टोक्यो ओलम्पिक में भारत का प्रदर्शन: एक समीक्षा

– सार्थक

अगस्त महीने में टोक्यो ओलम्पिक खेलों का समापन हुआ और भारत को इस बार एक स्वर्ण, दो रजत और चार काँस्य पदक मिले हैं। इस प्रकार कुल पदकों की संख्या सात रही है। हर छोटी से छोटी उपलब्धि की तरह मोदी जी इस बार भी मौक़े पर चौका मारने के लिए पहले से ही तैयार बैठे थे। गोदी मीडिया, आईटी सेल और अन्य सभी प्रचार तंत्रों का इस्तेमाल कर मोदी जी देशवासियों के सामने ऐसा स्वांग रच रहे हैं कि देखने वाले को लगता है जैसे मोदी जी ख़ुद ही सातों पदक जीत कर आये हैं! ख़ैर इन लफ़्फ़ाज़ियों और ढोंग को एक किनारे कर ओलम्पिक खेलों में भारत के प्रदर्शन की एक वस्तुपरक समीक्षा करने की ज़रूरत है।
टोक्यो ओलम्पिक में भारत का प्रदर्शन अब तक का सबसे अच्छा प्रदर्शन रहा है। यदि पिछले प्रदर्शनों से तुलना की जाये तो भारत का प्रदर्शन पहले इतना फीका रहा है कि अभी हासिल सात पदक किसी कीर्तिमान से कम प्रतीत नहीं होते हैं। 1900 में हुए पेरिस ओलम्पिक में भारत ने पहली बार ओलम्पिक खेलों में हिस्सेदारी की शुरुआत की थी। 1900 से लेकर 2020 के बीच पच्चीस ओलम्पिक खेलों में भाग लेकर भारत ने कुल 35 पदक अर्जित किये हैं। इनमें से 12 पदक भारत ने सिर्फ़ पुरुष हॉकी प्रतियोगिता में जीते हैं। जब हम इन आँकड़ों की तुलना दूसरे देशों से करते हैं तो हमें समझ आता है कि भारत जैसे विशाल देश के लिए इतने कम पदक हासिल करना चौंकाने वाला है। टोक्यो ओलम्पिक में अमेरिका ने 113 और चीन ने 88 पदक जीत है, जिसमें अमेरिका के 39 और चीन के 38 स्वर्ण पदक हैं। दूसरे शब्दों में कहें तो भारत पच्चीस बार इन खेलों में भाग लेकर जितना पदक हासिल नहीं कर सका उसका चौगुना कुछ देश एक ही बार में हासिल कर लेते हैं। 130 करोड़ आबादी वाले भारत में ओलम्पिक खेलों के मामले में यह ख़स्ता हाल दुनिया भर के खेल विशेषज्ञों, पण्डितों और आम खेल प्रशंसकों के लिए एक आश्चर्य का विषय है। इस गुत्थी को सुलझाने के लिए कई विशेषज्ञ अपने-अपने तरीक़े से तर्क देते हैं; भारत की विफलता के कारणों की व्याख्या करते हैं। लेकिन इनके विश्लेषण और इनके दिये सुझाव इस मुनाफ़ाख़ोर व्यवस्था को सीधे कठघरे में खड़ा नहीं करते हैं बल्कि इसी व्यवस्था की चौहद्दियों में ही इस समस्या का हल ढूँढ़ते रहते हैं।
ओलम्पिक या कोई भी अन्तरराष्ट्रीय प्रतियोगिता में भारत का लगातार पिछड़ा प्रदर्शन एक ढाँचागत समस्या है जिसका समाधान इस मुनाफ़े पर टिकी व्यवस्था के आमूलचूल परिवर्तन से ही हो सकता है। यहाँ का पूँजीपति वर्ग मज़दूर-मेहनतकश आबादी के एक-एक क़तरे को निचोड़ कर ऐशोआराम की ज़िन्दगी जीता है। 