वारसा घेट्टो के नौजवानों का फासिस्ट-विरोधी वीरतापूर्ण विद्रोह हमें प्रेरित करता रहेगा!

मुकेश असीम

नाज़ि‍यों के आधिपत्य वाले क्षेत्रों में उनके खिलाफ होने वाली जनता की पहली बग़ावतों में से एक 75 वर्ष पहले 19 अप्रैल 1943 को वारसा, पोलैंड के यहूदी बाड़े में शुरू हुआ विद्रोह था। यहाँ कुछ सौ  बहादुर नौजवान यहूदी योद्धाओं ने सिर्फ़ थोड़े-से छोटे हथियारों के बल पर 29 दिन तक नाजियों के पाँच हज़ार स्टॉर्मट्रूपर सैनिकों का अत्यन्त वीरता से सामना किया था। इन वीर नौजवानों ने, इनमें से एक के शब्दों में, तय किया था कि ‘शस्त्रों सहित मृत्यु शस्त्र रहित मृत्यु से सुंदर है’ और उनका दृढ़ निश्चय था कि वे मरने से पहले अधिक से अधिक फासिस्टों को मार गिरायेंगे। इसलिए यह विद्रोह तभी समाप्त हो पाया था जब नाजी फ़ौज ने पूरी बस्ती में विद्रोहियों के ठिकानों वाली इमारतों को ही जलाकर पूरी तरह राख कर दिया। इस शानदार विद्रोह के वीरोचित संघर्ष ने दुनिया भर के फासिस्ट विरोधी संग्राम में प्रेरणा की नई जान फूँकी थी, इसको आज सभी स्वीकार करते हैं। मगर जिस बात की चर्चा बहुत कम होती है, वह यह कि यह कोई स्वतःस्फूर्त बगावत नहीं थी। बल्कि इस विद्रोह की तैयारी और नेतृत्व नौजवान कम्युनिस्टों और अन्य वामपंथी समूहों के फासिस्ट विरोधी मोर्चे ने किया था।

पोलैंड पर कब्जे के कुछ सप्ताह में ही जर्मन नाजियों ने वारसा की 4 लाख यहूदी आबादी को शेष आबादी से अलग कर 10 फुट ऊँची दीवारों से घिरे एक छोटे से  बाड़े में जाने को विवश कर दिया था। इसके बाद इसमें अन्य स्थानों से लाये गये 5 लाख और यहूदियों को भी भर दिया गया था। हालत ऐसे समझी जा सकती है कि वारसा शहर की 30% आबादी उसके 2.6% स्थान में ठूँस दी गई थी। ढाई मील लम्बी इस बस्ती में इससे पहले सिर्फ डेढ़ लाख आबादी थी। कई-कई परिवार एक ही कमरे में रहने को मजबूर थे, भोजन की बेहद कमी थी, ग़रीबी, भुखमरी और बीमारी चरम पर थी। 1942 आते-आते हालत यह थी कि हर महीने 5 हज़ार लोग बीमारी व कुपोषण से जान गँवा रहे थे।

