एक ऐसे मज़दूर की कहानी जिसने अपने साहस के दम पर पहाड़ को भी झुकने को मजबूर कर दिया

 मनन

Dashrath_Manjhi_Aआज जो कहानी मैं आपको सुनाने जा रहा हूँ वो एक सच्ची घटना पर आधारित है। यह कहानी है दशरथ माँझी की, जिन्होंने अपनी मेहनत और साहस के दम पर यह साबित कर दिया कि अगर आदमी में हिम्मत है तो वह किसी भी तरह की कठिनाई पर विजय पा सकता है। दशरथ माँझी का जन्म बिहार में स्थित गया ज़िले के एक छोटे से गाँव गहलौर में एक भूमिहीन मज़दूर परिवार में हुआ था। दशरथ माँझी का बचपन भयंकर ग़रीबी और तंगहाली में बिता, जिस कारण बहुत छोटी उम्र से ही उन्हें अपना और अपने परिवार का पेट पालने के लिए स्कूल जाने के बजाय काम करने को मजबूर होना पड़ा। जिस ज़मींदार के खेत में दशरथ काम करते थे वह पहाड़ के दूसरी ओर स्थित था, कोई सड़क न होने के कारण उन्हें हर दिन वहाँ पहुँचने के लिए कई किलोमीटर लम्बा रास्ता तय करना पड़ता था। एक दिन दशरथ की पत्नी एक दुर्घटना में बुरी तरह से घायल हो गयी, परन्तु उनके गाँव से अस्पताल लगभग 70 किलोमीटर दूर था और सड़क न होने के कारण वहाँ पहुँचने का रास्ता बहुत ही दुर्गम और कठिनाइयों भरा था। दशरथ माँझी ने अपनी पत्नी की जान बचाने के लिए उन्हें अस्पताल पहुँचाने की पूरी कोशिश की, परन्तु बीच रास्ते में ही उनकी मृत्यु हो गयी। उस दिन से दशरथ ने अपने मन में ठान लिया कि वह अपने गाँव से शहर के बीच सड़क बनाकर ही दम लेंगे, जिससे बाक़ी लोगों के साथ वो हादसा न हो जो उनके साथ हुआ। इस प्रकार औजार के नाम पर सिर्फ़ एक हथौड़े और दिल में कुछ कर गुज़रने का अरमान लिये उन्होंने पहाड़ को तोड़ सड़क बनाने का काम शुरू कर दिया। परन्तु जिस तरह हमेशा होता आया है कि जब भी कोई इन्सान कुछ नया करने के लिए क़दम बढ़ाता है तो लोग उसका मज़ाक़ उड़ाते हैं। इसी तरह जब दशरथ ने भी सड़क बनाने का कार्य शुरू किया तो उनके गाँव के लोगों ने उन्हें पागल कहकर उनका मज़ाक़ उड़ाया। परन्तु दशरथ इन तमाम बातों की परवाह न करते हुए दिन-रात अपने काम में जुटे रहे।

आखि़रकार उनकी 22 वर्षों की मेहनत रंग लायी और 1982 में दशरथ माँझी पहाड़ को तोड़ 360 फुट लम्बा और 30 फुट चौड़ा रास्ता बनाने में कामयाब हुए। उनकी लगन और मेहनत के चलते आज उनके गाँव से शहर की दूरी 70 किलोमीटर से घटकर केवल 15 किलोमीटर रह गयी है। लेकिन दशरथ माँझी यहीं नहीं रुके, बल्कि अपने गाँव में अस्पताल, स्कूल, तथा स्वच्छ पानी जैसी बुनियादी सुविधाएँ उपलब्ध करवाने के लिए दिल्ली तक पदयात्रा भी कि, परन्तु अपने सपने को पूरा होते देख पाने से पहले ही कैंसर के कारण 2007 को उनकी मृत्यु हो गयी।

dashratसाथियो, यह कहानी हमें बताती है कि वह मज़दूर ही है जो अपने हाथों से बड़ी-बड़ी आलीशान इमारतें बनाते हैं, तथा अपना ख़ून-पसीना बहाकर धरती पर फ़सलें बोते हैं। परन्तु इतनी मेहनत करने के बावजूद आज भी हम गन्दी बस्तियों में रहने को मजबूर हैं, पूरी दुनिया के लोगों के लिए तमाम सुख-सुविधाएँ उत्पन्न करने के बावजूद आज भी हम और हमारा परिवार भूख और ग़रीबी के कारण नारकीय जीवन जीने को मजबूर हैं। ऐसा इसलिए है क्योंकि इस पूरी पूँजीवादी व्यवस्था में मेहनत तो हम करते हैं, लेकिन मुनाफ़ा मालिक लूटकर ले जाता है। आज अगर एक सुई से लेकर हवाई जहाज़ तक तमाम चीज़ें मज़दूर बना रहे हैं तो आगे चलकर पूरे देश की बागडोर भी अपने हाथ में ले सकते हैं। लेकिन इसके लिए सबसे पहले हमें अपने अधिकारों को जानते हुए संगठित होना पड़ेगा, केवल तभी हम लूट-खसोट पर टिकी इस पूँजीवादी व्यवस्था को बदलकर शोषण रहित समाज की स्थापना कर पायेंगे। यही हमारी दशरथ माँझी समेत मज़दूर वर्ग के अन्य शहीदों के लिए एक सच्ची श्रद्धांजलि होगी।

 

 

मज़दूर बिगुल, जून 2015


 

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