गुड़गाँव के एक मज़दूर की चिट्ठी

सचिन, गुड़गाँव

सोफ़ा सेट कौन बनाये – मज़दूर

बँगला, कोठी, अटारी कौन बनाये – मज़दूर

ऊँची-ऊँची इमारतें कौन खड़ी करे – मज़दूर

बीएम डब्ल्यू, मर्सिडीस तथा सभी वाहन कौन बनाये – मज़दूर

ज़मीन खुदाई कर खदानों से खनिज कौन निकाले – मज़दूर

आमिरज़ादों के लिए ऐयाशी के टापू कौन बनाये – मज़दूर

और इनकी क़ब्र कौन खोदे – मज़दूर

आज गुडगाँव में जो चमक-दमक दिखती है इसके पीछे मज़दूरों का ख़ून-पसीना लगा हुआ है। जिन अपार्टमेण्टों, शोपिंग मॉलों, बड़ी-बड़ी इमारतों से लेकर ऑटोमोबाइल सेक्टर को देखकर कहा जा सकता है कि यहाँ रहने वालों की ज़िन्दगी हर प्रकार से सुख-सम्पन्न होगी। लेकिन इस क्षेत्र के औधोगिक पट्टी तथा उन लॉजों को देखा जाये जिनमें मज़दूर रहते हैं और उनमें भी एक-एक कमरे में 3-4 मज़दूर रहने पर मजबूर हैं तो इस सारी चमक-दमक की असलियत सामने आ जाती है। मज़दूरों की एक आबादी फ़ैक्टरियों में काम करती है और दूसरी फ़ौज सड़क पर बेरोज़गार घूमती है। इससे कोई भी आसानी से मज़दूरों की हालत का अन्दाज़ा लगा सकता है। गुडगाँव-धारूहेड़ा-मानेसर-बावल से भिवाड़ी तक का  औद्योगिक क्षेत्र देश की सबसे बड़ी ऑटोमोबाइल पट्टी है जहाँ 60% से ज़्यादा ऑटोमोबाइल उत्पाद का उत्पादन होता है।

अब थोडा-सा इस बात पर ध्यान देते हैं कि फ़ैक्टरी में काम की परिस्थितियाँ कितनी अमानवीय हैं। फ़ैक्टरी चाहे कोई भी हो, मारुति-सुजुकी, बजाज, होण्डा या उनकी वेण्डर कम्पनी हो या वेंडर की वेण्डर। हर जगह एक ही हाल है, काम पर जाने का समय तय होता है लेकिन आने का समय सुपरवाइज़र, मैनेजमेण्ट के हाथ में होता है। आये दिन किसी-न-किसी कम्पनी में मज़दूर दुर्घटना के शिकार होते रहते हैं। कहीं सुरक्षा का कोई इन्तज़ाम नहीं है। जो मज़दूर ऑटोमोबाइल सेक्टर में काम करते हैं, साँस लेते वक़्त उनके फेफड़ों में लोहे के बारीक़ कण और एक्सपोर्ट लाइन में काम करने वाले मज़दूरों के फेफड़ों में कपड़े के बारीक़ रेशे चले जाते हैं जिससे उन्हें बेहद गम्भीर बीमारियाँ हो जाती हैं। न ही मज़दूरों को कोई बोनस दिया जाता है। कम्पनी की ऊपरी चमक-दमक के पीछे की सच्चाई यह है कि मज़दूर आधुनिक गुलाम की ज़िन्दगी जीने को मजबूर है।

पूरे ऑटोमोबाइल सेक्टर में करीब 1000 इकाइयों में लगभग 10 लाख मज़दूर काम करते हैं, जिनमें 80% कैजुअल, ठेके पर काम करते हैं जो आमतौर पर 12-14 घण्टे काम करने के बाद 8-10 हज़ार रुपये प्रतिमाह पाते हैं। ये वेतन परमानेण्ट मज़दूरों से बहुत कम है। मज़दूरों को उनके काम का नगण्य हिस्सा वेतन के रूप में दिया जाता है। क्योंकि मौजूदा तकनीक के हिसाब से 8 घण्टे के कार्य दिवस में से एक मज़दूर औसतन सिर्फ़ 1 घण्टा 12 मिनट के काम का वेतन पाता है, बाक़ी 6 घण्टे 48 मिनट वो मालिक के मुनाफ़े के लिए काम करता है।

काम की परिस्थिति की जटिलता का अन्दाज़ा इसी से लगाया जा सकता है कि 46-52 सेकण्ड में 13 अलग-अलग प्रक्रियाएँ पूरी करनी होती हैं। एक कारखाने में 30 अलग मॉडल की कारों की सीट लगनी होती है, सीट लगाने के लिए एक मज़दूर को कम्पनी द्वारा 36 सेकण्ड का समय तय किया गया था किन्तु श्रमिकों के दबाब के कारण 50 सेकण्ड कर दिया गया। औसतन मज़दूर 8.30 घण्टे की शिफ़्ट में 530 कारों में सीट लगाता है, मतलब मज़दूरों को लगातार मशीन की तरह काम करना होता है। वही स्थाई मज़दूरों के बराबर काम करने वाले ठेका व कैजुअल पर छँटनी की तलवार लटकती रहती है।

इस शोषण के ख़िलाफ़ जब भी मज़दूर आवाज़ उठाता है तो उनको गुण्डों, बाउंसरों और पुलिस की मार झेलनी पड़ती है। मज़दूर ये समझने लगे हैं कि श्रम विभाग से लेकर अदालत तक, पुलिस से लेकर संसद तक उनके दुश्मन हैं और पूँजीपतियों की मैनेजिंग कमिटी की तरह काम करते हैं। फ़ैक्टरियों के बाहर भी ज़िन्दगी नरक के बदतर ही है। अधिकतर मज़दूर प्रवासी हैं, और औद्योगिक क्षेत्र के आस-पास के गाँव और कॉलोनियों में रहते हैं जहाँ मकान मालिक की दुकान से ही राशन ख़रीदना पड़ता है। मतलब एक जेल से निकलकर दूसरी जेल में जाते हैं जहाँ मनोरंजन का कोई साधन नहीं है, कोई पार्क नहीं, कोई स्वास्थ्य सुविधाएँ नहीं हैं।

आज केवल गुडगाँव में ही नहीं बल्कि पूरे देश में मज़दूर आन्दोलन को कुचलने और पूँजीपतियों के हितों की रखवाली करने के लिए सभी चुनावी पार्टियाँ आपस में प्रतिस्पर्धा कर रही हैं। कांग्रेस, भाजपा, सीपीआई, सीपीआईएम तथा तमाम चुनावी पार्टियाँ पूँजीपतियों की चाकरी करती हैं। मोदी सरकार ने तो पूँजीपतियों के अच्छे दिन व मज़दूरों के लिए बुरे दिन की शुरुआत कर दी है।

साथियो, इन सभी बातों से स्पष्ट है कि सरकार चाहे किसी की भी हो सभी की नीतियाँ एक हैं, सभी सरकारें मज़दूर विरोधी नीतियाँ बनाकर हमारा ही शोषण करती हैं। हम सभी की समस्याएँ एक हैं, इसलिए हमें व्यापक एकता बनानी होगी। पूरे इलाक़े और सेक्टरगत क्रान्तिकारी यूनियनें बनानी होंगी और इंक़लाब का परचम लहराना होगा।

मज़दूर बिगुल, जनवरी 2016


 

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