क्रान्तिकारी मज़दूर शिक्षणमाला – 16 : मज़दूरी
अध्याय-14

अभिनव

मज़दूर श्रम नहीं बल्कि श्रमशक्ति बेचता है

पहले के अध्यायों में एक बात समझ चुके हैं: हम मज़दूर पूँजीपति को श्रम नहीं बेचते हैं, बल्कि श्रमशक्ति बेचते हैं। पूँजीवादी समाज में यह दृष्टिभ्रम पैदा होता है कि हम अपना श्रम बेच रहे हैं और पूँजीपति हमें हमारी “मेहनत का मोल” या श्रम का मूल्य दे रहा है। यह विभ्रम पूँजीवादी व्यवस्था में पूँजीपतियों की साज़िश से नहीं पैदा होता है, बल्कि पूँजीवादी व्यवस्था का चरित्र स्वत: इस भ्रम को जन्म देता है और स्वयं पूँजीपति भी अधिकांशत: इस भ्रम से ग्रस्त होते हैं कि उन्होंने मज़दूरों को मेहनत का मोल दे दिया है। लेकिन यदि यह सच है और श्रम स्वयं एक माल है जिसे पूँजीपति मज़दूर से ख़रीदता है, तो श्रम का मूल्य कैसे पैदा होगा? ज़ाहिरा तौर पर उसी प्रकार जिस प्रकार एक पूँजीवादी माल उत्पादक समाज में किसी भी अन्य माल का मूल्य तय होता है, यानी, उस माल के उत्पादन में लगने वाले कुल सामाजिक श्रम की मात्रा से। लेकिन इसका एक बेतुका नतीजा निकलेगा: श्रम का मूल्य उसके उत्पादन पुनरुत्पादन में लगने वाले श्रम से तय होता है! यह नतीजा निकालते ही हम एक तार्किक दुष्चक्र में फँस जाते हैं : श्रम का मूल्य श्रम से तय होता है!

दूसरी बात, यदि पूँजीपति मज़दूर को उसके द्वारा दिये गये श्रम की कुल मात्रा के बराबर मज़दूरी देता है, तो उसका मुनाफ़ा कहाँ से आता है? यदि हम श्रम को माल मानकर अपने विश्लेषण को आगे बढ़ाते हैं, तो पूँजीपति वर्ग के मुनाफ़े के स्रोत तक कभी नहीं पहुँच सकते। समूचे क्लासिकीय पूँजीवादी राजनीतिक अर्थशास्त्र की यही समस्या थी और इसीलिए वह मुनाफ़े के स्रोत को व्याख्यायित नहीं कर पाता था। नतीजतन, भोण्डा पूँजीवादी अर्थशास्त्र तरह-तरह के हास्यास्पद सिद्धान्तों से मुनाफ़े के स्रोत की व्याख्या करता था और अभी भी करता है। मसलन, पूँजीपति द्वारा चालाकी से सस्ता ख़रीदना और महँगा बेचना, या पूँजीपति द्वारा अपने व्यक्तिगत उपभोग में संयम दिखलाना, इत्यादि।

मार्क्स लिखते हैं:

“पूँजीवादी समाज की सतह पर मज़दूर की मज़दूरी उसकी श्रम की क़ीमत के रूप में, श्रम की एक निश्चित मात्रा के बदले में मुद्रा की एक निश्चित मात्रा के रूप में, दिखायी देती है। नतीजतन, लोग श्रम के मूल्य की बात करते हैं और मुद्रा में इसकी अभिव्यक्ति को इसकी प्राकृतिक क़ीमत बोलते हैं। दूसरी ओर वे श्रम की बाज़ार कीमतों की बात करते हैं, यानी वे कीमतें जो इसकी आवश्यक क़ीमत1 के ऊपर-नीचे मँडराती रहती हैं।

“लेकिन किसी माल का मूल्य क्या होता है? इसके उत्पादन में ख़र्च हुए सामाजिक श्रम का वस्तुगत रूप। और इस मूल्य की मात्रा का निर्धारण हम कैसे करते हैं? इसमें निहित श्रम की मात्रा के ज़रिये। फिर, मिसाल के तौर पर, 12 घण्टे के कार्यदिवस के मूल्य का निर्धारण कैसे होगा? 12 घण्टे के कार्यदिवस में निहित 12 काम के घण्टों से, जो कि एक बेतुकी दुहरावपूर्ण बात होगी।” (कार्ल मार्क्स, 1990. पूँजी, खण्ड 1, पेंगुइन पब्लिशर्स, लन्दन,
पृ. 675)

