Tag Archives: अरविन्द स्मृति संगोष्ठी

पाँचवीं अरविन्द स्मृति संगोष्ठी की रिपोर्ट

पाँचवीं अरविन्द स्मृति संगोष्ठी पिछले 10-14 मार्च तक इलाहाबाद में सम्पन्न हुई। इस बार संगोष्ठी का विषय था: ‘समाजवादी संक्रमण की समस्याएँ’। संगोष्ठी में इस विषय के अलग-अलग पहलुओं को समेटते हुए कुल दस आलेख प्रस्तुत किये गये और देश के विभिन्न हिस्सों से आये सामाजिक-राजनीतिक कार्यकर्ताओं और बुद्धिजीवियों के बीच उन पर पाँचों दिन सुबह से रात तक गम्भीर बहसें और सवाल-जवाब का सिलसिला चलता रहा। संगोष्ठी में भागीदारी के लिए नेपाल से आठ राजनीतिक कार्यकर्ताओं, संस्कृतिकर्मियों व पत्रकारों के दल ने अपने देश के अनुभवों के साथ चर्चा को और जीवन्त बनाया।

पाँचवी अरविन्द स्मृति संगोष्ठी – विषयः समाजवादी संक्रमण की समस्याएँ

आलेख एवं बहस के केन्द्रीय बिन्दुः

  • समाजवादी संक्रमण की समस्याओं पर चिन्तन की ऐतिहासिक विकास प्रक्रिया – मार्क्स-एंगेल्स से माओ त्से-तुङ तक।
  • महान बहस और महान सर्वहारा सांस्कृतिक क्रान्ति का महत्व।
  • बीसवीं सदी के महान समाजवादी प्रयोगों की सफ़लताओं और असफलताओं का नये सिरे से आलोचनात्मक मूल्यांकन।
  • सोवियत संघ और चीन में समाजवादी संक्रमण के प्रयोग और उनकी समस्याएँ।
  • पूँजीवादी पुर्नस्थापनाः विविध अवस्थितियों का आलोचनात्मक मूल्यांकन।
  • स्तालिन और उनके दौर के पुनर्मूल्यांकन का प्रश्न।

जनवादी अधिकारों के लिए आन्दोलन और मज़दूर वर्ग

जनवादी अधिकारों की यह लड़ाई मज़दूर वर्ग के लिए आज बेहद ज़रूरी इसलिए भी हो गई है कि लम्बे संघर्षों से जो अधिकार उसने हासिल किये थे, वे भी आज, मज़दूर आन्दोलन के उलटाव-बिखराव के दौर में उससे छिन चुके हैं। नवउदारवाद की नीतियों के दौर में मज़दूरों का 93 प्रतिशत हिस्सा ठेका, दिहाड़ी, कैजुअल और पीसरेट मज़दूरों का है। परम्परागत यूनियनें इन मज़दूरों के हितों को लेकर लड़ने का काम छोड़ चुकी हैं और बिखरे होने के चलते इन अनौपचारिक मज़दूरों की ख़ुद की सौदेबाज़ी की ताक़त बहुत कम हो गयी है। इस मज़दूर आबादी को नये सिरे से, नयी परिस्थितियों में संगठित होने और लड़ने के तौर-तरीक़े ईजाद करने हैं और आगे बढ़ना है।

‘जाति प्रश्न और मार्क्सवाद’ पर चतुर्थ अरविन्द स्मृति संगोष्ठी (12-16 मार्च, 2013), चण्डीगढ़ की रिपोर्ट

जाति व्यवस्था के ऐतिहासिक मूल से लेकर उसकी गतिकी तक के बारे में अम्बेडकर की समझदारी बेहद उथली थी। नतीजतन, जाति उन्मूलन को कोई वैज्ञानिक रास्ता वह कभी नहीं सुझा सके। इसका एक कारण यह भी था कि अम्बेडकर की पूरी विचारधारा अमेरिकी व्यवहारवाद के साथ अभिन्न रूप से जुड़ी हुई थी। लिहाज़ा, उनका आर्थिक कार्यक्रम अधिक से अधिक पब्लिक सेक्टर पूँजीवाद तक जाता था, सामाजिक कार्यक्रम अधिक से अधिक धर्मान्तरण तक और राजनीतिक कार्यक्रम कभी भी संविधानवाद के दायरे से बाहर नहीं गया। कुल मिलाकर, यह एक सुधारवादी कार्यक्रम था और पूँजीवादी व्यवस्था के दायरे के भीतर ही कुछ सहूलियतें और सुधार माँगने से आगे कभी नहीं जाता था।