12-14 घण्टे कारख़ानों में कमरतोड़ मेहनत करने के बाद जब हम अपने घरों को लौटते हैं तो हमारे पास मनोरंजन या सृजनात्मक कार्यों के लिए ताक़त और समय दोनों ही नहीं बचते हैं। हम थक-हार कर सो जाते है और अगले दिन उठ कर फिर उसी कमरतोड़ मेहनत में लग जाते हैं। शिकागो के अमर शहीद मज़दूरों ने जिस “आठ घण्टे का काम-आठ घण्टे का आराम-आठ घण्टे का मनोरंजन” का नारा बुलन्द किया और जिसके लिए अपने प्राणों की आहुति दे दी आज वही नारा मज़दूरों के लिए अतीत का एक अवशेष मात्र बन कर रह गया है। आप ही सोचिए कि ऐसी हालत में देश की बहुसंख्यक आबादी जो जैसे-तैसे मेहनत करके अपना गुज़ारा करती है क्या वह कभी ओलम्पिक खेलों में हिस्सा ले सकती है? भारत में एक बड़ी आबादी ऐसी है जो किशोरावस्था यानी महज़ 14-15 साल की उम्र से ही भारी शारीरिक श्रम में लग जाती है। किशोरावस्था ही उम्र का वह पड़ाव होता है जब बच्चों में खेलकूद की प्रतिभा सबसे स्पष्ट रूप में प्रकट होती है। लेकिन उन बच्चों का क्या जो स्कूल ही नहीं जाते। यदि स्कूल किसी तरह चले भी जायें और उनकी प्रतिभा की पहचान हो भी जाये तो उनके प्रशिक्षण और तालीम पर होने वाले ख़र्च की आशा भी करना उनके लिए आकाश कुसुम की अभिलाषा के समान होगा। आप ही सोचिए कि हमारे बच्चे खेलकूद के बारे में सोच भी कैसे सकते हैं जब उन्हें कारख़ानों, दुकानों, रेहड़ी-खोमचों में दो वक़्त की रोटी के लिए जद्दोजहद करनी पड़ती है? अपना और अपने परिवार का पेट भरने के लिए ता-उम्र ये नौजवान अपनी हड्डियाँ गलाते रहते हैं। इस तरह देश की एक बड़ी आबादी खेल के दायरे से ही बाहर हो जाती है।
मज़दूरी की स्थिति को देखते हुए घर में जो पैसा आता है उससे दाल-रोटी भी चलानी मुश्किल होती है। एक खिलाड़ी पैदा करने के लिए सन्तुलित आहार की बात सोचना तो असम्भव ही है। एक उन्नत खेल संस्कृति को गढ़ने और ओलम्पिक खेलों में एक शक्तिशाली ताक़त बनने के लिए एक स्वस्थ और सेहतमन्द युवा पीढ़ी को गढ़ना अनिवार्य है। जिस देश में हर दिन भूख, कुपोषण और संक्रामक रोगों से सरकारी आँकड़ों के अनुसार 2,257 बच्चों की मौत होती हो (हालाँकि असल आँकड़ा कम-से-कम इसका दूना है), उस देश में हम यह कैसे उम्मीद कर सकते हैं कि वह खेलकूद में विश्वविजेता बनेगा? संयुक्त राष्ट्र बाल कोष (यूनिसेफ़) की रिपोर्ट के अनुसार देश के तक़रीबन आधे बच्चे अपनी उम्र के अनुसार सामान्य से कम वज़न के हैं, 45 प्रतिशत बच्चे सामान्य से कम क़द के हैं, 20 प्रतिशत बच्चे अपने क़द के अनुसार सामान्य से ज़्यादा दुबले-पतले हैं, 75 प्रतिशत रक्तहीनता से पीड़ित हैं, 57 प्रतिशत बच्चों में ‘विटामिन ए’ की गम्भीर कमी है। पहले स्कूल और आँगनवाड़ी में जो कुछ भी थोड़ा-बहुत मध्याह्न भोजन मिलता था लॉकडाउन के दौरान वह भी अधिकांश जगहों पर बन्द हो गया था और इस अनियोजित लॉकडाउन से करोड़ों मज़दूरों-मेहनतकशों की नौकरियाँ भी चली गयीं। ऐसी हालत में बच्चों का भरण-पोषण कठिन हो गया है। निश्चित ही ऊपर दिये गये आँकड़े आज गम्भीर रूप धारण कर चुके होंगे और तमाम सरकारी और ग़ैर-सरकारी रपटें इस बात की पुष्टि भी कर चुकी हैं।