सच्चाई यह है कि मज़दूर अपना श्रम नहीं बल्कि अपनी श्रमशक्ति पूँजीपति को बेचता है और इस श्रमशक्ति का मूल्य इसके उत्पादन में लगने वाले श्रम की मात्रा से निर्धारित होता है। श्रमशक्ति के उत्पादन व पुनरुत्पादन का अर्थ है, मज़दूर के काम करने की क्षमता का उत्पादन व पुनरुत्पादन। यानी मज़दूर के भरण-पोषण के लिए आवश्यक सभी वस्तुएँ व सेवाएँ, जिन्हें मज़दूर बाज़ार में ख़रीदता है। ये वस्तुएँ व सेवाएँ स्वयं माल होती हैं और उनका मूल्य उनमें लगने वाले सामाजिक श्रम की मात्रा से निर्धारित होता है। इसलिए मज़दूर की श्रमशक्ति के पुनरुत्पादन में लगने वाले सामाजिक श्रम की मात्रा और कुछ नहीं बल्कि उसके नियमित उपभोग में जाने वाले मालों के उत्पादन में लगने वाली सामाजिक श्रम की मात्रा है। यह भी याद रखने की ज़रूरत है कि मज़दूर के नियमित उपभोग में जाने वाले मालों की मात्रा का निर्धारण केवल व्यक्तिगत तौर पर एक मज़दूर के आधार पर नहीं बल्कि मज़दूर के परिवार के नियमित उपभोग में जाने वाले मालों के आधार पर होता है। वजह यह कि मज़दूरों की नस्ल को मज़दूर वर्ग ही आगे बढ़ाता है, पूँजीपति वर्ग नहीं। सामाजिक तौर पर, मज़दूरों के बेटे-बेटियाँ ही मज़दूर वर्ग की नस्ल को जारी रखने का काम करते हैं। इसलिए मज़दूर की श्रमशक्ति के मूल्य का निर्धारण वैयक्तिक मज़दूर के उपभोग के आधार पर नहीं बल्कि मज़दूर परिवार के उपभोग के आधार पर होता है। इसके ज़रिये वास्तव में पूँजीपति वर्ग मज़दूर की श्रमशक्ति के उत्पादन के ख़र्च को कम करता है क्योंकि इसके ज़रिये श्रमशक्ति के पुनरुत्पादन की भौतिक प्रक्रिया को बोझ मज़दूर परिवार पर डाल दिया जाता है। खाना बनाना, बच्चों का लालन-पालन, आदि मज़दूर परिवार में आम तौर पर स्त्रियों द्वारा किये जाने वाले पुनरुत्पादक श्रम द्वारा होता है और इसके ज़रिये श्रमशक्ति के पुनरुत्पादन की लागत को पूँजीपति वर्ग बेहद कम कर देता है क्योंकि यदि स्वयं उसको इस काम को व्यावसायिक तौर पर करना होता तो उसकी लागत कहीं ज़्यादा होता। इसलिए स्त्रियों का और आम तौर पर किसी का भी पुनरुत्पादक श्रम मूल्य नहीं पैदा करता लेकिन यह पूँजीपति वर्ग के लिए श्रमशक्ति के पुनरुत्पादन की लागत को कम करता है और इस रूप में उसके मुनाफ़े को बढ़ाने का काम करता है।

बहरहाल, पहली बात तो यह समझना है, जिस पर हम पहले भी बात करते आये हैं, कि मज़दूर अपना श्रम नहीं बेचता बल्कि अपनी श्रमशक्ति बेचता है। इस श्रमशक्ति का मूल्य ही मुद्रा में अभिव्यक्त होने पर श्रमशक्ति की क़ीमत (price of labour-power) कहलाता है। लेकिन क्या यही मज़दूरी है? नहीं। मज़दूरी-रूप (wage-form) को समझने का काम यहाँ शुरू होता है, ख़त्म नहीं। मज़दूरी-रूप वास्तव में एक ऐसा भ्रामक प्रतीति या दृश्य पैदा करता है जिसमें श्रमशक्ति के मूल्य का अस्तित्व ही समाप्त हो जाता है और जो बचता है वह है “श्रम की क़ीमत”। आगे हम इसे विस्तार से समझेंगे। लेकिन आगे बढ़ने से पहले एक बुनियादी बात को दुहराना आवश्यक है।

मज़दूरी-रूप का विचारधारात्मक चरित्र

मज़दूरी-रूप शोषण के यथार्थ को छिपा देता है। वह इस तथ्य को छिपा देता है कि शासक वर्गों के जीवन की सारी आवश्यकताएँ, उसके शासन का अस्तित्व और उसका सारा ख़र्च वास्तव में उत्पादक वर्गों के अतिरिक्त श्रम के पूँजीपति वर्ग द्वारा विनियोजन के बूते ही सम्भव है। पूँजीवादी समाज में यह सच्चाई मज़दूरी-रूप के पर्दे के पीछे छिप जाती है क्योंकि दास समाज या सामन्ती समाज के समान यहाँ अतिरिक्त श्रमकाल और आवश्यक श्रमकाल के बीच का अन्तर सीधे दिखायी नहीं देता है। मार्क्स बताते हैं:

“इस प्रकार मज़दूरी-रूप कार्यदिवस के आवश्यक श्रम और अतिरिक्त श्रम, भुगतान किये हुए श्रम और बेगार श्रम के बीच के अन्तर के हर चिह्न को समाप्त कर देता है। ऐसा प्रतीत होता है समस्त श्रम का भुगतान किया गया है। बेगार प्रथा (corvée system) के तहत ऐसा नहीं था। वहाँ भूदास द्वारा अपने लिया किया जाने वाला श्रम और भूस्वामी के लिए किया जाने वाला जबरिया श्रम जगह और समय दोनों में ही स्पष्टता के साथ अलग होते थे। दास श्रम के मामले में, कार्यदिवस का वह हिस्सा जिसमें दास अपनी आजीविका के साधनों की पूर्ति करता था, जिसमें वह अपने लिए काम करता था, वह भी दास स्वामी के लिए किये जा रहे श्रम के रूप में प्रकट होता था। उसका समूचा श्रम ही बेगार या अवैतनिक श्रम के रूप में प्रकट होता था। इसके विपरीत, उजरती श्रम के मामले में, अतिरिक्त श्रम, या मुफ्त में दिया गया श्रम भी, वैतनिक श्रम या भुगतान किये गये श्रम के रूप में दिखता है। एक मामले में सम्पत्ति-सम्बन्ध दास के अपने लिए किये जा रहे श्रम को छिपा देते हैं; दूसरे मामले में, मुद्रा-सम्बन्ध उजरती मज़दूर के उस श्रम का छिपा देते हैं, जिसके लिए उसे कोई मुआवज़ा नहीं मिलता।” (वही,
पृ. 680)

पहले की सामाजिक संरचनाओं की तुलना में जो फ़र्क़ आता है वह यह है कि पूँजीवादी उत्पादन प्रक्रिया में आवश्यक श्रमकाल और अतिरिक्त श्रमकाल एक अभिन्न कार्यदिवस का हिस्सा होते हैं, जिन्हें जगह और समय में अलग करके नहीं देखा जा सकता, जैसा कि सामन्ती बेगार प्रथा में होता था। न ही यहाँ उजरती मज़दूर एक दास के रूप में स्वयं दास स्वामी की सम्पत्ति होता है, जिसके कारण सम्पत्ति-सम्बन्ध समूचे श्रमकाल को ही अतिरिक्त श्रमकाल के रूप में प्रकट करते हैं और उसका आवश्यक श्रम भी दास स्वामी के लिए किये जा रहे श्रम के रूप में प्रकट होता है।

