तेलंगाना किसान सशस्त्र संघर्ष के 75 साल उपलब्धियाँ और सबक़ (दूसरी व अन्तिम क़िस्त)

– आनन्द सिंह

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पिछली क़िस्त में हमने देखा कि किस प्रकार 1940 के दशक की शुरुआत में हैदराबाद के निज़ाम की सामन्ती रियासत में आने वाले तेलंगाना के जागीरदारों और भूस्वामियों द्वारा किसानों के ज़बर्दस्त शोषण व उत्पीड़न के विरुद्ध शुरू हुआ आन्दोलन 1946 की गर्मियों तक आते-आते सामन्तों के ख़िलाफ़ एक सशस्त्र विद्रोह में तब्दील हो गया। निज़ाम की सेना और रज़ाकारों द्वारा इस विद्रोह को बर्बरतापूर्वक कुचलने की सारी कोशिशें विफल साबित हुईंं। 15 अगस्त 1947 को भारत ब्रिटिश औपनिवेशिक ग़ुलामी से आज़ाद हुआ, लेकिन निज़ाम ने भारतीय यूनियन में मिलने से इन्कार कर दिया। ग़ौरतलब है कि स्वतंत्र भारत की राज्यसत्ता ने हैदराबाद के ख़िलाफ़ एक साल से भी ज़्यादा समय तक कोई कार्रवाई नहीं की। इस दौरान निज़ाम से बातचीत और सौदेबाज़ी चलती रही। यही नहीं इस दौरान भारत सरकार ने “स्टैण्डस्टिल समझौते” के तहत निज़ाम को हथियारों और सैन्य उपकरणों की आपूर्ति भी की जिसका इस्तेमाल निज़ाम की सेना ने किसान विद्रोह को कुचलने के लिए किया। एक साल तक चली बातचीत और सौदेबाज़ी के बावजूद पाकिस्तान परस्त निज़ाम हैदराबाद को भारत में मिलाने को तैयार नहीं हुआ। उधर ग्रामीण इलाक़ों में किसानों और मेहनतकशों ने कम्युनिस्टों के नेतृत्व में निज़ाम की सेना और रज़ाकारों को पीछे धकेल दिया था।
भारतीय राज्यसत्ता द्वारा हथियारों व सैन्य उपकरणों की आपूर्ति के बावजूद निज़ाम की सेना किसान विद्रोह को कुचलने में नाकाम रही। ये वे हालात थे जब 13 सितम्बर 1948 को भारतीय सेना ने हैदराबाद की ओर कूच किया। निज़ाम की सेना ने महज़ पाँच दिनों के भीतर आत्मसमर्पण कर‍ दिया। लेकिन उसके बाद भी निज़ाम को राजप्रमुख की पदवी देकर राज्य का प्रमुख बना रहने दिया गया। 18 सितम्बर 1948 को हैदराबाद रियासत के प्रशासन की बागडोर भारतीय सेना के हाथ में आ गयी। लेकिन उसके बाद भी 25 जनवरी 1950 तक सरकार के सभी आदेश (फ़रमान) निज़ाम के नाम से जारी किये जाते रहे। यहाँ तक कि 26 जनवरी 1950 में अस्तित्व में आये भारतीय संविधान में निज़ाम के राजप्रमुख के पद को मान्यता प्रदान करने का प्रावधान भी जोड़ा गया और 1956 तक निज़ाम राजप्रमुख बना रहा। यही नहीं निज़ाम को प्रिवीपर्स भी मिलता रहा। यह भारत के उदीयमान बुर्जुआ वर्ग और उसकी प्रतिनिधि पार्टी कांग्रेस के घोर समझौतावादी चरित्र को दिखाता है। इससे यह भी स्पष्ट हो जाता है कि हैदराबाद में भारतीय सेना की सैन्य कार्रवाई का असली उद्देश्य निज़ामशाही का ख़ात्मा नहीं बल्कि तेलंगाना किसान विद्रोह को कुचलना था। ग़ौरतलब है कि अपने इस मक़सद को छिपाने के लिए भारत की सरकार ने इसे सैन्य कार्रवाई की जगह पुलिस कार्रवाई का नाम दिया था। आज तेलंगाना में तेजी से बढ़ रही हिन्दुत्ववादी फ़ासीवादी ताक़तें 18 सितम्बर 1948 को ‘मुक्ति दिवस’के रूप में मनाने का अभियान चला रही हैं। लेकिन सच तो यह है कि तेलंगाना के किसानों और मेहनतकशों के लिए यह दिन मुक्ति का नहीं बल्कि विश्वासघात का प्रतीक है।
निज़ाम के आत्मसमर्पण के बाद क़रीब 50 हज़ार भारतीय सैनिकों ने किसान विद्रोह को कुचलने के लिए तेलंगाना के गाँवों की ओर रुख़ कर दिया। सेना ने तेलंगाना में बड़े पैमाने पर गिरफ़्तारियाँ, यंत्रणा, आगजनी और निर्मम हत्याओं को अंजाम देते हुए निज़ाम की सेना व रज़ाकारों द्वारा किये गये ज़ुल्मों को भी मात दे दिया। मलाया सरकार की ब्रिग्स योजना की ही तरह ऐसे गाँव बसाये गये जहाँ के निवासियों को सेना के नियंत्रण में रहना था। जंगलों की दो हज़ार आदिवासी बस्तियों को नेस्तोनाबूद कर दिया गया और लोगों को यातना शिविरों में रखा गया। छापामार गाँवों को छोड़कर निकटवर्ती जंगलों में चले गये और वहाँ भी सेना का दबाव बढ़ने पर दूरवर्ती जंगली क्षेत्रों में बिखर गये।