लेकिन इस विकट स्थिति में भी फासीवाद के चरित्र की सही समझ के अभाव में यहूदी नेतृत्व की आरम्भिक प्रतिक्रिया नाज़ियों के साथ सहयोग और ज़ुल्म को बर्दाश्त करते हुए वक्त गुज़ारने की थी। उनका मानना था कि समय गुज़रने के साथ यह मुसीबत भी गुज़र जायेगी। यहाँ तक कि बस्ती में गठित यहूदी परिषद नाज़ियों को यहूदी विरोधी नीतियों को लागू करने में सहयोग भी कर रही थी। इसका स्वाभाविक परिणाम भारी नाउम्मीदी और अवसाद का माहौल था। घोर हताशा की स्थिति में कम्युनिस्ट पार्टी और अन्य वामपंथी समूहों ने प्रतिरोध की सामूहिक चेतना विकसित करने और घोर विपत्ति के इस वक्त को सार्थक राजनीतिक आन्दोलन में बदलने हेतु बाड़े में सांगठनिक कार्यों की शुरुआत की। भूख व घोर हताशा के अन्धकार पूर्ण दिनों में नौजवान संगठनों की इकाइयों ने सामाजिक-मनोवैज्ञानिक सहारे का भी काम किया। इनके कार्यों में नाज़ी-विरोधी साहित्य वितरण के साथ अत्यंत सीमित उपलब्ध भोजन के सामूहिक सहभाग के मानवीय संवेदना-सहायता के कार्य भी शामिल थे, जो अवसाद के माहौल में जोश को बनाये रखने में मदद करते थे। एक नौजवान कम्युनिस्ट डोरा गोल्डकॉर्न ने लिखा था, ‘बाड़े के उस कठोर, त्रासदीपूर्ण जीवन में जिस दिन मेरा अपने संगठन से संपर्क स्थापित हुआ, वह दिन मेरे लिए सबसे प्रसन्नता पूर्ण दिनों में से एक था।’

1942 आने तक विभिन्न नौजवान संगठन एक ‘फासीवाद विरोधी ब्लॉक’ गठित कर चुके थे। इसके घोषणापत्र में नाज़ी कब्ज़े के खिलाफ़ सामान्य माँगों और सशस्त्र फासीवाद विरोध के आधार पर युद्ध पूर्व के पॉपुलर फ्रंट के विचार के अनुसार सभी प्रगतिशील शक्तियों के राष्ट्रीय मोर्चे की अपील थी।  फासीवाद विरोधी ब्लॉक ने अपने अख़बार ‘डेर रूफ़’ के दो अंक भी प्रकाशित किये थे, जिनमें नाज़ियों के खिलाफ़ जारी सोवियत प्रतिरोध की प्रशंसा करते हुए बाड़े वासियों से लाल सेना द्वारा आसन्न मुक्ति तक आशा बनाये रखने का आह्वान भी था। इस ब्लॉक के मुख्य नेता स्पेन में फासिस्टों के खिलाफ इंटरनेशनल ब्रिगेड में लड़ चुके कम्युनिस्ट पिंकस कार्टिन थे। लेकिन जून 1942 में पिंकस कार्टिन की हत्या और नौजवान कम्युनिस्टों के भारी दमन से यह ब्लॉक निष्क्रिय हो गया। इसके कुछ महीने बाद यहूदी लड़ाकू संगठन का निर्माण हुआ, जिसने विभिन्न प्रतिरोधी कार्रवाइयाँ शुरू कीं, जिसमें नाज़ियों के सहयोगी यहूदी पुलिसवालों पर हमले भी शामिल थे। इस वक्त तक बड़ी तादाद में बाड़े से यहूदियों को यातना केन्द्रों में ले जाने का काम भी शुरू हो चुका था। 18 जनवरी 1943 को ऑश्विट्ज़ के यातना केन्द्र में ले जाये जाते कैदियों में मिलकर संगठन के योद्धाओं ने नाज़ी सैनिकों पर हमला बोल दिया जिसमें कई नाज़ी सैनिक मारे गए और कुछ कैदी भागने में सफल हुए।