इसके अलावा बच्चों में बचपन से ही शारीरिक व्यायाम और खेलकूद के बारे में एक स्वस्थ दृष्टिकोण पैदा करने में स्कूलों की एक अहम भूमिका होती है। स्कूल में ही भविष्य के ओलम्पिक खिलाड़ी अपने पेशेवर खेल जीवन की नींव रखते हैं। लेकिन हमारे देश की स्कूली शिक्षा व्यवस्था के जर्जर हालात पर जितनी कम बात की जाये उतना अच्छा है। भारत में माध्यमिक स्कूलों में सकल नामांकन अनुपात 79 प्रतिशत है। इसका मतलब माध्यमिक स्कूल में पढ़ने योग्य बच्चों में से सिर्फ़ 79 प्रतिशत ही असल में स्कूल में नाम लिखाते हैं। इनमें से भी 17 प्रतिशत दसवीं की परीक्षा पास करने से पहले ही पढ़ाई छोड़ देते हैं। ज़ाहिर-सी बात है, ये बच्चे जो स्कूलों से बाहर रहते हैं, छोटे-मोटे उद्योग धन्धों या मज़दूरी में लग जाते हैं। एक रिपोर्ट के अनुसार भारत में 33 प्रतिशत स्कूलों में शारीरिक शिक्षा की कोई अलग से क्लास नहीं दी जाती है, 80 प्रतिशत स्कूलों के पास ऐसे शिक्षक नहीं हैं जो शारीरिक शिक्षण-प्रशिक्षण देते हैं, 33 प्रतिशत स्कूलों के पास अपना खेल का मैदान या खेल के उपकरण नहीं हैं। ऐसी स्थिति में अगर हमारे बच्चे स्कूल पहुँच भी जाते हैं तो हमें यह ग़लतफ़हमी नहीं होनी चाहिए कि स्कूल में उनके अन्दर कसरत और खेलकूद के प्रति रुचि पैदा करने लिए कोई सचेत प्रयास किया जायेगा।
देश में एक सक्रिय खेल संस्कृति का निर्माण, तृणमूल स्तर पर खेलों का प्रचार प्रसार, खेल अवसंरचना का निर्माण, युवा अवस्था में प्रतिभाशाली खिलाड़ियों की तलाश कर उनको उन्नत प्रशिक्षण और मार्गदर्शन देना आदि बुनियादी चीज़ों में देश की किसी सरकार ने कभी कोई ख़ास दिलचस्पी नहीं दिखायी है। 2018 में केन्द्रीय खेल मंत्री ने इस बात की पुष्टि की कि भारत सरकार खेलों पर प्रतिदिन प्रति-व्यक्ति सिर्फ़ तीन पैसे ख़र्च करती है, जबकि चीन प्रतिदिन प्रति-व्यक्ति 6.1 रुपये ख़र्च करता है जो भारत के मुक़ाबले 200 गुना ज़्यादा है। पिछले दस सालों में भारत सरकार अपने कुल सरकारी व्यय का महज़ 0.06 से 0.08 प्रतिशत ही खेलों पर ख़र्च करती आ रही है। 2021 ओलम्पिक वर्ष होने के बावजूद इस साल के बजट में खेल मंत्रालय को 230 करोड़ रुपये कम दिये हैं। आये दिन अन्तरराष्ट्रीय और राष्ट्रीय स्तर के खिलाड़ी, कोच और सहयोगी स्टाफ़ निम्न दर्जे की सेवाओं के ख़िलाफ़ शिकायत करते रहते हैं मगर खेल मंत्रालय और दूसरी सम्बन्धित संस्थाओं के कान पर जूँ नहीं रेंगती है। मज़ेदार बात यह है कि खेल मंत्रालय का सालाना बजट जितना होता है भारतीय क्रिकेट बोर्ड लगभग उसके समान ही सालाना मुनाफ़ा कमा लेता है। क्रिकेट बड़ी इजारेदार पूँजी के लिए ताबड़तोड़ मुनाफ़ा पीटने का एक स्रोत बन गया है, इसलिए सरकार से भी भारतीय क्रिकेट बोर्ड को पूरा समर्थन मिलता है। वहीं बात की जाये यदि अन्य नये-पुराने खेलों के बारे में तो ये भी सारे भारत में एक धीमी दर्दनाक मौत मर रहे हैं। इस पूँजीवादी व्यवस्था में बस उसी खेल को बढ़ावा दिया जायेगा जिसमें भारी मुनाफ़ा कमाने की सम्भावनाएँ मौजूद होंगी। आज सरकार कुछ खिलाड़ियों के जीत कर लौटने पर उनका स्वागत कर रही है, उनका सम्मान कर रही है लेकिन कोई यह सवाल क्यों नहीं पूछता कि कहाँ थी राज्य सरकारें और केन्द्र सरकार जब इन खिलाड़ियों को फ़ण्ड, सुविधाओं और खेल उपकरणों की