पूँजीवादी समाज में उजरती मज़दूर एक विशिष्ट माल, यानी श्रमशक्ति के स्वामी के रूप में पूँजीपति, यानी उत्पादन के साधनों के स्वामी के सामने खड़ा होता है। वह “दोहरे अर्थों में स्वतन्त्र” होता है: उत्पादन के साधन के मालिकाने के “बोझ” से स्वतन्त्र और अपना यह विशिष्ट माल किसी भी पूँजीपति को बेचने के लिए स्वतन्त्र! एक दफ़ा जब वह अपना यह विशिष्ट माल, जो अपने ख़र्च होने की प्रक्रिया में अपने मूल्य से ज़्यादा मूल्य पैदा करने की विशिष्ट क्षमता रखता है, पूँजी के स्वामी को बेच देता है, तो पूँजीपति उसका दिये गये औसत कार्यदिवस में अपनी इच्छानुसार इस्तेमाल करने के लिए आज़ाद होता है। इस दिये गये कार्यदिवस के एक हिस्से में मज़दूर अपनी श्रमशक्ति के मूल्य के बराबर मूल्य पैदा करता है, जिसे हम आवश्यक श्रमकाल कहते हैं, जबकि दूसरे हिस्से में मुफ्त में पूँजीपति के लिए काम करता है, उसके लिए बेशी मूल्य पैदा करता है; यह अतिरिक्त श्रमकाल होता है। लेकिन चूँकि इन्हें समय और जगह में अलग नहीं किया जा सकता, इसलिए ऐसा प्रतीत होता है एक यह सजातीय श्रमकाल है और इसमें किये गये समूचे श्रम के बराबर मूल्य (“मेहनत का मोल”) मज़दूर को दे दिया गया। यही मज़दूरीरूप के विशिष्ट विचारधारात्मक फ़ेटिश चरित्र को दिखलाता है, यानी इसका वह चरित्र जो कि सारतत्व को, सच्चाई को उजागर नहीं करता, बल्कि उसे छिपाता है; यह मज़दूर के शोषण को छिपाता है, पूँजीवादी मुनाफ़े के स्रोत को छिपाता है।

अब इस मज़दूरी-रूप को थोड़ा गहराई और विस्तार में समझते हैं।

मज़दूरी-रूप और श्रम की क़ीमत

श्रमशक्ति का मूल्य पूँजीवादी समाज में “श्रम की क़ीमत” (“price of labour”) का रूप ग्रहण करता है। श्रम की क़ीमत और कुछ नहीं बल्कि श्रमशक्ति के मूल्य और औसत कार्यदिवस के घण्टों की संख्या का अनुपात होता है। यानी :

श्रम की क़ीमत = श्रमशक्ति का मूल्य/कार्यदिवस में घण्टों की संख्या

एक दिन की श्रमशक्ति का मूल्य कार्यदिवस की एक निश्चित लम्बाई से निर्धारित होता है, जो वास्तव में मज़दूर के जीवन का एक निश्चित हिस्सा होता है। मान लें कि एक सामान्य कार्यदिवस की लम्बाई 10 घण्टे है और एक दिन की श्रमशक्ति का मूल्य रु. 200 है, जो वास्तव में 5 घण्टे के श्रम का मौद्रिक समतुल्य है। मज़दूर को अपनी श्रमशक्ति का मूल्य यानी रु. 200 मिलते हैं जो 5 घण्टे के श्रम द्वारा पैदा होने वाले मूल्य के बराबर है, जबकि उसकी श्रमशक्ति एक दिन में 10 घण्टे के लिए काम करती है। अब यदि हम एक दिन की श्रमशक्ति के मूल्य को एक दिन के “श्रम के मूल्य” के रूप में अभिव्यक्त करें, तो हम कहेंगे कि 10 घण्टे के श्रम का मूल्य रु. 200 है। यानी यह श्रमशक्ति का मूल्य ही है जो एक दिन के श्रम के मूल्य को तय करता है, या, यदि हम उसे मुद्रा में अभिव्यक्त करें, तो एक दिन के श्रम की प्राकृतिक क़ीमत या आवश्यक क़ीमत को तय करता है। अगर श्रमशक्ति की क़ीमत श्रमशक्ति के मूल्य से ऊपर या नीचे होती है, तो श्रम की क़ीमत भी श्रम के तथाकथित मूल्य से ऊपर या नीचे होगी।

चूँकि श्रम का मूल्य वास्तव में श्रमशक्ति के मूल्य की ही एक अतार्किक व विचारधारात्मक अभिव्यक्ति है, इसलिए यह स्पष्ट है कि श्रम का मूल्य वास्तव में उस श्रम के उत्पाद के मूल्य से कम होगा। हमारे उपरोक्त उदाहरण में एक दिन के श्रम का मूल्य रु. 200 है, जो वास्तव में एक दिन की श्रमशक्ति का मूल्य ही है, जिसके पुनरुत्पादन में 5 घण्टे लगते हैं, लेकिन यह श्रमशक्ति एक दिन में 10 घण्टे तक कार्य करती है। नतीजतन, श्रम के उत्पाद का मूल्य रु. 400 है। पहले 5 घण्टे वह अपने मूल्य के बराबर मूल्य का उत्पादन करती है और उसके बाद के 5 घण्टे वह रु. 200 के बराबर अतिरिक्त मूल्य पैदा करती है। हम जानते हैं कि श्रमशक्ति का मूल्य उस श्रमशक्ति द्वारा पैदा होने वाले उत्पाद के मूल्य से नहीं तय होता है। श्रमशक्ति का मूल्य श्रमशक्ति के पुनरुत्पादन में लगने वाले सामाजिक श्रम से तय होता है, जबकि उसके उत्पाद का मूल्य इस बात से तय होता है कि वह श्रमशक्ति एक कार्यदिवस में कितने घण्टे तक काम करती है। लेकिन जब हम श्रमशक्ति के मूल्य को श्रम के मूल्य की अतार्किक अभिव्यक्ति देते हैं, तो यह प्रतीत होता है कि मज़दूर को 10 घण्टे के श्रम का मूल्य या 10 घण्टे की मेहनत का मोल पूँजीपति द्वारा दे दिया गया है।

