भ्रष्टाचार का राजनीतिक अर्थशास्त्र
भ्रष्टाचार आदिम पूँजी संचय का ही एक रूप है

आलोक रंजन

पिछले दिनों एक के बाद एक, भ्रष्टाचार के जितने बड़े मामले उछलते रहे (और यह सिलसिला अभी जारी है) और जन्तर-मन्तर से रामलीला मैदान तक आन्दोलन और विरोध के जितने ड्रामे हुए, उन्होंने भ्रष्टाचार के विषय को सार्वजनिक विमर्श के केन्द्र में ला दिया। एक सामान्य धारणा आम जनमानस में स्थापित हुई है कि सरकार, संसद और न्यायपालिका के ऊपर कुछ प्रशासकीय अंकुश एवं नियंत्रण की प्रणाली (जैसे जनलोकपाल) बनाकर भ्रष्टाचार पर काफ़ी हद तक अंकुश लगाया जा सकता है। दूसरा, विदेशों में संचित अकूत काले धन को देश लाकर जनजीवन को ख़ुशहाल बनाया जा सकता है। तीसरा, यदि सच्चरित्र लोग चुनकर संसद में जायें और चुनाव ख़र्च पर नज़र रखने का तंत्र हो तो राजनीतिक भ्रष्टाचार समाप्त हो सकता है।

ये तीनों ही धारणाएँ नितान्त भ्रामक हैं और पूँजीवाद तथा पूँजीवादी जनवाद (लोकतंत्र) के असली चरित्र पर पर्दापोशी करने और उसकी मिट्टी में मिल चुकी साख को किसी हद तक बहाल करने की कोशिश करती हैं। पहली दो धारणाएँ बताती हैं कि कुछ प्रशासकीय बदलाव करके और कुछ राजनीतिक क़दम उठाकर भ्रष्टाचार का होलिकॉ-दहन सम्पन्न किया जा सकता है। तीसरी धारणा भ्रष्टाचार के प्रश्न को व्यक्तिगत नैतिकता-शुचिता का प्रश्न बनाकर प्रस्तुत करती है (पाखण्डी नसीहतबाज़ी का सबसे चालू जुमला यह है कि हर व्यक्ति अपने को ठीक कर ले तो पूरी व्यवस्था ठीक हो जायेगी)।

भ्रष्टाचार का प्रश्न महज़ शासन-प्रशासन की प्रणाली में बदलाव का प्रश्न नहीं है (ऐसा होता तो दो-चार मैनेजमेण्ट गुरु इससे निपटने का सबसे सटीक उपाय बता देते)। भ्रष्टाचार का सवाल व्यक्तिगत नैतिकता-शुचिता का सवाल, यानी एक आध्यात्मिक नैतिक प्रश्न भी नहीं है। यह एक समाज-वैज्ञानिक प्रश्न है। यह राजनीतिक अर्थशास्त्र का प्रश्न है। भ्रष्टाचार और काले धन का सवाल पूँजीवाद की बनावट और कार्यप्रणाली के साथ गुँथा-बुना है। अतः ज़रूरी है कि भ्रष्टाचार के राजनीतिक अर्थशास्त्र को जानने- समझने की कोशिश की जाये।

