नहीं रहे कॉमरेड रामनाथ! अलविदा कॉमरेड! लाल सलाम!!

कॉमरेड रामनाथ नहीं रहे। 31 अगस्त को तड़के ही सोते समय दिल का दौरा पड़ने से उनका निधन हो गया।
कॉमरेड रामनाथ की आयु लगभग 83 वर्ष की थी। अस्वस्थ तो वे विगत कई वर्षों से थे लेकिन पिछले कुछ समय से उनका स्वास्थ्य बहुत ख़राब हो गया था।
भारत के कम्युनिस्ट क्रान्तिकारी आन्दोलन का इतिहास का. रामनाथ की भूमिका और अवदानों की चर्चा के बग़ैर लिखा ही नहीं जा सकता। निस्सन्देह उनकी भूमिका ऐतिहासिक थी और ‘पाथब्रेकिंग’ थी।
बलिया ज़िले के गंगा तटवर्ती एक गाँव के भूस्वामी परिवार में पैदा हुए का. रामनाथ, राहुल सांकृत्यायन के प्रभाव में किशोरावस्था में ही मार्क्सवादी बन चुके थे और बीहड़ यायावरी तथा दर्शन, इतिहास, कला-साहित्य और राजनीति के घनघोर अध्ययन को अपनी आदत बना चुके थे। 1960 के दशक के उथल-पुथल भरे वर्षों में कोलकाता उनकी अध्ययनशाला, क्रान्तिकारी प्रशिक्षणशाला और प्रयोगशाला बना जहाँ वे क़ानून का अध्ययन कर रहे थे। उनकी राजनीतिक जीवन-यात्रा अविभाजित कम्युनिस्ट पार्टी से शुरू हुई, फिर माकपा से होते हुए कन्हाई चटर्जी के नेतृत्व वाले कम्युनिस्ट क्रान्तिकारी ग्रुप ‘चिन्ता ग्रुप’ तक पहुँची जिसने बाद में अपने को ‘दक्षिण देश ग्रुप’ और फिर ‘माओवादी कम्युनिस्ट केन्द्र’ के रूप में संगठित किया। 1969 में भाकपा (माले) की स्थापना की घोषणा के बाद (1970 में हुई पार्टी कांग्रेस के पहले ही) का. रामनाथ भाकपा (माले) में शामिल हो गये और उत्तर प्रदेश और बिहार के गंगा तटवर्ती ज़िलों गाज़ीपुर, बलिया, आरा-भोजपुर के ग्रामीण इलाक़ों में आकर काम करने लगे।
चारु मजूमदार के निधन के बाद पार्टी के पुनर्गठन के प्रयासों में का. रामनाथ ने एक अग्रणी भूमिका निभायी और मुख्यत: उन्हीं के प्रयासों से फ़रवरी 1974 में केन्द्रीय सांगठनिक कमेटी (सी.ओ.सी.) भाकपा (माले) का गठन सम्भव हो सका, जिसकी नेतृत्वकारी कमेटी में जगजीत सिंह सोहल, सुनीति कुमार घोष, कोण्डापल्ली सीतारमैय्या और शामलाल (चोपड़ा) के साथ का. रामनाथ भी शामिल थे। सी.ओ.सी. भाकपा (माले) में काम करते हुए ही का. रामनाथ ने चारु की “वाम” दुस्साहसवादी लाइन के ख़िलाफ़ दृढ़ और सुसंगत स्टैण्ड लिया जो संगठन में गम्भीर मतभेद का विषय बना। “वाम” दुस्साहसवाद के विरुद्ध समझौताविहीन और सुसंगत संघर्ष चलाने वाले ग्रुपों और व्यक्तियों में नागीरेड्डी-डी.वी. राव और हरभजन सिंह सोही के बाद का. रामनाथ का ही नाम अग्रणी माना जा सकता है। सी.ओ.सी. काल के दौरान का. रामनाथ ने विशेषकर आपातकाल के अनुभवों के आधार पर भारतीय पूँजीपति वर्ग और राज्यसत्ता के चरित्र पर सवाल उठाना शुरू कर दिया था और देहाती क्षेत्र में ज़मीनी कामों के अनुभवों के आधार पर भूमि-सम्बन्धों के सामन्ती चरित्र की स्थापित धारणा पर भी सोचने लगे थे।