तृतीय अरविन्द स्मृति संगोष्ठी की रिपोर्ट

पिछली 22 से 24 जुलाई तक लखनऊ में भारत में जनवादी अधिकार आन्दोलन: दिशा, समस्याएँ और चुनौतियाँ विषय पर तीसरी अरविन्द स्मृति संगोष्ठी का आयोजन किया गया। उत्तर प्रदेश संगीत नाटक अकादमी के हॉल में अरविन्द स्मृति न्यास द्वारा आयोजित संगोष्ठी में तीन दिनों तक हुई गहन चर्चा के दौरान देशभर से आये प्रमुख जनवादी अधिकार संगठनों के प्रतिनिधियों, कार्यकर्ताओं, न्यायविदों, सामाजिक कार्यकर्ताओं और बुद्धिजीवियों के बीच इस बात पर आम सहमति बनी कि सत्ता के बढ़ते दमन-उत्पीड़न और जनता के मूलभूत अधिकारों के हनन की बढ़ती घटनाओं के विरुद्ध एक व्यापक तथा एकजुट जनवादी अधिकार आन्दोलन खड़ा करना आज समय की माँग है। आज देश में उदारीकरण-निजीकरण की नीतियों के तहत हो रहे विकास का रथ आम जनता के मूलभूत अधिकारों को रौंदता हुआ बढ़ रहा है। आतंक के विरुद्ध युद्ध के नाम पर देश के कई क्षेत्रों में जनता के विरुद्ध सरकार का आतंकवादी युद्ध जारी है। सामाजिक-राजनीतिक जीवन में जनवाद का स्पेस कम होता जा रहा है। दूसरी ओर, जनवादी अधिकार संगठनों की संख्या बढ़ने के बावजूद इन हमलों का प्रभावी प्रतिरोध नहीं हो पा रहा है। ऐसे में, एक व्यापक आधार वाले तथा एकजुट जनवादी अधिकार आन्दोलन के लिए मिलकर प्रयास करने की ज़रूरत है।

तीन-दिवसीय द्वितीय अरविन्द स्मृति संगोष्ठी गोरखपुर में सम्पन्न

साथी अरविन्द की स्मृति में पिछले वर्ष प्रथम अरविन्द स्मृति संगोष्ठी का आयोजन दिल्ली में हुआ था, जिसमें देश-विदेश से क्रान्तिकारी संगठनों के प्रतिनिधियों, कार्यकर्ताओं, बुद्धिजीवियों और शोधकर्ताओं ने शिरकत की थी। इस वर्ष द्वितीय अरविन्द स्मृति संगोष्ठी को एक दिन की बजाय तीन दिन का रखा गया और इसे गोरखपुर में आयोजित किया गया। पिछली बार के विषय को ही विस्तार देते हुए इस बार ’21वीं सदी में भारत का मज़दूर आन्दोलन : निरन्तरता और परिवर्तन, दिशा और सम्भावनाएँ, समस्याएँ और चुनौतियाँ’ विषय पर विस्तृत चर्चा हुई।

‘विश्व पूँजीवाद की संरचना एवं कार्यप्रणाली तथा उत्पादन-प्रक्रिया में बदलाव मज़दूर-प्रतिरोध के नये रूपों को जन्म देगा’

हम अभी भी साम्राज्यवाद के ही युग में जी रहे हैं, लेकिन द्वितीय विश्वयुद्ध के बाद वित्‍तीय पूँजी का प्रभुत्व अभूतपूर्व ढंग से बढ़ा है तथा पूँजी का परजीवी, अनुत्पादक, परभक्षी और ह्रासोन्मुख चरित्र सर्वथा नये रूप में सामने आया है। आज पूरी दुनिया की पूँजी का लगभग 90 प्रतिशत भाग वित्‍तीय और सट्टा पूँजी का है, जो शेयर बाजार में, सूदखोरी में तथा विज्ञापन, मनोरंजन उद्योग आदि जैसे अनुत्पादक क्षेत्रों में लगा हुआ है। ऐसी स्थिति लेनिन के समय में नहीं थी। कहने की आवश्यकता नहीं कि साम्राज्यवाद के युग के लिए लेनिन ने सर्वहारा क्रान्ति की रणनीति एवं आम रणकौशल का जो फ्रेमवर्क दिया, वह बुनियादी तौर पर आज भी प्रासंगिक है, पर विगत लगभग आधी सदी के दौरान आये बदलावों को देखने और उक्त फ्रेमवर्क की तफ़सीलों में सम्भावित कई बुनियादी बदलावों पर विचार करने की चुनौती से हम मुँह नहीं मोड़ सकते। मार्क्‍सवाद सिद्धान्तों के खाँचे में सच्चाइयों को फिट करने की कोशिश के बजाय, हमें तथ्यों से सत्य का निगमन करने की शिक्षा देता है।