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उद्योगों की तालाबन्दी, मज़दूरों की छँटनी जारी है

पिछले एक साल में आठ औद्योगिक इकाइयाें की आंशिक व पूर्ण बन्दी के चलते 2300 से अधिक मज़दूरों की रोज़ी-रोटी छिन गयी। जिसमें धारूहेड़ा की ओमैक्स के लगभग 250 मज़दूर, रीको ऑटो इण्डस्ट्री के 104 मज़दूर, बिनौला की ऑटोमैक्स के 150 मज़दूर, मानेसर की ओमैक्स के 500 मज़दूर, (इण्ड्युरेंस टेक्नोलॉजिस के 400 मज़दूर, डानूका ऐग्रीटेक, गुड़गाँव की नेपिनो ऑटोस एण्ड इलेक्टाॅनिस के 146 मज़दूर, एसएलआरके मज़दूरों की आंशिक व पूर्ण बन्दी के नाम पर छँटनी व तथाकथित रिटायरमेण्ट कर दी गयी है।

ऑटोमोबाइल सेक्टर के मज़दूरों के बीच माँगपत्रक आन्दोलन की शुरुआत

देश के विकास का बखान करते वक़्त सबसे पहले ऑटोमोबाइल पट्टी की बात आती है और हो भी क्यों न? देश के सकल घरेलू उत्पाद का क़रीब 7.1 फ़ीसदी हिस्सा ऑटोमोबाइल सेक्टर से ही आता है। ऑटोमोबाइल सेक्टर के उत्पादन का आधा से अधिक हिस्सा गुडगाँव-मानेसर-धारुहेड़ा–बावल से लेकर भिवाड़ी-ख़ुशखेड़ा-नीमराना में फैली औद्योगिक पट्टी से आता है। यह पट्टी देशी-विदेशी पूँजी के लिए अकूत मुनाफ़़ा लूटने का चारागाह है। किन्तु, यहाँ पर काम कर रहे मज़दूरों का जीवन नर्क से बदतर है। यहाँ हज़ारों कारख़ाना इकाइयों में काम कर रहे लाखों मज़दूर प्रतिदिन 10-12 घण्टा कमरतोड़ मेहनत करने के बावजूद बमुश्किल किसी तरह 8-10 हज़ार रुपये  प्रतिमाह कमा पाते हैं। काम के हालात इस तरह हैं कि मज़दूरों को एक मिनट के अन्दर 13 प्रक्रियाओं से गुज़रना होता है।

गुड़गाँव में मज़दूरों के एक रिहायशी लॉज की चिट्ठी, मज़दूर बिगुल के नाम!

मैं एक लॉज हूँ। आप भी सोच रहे होंगे की कोई लॉज कब से बात करने लगा, और आपके अख़बार में चिट्ठी भेजने लगा। अरे भाई मैंने भी पढ़ा है आपका यह अख़बार ‘मज़दूर  बिगुल’, मेरे कई कमरों में पढ़ा जाता है यह, तो भला में क्यों नहीं पढूँगा? इसीलिए मैंने सोचा कि क्यूँ न मैं भी अपनी कहानी लिख भेजूं।

गुड़गाँव के एक मज़दूर की चिट्ठी

आज गुडगाँव में जो चमक-दमक दिखती है इसके पीछे मज़दूरों का ख़ून-पसीना लगा हुआ है। जिन अपार्टमेण्टों, शोपिंग मॉलों, बड़ी-बड़ी इमारतों से लेकर ऑटोमोबाइल सेक्टर को देखकर कहा जा सकता है कि यहाँ रहने वालों की ज़िन्दगी हर प्रकार से सुख-सम्पन्न होगी। लेकिन इस क्षेत्र के औधोगिक पट्टी तथा उन लॉजों को देखा जाये जिनमें मज़दूर रहते हैं और उनमें भी एक-एक कमरे में 3-4 मज़दूर रहने पर मजबूर हैं तो इस सारी चमक-दमक की असलियत सामने आ जाती है। मज़दूरों की एक आबादी फ़ैक्टरियों में काम करती है और दूसरी फ़ौज सड़क पर बेरोज़गार घूमती है। इससे कोई भी आसानी से मज़दूरों की हालत का अन्दाज़ा लगा सकता है। गुडगाँव-धारूहेड़ा-मानेसर-बावल से भिवाड़ी तक का  औद्योगिक क्षेत्र देश की सबसे बड़ी ऑटोमोबाइल पट्टी है जहाँ 60% से ज़्यादा ऑटोमोबाइल उत्पाद का उत्पादन होता है।