सी.ओ.सी. के विघटन के बाद मार्च 1978 में जब का. रामनाथ के नेतृत्व में भारत की कम्युनिस्ट लीग (मार्क्सवादी-लेनिनवादी) का गठन हुआ, तो तमाम सांगठनिक संकटों और प्रतिकूल परिस्थितियों के बावजूद का. रामनाथ के मार्गदर्शन और नेतृत्व में भारतीय समाज की प्रकृति और क्रान्ति के कार्यक्रम के सवाल पर गहन शोध-अध्ययन के बाद भाकली (माले) ने 1982 में यह निष्कर्ष निकाला कि भारतीय समाज चीन की तरह अर्द्धसामन्ती-अर्द्धऔपनिवेशिक या नवऔपनिवेशिक न होकर एक पिछड़ा हुआ पूँजीवादी समाज है, यहाँ का पूँजीपति वर्ग दलाल न होकर राजनीतिक रूप से स्वतंत्र और साम्राज्यवाद का कनिष्ठ साझीदार है, कतिपय प्राक्-पूँजीवादी अवशेषों के बावजूद यहाँ के भूमि-सम्बन्ध ‘प्रशियाई मार्ग’ के भारतीय संस्करण के ज़रिए क्रमिक रूपान्तरण के बाद मूलत: और मुख्यत: पूँजीवादी बन चुके हैं और इसलिए भारतीय क्रान्ति की मंज़िल अब राष्ट्रीय जनवादी नहीं बल्कि पूँजीवाद-विरोधी साम्राज्यवाद-विरोधी समाजवादी क्रान्ति की मंज़िल है। 1983 में इस थीसिस के दस्तावेज़ रूप में प्रकाशन के बाद पूरे देश के कम्युनिस्ट क्रान्तिकारी संगठनों से एक लम्बी बहस की शुरुआत हुई और जिस सवाल को हल हुआ माना जा रहा था, वह अध्ययन और राजनीतिक बहस का एक केन्द्रीय प्रश्न बन गया। आगे चलकर कई संगठनों ने समाजवादी क्रान्ति की अवस्थिति अपनायी।
1986 में का. रामनाथ के ही मार्गदर्शन और नेतृत्व में द्वितीय विश्वयुद्धोत्तर कालीन वैश्विक बदलावों और समकालीन दुनिया के साम्राज्यवादी समीकरणों में बदलावों पर भी शोध-अध्ययन की शुरुआत हुई जो 1987 में एक वृहद दस्तावेज़ के रूप में प्रकाशित हुआ। इस शोध-अध्ययन का उद्देश्य नयी विश्व परिस्थितियों में विश्व सर्वहारा क्रान्ति की आम राजनीतिक कार्यदिशा की समझ विकसित करने की दिशा में आगे क़दम बढ़ाना था। दुर्भाग्यवश, यह प्रक्रिया आगे नहीं बढ़ सकी। लेकिन इस गम्भीर पहल की ऐतिहासिक महत्ता को कम्युनिस्ट क्रान्तिकारी आन्दोलन के इतिहास का कोई गम्भीर अध्येता क़तई ख़ारिज नहीं कर सकता।
उल्लेखनीय है कि इस पूरे दौर में का. रामनाथ ने दक्षिणपन्थी और “वामपन्थी” अवसरवाद के दोनों छोरों के विरुद्ध दृढ़ और सुसंगत अवस्थिति अपनायी। विनोद मिश्र के “सतरंगा समाजवाद” की सर्वाधिक विस्तृत और सांगोपांग आलोचना भाकली (माले) ने ही पहली बार का. रामनाथ के दिशा-निर्देश पर 1988 में प्रस्तुत की थी।
