वेतन न देने और वेतन कटौती में घपलेबाज़ी को लेकर मानेसर की श्रीनिसंस कम्पनी के मज़दूरों के क़ानूनी संघर्ष की उम्मीदें भी लगभग ख़त्म!

– शाम मूर्ति

श्रीनिसंस वायरिंग लिमिटेड (मानेसर) के मज़दूरों को पिछले छह महीने से उनके वेतन का भुगतान नहीं किया गया है। दूसरे, वेतन से कम्पनी द्वारा पैसा काटने के बावजूद न तो पी.एफ़. और न ही ई.एस.आयी. में पैसा जमा किया गया है; और न ही मज़दूरों द्वारा कम्पनी से लिये गये क़र्ज़ की क़िश्त चुकायी जा रही थी। इस तानाशाही व घपलेबाज़ी की शिकायत मज़दूरों ने श्रम उपायुक्त को 9 जुलाई को लिखित रूप में भी की थी। स्टाफ़ के क़रीब 20 मज़दूरों की तनख़्वाह का जनवरी 2021 से तथा ठेका व अप्रेण्टिस मज़दूरों का अप्रैल 2021 से भुगतान नहीं किया गया है। शिकायत के बाद एक महीने की तनख़्वाह उनके खाते में ज़रूर डाल दी गयी है। अभी भी क़रीब 50 अप्रेण्टिस मज़दूरों, 15-20 ठेका मज़दूरों तथा स्टाफ़ के 20 मज़दूरों की सैलरी का भुगतान बकाया है। वेतन न मिलने के कारण बहुत से मज़दूर काम भी छोड़ चुके हैं। क़रीब 200 ठेका मज़दूरों में से महज़ 15-20 मज़दूर और स्टाफ़ के भी क़रीब 85 में से 50 मज़दूर ही बचे हैं।
कम्पनी प्रबन्धन इन समस्याओं का कारण काम की कमी बता रहा है जबकि मज़दूर कह रहे रहे हैं कि काम की कमी नहीं है। उल्टे काम इतना है कि कम्पनी ऑर्डर पूरा नहीं कर पा रही है। फ़िलहाल कम्पनी में समस्याओं के बावजूद काम चल रहा है और बचे हुए मज़दूर काम भी कर रहे हैं और वेतन-सम्बधी समस्याओं से भी जूझ रहे हैं। असल में, इस कम्पनी को मालिकों के ही रिश्तेदारों को बेचने की तैयारी चल रही है। चूँकि काग़ज़ों में एक समय-सीमा के भीतर कम्पनी को दूसरी कम्पनी को सौंपना है तो पहले पुराने मज़दूरों को निकालने का षड्यंत्र रचा जा रहा है।
श्रीनिसंस कम्पनी ऑटोमोबाइल सेक्टर के लिए कल-पुर्जे़ बनाने वाली एक वेण्डर कम्पनी है जो मारूति, हीरो जैसी मदर कम्पनियों तथा नपीनो, प्रीकॉल मिण्डा, मदरसन, लुकास टी.वी.एस., इण्टरफे़स, अस्ती, पदमिनी, वी.एन.ए., एस.एम.एल, फ़िलिप्स आदि वेण्डर कम्पनियों के लिए हारनेस बनाती है। इसका दूसरा प्लाण्ट रुद्रपुर में है।
पिछली 19 जुलाई को मज़दूरों को डी.एल.सी. ऑफ़िस में सुनवाई के लिए बुलाया गया था। लेकिन न तो उस दिन श्रम उपायुक्त दिनेश कुमार (गुड़गाँव) आये और न ही प्रबन्धन की तरफ़ से कोई आया। 23 जुलाई को होने वाली अगली सुनवाई के पहले ही कम्पनी ने पॉवर कट का बहाना बनाकर काम बन्द कर दिया और गेट भी नहीं खोला । 27 जुलाई की समझौता वार्ता में कम्पनी के न आने पर श्रम विभाग ने एक्स पार्टी (एकपक्षीय निर्णय) के तौर पर फै़सला दिया जिसके आधार पर मज़दूर बिना किसी ज़मीनी संघर्ष की तैयारी के, महज़ क़ानूनी तरीक़े से अधिकार पाने का सपना देखने लगे थे।