आदिम पूँजी-संचय और मुनाफ़े को लगातार बढ़ाते जाने की प्रक्रिया पूँजीवाद की बुनियादी गतिकी है और भ्रष्टाचार इन दोनों चीज़ों के साथ संश्लिष्ट ढंग से जुड़ा हुआ है। आदिम पूँजी संचय का मतलब है कि पूँजीवाद के जन्मकाल से “स्‍टॉक” यानी कि परिसम्पत्तियाँ और “फ्लोज़” यानी कि आमदनी लगातार छोटे उत्पादकों की क़ीमत पर पूँजीपतियों के पास संकेन्द्रित होती चली जाती है। पूँजीवाद जब अस्तित्व में आया तो उपनिवेशों की अकूत लूट और छोटे उत्पादकों को उजाड़कर उसने पूँजी-संचय किया। आदिम पूँजी-संचय की यह प्रक्रिया आगे भी लगातार जारी रही। छोटे उत्पादकों का सम्पत्तिहरण, पूँजीवादी राजकीय स्वामित्व के उपक्रमों को औने-पौने दामों पर हथियाने तथा खनिज निकालने एवं कारख़ाने लगाने के लिए जंगलों-पहाड़ों को कब्‍ज़ि‍याने के रूप में यह प्रक्रिया आज भी लगातार जारी है। उजड़े हुए सभी छोटे उत्पादकों का एक अत्यन्त छोटा हिस्सा ही आज निजी या सार्वजनिक संगठित उद्योगों में मज़दूर के रूप में खप पाता है। मज़दूरों को ज्यादा से ज्यादा निचोड़ने के लिए ये संगठित उद्योग भी ज़्यादा काम ठेके पर ‘इनफ़ॉर्मल सेक्टर’ से ही कराते हैं जहाँ 95 प्रतिशत मज़दूर ठेका, दिहाड़ी, कैज़ुअल या पीस रेट पर काम करते हैं। इसके बाद पार्ट टाइम काम पाकर बमुश्किल तमाम जी पाने वाले तीस करोड़ बेरोज़गार हैं। यही उस “रोज़गारविहीन विकास” की अन्तर्कथा है, जिसमें सकल घरेलू उत्पाद के ऊँचे विकास के साथ-साथ देश में निरपेक्ष ग़रीबी, भी बढ़ती चली गयी है। देश की ऊपर की दस फ़ीसदी आबादी के पास कुल परिसम्पत्ति का 85 फ़ीसदी इकट्ठा हो गया है, जबकि नीचे की 60 फ़ीसदी आबादी के पास मात्र दो प्रतिशत है। 70 फ़ीसदी लोग 20 रुपये रोज़ से कम पर जीते हैं। कुपोषण और भुखमरी के मामले में भारत दुनिया के देशों में सबसे नीचे के पायदान वाले देशों के बीच खड़ा है। बहरहाल, अब मूल विषय पर वापस लौटते हैं।

पूँजीवादी आर्थिक विकास का मतलब ही है पूँजी-संचय और ‘प्रॉफिट मैक्सिमाइजे़शन’ की अनवरत जारी प्रक्रिया, जो एक ओर थोड़े से हाथों में पूँजी के संकेन्द्रण और दूसरी ओर ज़्यादा से ज़्यादा निचोड़े जाने वाले उजरती ग़ुलामों की भीड़ को जन्म देती है। पूँजी-संचय और मुनाफ़े को लगातार ज़्यादा से ज़्यादा बढ़ाते जाने की प्रवृत्ति एक ऐसा माहौल बनाती है जिसमें क़ानूनी और ग़ैरक़ानूनी शोषण के बीच की, शोषण और लूट के बीच की रेखाएँ धीरे-धीरे मिट-सी जाती हैं। आदिम पूँजी संचय शुरू से ही इसी तरह होता रहा है। याद करें, उपनिवेशों की लूट और दासों का व्यापार क़ानूनी दायरे से बाहर बर्बर लूटमार जैसी ही चीजे़ं थीं।

जब भारत को राजनीतिक स्वतंत्रता मिली तो पूँजीपति वर्ग की राजनीतिक सत्ता ने बुनियादी और ढाँचागत उद्योगों में लगने वाली विपुल पूँजी का अम्बार जुटाने के लिए “समाजवाद” के नाम पर जनता की नस-नस से पैसा निचोड़कर पब्लिक सेक्टर का विराट तंत्र विकसित किया जिसका पूरा लाभ प्राइवेट सेक्टर के उद्यमों को ही मिला। यानी “समाजवादी” मुखौटे वाले राजकीय पूँजीवाद ने जनता को “वैध” ढंग से ठगकर और निचोड़कर पूँजीवादी विकास के लिए आदिम पूँजी संचय किया। साथ ही पब्लिक सेक्टर ने नेताशाही- नौकरशाही को भी कमीशनख़ोरी- घूसख़ोरी का काफी मौक़ा दिया। इस पूरे दौर में क़ानूनी ढंग से भी सार्वजनिक परिसम्पत्तियों और जनता की कमाई से (सस्ती दरों पर खनिज कच्चा माल, बिजली, परिवहन, सुविधा आदि मुहैया कराकर) पूँजीपतियों को लाभ कमाने का अवसर दिया गया और गै़रक़ानूनी ढंग से भी। नेताओं और नौकरशाहों के पास कमीशन और घूस से काला धन और ‘अनअकाउण्टेड मनी’ का अम्बार संचित हुआ।

