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क्रान्तिकारी मज़दूर शिक्षणमाला – 12 : मुद्रा का पूँजी में रूपान्तरण और पूँजीवादी माल उत्पादन

माल उत्पादन दास समाज व अन्य आरम्भिक वर्ग समाजों के गर्भ में ही पैदा हुआ और सामन्ती समाज के दौरान भी मौजूद रहा, लेकिन इन प्राक्-पूँजीवादी समाजों में वह उत्पादन का प्रधान रूप या पद्धति नहीं था। वह किसी अन्य उत्पादन पद्धति के मातहत था और उनमें सहयोजित था, जैसे कि दास उत्पादन पद्धति, सामन्ती उत्पादन पद्धति, आदि। श्रम के अधिकांश उत्पाद अभी माल नहीं बने थे। मसलन, सामन्ती समाज में श्रम के समस्त उत्पादों का बड़ा हिस्सा अभी माल नहीं बना होता है। भूदास व निर्भर किसान इस समय सामन्त की भूमि या सामन्त द्वारा आवण्टित भूमि पर खेती करते थे और उनके उत्पाद का एक बड़ा हिस्सा उनसे बेशी उत्पाद (surplus product) के तौर पर या उनका बेशी श्रम सामन्तों द्वारा हड़प लिया जाता था।

क्रान्तिकारी मज़दूर शिक्षणमाला – 11 : स्वर्ण असमर्थित कागज़ी मुद्रा (फियेट मुद्रा) के विशिष्ट मार्क्सवादी नियम

पूँजीवादी उत्पादन में एक ऐसा दौर अपरिहार्य रूप से आता है जब उत्पादन और पूँजी का संचय एक ऐसी मंज़िल पर पहुँच जाता है जब सोने की मुद्रा या सोने में परिवर्तनीय अन्य धातुओं के सिक्कों या कागज़ी मुद्रा द्वारा उपस्थित सीमा एक बाधा बन जाती है। वजह यह है कि राज्यसत्ता व उसके मौद्रिक प्राधिकार अपने स्वर्ण रिज़र्व से बहुत अधिक मात्रा में अन्य परिवर्तनीय मौद्रिक प्रतीकों जैसे कि कागज़ी मुद्रा को जारी नहीं कर सकते हैं, क्योंकि राज्यसत्ता इन प्रतीकों का वास्तविक सोने के साथ निश्चित विनिमय दर पर विनिमय की गारण्टी देती है, जो अगर पूरी न हो तो समाज में इन मौद्रिक प्रतीकों को स्वीकार ही नहीं किया जायेगा।

मज़दूर आन्दोलन में मौजूद किन प्रवृत्तियों के ख़िलाफ़ मज़दूर वर्ग का लड़ना ज़रूरी है? – (चौथी क़िस्त)

अर्थवाद दरअसल मज़दूरों द्वारा किसी स्वतन्त्र राजनीतिक पार्टी के नेतृत्व में संगठित होने की कोई ज़रूरत समझता ही नहीं है। अर्थवादियों की माने तो मज़दूरों के जन संगठन यानी कि ट्रेड यूनियन ही मज़दूरों के आर्थिक व अन्य अधिकारों की नुमाइन्दगी करने के लिए काफ़ी है। जहाँ तक रूस के अर्थवादियों का प्रश्न था तो उनका मत था कि मज़दूर वर्ग को आर्थिक हक़ों की लड़ाई तक ही ख़ुद को महदूद रखना चाहिए और राजनीतिक संघर्ष और नेतृत्व का काम उदार बुर्जुआ वर्ग पर छोड़ देना चाहिए, वहीं लेनिन का मानना था कि रूस में राजनीतिक संघर्ष को आगे बढ़ाने के लिए जोकि उस वक़्त जनवादी कार्यभारों को पूरा करने का कार्यभार था, उदार पूँजीपति वर्ग के भरोसे नहीं रहा जा सकता है, जो सर्वहारा वर्ग के उग्र होते संघर्ष के समक्ष किसी भी समय प्रतिक्रियावाद की गोद में बैठने को तैयार है।

मज़दूर आन्दोलन में मौजूद किन प्रवृत्तियों के ख़िलाफ़ मज़दूर वर्ग का लड़ना ज़रूरी है? – (तीसरी क़िस्त)