पार्टी के भीतर चली बहसें

निज़ाम के आत्मसमर्पण और हैदराबाद पर भारतीय सेना का क़ब्ज़ा होने के बाद कम्युनिस्ट पार्टी की आन्ध्र इकाई के भीतर एक बहस उठ खड़ी हुई। रवि नारायण रेड्डी के नेतृत्व वाले एक धड़े का मानना था कि तेलंगाना सशस्त्र संघर्ष निज़ाम की सत्ता के ख़िलाफ़ था और चूँकि अब निज़ाम की सत्ता का पतन हो चुका है, इसलिए सशस्त्र संघर्ष वापस ले लेना चाहिए। यह धड़ा सापेक्षत: धनी किसानों व कुछ छोटे भूस्वामियों के हितों की नुमाइन्दगी करता था जिन्होंने निज़ाम के ख़िलाफ़ जारी किसान विद्रोह का साथ दिया था,परन्तु निज़ाम के पतन के बाद उन्होंने संघर्ष से दूरी बना ली थी। परन्तु मध्यम व छोटे किसान और खेतिहर मज़दूर संघर्ष को जारी रखने के पक्षधर थे क्योंकि वे देख रहे थे कि सेना के आने के बाद भूस्वामी वापस गाँवों की ओर लौटने लगे और किसानों से ज़मीनें छीनने लगे तथा ग्राम राज्यों के आदेशों की अवहेलना करने लगे थे। इसलिए आन्ध्र कमेटी ने अन्तत: गुरिल्ला संघर्ष जारी रखने का फ़ैसला किया, हालाँकि यह स्पष्ट था कि अब उनका सामना पहले से कहीं ज़्यादा ताक़तवर दुश्मन से होने वाला है।
उधर पार्टी में केन्द्रीय स्तर पर भी भारत में क्रान्ति के मार्ग को लेकर बहस चल रही थी। मार्च 1948 में पार्टी की दूसरी कांग्रेस हुई जिसमें दक्षिणपन्थी पी.सी. जोशी को हटाकर बी.टी. रणदिवे को पार्टी का महासचिव बनाया गया था। इस कांग्रेस में तेलंगाना के प्रतिनिधियों के ज़ोर देने के बाद ही दूसरी कांग्रेस की थीसिस में तेलंगाना संघर्ष के महत्त्व का उल्लेख करते हुए उसे समर्थन दिया गया और पूरे देश में ऐसे संघर्ष संगठित करने तथा मज़दूर वर्ग से भी उनके समर्थन में आन्दोलन करने का आह्वान किया गया। रणदिवे ने यह “वामपन्थी” दुस्साहसवादी थीसिस पेश की कि जनवादी और समाजवादी क्रान्तियाँ एक साथ होनी चाहिए, और कम्युनिस्टों को न केवल बड़े बुर्जुआ को बल्कि सभी बुर्जुआओं को अपने हमले का निशाना बनाते हुए