बीस-पच्चीस वर्षों पहले जब उदारीकरण-निजीकरण का दौर शुरू हुआ तो प्रायः यह कहा जाता था कि “लाइसेंस-कोटा-परमिट राज” ख़त्म होने से भ्रष्टाचार और काला धन पर रोक लगेगी। पर हुआ ठीक उल्टा। घोटालों की संख्या और उनमें संलिप्त धनराशि कई-कई गुना अधिक हो गयी। सार्वजनिक उपक्रमों और सामाजिक प्राकृतिक सम्पदा (खनिज निकालने के लिए वनों-पहाड़ों की ज़मीन, नदियों का पानी, स्पेक्ट्रम लाइसेंस आदि) को कौड़ियों के माल प्रतिस्पर्द्धी पूँजीपतियों को सौंपते हुए नेताओं-नौकरशाहों ने ख़ूब कमाई की। आम जनता की जो बचत सार्वजनिक बैंकों में जमा होती थी, उसे उधार के रूप में लेकर पूँजी निवेश करके पूँजीपति कई गुना मुनाफ़ा कमाने के बाद मूल धन को भी हड़पने लगे। सालाना खरबों रुपये के इस ग़बन को बैंक ‘नॉन परफ़ॉर्मिंग एसेट्स’ के खाते में दर्ज कर लेते हैं। काला धन पैदा होने का एक और महत्वपूर्ण स्रोत टैक्स चोरी है। इसके अतिरिक्त, अनौपचारिक क्षेत्र की बहुसंख्यक मज़दूर आबादी को जितनी न्यूनतम मज़दूरी देनी होती है और उनकी सामाजिक सुरक्षा पर जो ख़र्च करना होता है, पूँजीपति वह भी नहीं करते और इस तरह नौकरशाही-नेताशाही को घूस देकर, खुद भी ग़ैरक़ानूनी मुनाफ़े का अम्बार इकट्ठा करते हैं।

‘ग्लोबल फाइनेंशियल इण्टिग्रिटी’ के वरिष्ठ अर्थशास्त्री देव कर के अध्ययन के अनुसार 1948 से 2008 के बीच के साठ वर्षों के बीच 213 अरब डालर अवैध धन देश से बाहर गया। इस पूँजी-पलायन का वर्तमान समायोजित मूल्य 462 अरब डालर (2008 में देश के सकल घरेलू उत्पाद का 36 प्रतिशत) है। ग़ौरतलब है कि धन की इस ‘साइफ़निंग’ का 68 प्रतिशत 1991 के बाद हुआ है। इससे भी अहम बात यह है कि जितना अवैध पैसा देश से बाहर गया है, उससे पाँच गुना अधिक काला धन देश के भीतर मैजूद है।

सवाल है कि यह काला धन जाता कहाँ है? इस धन का अनेक रास्तों से निवेश होता है और यह पूँजी में तब्दील हो जाता है। यानी कि काले धन का पैदा होना आदिम पूँजी-संचय का ही एक रूप है। काले धन का स्वामी घर में धन गाड़कर नहीं रखता है। जैसा कि मार्क्स ने कहा था, “कंजूस व्यक्ति ऐसा पूँजीपति होता है जो पागल हो गया होता है, जबकि पूँजीपति एक तर्कशील कंजूस होता है” (पूँजी; खण्ड-1, अध्याय-4)। ‘पूँजी’ के उसी अध्याय में मार्क्स लिखते हैं कि मुद्रा और माल के रूप में मौजूद पूँजी बेशी मूल्य पैदा करते हुए स्वयं अपने मूल्य का विस्तार करती जाती है। “चूँकि वह मूल्य है, इसलिए उसमें ख़ुद अपने में मूल्य जोड़ लेने का अलौकिक गुण पैदा हो गया है। यह जीवित सन्तान पैदा करती है या यूँ कहिये कि कम से कम सोने के अण्डे तो देती ही है।”

काला धन सैकड़ों तिकड़मों से उद्योगों में लगाया जाता है, शेयर बाज़ार में लगता है, सिनेमा-मनोरंजन और विज्ञापन उद्योग में लगता है, और देशों की सीमा पार कर आवारा पूँजी के गिरोह में शामिल होकर तुरन्त लाभ की तलाश में पूरी पृथ्वी पर विचरण करता है। पूँजी की आवाजाही के लिए खुली छूट का लाभ उठाकर बाहर गया काला धन प्रत्यक्ष विदेशी निवेश (एफ.डी.आई.) के रूप में अपने मूल देश या अन्य किसी देश में भी निवेशित हो जाता है। मारीशस के साथ भारत का ‘दोहरा कराधान परिहार समझौता’ (डबल टैक्सेशन अवायडेंस एग्रीमेण्ट) है। इसका लाभ उठाकर देश से बाहर गया काला धन एफ.डी.आई. के रूप में वापस आ जाता है। भारत में आज जो कुल प्रत्यक्ष विदेशी निवेश है, उसका 40 प्रतिशत मारीशस-रूट से आया है। काला धन यदि देशी-विदेशी बैंकों में पड़ा भी रहता है तो पूँजीपति कर्ज़ लेकर उसे अपने उद्योगों में लगाते हैं। फिर काला धन लगाने का एक रास्ता ‘रीयल एस्टेट’ में निवेश या सोना ख़रीदना है, जिनका समय के साथ मूल्य बढ़ता रहता है। यानी जीवित सन्तान न पैदा करना तो कम से कम सोने के अण्डे देना!

