अर्थव्यवस्था का संकट गम्भीरतम रूप में
पूँजीपतियों का मुनाफ़ा बचाने के लिए संकट का सारा बोझ मेहनतकशों की टूटी कमर पर

मुकेश असीम

कुछ दिन पहले ख़ुद नीति आयोग के सचिव अमिताभ कान्त ने अजीब बयान दिया कि मोदी सरकार ने इतने आर्थिक सुधार किये कि अर्थव्यवस्था बीमार हो गयी! यही अमिताभ कान्त कुछ दिन पहले भारत को 5 ट्रिलियन डॉलर की अर्थव्यवस्था बनाने के लिए जनता से बलिदान देने की अपील कर रहे थे। उधर एक बड़े उद्योगपति राहुल बजाज ने अपनी कम्पनी की आम सभा में कहा कि न निवेश है, न माँग है, तो वृद्धि क्या आसमान से टपकेगी? बजाज के अनुसार, “सरकार कहे या न कहे, पर अन्तरराष्ट्रीय मुद्रा कोष तथा विश्व बैंक स्पष्ट संकेत दे रहे हैं कि पिछले 3-4 वर्ष से वृद्धि घट रही है। हर सरकार की तरह यह सरकार भी खिलखिलाता चेहरा दिखाना चाहती है, पर वास्तविकता तो वास्तविकता है।” हाल के दिनों में ऐसे ही बयान कई और उद्योगपतियों तथा आर्थिक विशेषज्ञों ने भी दिये हैं, यहाँ तक कि किरण मजूमदार शॉ व मोहनदास पाई तक ने तो यह भी कह दिया कि सरकारी अधिकारी उन्हें फ़ोन कर अर्थव्यवस्था के संकट पर सरकार की आलोचना न करने को कह रहे हैं। यहाँ इन बयानों का जि़क्र सिर्फ़ इसलिए कि सरकार द्वारा अपनी संस्थाओं व मीडिया तंत्र के बल पर किये जा रहे ‘दुनिया की सबसे तेज़ अर्थव्यवस्था’ वाले तमाम प्रचार के बावजूद अब इस बात को छिपाना क़तई नामुमकिन हो चुका है कि अर्थव्यवस्था भारी संकट में है जिससे निवेश, उत्पादन व वितरण सभी ठहराव का शिकार हो चुके हैं तथा इसके नतीजे में बढ़ती बेरोज़गारी व घटती आमदनी आम मेहनतकश जनता के जीवन में गहरी दुख-तकलीफ़ को जन्म दे रहे हैं।

ऑटोमोबाइल उद्योग जो कुल विनिर्माण उद्योग का 40% हिस्सा है, उसकी बिक्री में लगभग एक साल से निरन्तर गिरावट हो रही है। यह कमी इस उद्योग के सभी हिस्सों में व्याप्त है अर्थात कार, ट्रक, स्कूटर, मोटरसाइकल, मोपेड, ट्रैक्टर सबकी ही बिक्री में तेज़ गिरावट आयी है। जुलाई के महीने को ही देखें तो सबसे बड़ी कार कम्पनी मारुति की घरेलू बाज़ार में बिक्री पिछले साल के मुक़ाबले 36% गिरी है। अन्य कम्पनियों का भी कमोबेश यही हाल है। नतीजा यह हुआ है कि इन कम्पनियों ने उत्पादन घटाना शुरू कर दिया है। कहीं कारख़ानों को कई-कई दिन के लिए बन्द किया जा रहा है, कहीं काम के घण्टे या शिफ़्टें कम की जा रही हैं। साथ ही इन कम्पनियों को कलपुर्जे आपूर्ति करने वाली इकाइयों को भी उत्पादन कम या बन्द करना पड़ रहा है। इसके चलते इन सब कारख़ानों में श्रमिकों की छँटनी चालू हो गयी है। ख़ुद ऑटोमोबाइल उद्योग संघ के अनुसार 10 लाख श्रमिकों को रोज़गार से हाथ धोना पड़ सकता है। उधर इनकी बिक्री करने वाले डीलरों की स्थिति भी ख़राब है। इसी साल लगभग 300 डीलरों ने अपना कारोबार बन्द कर दिया है। जो अभी चालू भी हैं वहाँ भी 15-20% श्रमिकों की छँटनी की ख़बर है। इस तरह 30 हज़ार से अधिक मज़दूर बेरोज़गार हो चुके हैं और यह तादाद अभी और बढ़ने ही वाली है।