देशव्यापी आम हड़ताल और सशस्त्र विद्रोह का मार्ग अपनाना चाहिए। इस “वामपन्थी” दुस्साहसवाद ने भारतीय कम्युनिस्ट आन्दोलन को तो भारी क्षति पहुँचाई ही, उसके अलावा तेलंगाना संघर्ष के आगे के विकास को भी रोकने का काम किया। उसी साल मई के महीने में आन्ध्र की पार्टी इकाई ने रणदिवे थीसिस का विरोध करते हुए अपनी यह लाइन रखी कि भारतीय क्रान्ति का चरित्र रूसी क्रान्ति से भिन्न है और यह चीन में जारी नवजनवादी क्रान्ति से काफ़ी हद तक समानता रखती है, यहाँ चार वर्गों का संयुक्त मोर्चा बनाना होगा और दीर्घकालिक लोकयुद्ध का मार्ग अपनाना होगा। आन्ध्र थीसिस में माओ त्से-तुंङ के नवजनवाद के सिद्धान्त को प्रासंगिक बताते हुए भारत में सर्वहारा क्रान्ति को दो अवस्थाओं में सम्पन्न करने की योजना प्रस्तुत की गयी। हालाँकि इस थीसिस में भी कुछ खामियाँ थीं, मिसाल के लिए यह भारत के बुर्जुआ वर्ग को दलाल मानती थी, लेकिन कुल मिलाकर यह लाइन तत्कालीन परिस्थितियों में सापेक्षत: बेहतर थी। लेकिन दो वर्षों तक पार्टी पर रणदिवे-लाइन का वर्चस्व बने रहने की वजह से तेलंगाना संघर्ष को भारी नुक़सान हुआ। देश के विभिन्न हिस्सों में किसान संघर्षो को तेलंगाना की राह पर आगे बढ़ाने और मज़दूर वर्ग के संघर्षो को उनके साथ जोड़ने के बजाय “वामपन्थी” दुस्साहसवाद ने पार्टी को जन समुदाय से अलग-थलग कर दिया और क़तारों की पहलक़दमी को पंगु बना दिया। लेकिन अन्तरराष्ट्रीय स्तर पर आन्ध्र लाइन के अनुमोदन के बाद रणदिवे की “वामपन्थी” अवसरवादी लाइन अलग-थलग पड़ गयी। मई-जून 1950 को रणदिवे की बजाय राजेश्वर राव पार्टी के महासचिव बने और पार्टी ने आन्ध्र-थीसिस को आधिकारिक लाइन के तौर पर स्वीकार किया। लेकिन इस समय तक, पहले ही काफ़ी देर हो चुकी थी। देशव्यापी स्तर पर संघर्ष के विस्तार की सम्भावनाओं का, ग़लत लाइन काफ़ी हद तक गला घोंट चुकी थी और नयी बुर्जुआ सत्ता को अपने सुदृढ़ीकरण के लिए तीन वर्षो का क़ीमती समय मिल चुका था।