लेनिन अर्थवादियों की इस समझदारी की आलोचना भी प्रस्तुत करते हैं जो कहती थी कि आर्थिक संघर्ष ही जनता को राजनीतिक संघर्ष में खींचने का वह तरीक़ा है जिसका सबसे अधिक व्यापक ढंग से इस्तेमाल किया जा सकता है। लेनिन के अनुसार यह राजनीतिक आन्दोलन को आर्थिक आन्दोलन के पीछे घिसटने की अर्थवादी नसीहत है। ज़ोर-ज़ुल्म और निरंकुशता की हर अभिव्यक्ति जनता को आन्दोलन में खींचने के लिए रत्ती भर भी कम व्यापक उपयोगयोग्य तरीक़ा नहीं है। इसपर सही अवस्थिति यह कि आर्थिक संघर्षों को भी अधिक से अधिक व्यापक आधार पर चलाना चाहिए और उनका इस्तेमाल हमेशा और शुरुआत से ही राजनीतिक उद्वेलन के लिए किया जाना चाहिए। इसके विपरीत कोई भी समझदारी दरअसल राजनीति को अर्थवादी ट्रेड-यूनियनवादी जामा पहनाने जैसा है।

क्रान्तिकारी मज़दूर शिक्षण माला-10 : मालों का संचरण और मुद्रा

मुद्रा का विकास सामाजिक श्रम विभाजन और मालों के उत्पादन व विनिमय के विकास की एक निश्चित मंज़िल में होता है। जैसे-जैसे मानवीय श्रम के अधिक से अधिक उत्पाद माल बनते जाते हैं, वैसे-वैसे उपयोग-मूल्य और मूल्य के बीच का अन्तरविरोध तीखा होता जाता है क्योंकि परस्पर आवश्यकताओं का संयोग मुश्किल होता जाता है। हर माल उत्पादक के लिए उसका माल उपयोग-मूल्य नहीं होता है और वह सामाजिक उपयोग मूल्य होता है, जो तभी वास्तवीकृत हो सकता है यानी उपभोग के क्षेत्र में जा सकता है, जब उसका विनिमय हो, यानी वह मूल्य के रूप में वास्तवीकृत हो। लेकिन यह तभी हो सकता है, जब दूसरे माल उत्पादक को उस माल की आवश्यकता हो और पहले माल उत्पादक को दूसरे माल उत्पादक के माल की आवश्यकता हो। जैसे-जैसे अधिक से अधिक उत्पाद माल बनते जाते हैं, यह होना बेहद मुश्किल होता जाता है। इसी को हम उपयोग-मूल्य और मूल्य के बीच के अन्तरविरोध का तीखा होना कह रहे हैं।

मज़दूर आन्दोलन में मौजूद किन प्रवृत्तियों के ख़िलाफ़ मज़दूर वर्ग का लड़ना ज़रूरी है? – (दूसरी क़िस्त)

लेनिन ने अर्थवाद का खण्डन करते हुए बार-बार दुहराया कि विचारधारा का प्रवेश मज़दूर आन्दोलन में बाहर से होता है और यह भी कि आम मज़दूरों द्वारा अपने आन्दोलन की प्रक्रिया के दौरान विकसित किसी “स्वतन्त्र” विचारधारा का कोई सवाल ही पैदा नहीं होता है, इसलिए केवल दो ही रास्ते बचते हैं, या तो बुर्जुआ विचारधारा को चुना जाये या फिर समाजवादी विचारधारा को चुना जाये। बीच का कोई रास्ता नहीं है

मज़दूर आन्दोलन में मौजूद किन प्रवृत्तियों के ख़िलाफ़ मज़दूर वर्ग का लड़ना ज़रूरी है? – (पहली क़िस्त)

अर्थवाद दरअसल मज़दूरों के लिए आर्थिक संघर्ष को ही, यानी वेतन-भत्ते और बेहतर कार्यस्थितियों के लिए संघर्ष को ही, समस्त आन्दोलन का फलक बना देता है और इस मुग़ालते में रहता है कि मज़दूर वर्ग के बीच राजनीतिक चेतना स्वतःस्फूर्त तरीक़े से इन्‍हीं आर्थिक संघर्षों मात्र से पैदा हो जायेगी। अर्थवाद के कारण ही मज़दूर वर्ग राजनीतिक प्रश्न उठाने में, जिसमें राजनीतिक सत्ता का प्रश्न सर्वोपरि है, असमर्थ हो जाता है और केवल दुवन्नी-अट्ठन्नी, भत्तों-सहूलियतों की लड़ाई के गोल चक्कर में घूमता रहता है। मज़दूर वर्ग एक राजनीतिक वर्ग के तौर पर संघटित और संगठित हो ही नहीं सकता है अगर उसके संघर्ष का क्षितिज केवल आर्थिक माँगों तक सीमित है। इसका मतलब यह नहीं है कि मज़दूर वर्ग आर्थिक माँगों की लड़ाई नहीं लड़ेगा बल्कि इसका अर्थ केवल इतना है कि एक राजनीतिक वर्ग के बतौर वह इन आर्थिक संघर्षों को भी राजनीतिक तौर पर लड़ेगा।