पहले भी ऐसा देखा गया है कि कम्पनी के बिकने या 30 दिन की समय-सीमा के अन्दर दोबारा सुनवाई करके निर्णय को पलट दिया गया और मज़दूरों के साथ धोखा हो गया। अगस्त में कम्पनी प्रबन्धन ने बचे-खुचे मज़दूरों की एकता को डरा-धमकाकर व भविष्य का डर दिखाकर तोड़ दिया। कम्पनी प्रबन्धन द्वारा यही कहा गया कि अभी जो मिल रहा है, उसे ले लो, वरना वह भी नहीं मिलेगा, कोर्ट के चक्कर काटते रह जाओगे। इस तरह से जो क़ानूनी संघर्ष की सम्भावना थी उसे भी बुरी तरह से कमज़ोर कर दिया गया। 60-70 मज़दूरों में भी महज़ 10-15 बचे थे, जिसमें 4-5 स्टाफ़ के थे और 10-12 कम्पनी रोल पर। एक मज़दूर ने बताया कि मज़दूर 20-50 हज़ार रुपये में हिसाब लेकर काम छोड़कर चले गये हैं। कइयों ने तो पूरा वेतन और मुआवज़ा तक भी नहीं लिया, जो मिला उसी को ठीक समझा। ऐसे में अब सब मज़दूरों को हिसाब मिलना भी मुश्किल लग रहा है।
यह सब तब हुआ जब कम्पनी ने बिना किसी नोटिस, चेतावनी व तफ़तीश के एकतरफ़ा मनमर्ज़ी से आवाज़ उठाने वाले मज़दूरों को गेट बन्द करके बाहर कर दिया। इस तरह प्रबन्धन द्वारा मारपीट की धमकी से गेट पर बैठे मज़दूरों का हौसला टूट गया। ऑटोमोबाइल इण्डस्ट्री काण्ट्रैक्ट वर्कर्स यूनियन ने उनके सामने यही बात रखी कि हमें जल्द से जल्द मीटिंग करके सामूहिक रूप से संघर्ष का रास्ता निकालना चाहिए। लेकिन मज़दूर अपने आप को इसके लिए तैयार नहीं कर पाये। प्रबन्धन के डर से मज़दूर किसी भी यूनियन से रिश्ता बनाने से डर रहे थे।
संघर्ष की कमज़ोरी क्या थी? अगर मुड़कर देखें, तो पहले ज़मीनी संघर्ष का रास्ता छोड़कर महज़ क़ानूनी प्रक्रिया पर निर्भरता का रास्ता अपनाया गया। फिर मालिकों द्वारा डराने-धमकाने पर मज़दूर डर गये और एक-एक करके टूटते चले गये। जब मज़दूरों को ज़बरन दोबारा गेटबन्द करके बाहर किया गया था, उसी वक़्त मज़दूरों को एकजुट होकर ज़मीनी संघर्ष के रास्ते पर बढ़ना चाहिए था। तब भी ऑटोमोबाइल इण्डस्ट्री काण्ट्रैक्ट वर्कर्स यूनियन यही कह रही थी कि एक परचा निकालकर पूरे मानेसर के औद्योगिक क्षेत्र में बाँटते हुए इलाक़े के विभिन्न फैक्ट्री मज़दूरों से संघर्ष में साथ देने की अपील करनी होगी, चाहे उन फै़क्ट्रियों में यूनियन हो या न हो। लेकिन श्रीनिसंस फै़क्ट्री के मज़दूरों की न तो कोई अपनी यूनियन थी और न ही किसी आन्दोलन में शामिल होने का अनुभव और न ही फै़क्ट्री स्तर पर मज़दूरों की कोई संघर्ष समिति थी। इसलिए वे किसी भी तरह के एकजुट संगठित संघर्ष का रास्ता नहीं अपना सके। दूसरे शब्दों में, मज़दूर साथियों का संघर्ष और राजनीति से साबका बहुत ही कम था। संघर्ष और राजनीति की अनुभवहीनता और उनके प्रति उदासीनता और साथ ही क़ानूनी प्रक्रिया पर पूर्ण विश्वास उनकी मुख्य कमज़ोरियाँ थीं। हम मज़दूरों को यह समझ लेना चाहिए कि श्रम विभाग से लेकर फ़ैक्ट्री इंस्पेक्टर आदि पूँजीपतियों, मालिकों और ठेकेदारों की सेवा करते हैं। कोई एक अधिकारी ईमानदार भी हो तो भी वह कुछ ख़ास नहीं कर सकता है क्योंकि जब कभी मज़दूरों के पक्ष में श्रम विभाग का फै़सला आता भी है तो उसे लागू करने की कोई व्यवस्था भारत की पूँजीवादी व्यवस्था में जानबूझकर की ही नहीं गयी है। क़ानूनी संघर्ष कभी-कभार ही सफल होते हैं और वह भी तब जब उसके पीछे मज़बूत ज़मीनी संघर्ष मौजूद हो।

