वर्ग के आन्दोलन को उसी गोल चक्कर में घुमाता रहेगा, जिसे हम अर्थवाद- ट्रेडयूनियनवाद-सुधारवाद और अराजकतावादी संघाधिपत्यवाद के नाम से जानते हैं।

दूसरे सत्र की शुरुआत छत्तीसगढ़ मुक्ति मोर्चा के साथी गणेशराम चौधरी के अवस्थिति पत्र ‘मज़दूर आन्दोलन की नयी दिशा : सम्भावनाएँ, समस्याएँ और चुनौतियाँ’ की प्रस्तुति के साथ हुई। पेपर की शुरुआत मज़दूर आन्दोलन में मौजूद विजातीय प्रवृत्तियों पर चर्चा के साथ हुई। सबसे पहले साथी गणेशराम ने संशोधनवाद, ट्रेडयूनियनवाद, अर्थवाद, सुधारवाद,अराजकतावाद और ग़ैर-पार्टीवाद की आलोचना पेश की। ”वामपन्थी” दुस्साहसवादियों की आलोचना करते हुए बताया गया कि वे भी अर्थवाद के ज्यादा जुझारू संस्करण को पेश करते हैं। मज़दूर वर्ग में राजनीतिक कार्य की कोई सुसंगत समझ आज आन्दोलन में मौजूद नहीं है। जो दुस्साहसवादी नहीं भी हैं और जनदिशा की बात करते हैं, वे नवजनवादी क्रान्ति की कार्यदिशा को मानने के कारण मज़दूर वर्ग के काम की आवश्यकता को ही सही ढंग से नहीं समझते। छत्तीसगढ़ मुक्ति मोर्चा ने शंकर गुहा नियोगी के नेतृत्व में एक ओर संशोधनवाद के ख़िलाफ संघर्ष किया तो वहीं उसने दुस्साहसवाद की भी कटु आलोचना की। साथी नियोगी मानते थे कि आज मज़दूर वर्ग को एक क्रान्तिकारी जनदिशा की समझ से लैस मार्क्‍सवादी-लेनिनवादी बोल्शेविक पार्टी की आवश्यकता है। इसके अतिरिक्त, छत्तीसगढ़ मुक्ति मोर्चा के प्रयोग ने रिहायशी आधार पर बनी यूनियन, मज़दूरों को राजनीति रूप से प्रशिक्षित कर संस्थाओं का निर्माण करना और जनाधार का निर्माण करने के महत्तव को समझाया। नियोगी जी की विरासत से हमें आज की ”वामपन्थी” दुस्साहसवादी वैचारिक और राजनीतिक दरिद्रता को समझने में सहायता मिलती है। आगे साथी गणेशराम चौधरी ने इस दुस्साहसवादी धारा की विस्तृत आलोचना रखी,जिसकी नुमाइन्दगी भाकपा (माओवादी) कर रही है। उन्होंने बताया कि इस दुस्साहसवाद ने छत्तीसगढ़ के मज़दूर आन्दोलन में भी सेंध लगायी है और इस धारा के विरुद्ध हालिया संघर्ष में जनदिशा को लागू करने वाली ताकतों ने विजय हासिल की है। साथ ही साथी गणेशराम ने बताया कि छत्तीसगढ़ मुक्ति मोर्चा में संशोधनवाद के भटकाव का भी एक इतिहास मौजूद रहा था। इस भटकाव के सार-संकलन की जिस समय ज़रूरत थी, उसी समय शंकर गुहा नियोगी की हत्या हो गयी। उसके बाद, उनके अनुसरणकर्ताओं ने इन प्रवृत्तियों के ख़िलाफ संघर्ष किया। आज मज़दूर वर्ग को राजनीतिक रूप से शिक्षित-प्रशिक्षित करने, क्रान्तिकारी जनसंस्थाएँ खड़ी करने, पेशागत और इलाकाई ट्रेडयूनियनों का निर्माण करने और एक अखिल भारतीय क्रान्तिकारी पार्टी का निर्माण करना मज़दूर आन्दोलन के एजेण्डे पर उपस्थित सबसे महत्तवपूर्ण सवाल हैं।