अन्य उद्योगों का भी ऐसा ही हाल है। मकानों की बिक्री पहले ही कई साल से मन्द पड़ी है और दसियों लाख की संख्या में तैयार फ़्लैट-घर बिना बिके पड़े हैं। उधर ब्लूमबर्ग के अनुसार सिर्फ़ 7 बड़े शहरों में ही 4.643 लाख करोड़ रुपये के आवास निर्माण प्रोज़ेक्ट किसी न किसी चरण में अटके हुए हैं। कार तथा गृह निर्माण उद्योग में संकट का स्वाभाविक असर इन्हें आपूर्ति करने वाले इस्पात और सीमेण्ट जैसे उद्योगों पर भी पड़ रहा है। पिछले दिनों आये समाचारों के मुताबिक़ 30 से अधिक इस्पात कारख़ानों ने उत्पादन रोक दिया है। उधर वैकल्पिक ऊर्जा की सबसे बड़ी ‘मेक इन इण्डिया’ कम्पनी सुज़्लोन अपना बॉण्ड का भुगतान समय पर नहीं कर पायी। कारोबारी गतिविधियों को सेवा देने वाली फ़र्स्ट फ़्लाइट और ओवरनाइट दो बड़ी कूरियर कम्पनियाँ डूबने के कगार पर हैं, श्रमिकों को महीनों से पगार नहीं मिली है। कारोबार सुस्त होगा, तब कूरियर जैसी सेवाओं में स्वतः ही संकट होगा! ये सब तो कुछ उदाहरण मात्र ही हैं, आर्थिक संकट का प्रभाव आमतौर पर अर्थव्यवस्था के विभिन्न क्षेत्रों में देखा जा सकता है। मगर इसकी वजह क्या है?

रिज़र्व बैंक ने परिवारों की बचत और उन पर क़र्ज़ के आँकड़े जारी किये हैं। ये दिखाते हैं कि उनकी बचत तो पिछले वैश्विक वित्तीय संकट के समय से ही गिरने लगी थी। 2008-09 में सकल घरेलू उत्पाद (जीडीपी) के 23.6% से घटकर 2017-18 में 17.2% रह गयी। क्योंकि आमदनी बढ़ने की रफ़्तार मन्द हो गयी थी, किन्तु ख़र्च महँगाई के साथ बढ़ते रहे, ख़ास तौर पर आवास, शिक्षा, स्वास्थ्य जैसी अति आवश्यक मदों में महँगाई की ऊँची दरों से ख़र्च बेहद तेज़ गति से बढ़ा है। दूसरी ओर परिवारों पर क़र्ज़ की मात्रा वैश्विक वित्तीय संकट के वक़्त से ही बढ़ रही थी। पर नोटबन्दी के बाद के एक साल में ही यह लगभग सीधे ऊपर छलाँग लगा गयी। 2008-09 में परिवारों पर कुल क़र्ज़ 1636 अरब रुपये था। 2016-17 तक ये बढ़कर लगभग 3700 अरब हो गया। मगर उसके बाद एक साल में ही अर्थात 2017-18 में ही यह क़र्ज़ बढ़ते हुए 6739 अरब पर पहुँच गया अर्थात 1 साल में ही यह ऋण लगभग 3000 अरब रुपये बढ़ गया। फि़लहाल कार, मकान से तेल-शैम्पू तक की बिक्री क्यों मन्द पड़ी हुई है उसे समझने के लिए और कुछ जानने की ज़रूरत नहीं। स्पष्ट है कि ‘अच्छे दिनों’ के भ्रमजाल में क़र्ज़ लेकर किया गया उपभोग अब आम तौर पर परिवारों की गले की फाँस बन गया है।

