बड़े नोटों पर पाबन्दी – अमीरों के जुर्मों की सज़ा ग़रीबों को
मुकेश त्यागी
अचानक 8 नवम्बर की रात को भारत सरकार ने 500 और 1000 रुपये के चालू नोट प्रचलन से हटा लिये और उनकी जगह 500 और 2000 के नये नोट चालू करने का ऐलान किया। कुछ दिन बाद 1000 का नोट भी दोबारा बाज़ार में आ जायेगा। सरकार के इस फ़ैसले के कई मकसद बताये गये हैं – काले धन पर हमला, भ्रष्टाचार को रोकना, नकली नोट और आतंकवादियों द्वारा उसके इस्तेमाल को रोकना।
ऐसा पहली बार नहीं हुआ है। जनवरी 1946 में भी एक और दस हज़ार के नोट इसी तरह बन्द किये गये थे और 1954 में दोबारा चालू हुए। फिर 16 जनवरी 1978 को जनता पार्टी की सरकार ने भी इसी तरह अचानक एक शाम पाँच सौ, एक हज़ार, 5 हज़ार और 10 हज़ार के नोट बन्द कर दिये थे। इन नोटों को बन्द करने से देश में कितना काला धन, भ्रष्टाचार और अपराध ख़त्म हुए थे, किसी को पता नहीं! इसके बाद पहले 500 का नोट 1987 में दोबारा चालू हुआ और 1000 वाला तो 2001 में पिछली भाजपा सरकार ने चालू किया था। इस बार तो इतना इन्तज़ार भी नहीं करना पड़ा, दो दिन बाद ही उससे भी बड़े नोट वापस चालू कर दिये गये हैं। अगर इन नोटों की वजह से ही देश में काला धन, भ्रष्टाचार और अपराध-आतंकवाद होता है तो फिर इनको स्थायी रूप से ख़त्म करने के बजाय वापस चालू करने का क्या मतलब है? और दो हज़ार का और भी बड़ा नोट ले आने से क्या और ज़्यादा काला धन पैदा नहीं होगा?
फिर इस नोटबन्दी का क्या मतलब है? इसके लिए समझना होगा कि मुद्रा या करेंसी नोट मुख्य तौर पर धन-सम्पत्ति के मूल्य के लेन-देन का जरिया है और अस्थायी सीमित तौर पर सम्पत्ति के खरीद-फरोख्त के लिए ही उसे मुद्रा में बदला जाता है। पूँजीवादी व्यवस्था में धन-सम्पदा नोटों के रूप में नहीं बल्कि ज़मीन-मकान, जंगल, खदान, कारख़ाने, सोना-चाँदी, हीरे-मोती, जैसे दिखायी देने वाले रूपों से भी ज़्यादा देशी-विदेशी कम्पनियों के शेयरों-बॉन्ड्स, देशी-विदेशी बैंक खातों, पनामा-सिंगापुर जैसे टैक्स चोरी के अड्डों में स्थापित काग़ज़ी कम्पनियों और बैंक खातों, मॉरीशस की काग़ज़ी कम्पनियों के पी-नोट्स, वगैरह जटिल रूपों में भी रहती है। मौजूद व्यवस्था में जिनके पास असली सम्पत्ति है वह असल में इसे नोटों के रूप में भरकर नहीं रखते क्योंकि उससे यह सम्पत्ति बढ़ती नहीं बल्कि इसके रखने में कुछ खर्च ही होता है और चोरी जाने का ख़तरा भी होता है; इसके बजाय वह इसे उपरोक्त विभिन्न रूपों-कारोबारों में निवेश करते हैं जिससे उनकी सम्पत्ति लगातार बढ़ती रहे। बल्कि ऐसे लोग तो आजकल बैंक नोटों का रोज़मर्रा के कामकाज में भी ज़्यादा इस्तेमाल नहीं करते क्योंकि ये अपना ज़्यादा काम डेबिट-क्रेडिट कार्ड या ऑनलाइन लेन-देन के ज़रिये करते हैं।
तो अगर सरकारी तर्क को मान लिया जाये कि बड़े नोटों की वजह से काला धन होता है तो मानना पड़ेगा कि अमीर पूँजीपतियों के पास काला धन नहीं होता। इसके विपरीत मज़दूर, छोटे किसान, छोटे काम-धन्धे करने वालों को देखें तो इनका अधिकांश काम नकदी में चलता है। आज महँगाई की वजह से रुपये की कीमत इतनी कम हो चुकी है कि ये ग़रीब मेहनतकश लोग भी अक्सर पाँच सौ-एक हज़ार के नोट इस्तेमाल करते हैं। इनमें से अधिकांश के बैंक खाते नहीं हैं, हैं भी तो बैंकों में इन्हें विभिन्न वजहों से दुत्कार का भी सामना करना पड़ता है; इसलिए ये अपने मुसीबत के वक्त के लिए कुछ बचत हो भी तो उसे नकदी में और सुविधा के लिए इन बड़े नोटों में रखने को मजबूर होते हैं। वर्तमान फ़ैसले का असर यह हुआ है कि यही लोग काला धन रखने वाले अपराधी साबित हो गये हैं और नोटबन्दी की मुसीबतें मुख्यतया इन्हीं को झेलनी पड़ रहीं हैं।