ज़रूरी सबक़

इन दिनों मज़दूरों की तनख़्वाह देर से मिलना, अधूरी मिलना या न मिलने के मामले बढ़ते ही जा रहे हैं, कुछेक मामलों को छोड़कर अनियमित मज़दूरों के मामले श्रम विभाग तक पहुँच ही नहीं पाते हैं। शायद ही कोई कम्पनी होगी कि जहाँ काम करने वाले कच्चे मज़दूरों की तनख़्वाह के मामले में कभी कोई समस्या न आयी हो। इसलिए मज़दूरों को महज़ श्रम विभाग और श्रम न्यायालय के निर्णयों तक अपने आप को सीमित नहीं रखना चाहिए, संघर्ष के मुख्य पहलू यानी ज़मीनी संघर्ष की तैयारी व कारवाई को जारी रखना चाहिए। जब दुनिया में श्रम क़ानून नहीं थे तो संघर्षों के ज़रिए ही श्रम क़ानून बनवाये गये थे और लागू भी करवाये गये थे। आज ज़मीनी संघर्षों के कमज़ोर पड़ने की वजह से पहले के हासिल किये गये अधिकार ग़ैर-क़ानूनी और क़ानूनी तौर पर छीने जा रहे हैं। इसके लिए एक बार फिर से देश में मज़दूरों को हक़ और इंसाफ़ की लड़ाई के लिए कमर कसनी होगी। ज़मीनी संघर्षों को भी तभी आगे बढ़ाया जा सकता है जब मज़दूर भाई और बहन अपने आस-पास के सभी मज़दूर और अन्य जनसंघर्षों से सक्रिय रिश्ता बनाएँ और मज़दूरों के संघर्षों के इतिहास से भी परिचित हों। साथ में ही इन सभी संघर्षों पर सोच-विचार करके अपने लिए सबक़ निकालना भी मज़दूरों के लिए बेहद ज़रूरी है क्योंकि इसी प्रक्रिया में वे अपने संघर्षों की कमज़ोरियों को भी समझेंगे और आने वाले दिनों के संघर्षों को पहले से ज़्यादा मज़बूत बनायेंगे। आज के समय में कारख़ाने के भीतर और सभी कारख़ानों के मज़दूरों और विशेषकर अस्थायी मज़दूरों की एकता और संगठन बहुत ज़रूरी है। उसके बिना उनकी ताक़त बेहद कम होती है और मालिक और ठेकेदार उनसे निपट लेते हैं। अगर हम ये सारे क़दम नहीं उठाते तो अचानक सिर पर मुसीबत पड़ने पर कुछ समझ नहीं आता। ऐसे में या तो डर व अनिश्चितता के कारण मज़दूर साथी जल्दी टूटते हैं और तुरन्त हिसाब ले लेते हैं या फिर तमाम ऐसी मौक़ापरस्त और समझौतापरस्त यूनियनों/फे़डरेशनों या ख़ुद की अनुभवहीन या मौक़ापरस्त और समझौतापरस्त कमेटी के चक्कर में फँसकर अन्त में थक-हार कर हिसाब लेने को मजबूर हो जाते हैं। थोड़े-बहुत मज़दूर बिना ज़मीनी संघर्ष के हक़ और न्याय पाने के इन्तज़ार में कोर्ट-कचहरी में घिसटते रहते हैं।
जहां तक मज़दूरों के क्रान्तिकारी यूनियन आन्दोलन का प्रश्न है, आज ज़रूरत है कि मज़दूरों को कारख़ाने के पैमाने के साथ-साथ पूरे सेक्टर और इलाकाई पैमाने पर एकजुट और संगठित किया जाये ताकि संकट की घड़ी में एक-दूसरे के साथ खड़ा हुआ जा सके। इस बात को पहले से कहीं ज़्यादा और जल्द से जल्द लागू करने की ज़रूरत है ताकि अपनी रोज़ी-रोटी को बचाया जा सके और लूट, शोषण व दमन के ख़िलाफ़ समूचे मज़दूर वर्ग और आम मेहनतकश आबादी का सशक्त प्रतिरोध खड़ा किया जा सके। पूँजीवाद के मुनाफ़े की दर गिरने का संकट पहले से कहीं ज़्यादा तेज़ होता जा रहा है और मज़दूरों के लूट, शोषण व दमन तेज़ होता जा रहा है। यही समय है कि हम मज़दूर जल्द से जल्द एकजुट हो जायें, संगठित हो जायें, और सोच-समझकर अपने संघर्ष को आगे बढ़ायें। मालिक, ठेकेदार, जॉबर आदि हमसे ज़्यादा नहीं हैं, लेकिन वे हमसे ज़्यादा संगठित हैं और उनके पीछे सरकारों की ताक़त है। दूसरी ओर, हम असंगठित और बिखरे हुए हैं। यदि हम संगठित और एकजुट हों तो सरकारों की ताक़त साथ होने के बावजूद वे हमसे मुक़ाबला नहीं कर सकते। वे अभी ऊँचे इसलिए दिख रहे हैं क्योंकि हम घुटनों पर बैठे हुए हैं।

मज़दूर बिगुल, सितम्बर 2021


 

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