पिछले कई साल से सकल घरेलू उत्पाद (जीडीपी) में जो वृद्धि हो रही थी उसका आधार उत्पादक क्षमता में नया पूँजी निवेश नहीं था। बल्कि वह परिवारों तथा सरकार दोनों द्वारा क़र्ज़ लेकर किया गया उपभोग था। अब क़र्ज़ में डूब जाने से दोनों की स्थिति उपभोग के इस स्तर को बनाये रखने की नहीं रही तो यह वृद्धि दर पिछले वित्तीय वर्ष में ही नीचे जाने लगी थी। अभी तो सभी वित्तीय विश्लेषक इस वृद्धि दर के अपने पिछले अनुमानों को कम कर रहे हैं क्योंकि सरकारी और निजी दोनों उपभोग में कमी आ रही है। निजी उपभोग में कमी के कारणों को तो हम ऊपर देख ही चुके हैं, सरकार की स्थिति भी देखें तो पानी अब गर्दन से ऊपर जाने लगा है और सच्चाई छिपाना नामुमकिन हो गया है। 5 जुलाई को बजट में वित्तीय घाटा जीडीपी का 3.46% बताया गया था। पर इकनॉमिक टाइम्स के अनुसार 8 जुलाई को ही नियंत्रक महालेखाकार (सीएजी) ने वित्त आयोग को बताया कि सरकार की छिपाई हुई बजट बाहर की क़र्ज़दारी को भी जोड़ें तो असल में वित्तीय घाटा जीडीपी का 5.85% है। अब इसमें राज्यों का वित्तीय घाटा भी जोड़ा जाये तो कुछ विश्लेषकों के अनुसार यह 8% से ज़्यादा हो जाता है।

पर अगर प्रतिशत निकालने के लिए भाग देने वाली संख्या अर्थात जीडीपी ही बढ़ाकर दिखायी जा रही हो तो? अगर सरकार के पूर्व मुख्य आर्थिक सलाहकार अरविन्द सुब्रमण्यम के अनुसार लगभग 2.5% बढ़ायी गयी जीडीपी को कम कर प्रतिशत की गणना करें तो यह वित्तीय घाटा 10% से भी ऊपर जा पहुँचेगा! साफ़ है कि वित्तीय संकट गम्भीर स्तर पर पहुँच रहा है। इससे समझ में आता है कि रिज़र्व बैंक, सेबी जहाँ कहीं कुछ रिज़र्व कोष हो सरकार उसे हड़पने की हड़बड़ी में क्यों है या फिर प्रधानमंत्री की आर्थिक सलाहकार परिषद के सदस्यों, रिज़र्व बैंक के पूर्व गवर्नरों, आर्थिक विशेषज्ञों, आदि की चेतावनी के बावजूद सरकार सम्प्रभु बॉण्ड के ज़रिये विदेशों से क़र्ज़ लेने के लिए इतनी उतावली क्यों है। मीडिया में आयी ख़बरों के अनुसार 10 अरब डॉलर रक़म के बॉण्ड अक्तूबर में ही जारी करने की योजना है!

इकनॉमिक टाइम्स बता रहा है कि पिछले पाँच साल में बैंकों ने कॉर्पोरेट क्षेत्र में डूबते ऋणों से बचने के लिए बड़ी मात्रा में जो क़र्ज़ व्यक्तियों को बाँटे थे (गृह, कार, पर्सनल, क्रेडिट कार्ड, शिक्षा ऋण, आदि), अब छँटनी व कम वेतन वृद्धि से उनका भुगतान भी अटकने लगा है। एचडीएफ़सी बैंक, आरबीएल बैंक, यस बैंक, कोटक महिन्द्रा बैंक, आदि सबमें पिछली तिमाही में एनपीए बढ़ा है या बढ़ने की आशंका है। एक्सिस बैंक, आईसीआईसीआई बैंक की हालत तो पिछले साल ही बाहर आ चुकी है। असल में सार्वजनिक क्षेत्र के बैंकों में कुछ ख़ास पूँजीपतियों के लिए सरकारी दबाव काम करता है, यह सही है। इसलिए क़र्ज़ डूबने की समस्या उनमें तुलनात्मक रूप से बड़ी होती है। पर निजी क्षेत्र के बैंक भी इससे बच नहीं सकते, क्योंकि मुख्य समस्या तो पूँजीवादी उत्पादन व्यवस्था में संकट है। यही वजह है कि आदित्य बिड़ला समूह 18 महीने पहले ही चालू किया गया अपना बैंक बन्द कर रहा है। टाटा ने तो लाइसेंस मिलने के बाद भी बैंक चालू ही न किया, पहले ही लाइसेंस रिज़र्व बैंक को लौटा दिया।