आवश्यकता थी। यहाँ भी भेदभाव साफ़ दिख रहा है। जिन खिलाड़ियों ने पदक जीता है उन्हें बड़ी-बड़ी धनराशि देने की घोषणाएँ की जा रही हैं लेकिन अगले ओलम्पिक के लिए तैयारी तो सभी खिलाड़ियों को एक समान ही करनी है। सरकारों के लिए यह सब चिन्ता का विषय नहीं है क्योंकि उनके लिए खेलकूद कोई महत्व नहीं रखता और इन्हें पता है कि मेहनत करके कल कोई और पदक ले ही आयेगा तब अपनी पीठ ये स्वयं थपथपा लेंगे जैसे आज मोदी कर रहा है।
एक अच्छा स्वस्थ मानवीय जीवन और बच्चों का सर्वांगीण विकास खिलाड़ी बनने की पूर्वशर्त है। इस चरमरायी हुई पूँजीवादी व्यवस्था के पास वह क्षमता नहीं है कि वह देश की मेहनतकश आबादी को एक स्वस्थ ख़ुशहाल ज़िन्दगी दे सके और उनके बच्चों का सर्वांगीण विकास कर सके। सिर्फ़ और सिर्फ़ एक समाजवादी व्यवस्था ही हम मज़दूर-मेहनतकशों को एक इज़्ज़त की ज़िन्दगी दे सकती है जिसमें हमारे श्रम को लूटने वाला कोई परजीवी वर्ग नहीं होगा। हमारे अपने और समाज की बुनियादी ज़रूरतों को पूरा करने के बाद जो ‘फ़्री टाइम’ बचेगा उसमें हम अपने शौक और मनोरंजन का कोई भी काम कर सकते हैं। और यदि मुनाफ़ा कमाना नहीं बल्कि समाज की आवश्यकताओं को पूरा करना उत्पादन का लक्ष्य हो और सभी स्वस्थ वयस्क व्यक्तियों के लिए उत्पादक श्रम में भागीदारी करना अनिवार्य हो, तो हर किसी के पास बहुत-सा ख़ाली वक़्त बचेगा जिसे वह कला, साहित्य, संस्कृति, खेल, विज्ञान, दर्शन और घुमक्कड़ी में लगा सकता है। साथ ही स्वयं उत्पादक की प्रक्रिया किसी लुटेरे वर्ग के लिए मजबूरी में की जाने वाली प्रक्रिया नहीं होगी, बल्कि यह स्वयं आनन्द का विषय होगी। यदि श्रम मजबूरी में या ज़ोर-ज़बर्दस्ती के कारण न हो, तो यह तो आनन्द का विषय होता है क्योंकि यह मनुष्य को पशु से मनुष्य बनाने वाली प्रक्रिया है और हमारी प्रकृति का अंग है। इसलिए मज़दूर राज और समाजवाद में तो धीरे-धीरे ख़ाली टाइम की अवधारणा ही ख़त्म हो जायेगी क्योंकि किसी और के मुनाफ़े की ख़ातिर मजबूरी में खटने वाले ‘काम के टाइम’ और ‘फ़्री-टाइम’ का अन्तर ही ख़त्म हो जायेगा। स्कूल, कारख़ानों, खेतों और दफ़्तरों में हर जगह कसरत के लिए लोगों को प्रोत्साहित किया जायेगा। हम और हमारे बच्चे जो भी खेल खेलना चाहें उसके लिए हमारी मज़दूर सत्ता हमें हर सम्भव सुविधा मुहैया करवायेगी। खेल आर्थिक सामर्थ्य से की जाने वाली कोई क्रिया नहीं बल्कि सामूहिक जीवन का एक ज़रूरी अंग बन जायेगा जिसका आनन्द सभी उठा सकेंगे। सोवियत संघ और चीन में मज़दूरों की सत्ता क़ायम होने के बाद यही हुआ। 1952 से 1988 के बीच सोवियत संघ ने ओलम्पिक खेलों में जो अद्भुत कामयाबी हासिल की उसके पीछे उसके क्रन्तिकारी दौर – यानी 1917 से 1953 – की खेल नीतियों का ही हाथ था। एक समाजवादी व्यवस्था में मानव जीवन के हर पहलू की तरह खेल भी एक उन्नत स्तर पर पहुँच पायेगा और एक स्वस्थ खेल संस्कृति अस्तित्व में आ सकती है।

मज़दूर बिगुल, सितम्बर 2021


 

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