सोवियत नेतृत्व का मार्गदर्शन

1951 तक आते-आते पार्टी के भीतर तेलंगाना संघर्ष के आगे के रास्ते के बारे में मतभेद गहराने लगे। बम्बई मुख्यालय में हावी एस.ए. डांगे, घाटे और अजय घोष आदि का दक्षिणपन्थी धड़ा शुरू से ही आन्ध्र लाइन का विरोध कर रहा था। लेकिन आन्ध्र कमेटी का बड़ा हिस्सा फिर भी संघर्ष को जारी रखना चाहता था। उसका मानना था कि फ़ौरी तौर पर नुक़सान के बावजूद, संघर्ष को जारी रखना और देश के अन्य अनुकूल परिस्थितियों वाले भूभागों में उसका फैलाव मुमकिन है।
पार्टी में मौजूद मतभेद, संकट और विभ्रम की स्थिति को दूर करने के लिए, एक बार फिर अन्तरराष्ट्रीय नेतृत्व पर भरोसा किया गया और चार सदस्यों का एक प्रतिनिधिमण्डल 1951 के प्रारम्भ में सोवियत पार्टी के नेतृत्व से बातचीत करने के लिए मास्को गया। इसमें दो – राजेश्वर राव और बासवपुनैया तेलंगाना संघर्ष के नेता थे, जबकि अन्य दो – अजय घोष और डांगे उसका विरोध कर रहे थे। सोवियत पार्टी की ओर से स्तालिन, मालेंकोव, मालरोव और सुस्लोव ने बातचीत की। पी. सुन्दरैय्या ने पार्टी द्वारा संघर्ष वापस लेने के फैसले को जायज़ ठहराने के लिए अपनी किताब में इस ओर इशारा किया है कि स्तालिन ने तेलंगाना सशस्त्र संघर्ष को वापस लेने का सुझाव दिया था क्योंकि इस गोरिल्ला संघर्ष के समर्थन में व्यापक जन समर्थन के अभाव में यह संघर्ष व्यक्तिगत आतंकवाद की दिशा में बढ़ सकता था। लेकिन इस संघर्ष के भागीदार और नक्सलबाड़ी किसान विद्रोह के बाद चारू मजूमदार की दुस्साहसवादी लाइन का विरोध करते हुए क्रान्तिकारी जनदिशा की बात करने वाले डी.वी. राव ने अपनी किताब “तेलंगाना ऑर्म्‍डस्ट्रगल एण्ड दि पाथ ऑफ़ इण्डियन रिवोल्‍यूशन” में लिखा है कि उस समय उन्हें पार्टी में यह रिपोर्ट किया गया था कि स्तालिन ने भारतीय प्रतिनिधि मण्डल से कहा था कि “सशस्त्र संघर्ष जारी रखने के लिए अधिक हथियार, अधिक काडर और संघर्ष के इलाक़ों में छापामारों के लिए आवश्यक सभी चीज़ों को भेजा जाना चाहिए।” बाद में जब प्रतिनिधि मण्डल ने सशस्त्र संघर्ष जारी रखने में आने वाली चुनौतियों पर जोर दिया तो स्तालिन का कहना था, “यह अफ़सोस की बात है कि आप लोग संघर्ष की रक्षा नहीं कर पा रहे हैं।’’
प्रतिनिधिमण्डल के भारत लौटने के बाद भारत में जनवादी क्रान्ति के कार्यक्रम का एक मसौदा तैयार किया गया और एक नीति-विषयक वक्तव्य जारी किया गया जिसमें सशस्त्र संघर्ष का ज़िक्र तो नहीं था लेकिन रणकौशल-विषयक दस्तावेज़ में “अपरिपक्व विद्रोह और जोखिम भरी कार्रवाइयों से सावधान रहते हुए” किसानों के छापामार युद्ध के साथ ही मज़दूरों की वर्गीय हड़तालों और संघर्ष के अन्य रूपों के इस्तेमाल की बात कही गयी थी। उसमें इस धारणा को भी ग़लत ठहराया गया था कि देश के किसी हिस्से में सशस्त्र विद्रोह तभी शुरू किया जा सकता है, जब पूरे देश में विद्रोह की स्थिति तैयार हो। दस्तावेज़ के अनुसार, किसी एक बड़े भूभाग में किसान संघर्ष के ज़मीन-ज़ब्ती के स्तर पर पहुँचने के बाद, व्यापक जनान्दोलन और छापामार युद्ध यदि ठीक तरह से संगठित हों तो देशभर के किसानों को उद्वेलित करके संघर्ष को उच्च धरातल पर पहुँचा देना सम्भव है।