2010-07-27-Gorakhpur-2nd-AMS-10इसके बाद पंजाबी पत्रिका ‘प्रतिबद्ध’ के सम्पादक साथी सुखविन्दर ने अपना अवस्थिति पत्र पेश किया। इस पेपर का शीर्षक था ‘भारत का मज़दूर आन्दोलन और कम्युनिस्ट आन्दोलन : अतीत के सबक, वर्तमान समय की सम्भावनाएँ और चुनौतियाँ’। सुखविन्दर ने पेपर की मुख्य प्रस्थापना पेश करते हुए कहा कि भारत के कम्युनिस्ट आन्दोलन में मज़दूर आन्दोलन को संगठित करने और मज़दूर वर्ग के बीच राजनीतिक कामों को लेकर एक सही लेनिनवादी समझदारी का अभाव शुरू से ही रहा था। राजनीतिक संघर्ष और आर्थिक संघर्ष के बीच के अन्तर और उनके अन्तर्सम्बन्ध को भारत का कम्युनिस्ट नेतृत्व कभी सही ढंग से समझ नहीं पाया। 1920 से 1951 के दौर में मज़दूरों के बीच कम्युनिस्टों के काम को ट्रेडयूनियनवाद और अर्थवाद का शिकार माना जा सकता है। 1951 के बाद भारत की कम्युनिस्ट पार्टी संशोधनवाद के गङ्ढे में जा गिरी। 1967 में संशोधनवाद की प्रतिक्रिया के रूप में जो लाइन पैदा हुई वह ”वामपन्थी” दुस्साहसवाद के दूसरे छोर पर जा पहुँची और उसे जनकार्य अपने आपमें संशोधनवाद लगने लगा। नतीजा यह हुआ कि एक लम्बे समय तक तो इस धारा के ग्रुपों ने ट्रेडयूनियनों को भी संगठित नहीं किया। जब नक्सलबाड़ी उभार का दमन हुआ और मार्क्‍सवादी-लेनिनवादी कम्युनिस्ट अलग-अलग धड़ों में बँट गये तो जनकार्यों की टुकड़ों-टुकड़ों में शुरुआत हुई। लेकिन जनदिशा की कोई समझदारी अभी भी नहीं थी। ट्रेडयूनियन कार्य के नाम पर लेनिनवादी तरीके से मज़दूर वर्ग को आर्थिक माँगों पर लड़ना सिखाने और राजनीतिक रूप से उन्हें प्रशिक्षित करने का काम नहीं हो रहा था, बल्कि जुझारू किस्म का ट्रेडयूनियनवाद हो रहा था। इस प्रकार जहाँ तक मज़दूर आन्दोलन की बात थी, तो वह अर्थवाद, ट्रेडयूनियनवाद, सुधारवाद और अराजकतावाद के भँवर से कभी निकल नहीं पाया।

सुखविन्दर ने आगे भारत के कम्युनिस्ट आन्दोलन और नेतृत्व द्वारा की गयी गम्भीर चूकों की ओर ध्‍यानाकर्षित करते हुए तेलंगाना संघर्ष में कम्युनिस्ट नेतृत्व द्वारा की गयी ग़लती, ‘भारत छोड़ो आन्दोलन’ के दौरान लिये गये ग़लत निर्णय,नौसेना विद्रोह के समय चूके गये मौके, आदि का ज़िक्र करते हुए बताया कि भारत का कम्युनिस्ट नेतृत्व बौद्धिक और वैचारिक-राजनीतिक तौर पर बेहद कमज़ोर था और प्रमुख निर्णयों के लिए अन्तरराष्ट्रीय कम्युनिस्ट नेतृत्व पर भी उसकी काफी निर्भरता रहती थी। यही कारण था कि एक लम्बे समय तक भारत की कम्युनिस्ट पार्टी बिना किसी कार्यक्रम के काम करती रही; यही कारण था कि अपने देश के उत्पादन सम्बन्धों के गम्भीर अध्‍ययन का काम पार्टी ने कभी अपने हाथ में लिया ही नहीं; यही कारण था कि संशोधनवाद के विरुद्ध कोई संघर्ष चला पाने में नेतृत्व असफल रहा। 1951 में तेलंगाना की पराजय के बाद पार्टी संशोधनवाद का शिकार हो गयी। 1967 में नक्सलबाड़ी उभार अपनी ज़बर्दस्त सम्भावनाओं के बावजूद वामपन्थी” दुस्साहसवाद के गड्ढे में चला गया। भारतीय क्रान्ति के कार्यक्रम को लेकर कम्युनिस्ट आन्दोलन में पहले भी सही समझदारी का अभाव था और नक्सलबाड़ी उभार के दौर में भी क्रान्तिकारी कम्युनिस्ट नेतृत्व के पास कोई विश्लेषण मौजूद नहीं था और 1963 में माओ द्वारा पेश तीसरी दुनिया के देशों में नवजनवादी क्रान्ति की लाइन को ही पत्थर की लकीर मानकर, विचारधारा का मुद्दा मानकर अपने देश की ठोस परिस्थितियों के ठोस विश्लेषण का विकल्प बना लिया गया। नतीजतन, आज मार्क्‍सवादी-लेनिनवादी शिविर मूलत: और मुख्यत: विघटित हो चुका है। ऐसे में आज के संजीदा और सोचने-समझने वाले कम्युनिस्ट क्रान्तिकारियों के सामने जो प्रमुख कार्यभार है, वह है पार्टी-निर्माण का। मा.ले. शिविर के नेतृत्व का बड़ा हिस्सा अवसरवादी हो चुका है और उनके बीच आपसी एकता वार्ताओं से कोई अखिल भारतीय पार्टी नहीं बनायी जा सकती। आज नये कम्युनिस्ट तत्व का निर्माण करते हुए अखिल भारतीय पार्टी निर्माण की ओर आगे बढ़ना होगा।