अब समझते हैं कि काला धन असल में होता क्या है, क्यों और कैसे पैदा होता है और इसका क्या किया जाता है। काले धन का अर्थ है ग़ैरक़ानूनी कार्यों तथा टैक्स चोरी से हासिल किया गया धन। इसको कुछ उदाहरणों से समझते हैं। पिछले दिनों ही बिजली उत्पादन करने वाली बड़ी कम्पनियों द्वारा 60 हज़ार करोड़ रुपये काला धन का मामला सामने आया था। इन कम्पनियों, जिनमें जिंदल, अनिल अम्बानी और गौतम अडानी की कम्पनियाँ भी हैं, ने ऑस्ट्रेलिया से कोयला आयात किया लेकिन ऑस्ट्रेलिया की कम्पनी से सौदा इन कम्पनियों ने नहीं, बल्कि इनकी ही दुबई या सिंगापुर स्थित कम्पनियों ने किया, कहें कि 50 डॉलर प्रति टन पर और फिर अपनी इस कम्पनी से इन कम्पनियों ने यही कोयला मान लीजिये 100 डॉलर प्रति टन पर खरीद लिया। तो भारत से 100 डॉलर बाहर गया लेकिन ऑस्ट्रेलिया 50 डॉलर ही पहुँचा। बीच का 50 डॉलर दुबई/सिंगापुर में इनकी अपनी कम्पनी के पास ही रह गया – यह काला धन है! इससे इन कम्पनियों को क्या फ़ायदा हुआ? इनकी भारतीय कम्पनी ने ज़्यादा लागत और कम म़नाफ़ा दिखाकर टैक्स बचाया; लागत ज़्यादा दिखाकर बिजली के दाम बढ़वाये और उपभोक्ताओं को लूटा; कई बार घाटा दिखाकर बैंक का कर्ज मार लिया जो बाद में आधा या पूरा बट्टे खाते में डाल दिया गया। ऐसे ही अडानी पॉवर ने दक्षिण कोरिया से मशीनरी मँगाने में 5 करोड़ रुपया ज़्यादा का बिल दिखाकर इतना काला धन विदेश में रख लिया। आयात में की गयी इस गड़बड़ी को ओवर इन्वॉयसिंग या अधिक कीमत का फर्जी बिल बनवाना कह सकते हैं। निर्यात में इसका उल्टा या अंडर इन्वॉयसिंग किया जाता है अर्थात सामान ज़्यादा कीमत का भेजा गया और बिल कम कीमत का बनवा कर अन्तर विदेश में रख लिया गया। रिजर्व बैंक ने अभी कुछ दिन पहले ही बताया कि 40 साल में इस तरीके से 170 ख़राब रुपया काला धन विदेश में भेज दिया गया।
विदेश में रख लिया गया यह काला धन ही स्विस बैंकों या पनामा जैसे टैक्स चोरी की पनाहगाहों में जमा होता है और बाद में घूमफिर कर मॉरीशस आदि जगहों में स्थापित कागजी कम्पनियों के पी-नोट्स में लग जाता है और विदेशी निवेश के तौर पर बिना कोई टैक्स चुकाये भारत पहुँच जाता है। विदेशी निवेश को बढ़ावा देने के नाम पर भारत सरकार इस पर फिर से होने वाली कमाई पर भी टैक्स छूट तो देती ही है, यह हजारों करोड़ रुपया किसका है यह सवाल भी नहीं पूछती! जबकि आज 4 हज़ार रुपये के नोट बदलने के लिए भी साधारण लोगों से पैन, आधार, आदि पहचान के सबूत माँगे जा रहे हैं! और जिनके पास यह पहचान ना हों उन्हें अपनी थोड़ी सी आमदनी का यह बहुमूल्य हिस्सा कम कीमत पर दलालों को बेचने पर मजबूर होना पड़ रहा है – 500 के नोट को तीन-चार सौ रुपये में।