एक शानदार संघर्ष की शर्मनाक ढंग से वापसी

1951 तक आते-आते पार्टी में दक्षिणपन्थी अवसरवादी हावी हो चुके थे। केन्द्रीय कमेटी ने आन्ध्र की कमेटी को संघर्ष केवल तब तक जारी रखने को कहा जब तक पार्टी सरकार से उसे स्थगित करने की शर्तो पर बातचीत पूरी न कर ले। इन शर्तों में किसानों के क़ब्ज़े की ज़मीन ज़मीन्दारों को वापस न करना, क़ैदियों की रिहाई, मुक़दमे वापस लेना और पार्टी से प्रतिबन्ध हटाना प्रमुख थीं। लेकिन केन्द्रीय कमेटी के इस निर्णय के विपरीत अजय घोष के नेतृत्व वाले दक्षिणपन्थी धड़े और आन्ध्र के रवि नारायण रेड्डी गुट ने बिना शर्त संघर्ष वापसी के लिए दबाव बनाना शुरू किया। पार्टी की इस स्थिति का लाभ उठाकर नेहरू सरकार ने किसी भी शर्त को मानने और बातचीत करने से इन्कार कर दिया। मई, 1951 तक केन्द्रीय कमेटी में आन्ध्र के सदस्य भी मान चुके थे कि अब आंशिक छापामार संघर्ष भी जारी रख पाना सम्भव नहीं है।
अक्टूबर, 1951 में पार्टी ने बिना किसी शर्त, निहायत घुटनाटेकू ढंग से संघर्ष वापस लेने की घोषणा कर दी। जंगल के छापामार नेताओं को इसकी खबर बाद में लगी। पार्टी अब पूरी तरह से संसदीय राह पर चल पड़ी। दक्षिणपन्थी धड़े के सामने उसके विरोधियों ने आत्मसमर्पण कर दिया और क़तारों में भारी पस्ती का माहौल फैल गया।