सुखविन्दर के पेपर के समापन के साथ दूसरा दिन समाप्त हुआ। दूसरे दिन के तीनों सत्रों में अध्‍यक्षता की ज़िम्मेदारी राहुल फाउण्डेशन के जी.पी. भट्ट और छत्तीसगढ़ मुक्ति मोर्चा के शेख़ अंसार ने उठायी। तीसरे पेपर के बाद हस्तक्षेप करने वालों में नगेन्द्र, नवीन, सत्या, डॉ. अमरनाथ द्विवेदी, अभिनव, व शेख़ अंसार प्रमुख थे।

2010-07-27-Gorakhpur-2nd-AMS-12आख़िरी दिन की शुरुआत में बिगुल मज़दूर दस्ता के तपीश मैण्डोला ने अपने पेपर ‘विश्व पूँजीवाद की संरचना एवं कार्यप्रणाली में बदलाव तथा भारत का मज़दूर आन्दोलन’ पेश किया। तपीश ने कहा कि हम आज भी साम्राज्यवाद के दौर में जी रहे हैं, हम आज भी सर्वहारा क्रान्तियों के दौर में जी रहे हैं। लेकिन आज का साम्राज्यवाद लेनिन के समय के साम्राज्यवाद से कहीं ज्यादा परजीवी, खोखला और मरणासन्न है। अपनी तमाम सैन्य शक्ति के बावजूद यह अन्दर से ही ढह रहा है। आज यह अपनी शक्ति के बल पर नहीं बल्कि क्रान्तिकारी क्षमता वाले प्रतिरोध की अनुपस्थिति में टिका हुआ है। आज के कुल पूँजी निवेश में 90 प्रतिशत से भी ज्यादा पूँजी सट्टेबाज़ी, शेयर बाज़ार, विज्ञापन आदि जैसे अनुत्पादक स्थानों पर लगी हुई है। राष्ट्रपारीय निगम कई देशों में शासनकारी स्थिति में दिख रहे हैं और राष्ट्र-राज्यों की भूमिका सतही तौर पर देखने पर ख़त्म होती-सी दिखती है। लेकिन वास्तव में राष्ट्र-राज्य की भूमिका का रूपान्तरण हुआ है, उसका समापन नहीं। आज भी किसी राष्ट्रपारीय निगम के हितों की रक्षा का सवाल आता है तो उसके पितृदेश का पूँजीपति वर्ग और पूँजीवादी राज्यसत्ता ही उपस्थित होती है। आज के साम्राज्यवाद के दौर में किसी विश्वयुद्ध की सम्भावना कम रह गयी है। आज महाद्वीपीय और क्षेत्रीय युद्ध तो होंगे लेकिन कोई विश्वयुद्ध जैसी स्थिति पैदा हो इसकी उम्मीद कम ही है। एकध्रुवीय विश्व के सभी सिध्दान्त जो काउत्स्की के ‘सुप्रा-इम्पीरियलिज्म’ की थीसिस की ओर ले जाते हैं, आज ध्‍वस्त हो चुके हैं और एक बहुध्रुवीय विश्व में चल रही साम्राज्यवादी प्रतिस्पर्द्धा सबके सामने है। आज का साम्राज्यवाद पहले से अधिक मरणासन्न हो चुका है। लेकिन क्रान्तिकारी आन्दोलन विश्वभर में एक गाँठ का शिकार है – नवजनवादी क्रान्ति की गाँठ। जब तक सभी क्रान्तिकारी सम्भावना वाले देशों के कम्युनिस्ट क्रान्तिकारी नवजनवादी क्रान्ति की गाँठ को काटते नहीं तब तक मज़दूर आन्दोलन और कम्युनिस्ट आन्दोलन एक गम्भीर संकट का शिकार रहेगा और अपने लाख संकट के बावजूद साम्राज्यवाद युद्धों को पैदा कर-करके अपने अस्तित्व को खींचता जायेगा।

आख़िरी दिन के पहले सत्र की अध्‍यक्षता जी.पी. मिश्र और मीनाक्षी ने की। दूसरे सत्र में अध्‍यक्षता की ज़िम्मेदारी बादाम मज़दूर यूनियन के आशीष और बिगुल मज़दूर दस्ता के राजविन्दर ने उठायी। इस सत्र में बहस जारी रही। आख़िरी दिन हस्तक्षेप करने वालों में शिवानी, प्रेमप्रकाश, सत्‍यनारायण, आशीष, लखविन्दर, डा. अमरनाथ द्विवेदी, प्रशान्त, नगेन्द्र,आनन्द, जयपुष्प, रवीन्द्र नाथ राय, शिरीष मेंढी, रामाशीष गुप्ता, सुखविन्दर और अभिनव प्रमुख थे। आख़िरी दिन काफी देर तक बहस चलती रही और अन्त में इस बहस को आगे जारी रखने के साथ संगोष्ठी का औपचारिक समापन हुआ। आख़िरी दिन, ‘सॉल्ट ऑफ दि अर्थ’ नामक फिल्म का प्रदर्शन देर रात में किया गया।

मज़दूर बिगुल, नवम्बर 2010


 

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