यहाँ हम मज़दूरी-रूप के विचार-धारात्मक स्वरूप को समझ सकते हैं और देख सकते हैं कि वह किस प्रकार मज़दूर के शोषण और पूँजीपति के मुनाफ़े के रहस्य पर पर्दा डाल देता है। मार्क्स बताते हैं:

“इसलिए हम श्रमशक्ति के मूल्य और क़ीमत के मज़दूरी के रूप में, या स्वयं श्रम के मूल्य और क़ीमत के रूप में रूपान्तरण के निर्णायक महत्व को समझ सकते हैं। मज़दूर व पूँजीपति दोनों के द्वारा पाली गयी न्याय की सभी धारणाओं, पूँजीवादी उत्पादन पद्धति के सभी रहस्यीकरणों, स्वतन्त्रता के बारे में पूँजीवाद के सारे विभ्रमों, भोंड़े अर्थशास्त्र की सभी क्षमायाचक युक्तियों, का आधार प्रतीति (appearance) का वह रूप है जिस पर हमने ऊपर विचार किया है, जो वास्तविक सम्बन्ध को अदृश्य बना देता है, और वस्तुत: उस सम्बन्ध के ठीक विपरीत सम्बन्ध को हमारी नज़रों के सामने पेश कर देता है।” (वही, पृ. 680)

लेकिन मज़दूरी-रूप के इस भ्रामक स्वरूप या फ़ेटिश चरित्र के पीछे पूँजीपति वर्ग या उसकी राज्यसत्ता की साज़िश नहीं होती है, बल्कि यह विभ्रम पूँजीवादी उत्पादन पद्धति की मूल प्रकृति से ही पैदा होता है। मार्क्स बताते हैं कि यही वजह है कि इस भ्रम के आवरण को चीरकर मज़दूरी-रूप के सारतत्व तक पहुँचने में दुनिया को काफ़ी वक़्त लगा। पूँजी और श्रम के बीच होने वाला विनिमय सर्वप्रथम अपने आपको किन्हीं भी दो सामान्य माल उत्पादकों के बीच में होने वाले विनिमय के रूप में प्रकट करता है, जिसमें एक माल उत्पादक दूसरे माल उत्पादक के माल से अपने माल का विनिमय करता है, क्योंकि इन दोनों मालों का मूल्य समान होता है। विनिमय की समतुल्यता माल उत्पादन में मूल्य के नियम का बुनियादी तत्व है। साथ ही, आम नियम के तौर पर, मज़दूर को मज़दूरी काम करने के बाद मिलती है और वास्तव में वह पूँजीपति को अपना श्रम उधार देता है न कि पूँजीपति उसे मज़दूरी के रूप में मुद्रा उधार देता है। अब चूँकि भुगतान के माध्यम के रूप में मुद्रा हमेशा दी गयी वस्तु का मूल्य या उसकी क़ीमत को बाद में वास्तवीकृत करती है, इसलिए भी ऐसा प्रतीत होता है कि पूँजीपति ने श्रमशक्ति का नहीं बल्कि श्रम का मूल्य या क़ीमत अदा की है। इसी भ्रामक रूप में एक अन्य कारक भी योगदान करता है। मज़दूर पूँजीपति को श्रमशक्ति बेचता है लेकिन उस श्रमशक्ति के ख़र्च होने के फलस्वरूप मज़दूर पूँजीपति को एक निश्चित, ठोस प्रकार का उपयोगी श्रम देता है, मसलन, वह सिलाई का काम हो सकता है, निर्माण का काम हो सकता है, या किसी और प्रकार का मूर्त श्रम हो सकता है। अब यही श्रम अपने अमूर्त रूप में मूल्य पैदा करने वाला तत्व है; अपने ठीक इसी रूप में वह अन्य किसी भी माल से तुलनीय नहीं है, यह बात स्वत: स्पष्ट नहीं होती और पूँजीवादी समाज में दैनिन्दिन चेतना का अंग नहीं होती है। इसलिए भी मज़दूरी-रूप का भ्रामक रूप या चरित्र मज़बूत होता है।

मज़दूर के नज़रिये से देखें तो वह रु. 200 के बदले 10 घण्टे का श्रम देता है। अब यदि माँग और आपूर्ति के समीकरण बदलने के कारण श्रमशक्ति की क़ीमत उसके मूल्य से ऊपर होकर रु. 250 हो जाये या उसके मूल्य के नीचे होकर रु. 150 हो जाये, तो भी मज़दूर 10 घण्टे के कार्यदिवस के दौरान काम करेगा ही करेगा। यह भी सम्भव है कि मज़दूरी-उत्पादों के सस्ते होने के कारण उसकी श्रमशक्ति का मूल्य रु. 200 से घटकर रु. 150 हो जाये या मज़दूरी-उत्पादों के महँगे होने के कारण उसका मूल्य रु. 200 से बढ़कर रु. 250 हो जाये। इस सूरत में भी वह 10 घण्टे का श्रम एक दिन में पूँजीपति को देगा ही देगा। यानी, उसकी श्रमशक्ति के मूल्य में बदलाव आये या उसकी श्रमशक्ति की क़ीमत में बदलाव आये, वह 10 घण्टे का श्रम देता है। लिहाज़ा, इस 10 घण्टे के श्रम के बदले उसे जितनी भी मज़दूरी मिलती है, वह उसे भी 10 घण्टे के श्रम के मूल्य या 10 घण्टे के श्रम की क़ीमत के रूप में ही दिखायी देती है।