तात्पर्य यह कि काला धन पैदा होना आदिम पूँजी-संचय का ही एक रूप है। आदिम पूँजी-संचय शुरू से ही क़ानूनी और ग़ैर क़ानूनी, “शरीफ़ाना” और लूटमार वाले – दोनों ही तरीक़ों से होता रहा है। यह पूँजीवाद की बुनियादी कार्यप्रणाली का एक अंग है। काले धन के राजनीतिक अर्थशास्त्र को नहीं समझने के चलते बहुतेरे लोग काला धन और भ्रष्टाचार के ख़िलाफ़ मुहिम चलाने वाले मजमेबाज़ों के लोक-लुभावन नारों के बहकावे में आ जाते हैं और पूँजीवाद से मुक्ति के ऐतिहासिक प्रोजेक्ट को जानने-समझने और उसमें लगने के बजाय इसी बूढे़ ड्रैक्यूला के ख़ून सने जर्जर चोंगे की सफ़ाई और पैबन्दसाज़ी में शामिल हो जाते हैं।

भ्रष्टाचार-मुक्त पूँजीवाद एक कपोलकल्पना है। और यदि ऐसा हो भी तो “सदाचारी” पूँजीवाद भी उतना ही मानवद्रोही और लुटेरा होगा। वैध लूट और अवैध लूट में कोई फ़र्क नहीं।

पूँजीवादी व्यवस्था में यदि न्यायपालिका भी भ्रष्ट हो सकती है, तो जनलोकपाल और उसके विराट स्टाफ़ का नौकरशाहाना ढाँचा पाक-साफ़ बना रहेगा, यह कोई मिट्टी का माधो ही सोच सकता है।

दुनिया भर के पूँजीपतियों और पूँजीवादी राज्यसत्ताओं का जो रिश्ता है, उसे देखते हुए विदेशी बैंकों में जमा काला धन ला पाना मुमकिन नहीं है। यदि वह आ भी जाये तो ऐसा नहीं है कि सरकार उसे जनहित में लगा देगी। वह पूँजीवादी ढंग से ही निवेशित होगा।

देश में पड़ा सारा काला धन भी यदि सफेद बना दिया जाये तो भी वह श्रम-शक्ति को ख़रीदने और निचोड़ने के ही काम आयेगा। और पूँजी-संचय की प्रक्रिया फिर नये सिरे से काले धन का उत्पादन करने लगेगी।

यदि सभी भ्रष्टाचारी नेताओं-अफ़सरों- ठेकेदारों-दलालों को फाँसी दे दी जाये तो पूँजीवादी सामाजिक-आर्थिक संरचना आनन- फ़ानन में उनकी नयी फ़ौज पैदा कर लेगी।

कुछ पूँजीपतियों को भी पूरी व्यवस्था के हक़ में बलि चढ़ा दिया जा सकता है और चढ़ा भी दिया जाता है। इससे कोई फ़र्क नहीं पड़ेगा। जबतक पूँजीवादी शोषण और तज्जन्य भयंकर सामाजिक असमानता बनी रहेगी, तबतक राजनीतिक ढाँचे में चाहे जो भी सुधार किये जायें, जनता लोकतांत्रिक अधिकारों से वंचित बनी रहेगी।

जबतक उत्पादन के समस्त साधनों पर मुट्ठीभर लोगों का मालिकाना बना रहेगा, तबतक वही लोग समस्त सामाजिक सम्पदा के वास्तविक स्वामी और राजनीतिक तंत्र के कर्ता-धर्ता बने रहेंगे। इतिहास का एजेण्डा पूँजीवाद से मुक्ति का एजेण्डा है, भ्रष्टाचार से मुक्ति का एजेण्डा मात्र एक भ्रमजाल है।

पूँजी का सूत्रवाक्य: ‘मुनाफ़े के लिए कुछ भी करेगा!’