बैंकों के अतिरिक्त ग़ैर-बैंकिंग वित्तीय कम्पनियाँ भी नक़दी के अभाव व डूबते ऋणों के कारण पहले ही विपत्ति में हैं। लगभग दो लाख करोड़ के ऋण वाली आईएलएफ़एस व दीवान हाउसिंग फ़ाइनेंस जैसी बड़ी वित्तीय कम्पनियाँ पहले ही बन्द होने के कगार पर हैं। ऐसी ही हालत अन्य कई कम्पनियों की भी है। इससे इन कम्पनियों को ऋण देने वाले बैंकों को ही दिक़्क़त नहीं है बल्कि इन में बड़ी तादाद में कर्मचारियों की भविष्य एवं पेंशन निधि के साथ-साथ बीमा कम्पनियों व म्यूचुअल फ़ण्ड का भी पैसा लगा हुआ है जिससे वित्तीय संकट व्यापक रूप ले रहा है। साथ ही अन्य कम्पनियों के लिए बाज़ार में ऋण मिलने का ही संकट खड़ा हो गया है, क्योंकि ऋणदाताओं को इन कम्पनियों की क़र्ज़ भुगतान क्षमता में भरोसा ख़त्म हो गया है। किन्तु ऋण व नक़दी के इस संकट के पीछे मूल वजह क्या है?

इस संकट की दो मुख्य वजह कारोबार में टर्नओवर की अवधि के दीर्घ होने से पैदा चालू पूँजी की तंगी और गिरती मुनाफ़ा दर हैं। मुनाफ़ा दर पिछले एक दशक से लगातार गिरी है। निफ़्टी  शेयर सूचकांक में देश की 50 बड़ी कम्पनियाँ शामिल हैं। इस तिमाही 28 कम्पनियों के नतीजे आये हैं जिनमें 21 औद्योगिक कम्पनी हैं। इनका मुनाफ़ा इस तिमाही में ही 11% कम हुआ है। 20 हज़ार कम्पनियों के सर्वेक्षण के आधार पर सेण्टर फ़ॉर मॉनिटरिंग इण्डियन इकॉनमी (सीएमआईई) का कहना है कि मुनाफ़ा दर का गिरना दीर्घकालीन प्रवृत्ति है – 2007 में जहाँ कुल पूँजी पर कर पश्चात मुनाफ़े की दर 8.1% थी, 2018 में यह गिरकर 1.7% ही रह गयी।

दूसरी ओर कारोबार में टर्नओवर की अवधि लम्बी हो रही है। टर्नओवर का अर्थ है उत्पादन चक्र आरम्भ करने हेतु कच्चे माल व श्रम शक्ति की ख़रीदारी में रुपये के रूप में पूँजी लगाने से लेकर उत्पादित माल की बिक्री होकर उसके वापस रुपये में परिवर्तित होकर पूँजीपति के पास लौट आने की अवधि। इससे ही उत्पादन का चक्र निरन्तर जारी रहता है। यह अवधि जितनी कम हो उत्पादन जारी रखने हेतु उतनी कम कुल चालू या कार्यशील पूँजी की आवश्यकता होती है। यह अवधि लम्बी होने से कारोबार के चलते रहने हेतु ज़रूरी चालू पूँजी की मात्रा बढ़ जाती है। मकानों से लेकर ऑटोमोबाइल तक में सुस्त बिक्री से इस वक़्त टर्नओवर की यह अवधि बढ़ गयी है। उदाहरण के तौर पर कार कम्पनी से डीलरों के पास जहाँ पहले 30-35 दिन की बिक्री के बराबर माल रहता था अब वह अवधि बढ़कर 40-45 दिन हो गयी है। दोपहिया वाहनों में तो यह अवधि 50-55 दिन तक पहुँच गयी है। इतना माल रखने के लिए ज़रूरी पूँजी की आवश्यकता भी बढ़ गयी है। उपरोक्त दोनों वजहों से एक ओर तो कारोबार में पूँजी का विस्तार कम हो रहा है, दूसरी ओर उसे चलाते रहने हेतु नक़द पूँजी की आवश्यकता बढ़ रही है। ख़ुद मुकेश अम्बानी की रिलायंस इण्डस्ट्रीज का खाता बता रहा है कि निरन्तर नया क़र्ज़ लेकर उसकी बही तो मोटी हो रही है, ग्राहक भी बढ़ रहे हैं, खातों में संख्याएँ भी बड़ी हो रही है, पर उसके परिचालन से ठोस नगद लाभ उतनी मात्रा में नहीं हो रहा। ब्लूमबर्ग के विश्लेषण के अनुसार पिछले वित्तीय वर्ष में रिलायंस द्वारा मुक्त नक़दी सृजन पिछले साल 11 वर्षों में सबसे कम हुआ है जबकि उसका ऋण बढ़कर तीन लाख करोड़ रुपये पार कर गया है!