इसके विपरीत, अब पूँजीपति के नज़रिये से देखें, तो वह हमेशा हर माल को सस्ते से सस्ता ख़रीदना चाहता है। वह श्रमशक्ति को भी सस्ता से सस्ता ख़रीदकर उससे ज़्यादा से ज़्यादा जीवित श्रम प्राप्त करना चाहता है। लेकिन उसे यह दिखता है कि वह कम-से-कम मुद्रा पूँजी ख़र्च कर अधिक से अधिक श्रम प्राप्त कर रहा है। व्यवहारत:, उसे केवल श्रमशक्ति की क़ीमत और उसके ख़र्च होने के फलस्वरूप मिल रहे जीवित श्रम द्वारा पैदा हो रहे नये मूल्य के अन्तर से फ़र्क पड़ता है। उसके लिए उसके मुनाफ़े का स्रोत उसकी वह चालाकी होती है, जिसके बूते वह श्रम और अन्य सभी मालों को कम-से-कम मुद्रा पूँजी में, यानी सस्ता से सस्ता ख़रीदता है, और उसे अधिकतम सम्भव क़ीमत पर बेचता है। इसलिए उसके दिमाग़ में कभी यह आता ही नहीं है कि अगर “श्रम का मूल्य” जैसी कोई चीज़ होती तो न ही मुनाफ़े का अस्तित्व सम्भव होता और न ही पूँजी का। अगर वह श्रम का मोल देता, यानी श्रम द्वारा जितना भी मूल्य पैदा हो रहा है, वह मज़दूर को दे देता तो उसकी मुद्रा पूँजी में तब्दील हो ही नहीं सकती थी। अपनीअपनी सामाजिक वर्ग अवस्थितियों के कारण स्वत:स्फूर्त तौर पर, अपने अलगअलग कारणों से, मज़दूर और पूँजीपति दोनों को ही मज़दूरी श्रम की क़ीमत दिखायी देती है।

इसके अलावा, दो अन्य कारणों से भी मज़दूरी पूँजीवादी समाज में श्रमशक्ति के मूल्य के एक रूप में नहीं बल्कि श्रम के मूल्य या मौद्रिक तौर पर श्रम की क़ीमत के रूप में प्रकट होती है। पहला कारण है कार्यदिवस की लम्बाई बढ़ने या घटने पर मज़दूरी में परिवर्तन होना। चूँकि मज़दूरी श्रमशक्ति के मूल्य और कार्यदिवस के घण्टों की संख्या का अनुपात है, इसलिए यदि कार्यदिवस की लम्बाई बढ़ती है या घटती है, तो मज़दूरी भी आम तौर पर बढ़ती या घटती है। लेकिन इसका यह अर्थ कतई नहीं है कि मज़दूरी श्रम की क़ीमत है; तब भी वह श्रमशक्ति की क़ीमत ही होती है। प्रति घण्टा मज़दूरी पर इससे कोई फ़र्क नहीं पड़ता है। दूसरा कारण यह है कि पूँजीवादी समाज में समान कार्य करने वाले मज़दूरों की वैयक्तिक मज़दूरी में अन्तर मौजूद होते हैं। मार्क्स कहते हैं:

“गुलामी की व्यवस्था में भी ये वैयक्तिक अन्तर मौजूद होते हैं, लेकिन वहाँ वे किसी भ्रम को जन्म नहीं देते, क्योंकि इस मामले में श्रमशक्ति बेबाक और खुले तौर पर, बिना किसी साज-सिंगार के बिकती है। दास व्यवस्था में बस इतना होता है कि औसत से ऊपर वाली श्रमशक्ति का फ़ायदा और औसत से नीचे वाली श्रमशक्ति का नुकसान दास-स्वामी को उठाना होता है; जबकि उजरती श्रम की व्यवस्था में यह सीधे स्वयं मज़दूर को प्रभावित करता है, क्योंकि एक मामले में उसकी श्रमशक्ति उसके द्वारा बेची जाती है, जबकि दूसरे मामले में किसी तीसरे व्यक्ति द्वारा बेची जाती है।” (वही, पृ. 682)

मज़दूरी के विविध रूप

मार्क्स बताते हैं कि सबसे पहले तो यह समझ लेना आवश्यक है कि मज़दूरी पूँजीवादी समाज में कई विविध रूप लेती है और उन सब पर अलग से चर्चा न तो सम्भव है और न ही आवश्यक। मसलन, मज़दूरी कालिक-मज़दूरी (time-wages) या पीस-रेट मज़दूरी (piece-wages) का रूप ले सकती है। इसके अलावा, कहीं-कहीं ऐसा भी होता है कि पूँजीपति द्वारा शुरुआत में ही एक लम्बे समय तक के लिए एडवांस में मज़दूरी देकर मज़दूर को आंशिक तौर पर अस्वतन्त्र मज़दूर पर रखा जाता है; यहां मज़दूरी कुछ अलग रूप सामने आता है। लेकिन ये महज़ अलग-अलग रूप हैं और इससे मज़दूरी-रूप की सारवस्तु पर कोई गुणात्मक प्रभाव नहीं पड़ता है।

