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अन्धकार को दूर भगाओ, मज़दूर मुक्ति की मशाल जगाओ

वे जानते हैं कि अगर हम अपने अधिकारों के लिए एकजुट होना शुरू हो जायें तो जिन आलीशान महलों में वे रह रहे हैं, उनकी दीवारें सिर्फ़ हमारे नारों और क़दमों के शोर से ही काँपना शुरू कर देंगी। इसीलिए वे लगातार हमसे कहते रहते है़ कि अपने अधिकारो को जानने और उनके लिए संघर्ष करने से कुछ हासिल नहीं होगा, मज़दूरों का काम तो बस इतना है कि वो मालिकों का मुनाफ़ा लगातार बढ़ाते रहने के लिए दिन-रात खटते रहे। लेकिन यह तो हमें तय करना है कि क्या हम यूँ ही लगातार मालिकों की गुलामी करते रहेंगे? या फिर खु़द की और अपनी आने वाली पीढ़ि‍यों की आज़ादी के लिए लड़ने की तैयारी में जुट जायेंगे?

एक ऐसे मज़दूर की कहानी जिसने अपने साहस के दम पर पहाड़ को भी झुकने को मजबूर कर दिया

आज जो कहानी मैं आपको सुनाने जा रहा हूँ वो एक सच्ची घटना पर आधारित है। यह कहानी है दशरथ माँझी की, जिन्होंने अपनी मेहनत और साहस के दम पर यह साबित कर दिया कि अगर आदमी में हिम्मत है तो वह किसी भी तरह की कठिनाई पर विजय पा सकता है। दशरथ माँझी का जन्म बिहार में स्थित गया ज़िले के एक छोटे से गाँव गहलौर में एक भूमिहीन मज़दूर परिवार में हुआ था। दशरथ माँझी का बचपन भयंकर ग़रीबी और तंगहाली में बिता, जिस कारण बहुत छोटी उम्र से ही उन्हें अपना और अपने परिवार का पेट पालने के लिए स्कूल जाने के बजाय काम करने को मजबूर होना पड़ा। जिस ज़मींदार के खेत में दशरथ काम करते थे वह पहाड़ के दूसरी ओर स्थित था, कोई सड़क न होने के कारण उन्हें हर दिन वहाँ पहुँचने के लिए कई किलोमीटर लम्बा रास्ता तय करना पड़ता था।

दूसरा उत्तराखंड बनने की राह पर हैं हिमाचल प्रदेश

जहाँ तक विकास का सवाल है तो इन परियोजनाओं से ‘विकास’ तो नहीं पर हाँ ‘विनाश’ जरूर हो रहा है, जिसके परिणामस्वरूप आज यहाँ का भौगोलिक तथा जलवायु संतुलन लगातार बिगड़ता जा रहा है, जिससे आने वाले समय में यहाँ के निवासियों को भयंकर परिणाम भुगतने पड़ सकते हैं। इसके अतिरिक्त, पूँजीवादी व्यवस्था में विकास के नाम पर लगातार जारी प्राकृतिक संसाधनों की अंधाधुंध लूट और उससे पैदा होने वाले भयंकर दुष्परिणामों की एक झलक हमें पिछले साल उत्तराखंड में देखने को मिली, जहाँ बाढ़, बादल फटने, तथा जमीन धंसने जैसी घटनाओं के कारण हज़ारों लोग असमय काल के ग्रास में समा गये।

हर साल इस आदमखोर पूँजीवादी व्यवस्था की भेंट चढ़ जाते हैं हज़ारों मासूम

वैसे तो हर साल इस बीमारी की रोकथाम के लिए अस्पतालों को बेहतर बनाने और जर्जर पड़ी स्वास्थ्य सुविधाओं को सुधारने के नाम पर करोड़ों रुपए की घोषणाएँ की जाती है, परन्तु जमीनी स्तर पर हालात में कोई फर्क नहीं पड़ता हैं। यह भी एक विडंबना है कि सरकार आतंकवाद को इस देश का सबसे बड़ा खतरा बताती है, जबकि असलियत में बम धमाकों से भी ज्यादा लोग डेंगू, मलेरिया, तथा जापानी इंसेफेलाइटिस जैसी बीमारियों के कारण मारे जाते हैं। अगर सरकार अपने कुल बजट में स्वास्थ्य पर होने वाले खर्च को थोड़ा सा भी बढ़ा दे तो भी जनता को निशुल्क स्वास्थ्य सुविधाएँ प्रदान की जा सकती हैं। परंतु वह ऐसा नही करेंगी, क्योंकि सरकार को ईलाज के अभाव में हर क्षण दम तोड़ रहे बच्चों से ज्यादा पूँजीपतियों के मुनाफे की ज्यादा चिंता हैं।

नारकीय जीवन जीने को मजबूर हैं निर्माण उद्योग में काम करने वाले मज़दूर

इस क्षेत्र में काम करने वाली मज़दूर आबादी ठेके पर बेहद कम मज़दूरी पर तथा बिना किसी सामाजिक सुरक्षा के अमानवीय जीवन जीने को मजबूर है। कार्यस्थल पर सुरक्षा के पुख्ता इन्तज़ाम न होने के कारण हर दिन मज़दूरों के साथ कोई न कोई दुर्घटना होती रहती है, जिनमें कई बार उन्हें अपनी जान तक से हाथ धोना पड़ता है। इसके अलावा हर समय धूल-भरे वातावरण में काम करने के कारण, आवश्यक सुरक्षा उपकरणों के अभाव, और आस-पास फैली गन्दगी के कारण मज़दूरों को कई जानलेवा बीमारियाँ अपना शिकार बना लेती हैं। लेकिन चूँकि मज़दूरों को अलग-अलग ठेकेदारों के माध्यम से काम पर रखा जाता है, और उनके पास रोज़गार सम्बन्धी कोई भी रिकॉर्ड नहीं होता है। इसलिए अगर कोई दुर्घटना हो जाती है तो मालिक और ठेकेदार पुलिस के साथ मिल मज़दूर के परिवार को डरा-धमकाकर या थोड़ी सी रक़म देकर पूरे मामले को वहीं ख़त्म कर देते हैं।

चीन की जूता फैक्ट्रियों में काम करने वाले हज़ारों मज़दूर हड़ताल पर

चीन में रह-रह कर हो रहे इन संघर्षों से एक बात बिल्कुल साफ है कि कम्युनिस्टों का मुखौटा लगाकर मज़दूरों के खुले शोषण और उत्पीड़न के दम पर पैदा हो चुके नवधनाड्य पूँजीवादी जमातों के हितो की रक्षा करने वाले मज़दूर वर्ग के इन गद्दारों का असली चेहरा मेहनतकश चीनी जनता के सामने बेनकाब हो रहा है। इस तरह के मज़दूर संघर्ष आने वाले दौर में सच्चे क्रान्तिकारी मार्क्सवादी-लेनिनवादी विचारों के लिए जमीन तैयार करने का भी काम कर रहे है।