‘पूँजी’ खण्ड-एक के 31 वें अध्याय के फुटनोट में कार्ल मार्क्स ने टी.जे. डनिंग की पुस्तक ‘ट्रेड-यूनियन्स ऐण्ड स्ट्राइक्स’ से एक दिलचस्प उद्धरण दिया है, उसे हम यहाँ ज्यों का त्यों दे रहे हैं:

“क्‍वार्टरली रिव्यूअर ने कहा है कि पूँजी अशान्ति और संघर्ष से दूर भागती है और बहुत भीरु होती है। यह बात बिल्कुल ठीक है, परन्तु केवल इतना ही कहना प्रश्न को बहुत अपूर्ण रूप में प्रस्तुत करना है। जिस प्रकार पहले कहा जाता था कि प्रकृति शून्य से घृणा करती है, उसी प्रकार पूँजी इसे बहुत नापसन्द करती है कि मुनाफ़ा न हो या बहुत कम हो। पर्याप्त मुनाफ़ा हो तो पूँजी बहुत साहस दिखाती है। 10 प्रतिशत मुनाफ़ा मिले तो पूँजी को किसी भी स्थान पर लगाया जा सकता है। 20 प्रतिशत का मुनाफ़ा निश्चित हो, तो पूँजी में उत्सुकता दिखाई पड़ने लगती है। 50 प्रतिशत की आशा हो, तो पूँजी स्पष्ट ही दिलेर बन जाती है। 100 प्रतिशत का मुनाफ़ा निश्चित हो, तो वह मानवता के सभी नियमों को पैरों तले रौंदने को तैयार हो जायेगी। और यदि 300 प्रतिशत मुनाफ़े की आशा हो, तो ऐसा कोई भी अपराध नहीं है, जिसको करने में पूँजी को संकोच होगा और कोई भी ख़तरा ऐसा नहीं हे, जिसका सामना करने को वह तैयार नहीं होगी। यहाँ तक कि अगर पूँजी के मालिक के फाँसी पर लटका दिये जाने का ख़तरा हो, तो भी वह नहीं हिचकिचायेगी। यदि अशान्ति और संघर्ष से मुनाफ़ा होता दिखायी देगा, तो वह इन दोनों चीज़ों को जी खोलकर प्रोत्साहन देगी। यहाँ जो कुछ कहा गया है, चोरी का व्यापार और दासों का व्यापार इसको पूरी तरह प्रमाणित करते हैं।”

 

रक्त और गन्द में लिथड़ी पूँजी
‘पूँजी’ खण्ड-1, (31वाँ अध्याय) में मार्क्स ने लिखा हैः “मैन्यूफैक्चर के काल में पूँजीवादी उत्पादन के विकास के साथ-साथ यूरोप का लोकमत लज्जा और विवेक के अन्तिम अवशेषों को भी खो बैठा था। सभी राष्ट्र हर ऐसे अनाचार की, जिससे पूँजीवादी संचय का काम निकलता था, बढ़-बढ़कर डींग मार रहे थे।” इसके उदाहरण के तौर पर मार्क्स ने “सुप्रतिष्ठित लोगों” द्वारा दासों के व्यापार के प्रशस्तिगान की चर्चा की है (उपनिवेशों की बर्बर लूट की चर्चा तो अन्यत्र कई जगह उन्होंने की है।) पूँजीवाद द्वारा ज़्यादा से ज़्यादा बेशी मूल्य निचोड़ने के लिए बच्चों और स्त्रियों द्वारा ग़ुलामों जैसी नारकीय स्थिति में काम लेने की उन्होंने चर्चा की है। उपरोक्त अध्याय के अन्त में मार्क्स लिखते हैः “यदि, औज़ि‍ए के कथनानुसार मुद्रा ‘अपने गाल पर एक जन्मजात रक्त का धब्बा लिये हुए संसार में आती है’, तो हम कहेंगे कि जब पूँजी संसार में आती है, तब उसके सिर से पैर तक प्रत्येक छिद्र से रक्त और गन्दगी टपकती रहती है।”

“पूँजी मृत श्रम है जो ख़ून पीने वाली पिशाचिनी की तरह जीवित श्रम को चूसकर ज़िन्दा रहती है, और जितना अधिक श्रम को चूसती है, उतना अधिक जीती है। जिस समय के दौरान मज़दूर काम करता है, वह समय होता है जब पूँजीपति उस श्रमशक्ति का उपयोग करता है, जिसे वह मज़दूर से खरीदता है।” – कार्ल मार्क्स

हर सम्पत्ति-साम्राज्य अपराध की बुनियाद पर खड़ा है।

– फ्रांसीसी लेखक ओनोर द बाल्ज़ाक

मज़दूर बिगुल, अक्‍टूबर 2012

 


 

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