कुछ समय बाद जब यह स्पष्ट हो चुका था कि हिटलर का इरादा सभी यहूदियों का सफ़ाया करने का था तो बाड़े में अगली नाज़ी कार्रवाई के समय विद्रोह का फैसला किया गया। 19 अप्रैल को एसएस जनरल स्ट्रुप ने 5 हज़ार सैनिकों के साथ बाड़े में रह रहे यहूदियों के अन्तिम सफाये के लिए जब वहाँ प्रवेश किया तो इस हथियारबन्द प्रशिक्षित फ़ौज के खिलाफ़ 220 विद्रोहियों ने मात्र पिस्तौलों और मोलोतोव कॉकटेल के साथ छतों, तहखानों, आदि से आक्रमण शुरू कर दिया जिसमें काफी नाज़ी सैनिक मारे गये। बौखलाये नाज़ियों ने लड़ने के बजाय प्रतिरोध के केन्द्रों को व्यवस्थित रूप से एक-एक कर आग जलाकर राख करना शुरू किया। एक विद्रोही के शब्दों में – ‘हम फासिस्टों से नहीं, आग की लपटों से पराजित हुए।’ हालाँकि अप्रैल 1943 के अन्त तक सभी विद्रोही समूह एक साथ काम करने का संयोजन खो चुके थे फिर भी नेतृत्वकारी समूह द्वारा घिर जाने पर 8 मई को सामूहिक आत्महत्या कर लिये जाने तक व्यापक प्रतिरोध जारी रहा। 16 मई तक पूरा बाड़ा खण्डहर बनाया जा चुका था और मात्र 40 विद्रोही ही वहाँ से जीवित निकल पाने में कामयाब हुए जिनमें से कई ने बाद में 1944 में वारसा शहर की नाज़ी विरोधी आम बग़ावत में भी भाग लिया और अपना बलिदान दिया।

इस भयानक संघर्ष के बीच भी ये नौजवान विद्रोही अपने समाजवादी विचारों-आदर्शों पर अडिग रहे। भीषण लड़ाई के बीच भी 1 मई 1943 को मई दिवस का आयोजन एक उल्लेखनीय घटना थी। इस मई दिवस के आयोजन में भाग लेने वाले मारेक एडेलमान ने इसका वर्णन इन शब्दों में किया है –

‘हम जानते थे कि उस दिन पूरी दुनिया में मई दिवस मनाया जा रहा था और हर जगह सार्थक, सशक्त शब्द बोले जा रहे थे। लेकिन कभी भी ‘इंटरनेशनल’ इतनी भिन्न, इतनी त्रासद स्थितियों में नहीं गाया गया होगा जबकि एक पूरा राष्ट्र मृत्यु का शिकार हो रहा था। जले हुए खण्डहरों में गीत के बोल गुंजायमान हो रहे थे, ये बता रहे थे कि बाड़े में मौजूद समाजवादी नौजवान अब भी लड़ रहे थे, और मृत्यु का सामना करते हुए भी अपने आदर्शों को त्याग नहीं रहे थे।’ 

आज जब इजराइली ज़ियनवादी खुद गाज़ा में फिलिस्तीनी जनता के साथ नाज़ियों जैसा बरताव कर रहे हैं तब वारसा के यहूदी बाड़े के इन फासीवाद विरोधी योद्धाओं की विरासत बहुत अहम है क्योंकि इन्होने अपना संघर्ष एक सम्प्रदाय के रूप में नहीं बल्कि फासीवाद और पूँजीवाद के खिलाफ अन्तरराष्ट्रीयतावादी विश्वव्यापी संघर्ष के अंग के रूप में संचालित किया था| एक अति शक्तिशाली आततायी के खिलाफ़ इन थोड़े से विद्रोहियों के इस शानदार संघर्ष ने फासिस्टों से लड़ रहे स्पेन के रिपब्लिकनों, फ्रेंच कम्युनिस्टों, उनके पोलिश देशवासियों, यातना केन्द्रों में बन्द यहूदियों से लेकर दुनिया भर के फासिस्ट विरोधियों को प्रेरणा दी थी| उनकी कहानी होलोकॉस्ट की नृशंसता और नाउम्मीदी के बीच उस मानवीय वीरता का शानदार उदाहरण है जो बदतरीन स्थितियों में भी यह मानने को राज़ी नहीं कि आगे बढ़ने का रास्ता बन्द हो चुका है।

मज़दूर बिगुल, अप्रैल 2018


 

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