तेलंगाना संघर्ष की फ़ौरी पराजय के कारण

तेलंगाना संघर्ष की फ़ौरी पराजय का सबसे बड़ा कारण यह था कि पार्टी बोल्शेविक ढंग से एकीकृत नहीं थी और उसमें ऊपर से नीचे तक “वाम” और दक्षिणपन्थी भटकाव के धड़े मौजूद थे, इसलिए वह भारतीय क्रान्ति को नेतृत्व देने में अक्षम थी। 1946 से 1951 के बीच पहले पी.सी. जोशी काल के दक्षिणपन्थी भटकाव ने, फिर रणदिवे काल के “वामपन्थी” भटकाव ने और फिर अजय घोष काल के दक्षिणपन्थी भटकाव ने पूरे देश स्तर पर और तेलंगाना के स्तर पर पार्टी के कार्यों को काफ़ी नुक़सान पहुँचाया था। यह एक ऐसा संक्रमण-काल था, जब नयी सत्ता के सुदृढ़ीकरण की प्रक्रिया अभी पूरी नहीं हुई थी लेकिन नौसेना-विद्रोह, तेभागा-तेलंगाना-पुनप्रावायलार के किसान संघर्षों और देशव्यापी मज़दूर आन्दोलनों को एक कड़ी में पिरोकर जनक्रान्ति की धारा को आगे बढ़ाने में पार्टी-नेतृत्व नाकाम रहा। यदि यह प्रक्रिया आगे बढ़ती तो कांग्रेस की समझौतापरस्ती का पहलू और नंगा होकर सामने आता और पार्टी के नेतृत्व में यदि जनवादी क्रान्ति जल्दी पूरी नहीं भी होती तो या तो दीर्घकालिक लोकयुद्ध मज़बूत आधार पर आगे की मंज़िलों में प्रविष्ट हो गया होता या जनसंघर्षों के दबाव में नेहरू सरकार भूमि क्रान्ति के कार्यभारों को हालाँकि प्रशियाई मार्ग से ही सही और ऊपर से ही सही लेकिन तेज़ी के साथ पूरा करने को विवश हो जाती साथ ही तेज़ पूँजीवादी विकास के साथ भारत जल्दी ही समाजवादी क्रान्ति की मंज़िल में प्रविष्ट हो जाता। लेकिन ऐसा नहीं हुआ। 1951 तक, पार्टी-नेतृत्व में मतभेद के चलते तेलंगाना संघर्ष को इतना नुक़सान पहुँच चुका था कि कम से कम, फ़ौरी तौर पर उसकी पराजय सुनिश्चित हो चुकी थी। फिर भी, उस समय यदि नेतृत्व पर दक्षिणपन्थी धड़ा क़ाबिज़ नहीं होता और पूरी तरह से आत्मसमर्पण करने के बजाय, फ़ौरी तौर पर पीछे हटने और अपनी सैन्य शक्ति को दुर्गम जंगल क्षेत्रों में बिखरा देने के बाद, नये सिरे से उस क्षेत्र में तथा देश के अन्य ऐसे भूभागों में किसान-संघर्ष संगठित किये जाते तो स्थिति को सँभालकर फिर से आगे बढ़ने का अवसर मिल जाता।
राजेश्वर राव के नेतृत्व में जिस धड़े ने तेलंगाना में सही लाइन ली थी, वह भी विचारधारात्मक रूप से कमज़ोर था। इसके चलते, कुछ समय तक केन्द्रीय कमेटी में प्रभावी होने के दौर में भी वह अपनी लाइन का देशव्यापी स्तर पर सुदृढ़ीकरण नहीं कर सका, विरोधी लाइन के विरुद्ध निर्णायक संघर्ष के बजाय उसने समझौता करने का रुख अपनाया और अन्तत: घुटने टेक दिये।
पार्टी के बोल्शेविक ढंग से एकीकृत न हो पाने की मूल वजह नेतृत्व की विचारधारात्मक कमज़ोरी थी। विचारधारात्मक कमजोरी की वजह से ही पार्टी भारत की ठोस परिस्थितियों में मार्क्सवाद का रचनात्मक ढंग से लागू करके क्रान्ति की मंज़िल व क्रान्ति का रास्ता तय करने की बजाय अन्तरराष्ट्रीय मार्गदर्शन पर निर्भर रही। जिस समय तेलंगाना का स्थानीय नेतृत्व व कार्यकर्ता बहादुरी से किसानों के कन्धे से कन्धा मिलाकर लड़ रहे थे उस समय पार्टी के पास भारत की क्रान्ति का कोई कार्यक्रम तक न था।
आज तेलंगाना के उन गाँवों में उत्पादन के तरीक़े में बुनियादी बदलाव आ चुका है जहाँ कभी किसानों ने बहादुराना संघर्ष छेड़ा था। आज उन गाँवों में जागीरदार और बड़े-बड़े भूस्वामी नहीं हैं और लोग बाज़ार के लिए फ़सल उगाते हैं। दूसरे शब्दों में वहाँ पूँजीवादी विकास हो रहा है। इस वजह से तेलंगाना किसान सशस्त्र संघर्ष के समय की रणनीति और रणकौशल तो आज पुराने पड़ चुके हैं। लेकिन उस दौर में कम्युनिस्टों की बहादुरी, साहस और जनता के साथ घुलमिलकर उसे एकजुट, लामबन्द और संगठित करने के शानदार इतिहास से आज भी प्रेरणा ली जा सकती है। इस शानदार संघर्ष से सकारात्मक व नकारात्मक दोनों प्रकार के सबक़ लिये बिना भारत में क्रान्ति के रथ का पहिया आगे नहीं बढ़ सकता है।

मज़दूर बिगुल, सितम्बर 2021


 

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