ऐसे में पूँजीपतियों की सबसे बड़ी उम्मीद ब्याज़ दर गिरना और केन्द्रीय बैंक द्वारा बैंकों को क़र्ज़ देने के लिए प्रोत्साहित करना थी। रिज़र्व बैंक ब्याज़ दर 4 बार गिरा भी चुका है। पर सरकार, उद्योगों और परिवारों तीनों द्वारा लिये गये भारी क़र्ज़ों व आगे और माँग और उनमें बड़ी मात्रा में होने वाले एनपीए की वजह से बैंक भी अधिक क़र्ज़ देने की स्थिति में नहीं हैं। इसलिए भी सरकार द्वारा सम्प्रभु बॉण्ड जारी कर विदेश से क़र्ज़ लेने की योजना बनायी गयी है। इसके अतिरिक्त रिज़र्व बैंक निजी कम्पनियों को भी विदेशी मुद्रा में अधिक ऋण लेने की अनुमति दे रहा है जिससे घरेलू बाज़ार में ऋण की माँग का दबाव कम हो तथा ब्याज़ दरें और भी नीचे आयें।

किन्तु आर्थिक संकट से निपटने के लिए सरकार ब्याज़ दर कम और नक़दी प्रवाह अधिक करने की जिस नीति पर चल रही है, उससे पूँजी निवेश बढ़ना और आर्थिक संकट हल होना मुमकिन नहीं। उसकी असफलता का एक बड़ा उदाहरण मारुति का वह फ़ैसला है जिसके अनुसार उसने गुजरात के अपने कारख़ाने की क्षमता 7.5 लाख कार सालाना से दुगना अर्थात 15 लाख कार सालाना करने की योजना रद्द कर दी है। उसे अब कारों की बिक्री में निकट भविष्य में उतनी वृद्धि की सम्भावना नज़र नहीं आती। ऐसे में तो वह शून्य प्रतिशत ब्याज़ पर निवेश करके भी नुक़सान में रहेगी। इसके बजाय उसकी योजना है कि भविष्य में बिक्री बढ़ी भी तो वह टोयोटा के साथ मिलकर उसके बैंगलोर कारख़ाने का इस्तेमाल करेगी जिसकी क्षमता का अभी पूरा प्रयोग नहीं हो पा रहा है। जड़ पूँजी में निवेश बढ़ाये बग़ैर ही चालू पूँजी के बेहतर प्रयोग और मितव्ययता बढ़ाने से दोनों को लाभ होगा। फिर वे नया निवेश क्यों करें? पहले भी गुजरात सरकार ने टाटा मोटर को सानंद में रियायती ज़मीन और 0% ब्याज़ पर पूँजी दी थी, जिसके साथ मुनाफ़े पर टैक्स छूट भी दी गयी थी। टाटा ने उसका लाभ लिया और कारख़ाना बाद में बन्द भी कर दिया। अन्य उद्योगों में भी यही हो रहा है। निवेश की योजनाएँ धड़ल्ले से रद्द की जा रही हैं।

फिर सरकार के सामने उपाय क्या है? वित्त मंत्री निर्मला सीतारामन के अनुसार, “यह सही वक़्त है कि भारत वैश्विक माल एवं सेवा उत्पादन श्रृंखला में ही एकीकृत नहीं हो, बल्कि वैश्विक वित्तीय व्यवस्था का भी अंग बन जाये ताकि वह वैश्विक बचत को उपयोग के लिए जुटा सके, जो पेंशन, बीमा एवं सार्वभौम  पूँजीकोषों में संस्थाबद्ध है।” अर्थात एक ही उपाय बचा है, विश्व वित्तीय पूँजी बाज़ार के साथ एकीकृत हो जाओ, सॉवरेन बॉण्ड जारी करो, विदेशी मुद्रा में सस्ती ब्याज़ दर पर ख़ूब क़र्ज़ लेकर कुछ बड़ी परियोजनाएँ बनाओ – बुलेट, मेट्रो, स्पेस, हाईवे, नदी जोड़ो, आदि चमकदार, धाँसू ‘राष्ट्रीय गौरव’ वाली। 5-7 साल तो ख़ूब जलवा रहेगा। बाद में इनसे लाभ न हो, रुपये की विनिमय दर गिरने से क़र्ज़ सस्ते के बजाय उलटे महँगा पड़े, क़र्ज़ की वजह से हालत लैटिन अमेरिकी या पूर्वी एशियाई देशों या यूनान-पुर्तगाल वाली हो ही जाये तो क्या? इस सबका बोझ उठाने के लिए मेहनतकश जनता तो है ही, उस पर शोषण का चक्र और कस देंगे।

 

मज़दूर बिगुल, अगस्‍त 2019


 

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