दूसरी बात, जो शुरू में ही समझ लेने की आवश्यकता है वह यह कि मुद्रा में मज़दूरी, यानी श्रमशक्ति की क़ीमत, और वास्तव में इस मज़दूरी से जो मज़दूरी-उत्पाद ख़रीदे जा सकते हैं, उनके बीच का अन्तर वास्तव में सांकेतिक मज़दूरी (nominal wages) और वास्तविक मज़दूरी (real wages) का अन्तर है। यह अन्तर मज़दूरी-उत्पादों की क़ीमत घटने पर मज़दूरों के हित में और मज़दूरी-उत्पादों की क़ीमत बढ़ने पर मज़दूरों की हानि की दिशा में बढ़ सकता है। साथ ही, मुद्रा का मूल्य घटने पर भी यह अन्तर मज़दूरों को हानि पहुँचाने की दिशा में बढ़ सकता है, जबकि मुद्रा का मूल्य बढ़ने पर यानी उसके ख़रीदने की क्षमता बढ़ने पर, यह मज़दूरों के हित में बढ़ सकता है। यह भी एक प्रकार से रूप और अन्तर्वस्तु का ही अन्तर है। मार्क्स याद दिलाते हैं कि जब भी मज़दूरी के उतार-चढ़ाव का विस्तृत अध्ययन करना होता है, तो इस कारक को भी ध्यान में रखना होता है।

इसके बाद मार्क्स मज़दूरी के दो प्रधान रूपों की चर्चा पर आते हैं: कालिक-मज़दूरी और पीस-रेट मज़दूरी।

कालिक-मज़दूरी (time-wages)

इन दो बातों को समझने के बाद हम मज़दूरी के सबसे प्रमुख रूपों पर चर्चा कर सकते हैं जो हैं कालिक मज़दूरी व पीस-रेट मज़दूरी के रूप। इसमें भी बुनियादी रूप कालिक मज़दूरी है, जो न सिर्फ पीस-रेट मज़दूरी के रूप को निर्धारित करने के आधार का काम करता है, बल्कि मज़दूरी के अन्य सभी रूपों का निर्धारण करने में आधारभूत भूमिका निभाता है। मार्क्स के समूचे वैज्ञानिक विश्लेषण में समय का तत्व एक बेहद अहम भूमिका निभाता है, चाहे वह मूल्य का निर्धारण हो, मुनाफ़े की दर का निर्धारण हो, या फिर टर्नओवर की अवधारणा।

हम जानते हैं कि मज़दूर मुद्रा के रूप में जो मज़दूरी प्राप्त करता है, वह दिहाड़ी, साप्ताहिक या मासिक सांकेतिक या नॉमिनल मज़दूरी होती है; यानी, मूल्य के रूप में आकलित मज़दूरी। लेकिन जैसे ही हम अपने विश्लेषण को आगे बढ़ाते हैं, वैसे ही यह स्पष्ट हो जाता है कि कार्यदिवस की लम्बाई के आधार पर, यानी वास्तव में दी गयी श्रम की मात्रा के आधार पर, वही नॉमिनल मज़दूरी, श्रम की बेहद अलग कीमतों की नुमाइन्दगी कर सकती हैं; दूसरे शब्दों में, कार्यदिवस की लम्बाई में आने वाले अन्तरों के आधार पर यह नॉमिनल मज़दूरी श्रम की समान मात्रा के लिए मुद्रा की अलग-अलग मात्राओं की नुमाइन्दगी कर सकती हैं। इसलिए जब भी हम कालिक-मज़दूरी का विश्लेषण करते हैं तो हमें दिहाड़ी, साप्ताहिक मज़दूरी या मासिक मज़दूरी की मात्रा और श्रम की क़ीमत के बीच अन्तर करना पड़ता है। तो इस श्रम की क़ीमत (price of labour) का आकलन कैसे कर सकते हैं? इसे एक उदाहरण से समझते हैं।

श्रम की औसत क़ीमत का निर्धारण श्रमशक्ति के एक दिन के औसत मूल्य और कार्यदिवस के घण्टों की संख्या से होता है। मिसाल के तौर पर, यदि एक दिन की श्रमशक्ति का औसत मूल्य रु. 200 है और एक औसत कार्यदिवस में घण्टों की संख्या 10 है, तो एक घण्टे के श्रम की औसत क़ीमत रु. 20 है। इस प्रकार से आकलित एक घण्टे की श्रम की क़ीमत उस इकाई माप का काम करती है, जो श्रम की औसत क़ीमत का आकलन करने में इस्तेमाल की जाती है।

इसका अर्थ यह होगा कि दिहाड़ी, साप्ताहिक मज़दूरी या मासिक मज़दूरी के समान रहने पर भी श्रम की क़ीमत बदल सकती है। मिसाल के तौर पर, अगर एक औसत कार्यदिवस की लम्बाई 8 घण्टे है और दिहाड़ी रु. 200 प्रतिदिन है, तो श्रम की क़ीमत रु. 25 होगी। लेकिन यदि कार्यदिवस की लम्बाई बढ़ाकर 10 घण्टे कर दी जाये, और दिहाड़ी रु. 200 ही रहती है, तो श्रम की क़ीमत घटकर रु. 20 हो जायेगी, हालाँकि दैनिक मज़दूरी में कोई अन्तर नहीं आयेगा। साथ ही, अगर श्रम की क़ीमत स्थिर रहती है, यानी अगर वह रु. 25 ही बनी रहती है, और यदि कार्यदिवस की लम्बाई 8 घण्टे से बढ़ाकर 10 घण्टे कर दी जाती है, तो दिहाड़ी, यानी दैनिक मज़दूरी बढ़कर रु. 250 हो जायेगी। यही नतीजा तब भी सामने आयेगा जब श्रम की मात्रा व्यापक यानी समय की लम्बाई बढ़ाने से नहीं बढ़ती बल्कि श्रम की सघनता बढ़ाने से बढ़ती है। उदाहरण के लिए, इस्पात उद्योग में गरम रोला (hot-rolling machines) मज़दूरों को हर घण्टे के बाद मान लें पहले 1 घण्टे का विश्राम मिलता था, तो 12 घण्टे के कार्यदिवस में वास्तविक श्रम की मात्रा 6 घण्टे होगी। लेकिन यदि कार्यदिवस की लम्बाई समान ही रहती है और बीच में विराम का समय घटाकर आधा घण्टा कर दिया जाये, तो 12 घण्टे में ही मज़दूर 8 घण्टे का श्रम देता है। यानी श्रम की सघनता बढ़ गयी। ऐसे में, यदि श्रम की क़ीमत समान रहती है, तो दिहाड़ी भी बढ़ जायेगी। मार्क्स लिखते हैं:

“नतीजा वही होगा (दिहाड़ी का बढ़नाले.) यदि श्रम की व्यापक मात्रा बढ़ायी जाती है या अगर श्रम की सघन मात्रा बढ़ायी जाती है।” (वही, पृ. 684)

यानी पूँजीपति दिहाड़ी, साप्ताहिक मज़दूरी या मासिक मज़दूरी को कम किये बिना श्रम की क़ीमत को घटा सकता है। यानी, यदि दैनिक, साप्ताहिक या मासिक श्रम की मात्रा समान रहती है, तो दैनिक, साप्ताहिक या मासिक मज़दूरी श्रम की क़ीमत पर निर्भर करती है और यह श्रम की क़ीमत केवल श्रमशक्ति के मूल्य या क़ीमत में आने वाले बदलावों या श्रमशक्ति के मूल्य व क़ीमत के बीच आने वाले अन्तरों के कारण घट या बढ़ सकती है। वहीं, अगर श्रम की क़ीमत स्थिर रहती है, तो दैनिक, साप्ताहिक या मासिक मज़दूरी दी गयी श्रम की मात्रा पर निर्भर करती है, जो कार्यदिवस की लम्बाई के घटने-बढ़ने (श्रम की व्यापक मात्रा – extensive magnitude of labour) या श्रम की सघनता के घटने-बढ़ने (श्रम की सघन मात्रा – intensive magnitude of labour) पर निर्भर करती है।

यदि श्रम की क़ीमत समान रहती है, तो मज़दूर के लिए कम-से-कम उतने घण्टे काम करना भौतिक रूप से अनिवार्य होता है, जितने में वह अपने श्रमशक्ति के मूल्य के बराबर मूल्य को पैदा करता है। मिसाल के तौर पर, अगर श्रमशक्ति का दैनिक मूल्य रु. 200 है, औसत कार्यदिवस की लम्बाई 10 घण्टे है, और 10 घण्टे का मूल्य उत्पाद, यानी 10 घण्टे में पैदा होने वाला मूल्य रु. 400 है, तो मज़दूर 5 घण्टे में अपने श्रमशक्ति के मूल्य के बराबर मूल्य का उत्पादन कर देता है। यहाँ पर श्रम की क़ीमत रु. 20 (रु. 200/10 घण्टे) है। अगर मज़दूर को 10 घण्टे के बजाय पूँजीपति केवल 8 घण्टे के लिए रखता है और श्रम की क़ीमत समान रहती है, तो उसकी दैनिक मज़दूरी रु. 200 से घटकर रु. 160 रह जाती है। हर घण्टे में से आधे घण्टे वह अपने लिए काम करता है और बाकी आधे घण्टे पूँजीपति के लिए। श्रम की क़ीमत समान रहने की स्थिति में मज़दूर को कम-से-कम 5 घण्टे का काम मिलना अनिवार्य है, अन्यथा वह अपनी श्रमशक्ति का स्वस्थ स्थिति में पुनरुत्पादन करने योग्य दिहाड़ी प्राप्त नहीं कर पायेगा। इसे हम सप्ताह या महीने के लिए रूपान्तरित कर यह भी बता सकते हैं कि एक अस्थायी दिहाड़ी मज़दूर को यदि 10 घण्टे का काम मिल भी रहा है, तो एक सप्ताह या एक महीने में उसे कम-से-कम कितना काम मिलना आवश्यक है, जिससे कि वह अपने जीविकोपार्जन योग्य मज़दूरी-उत्पाद ख़रीद पाये। मार्क्स यहाँ बताते हैं कि यह समझना तो निश्चय ही ज़रूरी है कि मज़दूर वर्ग का काम के कमरतोड़ बोझ से शोषण तो होता ही है, लेकिन यह समझना भी ज़रूरी है कि जहाँ कार्यदिवस की लम्बाई और न्यूनतम मज़दूरी जैसे विनियमनकारी कानून नहीं होते वहाँ काम कम मिलने (“शोषित होने का अधिकार न मिलने”!) के कारण भी मज़दूर का जीवन नर्क समान हो सकता है। मार्क्स की यह टिप्पणी आज के ठेकाकरण, अनौपचारिकीकरण और कैजुअलीकरण के दौर में और भी ज़्यादा प्रासंगिक हो जाती है:

“पिछले अध्यायों में हमने काम के अतिआधिक्य के विनाशकारी नतीजों को देखा था; लेकिन यहाँ हमारा परिचय उन तकलीफ़ों के मूल से होता है, जो मज़दूरों को पर्याप्त रूप से काम पर न रखे जाने के कारण पैदा होती हैं।