क्रान्तिकारी मज़दूर शिक्षणमाला – 9 : माल से मुद्रा तक

मुद्रा एक रहस्यमयी चीज़ होती है। यह जिसकी जेब में पर्याप्त मात्रा में होती है, वह अपने आपको शक्तिशाली और दुनिया का राजा महसूस करता है। लेकिन वह भी इससे डरता है, इसकी पूजा-अर्चना करता है कि यह उसकी जेब में बनी रहे। जिसके पास यह नहीं होती वह भी इसकी शक्तियों के सामने नतमस्तक होता है और मनाता रहता है उसकी जेब में भी लक्ष्मी का प्रवेश हो जाये। लेकिन आख़िर यह मुद्रा चीज़ क्या है? इसकी इस रहस्यमयी शक्ति के पीछे का रहस्य क्या है? इस बात को समझने के लिए भी हमें माल और माल उत्पादन को समझना होगा। हमें मूल्य और विनिमय-मूल्य के रिश्तों के बारे में समझना होगा। इस दिशा में कुछ शुरुआती क़दम हम उठा चुके हैं। अब आगे बढ़ते हैं। लेकिन इसके लिए संक्षेप में थोड़ा पीछे जाते हैं।

क्रान्तिकारी मज़दूर शिक्षण माला-8 : मार्क्स के आर्थिक चिन्तन के विकास के प्रमुख चरण

अभी तक हमने पढ़ा कि मूल्य का श्रम सिद्धान्त एडम स्मिथ से शुरू होकर डेविड रिकार्डो से होता हुआ किस प्रकार मार्क्स के वैज्ञानिक मूल्य के श्रम सिद्धान्त तक पहुँचा। हमने देखा कि पूँजीवादी समाज के अध्ययन की शुरुआत केवल माल से ही हो सकती है क्योंकि पूँजीवादी समाज में समृद्धि मालों के एक विशाल समुच्चय के रूप में प्रकट होती है। दूसरे शब्दों में, पूँजीवादी समाज में अधिक से अधिक वस्तुएँ और सेवाएँ माल में तब्दील होती जाती हैं। माल वह वस्तु है जो मानव श्रम से पैदा होता है और उसका उत्पादन विनिमय हेतु होता है। यानी माल का एक उपयोग-मूल्य होता है और एक विनिमय-मूल्य होता है।

क्रान्तिकारी मज़दूर शिक्षण माला-7 : मूल्य के श्रम सिद्धान्त का विकास: एडम स्मिथ, डेविड रिकार्डो और मार्क्स – 2 (डेविड रिकार्डो)

अब तक हमने क्लासिकीय राजनीतिक अर्थशास्त्र के पिता एडम स्मिथ के महत्वपूर्ण योगदानों और कमियों को देखा। हमने देखा कि किस प्रकार एक ओर एडम स्मिथ ने मूल्य का श्रम सिद्धान्त दिया और बताया कि हर माल का मूल्य उसमें लगे प्रत्यक्ष और अप्रत्यक्ष श्रम की मात्रा से तय होता है। दूसरे शब्दों में, हर माल का मूल्य उसमें लगे उत्पादन के साधनों के उत्पादन में ख़र्च हुए श्रम की मात्रा और स्वयं उस माल के उत्पादन में प्रत्यक्ष तौर पर लगे श्रम की मात्रा के योग से तय होता है। इस खोज को एडम स्मिथ के योग्य उत्तराधिकारी डेविड रिकार्डो ने राजनीतिक अर्थशास्त्र के सबसे अहम सिद्धान्तों में गिना। लेकिन एडम स्मिथ अपने इस सिद्धान्त को साधारण माल उत्पादन पर ही सुसंगत रूप में लागू कर सके, यानी माल उत्पादन के उस दौर पर जब अभी उत्पादन के साधनों का स्वामी स्वयं प्रत्यक्ष उत्पादक ही है; यानी, जब तक पूँजीवादी माल उत्पादन का दौर शुरू नहीं हुआ था।