महान अक्टू्‍बर क्रान्ति की जयन्ती पर बिगुल मज़दूर दस्ता द्वारा वज़ीरपुर और गुड़गाँव में कार्यक्रम

1917 की अक्टूबर क्रान्ति के बाद किस तरह मज़दूरों ने अपने आप को सोवियतों में संगठित कर एक ऐसे समाज का निर्माण किया जहाँ भुखमरी, कुपोषण, बेरोज़गारी, वेश्यावृत्ति जड़ से ख़त्म कर दी गयी, और सबको बराबरी का दर्जा दिया गया। यह सब केवल मज़दूरों-किसानों-मेहनतकशों के राज में ही सम्भव हो पाया। लोगों ने पूरे नाटक को बहुत रुचि से देखा। बिगुल मज़दूर दस्ता की शिवानी ने कहा कि मज़दूरों को आज फिर अपने हालात को बदलने के लिए अक्टूबर क्रान्ति के नए संस्करण रचने होंगे और मज़दूर संघर्षों के अपने गौरवशाली इतिहास से सबक लेते हुए अपनी लड़ाई की रणनीति तय करनी होगी। मज़दूरों के लिए एक कला प्रदर्शनी भी लगायी गयी जिसमे सोवियत पोस्टरों से लेकर समाजवादी यथार्थवाद से प्रभावित चित्र शामिल थे। वज़ीरपुर के कार्यक्रम में चार्ली चैप्लिन की प्रसिद्ध फ़ि‍ल्म ‘मॉडर्न टाइम्‍स’ भी दिखायी गयी।

मारुति के ठेका मजदूरों द्वारा वेतन बढ़ोत्तरी की माँग पर प्रबन्धन से मिली लाठियाँ!

स्थायी मज़दूरों को कभी नहीं भूलना चाहिए कि कंपनियाँ हमेशा स्थायी मज़दूरों की संख्या कम करने की, अस्थायीकरण की ताक़ में रहती हैं, और अपने फायदे के हिसाब से उनका इस्तेमाल करती है। उन्हें जुलाई 2012 में मारुति की घटना को नहीं भूलना चाहिए जिसके बाद कंपनी ने थोक भाव से स्थायी मज़दूरों को काम से निकाला था। उनका वर्ग हित अपने वर्ग भाइयों के साथ कन्धे से कन्धा मिलाकर लड़ने में है। पूरे सेक्टर में लगातार बढ़ते ठेकाकरण, छँटनी, नये स्थायी मज़दूरों की बहाली न होना, ठेका मज़दूरों से ज़्यादा उनके लिए खतरे की घंटी है। यह दिखाता है कि स्थायी मज़दूरों का दायरा सिकुड़ता जा रहा है। पूँजीपतियों के इन “अच्छे दिनों” में जहाँ एक-एक कर मज़दूरों के अधिकारों पर हमले हो रहे हैं वहाँ यह कोई बड़ी बात नही होगी कि एक ही झटके में स्थायी मज़दूरों का पत्ता काटकर कारखानों-उद्योगों में शत प्रतिशत ठेकाकरण कर दिया जाये। इसीलिए मारुति ही नहीं बल्कि पूरे सेक्टर के स्थायी मज़दूरों के लिए ज़रूरी है कि वे अपने संकीर्ण हितों से ऊपर उठकर ठेकेदारी प्रथा के ख़िलाफ़ अपनी आवाज़ बुलन्द करें और एक वर्ग के तौर पर एकजुट होकर संघर्ष करें।

मानेसर की ब्रिजस्टोन कम्पनी के मज़दूरों का संघर्ष ज़ि‍न्दाबाद !