फिर देश के अंदर भी विभिन्न तरह से काला धन पैदा होता है। जैसे बेलारी/गोवा आदि में लौह खनन करने वाले रेड्डी बंधुओं जैसे माफिया कारोबारियों ने जितना लौह अयस्क निकाल कर बेचा उससे बहुत कम खातों में दिखाया और बाकी काले धन के रूप में रह गया। लेकिन कुछ अपवादस्वरूप कंजूस किस्म के व्यक्तियों को छोड़कर यह काला धन बैंक नोटों के रूप में नहीं रखा जाता बल्कि ज़मीन-मकान जैसी सम्पत्तियों, बहुमूल्य धातुओं, तथा किस्म-किस्म की कम्पनियाँ-ट्रस्ट-सोसायटी, आदि बनाकर और कारोबार में लगा दिया जाता है जिससे और भी कमाई होती रहे। टाटा-बिड़ला-अम्बानी जैसे तथाकथित ”सम्मानित” घरानों से लेकर छोटे उद्योगपतियों-व्यापारियों तक सभी टैक्सचोरी करते हैं और चोरी की उस रकम को बार-बार निवेश करते रहते हैं। इन्हें टैक्स वकीलों, चार्टर्ड एकाउंटेंटों और खुद सरकारी अमले की मदद भी मिलती है। ऊपर से ये बैंकों के भी खरबों रुपये दबाकर बैठे हैं। हाल की सरकारी रिपोर्ट के अनुसार सिर्फ़ 57 लोगों के पास बैंकों के 85,000 करोड़ रुपये बाक़ी हैं। मोदी सरकार ने पिछले फरवरी में एक झटके में धन्नासेठों के 1 लाख 14 हज़ार करोड़ के कर्जे़ माफ़ कर दिये। यह सारा काला धन आज भी शान से बाज़ारों में घूम रहा है और अपने मालिकों के लिए कमाई कर रहा है।
अगर आपराधिक गतिविधियों के बारे में भी बात करें हमें समझना होगा कि पूँजीवादी व्यवस्था में बड़े अपराध भी व्यावसायिक ढंग से ही चलते हैं ना कि फ़िल्मी-टीवी वाले तरीकों से, जिनमें अपराधी नोटों के सूटकेस लेकर आते-जाते दिखाई जाते हैं। असल में तो पूँजीवाद में ये अपराध भी कारोबार ही हैं, इनसे पूँजी इकठ्ठा होती है, जिससे अधिकांश गिरोह बाद में इज़्ज़तदार पूँजीपति और कॉरपोरेट बन जाते हैं। बहुत से पूँजीपति घरानों या कॉरपोरेट का इतिहास देखिये तो आप यही पायेंगे। आज की दुनिया में हथियारों, नशीली वस्तुओं, आदि जैसे बड़े ग़ैरक़ानूनी व्यापार बिटकॉयन जैसी डिजिटल मुद्राओं के ज़रिये चलते हैं जिनका लेन-देन ऑनलाइन किया जा सकता है। सिर्फ़ सबसे छोटे स्तर पर लेन-देन नोटों में होता है जो कुल धंधे का बहुत छोटा हिस्सा है जिसे हम सबकी तरह ही कुछ समय के लिए ठिकाने लगा लिया जायेगा। इसलिये इस नोटबन्दी से इन बडे अपराधियों को भी कोई ख़ास दिक्कत पेश नहीं आने वाली।
उपरोक्त से यह तो साफ ही है कि घरों में नोटों के ढेर ना लगाकर, बैंकों के ज़रिये ही यह काला या चोरी का धन विभिन्न कारोबार में लग जाता है। इसलिए नोटबन्दी से इन असली कालाधन वाले कारोबारियों को ना तो कुछ नुकसान होने वाला है ना ही इनका काले धन का चोरी का कारोबार रुकने वाला है। अगर इनके पास तात्कालिक ज़रूरत के लिए कुछ नोट इकठ्ठा हों भी तो भी वर्तमान व्यवस्था में राजनेताओं, अफसरों, पुलिस, वित्तीय व्यवस्था में इनका रुतबा और पहुँच इतनी गहरी है कि उन्हें खपाने में इन्हें कोई ख़ास दिक्कत नहीं आती। कुछ कमीशन-सुविधा शुल्क देकर उनके काले धन को ठिकाने लगाने में इन्हें कोई तकलीफ़ पेश आने वाली नहीं है।
एक और तरह भी हम समझ सकते हैं। भारत की 84% सम्पत्ति के मालिक मात्र 20% लोग हैं जबकि शेष 80% के पास सिर्फ़ 16% सम्पत्ति है। क्या कोई मान सकता है कि 20% अमीर लोगों के बजाय इन 80% ग़रीबों के पास काला धन है? लेकिन ये 80% लोग की मज़दूरी-आमदनी नकदी में है, इनका लेन-देन, कर्ज, बचत, आदि सब नकदी में है। इनके पास 500 या एक हज़ार के नोट भी हैं और अब इन्हें इनको बदलने में सिर्फ़ तकलीफ़ ही नहीं उठानी पड़ रही बल्कि इन्हें लूटा भी जा रहा है। नकदी की कमी से इनके छोटे काम-धंधों पर भी असर पड़ा है और मजदूरों को मज़दूरी मिलने में भी दिक्कत पेश आई है। रोज कमाकर पेट पालने वाले ये लोग असल में अमीर काले धन वालों के जुर्म की सज़ा पा रहे हैं।