मुख्यत: भारतीय क्रान्ति के कार्यक्रम के प्रश्न पर अपने ऐतिहासिक और पथान्वेषी अवदान के बावजूद का. रामनाथ एक लेनिनवादी सांगठनिक कार्यदिशा को गहरे अहसास के साथ समझने और पार्टी-निर्माण और कार्यप्रणाली के स्तर पर लागू कर पाने में विफल रहे, जिसके चलते महत्वपूर्ण उपलब्धियों और उल्लेखनीय प्रगति के बाद भाकली (माले) 1980 के दशक के अन्तिम वर्षों में गतिरोध और विघटन का शिकार हो गयी। इस संकट के बुनियादी कारणों की शिनाख़्त नहीं कर पाने के कारण 1991 के बाद सांगठनिक पुनर्गठन के का. रामनाथ के सभी प्रयास विफल होते गये और उनके साथ खड़े कई एक लोग और उनसे छिटकने वाले कई एक ग्रुप या तो बहुरंगी ग़ैर-बोल्शेविक सामाजिक-जनवादी पंककुण्ड में धँसते चले गये या विसर्जित होते चले गये। इन वर्षों के दौरान स्वयं का. रामनाथ भी अपने सैद्धान्तिक कामों को आगे नहीं बढ़ा सके। यहाँ तक कि भारतीय समाज के बुनियादी अन्तरविरोधों के बारे में भी वे अपनी पूर्व अवस्थिति से विचलित होकर कुछ अन्तरविरोधी बातें करने लगे थे और भूमण्डलीकरण के दौर को भी पुराने साँचे (नवऔपनिवेशीकरण) में ही फ़िट करके देखने की कोशिश करते रहे।
लेकिन का. रामनाथ के लम्बे कम्युनिस्ट क्रान्तिकारी जीवन के अन्तिम चरण की इन विफलताओं और इन गतिरोधों के बावजूद भारत के कम्युनिस्ट क्रान्तिकारी आन्दोलन के इतिहास में उनकी ऐतिहासिक सकारात्मक और साहसिक पथान्वेषी भूमिका से कोई भी इन्कार नहीं कर सकता। सबसे अहम बात यह है कि अपनी अन्तिम साँस तक का. रामनाथ एक कम्युनिस्ट क्रान्तिकारी बने रहे और मार्क्स, एंगेल्स, लेनिन, स्तालिन, माओ के शिष्य के रूप में ही ख़ुद को देखते रहे। का. रामनाथ ने समाजवादी क्रान्ति के कार्यक्रम का जो पथसन्धान किया था और इस परचम को उठाकर जो यात्रा शुरू की थी, वह यात्रा आज भी जारी है और आगे भी जारी रहेगी, चाहे परिस्थितियाँ कितनी भी प्रतिकूल हों। आज माओवाद की विचारधारा और नयी समाजवादी क्रान्ति के कार्यक्रम को आगे बढ़ाते हुए कम्युनिस्ट क्रान्तिकारी आन्दोलन की जो धारा आज के साम्राज्यवाद का और भारतीय क्रान्ति के विविध प्रश्नों का अध्ययन करते हुए सामाजिक प्रयोगों में क्रान्तिकारी जनदिशा को लागू कर रही है, वह अपने को गर्व से का. रामनाथ का उत्तराधिकारी मानती है।
हम का. रामनाथ को हमेशा बहुत प्यार और लगाव के साथ याद करते रहेंगे। हम उन्हें कभी नहीं भुला सकते। भारत के सभी सच्चे कम्युनिस्ट क्रान्तिकारी उन्हें कभी नहीं भुला सकते।
हम भरे दिल से, तनी मुट्ठियों के साथ का. रामनाथ को आख़िरी लाल सलाम पेश करते हैं और संकल्प लेते हैं कि जिस कारवां ने 1978 में उनके नेतृत्व में एक बीहड़ यात्रा की शुरुआत की थी, वह उसे जारी रखेगा। पुराने क्रान्ति-योद्धाओं के रिक्त स्थानों को कई-कई युवा क्रान्ति-योद्धा भरते रहेंगे और कारवां चलता रहेगा…बढ़ता रहेगा…

अलविदा का. रामनाथ!
लाल सलाम! लाल सलाम!!

मज़दूर बिगुल, सितम्बर 2021


 

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