प्रबंधन ने चुन चुन कर बीसियों श्रमिकों को काम से बहार का रास्ता दिखाया। इन सब के विरोध में मज़दूरों ने कोर्ट से परमिशन लेकर 17 सितम्बर को टूल डाउन किया। उस दिन उन्हें पुलिस और गुंडों के दम पर कंपनी से बाहर कर दिया गया। मज़दूरों के एक दिन के टूल डाउन के जवाब में अगले दिन कंपनी ने गैर-कानूनी तालाबंदी कर दी। अगले दिन जब श्रमिक सुबह की शिफ्ट में काम पर आये, तब गेट पर पुलिस और बाउंसरों के साथ खड़े मैनेजमेंट ने उन्हें अंदर जाने से रोका। श्रमिकों से कहा गया की उन्हे आधे घंटे बाद बताया जायेगा की उन्हें काम पर लिया जायेगा या नहीं। जब दुबारा श्रमिक गेट पर पहुंचे तब बाउंसरों ने 4 श्रमिकों को अंदर खिंच लिया। उन्हें धमकी दी गयी की या तो वे काम करें या कोरे कागज़ पर दस्तख़त कर निकल जाए। इसके बाद तक़रीबन 400 श्रमिकों ने वहीं कंपनी गेट से थोड़ी दूरी पर टेंट लगाकर हड़ताल शुरू कर दी। श्रमिकों ने मांग की कि बाहर निकाले गए 20 मज़दूरों समेत सभी को काम पर वापिस लिया जाये और यूनियन बनाने दिया जाये। इसके बाद प्रबंधन पुलिस वालों को भेज कर मज़दूरों पर दबाव बनाने का काम कर रही थी।

धागों में उलझी ज़िन्दगियाँ

कई मज़दूर मासिक वेतन के अलावा पीस रेट सिस्टम पर भी काम करते हैं। इस सिस्टम में मज़दूर को पीस के अनुसार तनख्वाह मिलती है न कि समय के अनुसार। एक पूरी कमीज़ के पीस रेट में हुई बढ़त से पता चलता है कि यह बढ़त कितनी कम है। पिछले 14 सालों में पीस रेट ज़्यादा नहीं बढ़े हैं। सन 2000 में, 14 या 15 रुपये प्रति शर्ट से आज ये केवल 20 से 25 रुपये ही हुए हैं और कुछ जगहों पर 30 से 35 रुपये। आज पर-पीस का मतलब पूरी कमीज़ या कपड़ा नहीं, कमीज़ का एक हिस्सा माना जाता है – जैसे कॉलर, बाजू, इत्यादि। तनख्वाह भी कितने कॉलर या बाजू सिले, उसके अनुसार मिलती है। पीस रेट सिस्टम मज़दूरों को बहुत लम्बे समय तक काम करने के लिए मजबूर करता है, ताकि वे ज़्यादा से ज़्यादा पीस बनाकर दिन में ज़्यादा कमा सकें। पीस रेट मज़दूरों में कुछ महिलाएं भी हैं जो घर से ही कई किस्म के महीन काम करती हैं, जैसे बटन या सितारे लगाना।

ओरियंट क्राफ्ट की घटना गुड़गाँव के मज़दूरों में इकट्ठा हो रहे ज़बर्दस्त आक्रोश की एक और बानगी है

पिछले कुछ समय से गुडगाँव में अलग-अलग कारख़ानों में भड़के मज़दूरों के गुस्से को देखकर आसानी से अन्दाज़ा लगाया जा सकता है कि इस पूरे औद्योगिक क्षेत्र में काम करने वाली मज़दूर आबादी ज़बरदस्त शोषण का शिकार है। सिर्फ़ ठेका मज़दूर ही शोषण का शिकार नहीं हैं, बल्कि कई कारख़ानों में स्थायी नौकरी वाले मज़दूरों की स्थिति भी बहुत अच्छी नहीं है। मारुति, पावरट्रेन, हीरो होण्डा, मुंजाल शोवा आदि इसके उदाहरण है। मगर नेतृत्व और किसी क्रान्तिकारी विकल्प के अभाव में शोषण और उत्पीड़न से बेहाल इस मज़दूर आबादी का आक्रोश अराजक ढंग से इस प्रकार की घटनाओं के रूप में सड़कों पर फूट पड़ता है। इसके बाद पुलिस और मैनेजमेण्ट का दमन चक्र चलता है जिसका मुकाबला बिखरे हुए मज़दूर नहीं कर पाते और गुस्से का उबाल फिर शान्त हो जाता है।

काम के ज़्यादा दबाव की वजह से दिमागी संतुलन खोता म़जदूर

पिछले साल की गर्मी में काम का इतना अधिक बोझ था कि सोने का कोई ठिकाना नहीं था, न ही खाने-पीने का कोई ढंग का बंदोबस्त और कंपनी के अंदर एक दम घोंटू माहौल था। जिसके चलते मेरी तबियत बहुत बिगड़ गयी थी। इसी दबाव के चलते मेरा दिमागी संतुलन भी बिगड़ गया। मैंने ई.एस.आई. अस्पताल में दवाई करवाई। मगर ई.एस.आई. में सही इलाज नहीं हुआ जिसके चलते मुझे कोई आराम नहीं पहुँचा।