अयोध्‍या फैसला : मज़दूर वर्ग का नज़रिया (पहली किश्त)

अभिनव

Ayodhya28 सितम्बर को अयोध्‍या विवाद को लेकर इलाहाबाद उच्च न्यायालय की तीन सदस्यों वाली लखनऊ बेंच ने अपना फैसला सुना दिया। इस फैसले के मुताबिक इस बेंच के न्यायाधीशों ने 2-1 के बहुमत से यह तय किया कि अयोध्‍या की 2.77एकड़ की विवादित भूमि को तीन हिस्सों में बाँटकर तीनों पक्षों को दे दिया जायेगा। यानी, एक-तिहाई भूमि हिन्दू पक्ष को,एक-तिहाई भूमि निर्मोही अखाड़ा को और एक-तिहाई भूमि सुन्नी वक्फ़ बोर्ड को मिलेगी। व्यावहारिक तौर पर, दो-तिहाई भूमि हिन्दू पक्ष को और एक-तिहाई मुसलमान पक्ष को मिली है। लेकिन जिस स्थान पर बाबरी मस्जिद की प्रमुख गुम्बद थी, उसे हिन्दुओं को सौंपने का निर्णय किया गया है। उसे न्यायालय ने 2-1 के बहुमत से राम का जन्मस्थान माना है! राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ अपने तमाम आनुषंगिक संगठनों के साथ इस बात का प्रचार कर रहा है कि भारतीय पुरातत्व सर्वेक्षण विभाग की रिपोर्ट के आधार पर अदालत ने उस जगह को राम का जन्मस्थान माना है। लेकिन वास्तव में पुरातत्व विभाग की रपट ऐसा कुछ भी नहीं कहती है। उल्टे न्यायाधीशों ने अपने फैसले में स्पष्ट रूप से माना है कि वे उसे राम का जन्मस्थान इसलिए मान रहे हैं क्योंकि कई दशकों से हिन्दू उसे राम का जन्मस्थान मानते हैं। यानी निर्णय का आधार ऐतिहासिक और पुरातात्विक तथ्य नहीं, बल्कि धार्मिक बहुसंख्या की आस्था को बनाया गया है। इस लेख में हम अयोध्‍या के फैसले और उसके बाद के घटनाक्रम पर मज़दूर वर्ग के दृष्टिकोण को साफ करेंगे। इस मुद्दे पर एक साफ सर्वहारा नज़रिया रखना मज़दूर वर्ग की वर्ग एकता के लिए बेहद ज़रूरी है।

क्यों नहीं भड़का इस बार कोई दंगा?

Cartoons against communalism_Satyam_3इस फैसले के आने से पहले देश भर में सुरक्षा व्यवस्था को सरकार ने मज़बूत करने की कवायदें शुरू कर दी थीं। सभी जानते थे कि इस बार अयोध्‍या से जुड़े इस अहम मसले पर कोई दंगा भड़का पाना या देश में कोई उथल-पुथल पैदा कर पाना सम्भव नहीं है। अयोध्‍या के मसले पर जो अधिकतम धार्मिक ध्रुवीकरण किया जा सकता था वह 1990 से 1992 के दौर में भाजपा करके देख चुकी है। 1992 से लेकर 2010 के बीच सरयू में काफी पानी बह चुका है। अयोध्‍या को लेकर अब वैसी लहर पैदा कर पाना सम्भव नहीं था। इस बात को संघ गिरोह और भाजपा अच्छी तरह समझ रहे थे। इसीलिए फैसला आने के बाद राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के सरसंघचालक मोहन भागवत ने एक काफी सहिष्णु और उदार दिखने वाला बयान दिया और कहा कि यह किसी की हार या जीत नहीं है। लेकिन उसके साथ अपनी साम्प्रदायिक फासीवादी विचारधारा को घुसेड़ने से भागवत बाज़ नहीं आये। उन्होंने कहा कि राम हमारा राष्ट्रीय प्रतीक हैं और अब मुसलमानों को भी वैमनस्य भाव भुलाकर एक भव्य राम मन्दिर के निर्माण में सहयोग करना चाहिए। लेकिन इन सबके बावजूद यह सच है कि अब मन्दिर मुद्दे को लेकर कोई बड़ा खेल खड़ा कर पाना सम्भव नहीं रह गया है। जनता संघ गिरोह के मन्दिर प्रेम को पिछले दो दशकों में अच्छी तरह से पहचान चुकी है। इसलिए ऐसे किसी भी मुद्दे पर वह ध्रुवीकृत होने नहीं जा रही है। संघ गिरोह के अतिरिक्त, सभी पार्टियाँ इस मुद्दे पर राजनीतिकरण के असम्भाव्यता को अच्छी तरह भाँप चुकी थीं। इसीलिए लगभग सभी चुनावी पूँजीवादी पार्टियों की ओर से कमोबेश एक जैसे बयान आये जो देश की जनता से शान्ति बनाये रखने की अपीलें कर रहे थे। देशभर में सभी धर्मों के गुरू सद्भावना यात्राएँ आदि निकाल रहे थे और ऐसा लग रहा था कि देश धार्मिक सद्भाव और भाईचारे में डूब गया है। इसका कारण सिर्फ़ इतना था कि सारे पूँजीवादी मदारी समझ रहे थे कि इस बार इस मुद्दे का राजनीतिक इस्तेमाल सम्भव नहीं है।