अगर वर्तमान शासकों को काला धन वास्तव में ही जब्त करना या बन्द करना होता तो ऊपर दिये गये उदाहरणों वाले कारोबारियों की जाँच करते, उसमें पैदा काले धन का पता लगाते और उसे जब्त कर इनको सज़ा दिलवाते। लेकिन सब सामने होते हुए भी इन मामलों में कुछ ना कर पुराने नोटों को बन्द कर नये चलाने की नौटंकी से काले धन और भ्रष्टाचार से लड़ने की नौटंकी की जा रही है। असल में तो शासन में बैठे लोग इस पूँजीपति वर्ग के ही प्रतिनिधि हैं और उनके धन से ही चुनाव लड़कर सत्ता प्राप्त कर उनकी सेवा करते हैं तो उनसे इनके ख़िलाफ़ किसी क़दम की उम्मीद करना ही बेमानी है।
अब नकली नोटों के सवाल पर आते हैं। ‘द हिन्दू’ और ‘हिन्दुस्तान टाईम्स’ (11 नवंबर 2016) की रिपोर्ट के अनुसार NIA जैसी केन्द्रीय एजेंसियों और भारतीय सांख्यिकी संस्थान, कोलकाता (ISI) के अनुसार हर वर्ष 70 करोड़ रुपये के नकली नोट प्रचलन में आते हैं और किसी एक समय देश में कुल नकली करेंसी की मात्रा 400 करोड़ रुपये या 10 लाख नोटों में 250 नोट आँकी गयी है। अब इस को ख़त्म करने के लिये पूरी करेंसी को बदलने पर 15-20 हज़ार करोड़ रुपये खर्च करना अगर मूर्खता भी नहीं तो अविवेकी फ़ैसला तो कहा ही जायेगा, जैसे सडक पर चींटी मारने के लिये रोड रोलर चलाना! जहाँ तक पाकिस्तान द्वारा नये नकली नोट ना बना पाने का सवाल है तो दोनों देश एक ही कम्पनी की मशीन, काग़ज़, स्याही ही नहीं, नम्बरों का भी एक ही डिज़ाइन इस्तेमाल करते हैं। आगे आप स्वयं सोचें।
वर्तमान पूँजीवादी सामाजिक व्यवस्था का आधार ही मेहनतकशों के श्रम द्वारा उत्पादित मूल्य को हथियाकर अधिकतम म़नाफ़ा और निजी सम्पत्ति इकठ्ठा करना है, जिसमें एक ओर आधी से ज़्यादा सम्पत्ति के मालिक 1% लोग हैं और दूसरी और ग़रीब लोगों की बहुसंख्या। इतनी भयंकर असमानता और शोषण वाले समाज में ना भ्रष्टाचार ख़त्म हो सकता है ना अपराध। इनको ख़त्म करने के लिए तो पूँजीवाद को ही समाप्त करना होगा। हाँ, वास्तविक समस्याओं से जनता का ध्यान हटाने के लिए ऐसे नाटक दुनिया भर में बहुत देशों में पहले भी खूब हुए हैं और आगे भी होते रहेंगे। ख़ास तौर पर मोदी सरकार जो विकास, रोजगार, आदि के बड़े वादे कर सत्ता में आयी थी जो बाद में सिर्फ़ जुमले निकले, उसके लिए एक के बाद ऐसे कुछ मुद्दे और खबरें पैदा करते रहना ज़रूरी है जिससे उसके समर्थकों में उसका दिमागी सम्मोहन टूटने न पाये क्योंकि असलियत में तो इसके आने के बाद भी जनता के जीवन में किसी सुधार-राहत के बजाय और नयी-नयी मुसीबतें ही पैदा हुई हैं। इससे काला धन/भ्रष्टाचार/अपराध/आतंकवाद ख़त्म हो जायेगा – यह कहना शेखचिल्ली के किस्से सुनाने से ज़्यादा कुछ नहीं।
मज़दूर बिगुल, अक्टूबर-नवम्बर 2016
‘मज़दूर बिगुल’ की सदस्यता लें!
वार्षिक सदस्यता - 125 रुपये
पाँच वर्ष की सदस्यता - 625 रुपये
आजीवन सदस्यता - 3000 रुपये
आर्थिक सहयोग भी करें!
बुर्जुआ अख़बार पूँजी की विशाल राशियों के दम पर चलते हैं। मज़दूरों के अख़बार ख़ुद मज़दूरों द्वारा इकट्ठा किये गये पैसे से चलते हैं।
मज़दूरों के महान नेता लेनिन