दूसरा कारण – जनता के मूड के अतिरिक्त, यह देश के शासक वर्गों के हित में भी नहीं है। केन्द्र में कांग्रेस नीत संप्रग सरकार किसी भी हालत में मन्दिर मुद्दे को लेकर देश में कोई ध्रुवीकरण नहीं चाहती। इसका कारण कांग्रेस का सेक्युलरवाद नहीं है। वह कितनी सेक्युलर है, यह तो अयोध्‍या में मन्दिर विवाद का इतिहास ही दिखला देता है! इसका कारण यह है कि अभी चुनावी गणित में कांग्रेस की गोटियाँ अच्छी तरह से सेट हैं। यह सन्तुलन मन्दिर मुद्दे पर शान्ति भंग होने से बिगड़ सकता है, और भाजपा की डूब रही नैया अचानक उबरकर हावी भी हो सकती है। इसलिए कांग्रेस भी हर तरह से इस मुद्दे को गरमाने से बचाने में लगी थी। उत्तर प्रदेश में मायावती की सरकार भी अच्छी तरह इस बात को समझ रही थी कि एक बार जाति की राजनीति पर धर्म की राजनीति हावी होने का ख़ामियाज़ा प्रदेश में जातिगत राजनीति पर निर्भर सभी दलों को उठाना पड़ा था (जिसे टकसाली पत्रकार ‘मण्डल पर मन्दिर के हावी होने’ का नाम देते हैं)। अगर ऐसा फिर होता तो मायावती को मुख्य रूप से इसका राजनीतिक नुकसान उठाना पड़ता। इसलिए उत्तर प्रदेश में भी मन्दिर मुद्दे को लेकर शान्ति भंग होने से रोकने के लिए मायावती ने अभूतपूर्व इन्तज़ाम किये थे। तीसरी और आख़िरी बात यह कि देश के शासक वर्गों को ऐसे किसी धार्मिक ध्रुवीकरण की फिलहाल कोई ज़रूरत भी नहीं थी। आप याद कर सकते हैं कि जब-जब मन्दिर विवाद को दंगे-फसाद में तब्दील कर जनता को बाँटा गया है, तब-तब देश किसी न किसी राजनीतिक या आर्थिक संकट का शिकार था। 1949 में जब कुछ साम्प्रदायिक फासीवादी तत्वों ने बाबरी मस्जिद के गुम्बद के नीचे राम की मूर्तियाँ रख दी थीं, उस समय आज़ादी के बाद देश की पूँजीवादी सत्ता अभी स्थिरीकरण की प्रक्रिया में थी और देश के कई हिस्सों में किसान संघर्ष चल रहे थे। देश दरिद्रता की स्थिति में था। 1986 में जब मस्जिद का ताला खुलवाया गया और बाद में शिलान्यास हुआ तब भी देश भयंकर आर्थिक संकट से गुज़र रहा था; बेरोज़गारी भयंकर रूप अख्तियार कर चुकी थी, मुद्रास्फीति का हाल बुरा था और विदेशी कर्ज़ से देश की अर्थव्यवस्था चरमरा रही थी।

1990 के दशक की शुरुआत में जब मण्डल और मन्दिर दोनों का मुद्दा उछाला गया तो देश की अर्थव्यवस्था डाँवाडोल थी;देश का सोना गिरवी रखा जा चुका था; महँगाई आसमान छू रही थी; बेरोज़गारी, भ्रष्टाचार और ग़रीबी से देश की जनता में भयंकर ग़ुस्सा था। ये सारे मौके ऐसे थे, जिसमें शासक वर्गों को इस बात की दरकार थी कि जनता का ध्‍यान उन वास्तविक मुद्दों से हट जाये जिनका उसकी ज़िन्दगी पर असर पड़ता है। इसके लिए धार्मिक उन्माद और जातिगत वैमनस्य के कार्ड का अलग- अलग समय पर इस्तेमाल किया गया। इस बार अयोध्‍या पर न्यायालय का फैसला आने से पहले ऐसी कोई संकट की स्थिति नहीं है। हालाँकि, अभी वैश्विक आर्थिक संकट के झटके आने जारी हैं, लेकिन वैश्विक वित्तीय बाज़ार से कम समेकित होने के कारण भारतीय अर्थव्यवस्था की वृद्धि पर उसका असर तात्कालिक तौर से विनाशकारी नहीं है।

पिछले दो कार्यकाल से संप्रग सरकार स्थिरता के साथ काबिज़ है और उसे फिलहाल कोई ख़तरा दिखलायी नहीं पड़ रहा है। दिक्कतें तो हैं लेकिन कोई संकट सामने मुँह बाये नहीं खड़ा है। ऐसे में शासक वर्गों को धार्मिक उन्माद के रास्ते जनता का ध्‍यान भटकाने और ध्रुवीकरण करने की कोई आवश्यकता नहीं है। उल्टे इससे नुकसान हो सकता है। इसी समय राष्ट्रमण्डल खेल चल रहे हैं, जिसके ज़रिये देश की नेताशाही-नौकरशाही और पूँजीपति वर्ग अरबों रुपये पीट चुके हैं और इसके बाद विदेशी निवेश के लिए दिल्ली को पेश करने की पूरी तैयारी है। ऐसे में कोई भी दंगा विदेशी निवेश को हतोत्साहित कर सकता है। मौजूदा वैश्विक संकट के आने को अधिकतम सम्भव टालने के लिए देशी पूँजीपति वर्ग को इस निवेश की निरन्तरता की आवश्यकता है। इसमें वह कोई भी बाधा नहीं चाहता है। इस तरह हम देख सकते हैं कि शासक वर्ग को मन्दिर मुद्दे पर ध्रुवीकरण की कोई ज़रूरत नहीं थी।

उपरोक्त तीन कारणों के चलते इस बार मन्दिर मुद्दे पर कोई दंगा-फसाद भड़कने का काम नहीं हुआ।

(अगले अंक में जारी)

 

मज़दूर बिगुल, नवबर 2010

 


 

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