“अगर एक घण्टे की मज़दूरी इस प्रकार निर्धारित है कि पूँजीपति अपने आपको एक दिन या सप्ताह की मज़दूरी का भुगतान करने से नहीं बाँधता है, बल्कि केवल उन घण्टों की मज़दूरी देने से बाँधता है, जिन घण्टों के लिए वह उसे काम पर रखता है, तो वह उसे उस अवधि से भी कम समय के लिए काम पर रख सकता है, जो कि एक घण्टे की मज़दूरी के आकलन का मूल आधार थी, या जो श्रम की क़ीमत की ईकाई माप के निर्धारण का आधार थी। चूँकि यह ईकाई श्रमशक्ति के दैनिक मूल्य और एक कार्यदिवस के घण्टों की पूर्वप्रदत्त संख्या के अनुपात से तय होती है, तो स्वाभाविक तौर पर, जैसे ही कार्यदिवस काम के घण्टों की एक निर्धारित संख्या का नहीं रह जाता, वैसे ही यह अपना समस्त अर्थ खो बैठती है। भुगतान किये गये और मुफ्त में दिये गये श्रम के बीच का सम्बन्ध नष्ट हो जाता है। अब पूँजीपति मज़दूर से बेशी श्रम की एक निश्चित मात्रा निचोड़ सकता है, वह भी उसे उतने श्रमकाल तक काम करने की आज्ञा दिये बग़ैर जो कि मज़दूर की आजीविका के लिए आवश्यक है। वह रोज़गार की समस्त नियमितता को समाप्त कर सकता है, और अपनी सुविधा, सनक, और तात्कालिक हित के अनुसार, बारीबारी से कभी काम के सबसे भयंकर कमरतोड़ू अतिआधिक्य को थोप सकता है, तो कभी काम को सापेक्षिक या निरपेक्ष रूप से रोकने देने के नतीजों को थोप सकता है। वहश्रम की सामान्य क़ीमतदेने के बहाने मज़दूर को उपयुक्त मुआवज़ा दिये बग़ैर असामान्य रूप से कार्यदिवस की लम्बाई को बढ़ा सकता है। यही वजह है कि 1860 में लन्दन के निर्माण मज़दूरों द्वारा किया गया विद्रोह पूर्णत: न्यायसंगत था जो कि घण्टे के आधार पर दी जाने वाली मज़दूरी की व्यवस्था को पूँजीपतियों द्वारा उन पर थोपे जाने के प्रयास के ख़िलाफ़ किया गया था। कार्यदिवस की कानूनी सीमा का स्थापित होना इस प्रकार की दुष्टतापूर्ण हरक़तों पर तो रोक लगा देता है, हालाँकि यह मशीनों द्वारा प्रतिस्पर्द्धा, काम पर लिये गये मज़दूरों की गुणवत्ता में परिवर्तन और आंशिक या सामान्य संकटों के कारण रोज़गार में आने वाली कमी को निश्चय ही ख़त्म नहीं करता है।” (वही, पृ. 686, ज़ोर हमारा)

आज की स्थिति काफ़ी हद तक इसी प्रकार हो चुकी है, जिसकी मार्क्स ने भविष्यवाणी आज से डेढ़ सौ साल से भी पहले कर दी थी। मज़दूर वर्ग ने अपनी जुझारू लड़ाइयों के ज़रिये पूँजीपति वर्ग और उसकी राज्यसत्ता को 8 घण्टे के कार्यदिवस व न्यूनतम मज़दूरी को कानूनी तौर पर निर्धारित करने के लिए बाध्य किया था। आज भी ये श्रम कानून कागज़ों पर तो मौजूद हैं, लेकिन 94 प्रतिशत अनौपचारिक क्षेत्र के मज़दूरों के लिए उनका कोई अर्थ नहीं है। नतीजतन, एक तरफ़ वे कमर तोड़ देने वाले काम की अति से बरबाद हैं, तो वहीं वे पर्याप्त काम न मिलने के कारण, यानी “शोषण करवाने का पर्याप्त अधिकार न मिलने” के कारण भी भूख, ग़रीबी और असुरक्षा के शिकार हैं। और जैसा कि मार्क्स ने बताया था, पूँजीपति हर प्रकार की दुष्टतापूर्ण तरक़ीबों के ज़रिये मज़दूरों का इन दोनों तरीकों से ही शोषण कर रहे हैं।

साथ ही, यह भी सम्भव है कि श्रम की क़ीमत सांकेतिक तौर पर (nominally) समान रहे, कार्यदिवस की लम्बाई बढ़े और इसके कारण दिहाड़ी, साप्ताहिक मज़दूरी या मासिक मज़दूरी बढ़ जाये। लेकिन इस सूरत में भी मज़दूर के लिए श्रम की वास्तविक क़ीमत घटती है। आप पूछेंगे कि ऐसा कैसे हो सकता है? ऐसा इसलिए होता है क्योंकि जब भी कार्यदिवस की लम्बाई असामान्य रूप से बढ़ायी जाती है, तो श्रमशक्ति का भी ज़्यादा व्यय और नाश होता है; नतीजतन, उसके पुनरुत्पादन की लागत बढ़ती है और इस प्रकार श्रमशक्ति का मूल्य भी वास्तविक तौर पर बढ़ जाता है। मार्क्स बताते हैं कि वास्तव में यदि कार्यदिवस की लम्बाई को सामान्य सीमा से ज़्यादा बढ़ाया जाता है, तो इस वृद्धि के अनुपात में श्रमशक्ति का मूल्य अधिक तेज़ी से बढ़ता है क्योंकि सामान्य कार्यदिवस के ऊपर होने वाली हर बढ़ोत्तरी मज़दूर की क्षमता, स्वास्थ्य और शक्ति को सामान्य कार्यदिवस के घण्टों से कहीं ज़्यादा गति से नष्ट करती है। नतीजतन, सामान्य कार्यदिवस का एक घण्टा श्रमशक्ति नामक माल का जिस गति से उपभोग करता है, उसके ऊपर होने वाले ओवरटाइम का हरेक घण्टा श्रमशक्ति का उससे कहीं तेज़ गति से उपभोग करता है। उन्नीसवीं सदी में ही यह बात वैज्ञानिक तौर पर सिद्ध हो चुकी थी और सार्वजनिक तौर पर स्वीकारी जा चुकी थी और इसीलिए सामान्य से अधिक रेट से ओवरटाइम के भुगतान के कानून तमाम देशों में बने थे। हमारे देश में भी डबल रेट से ओवरटाइम के भुगतान का कानून कागज़ी तौर पर दशकों से मौजूद है। लेकिन संगठित व औपचारिक क्षेत्र के 6-7 प्रतिशत मज़दूरों के अलावा, यह अधिकार किसी मज़दूर को नहीं मिलता है। नतीजतन, यदि श्रम की सांकेतिक क़ीमत तय रहे और कार्यदिवस की लम्बाई बढ़ने पर दिहाड़ी, साप्ताहिक मज़दूरी या मासिक मज़दूरी बढ़ भी जाये, तो वास्तव में श्रम की क़ीमत घट जाती है, क्योंकि श्रमशक्ति का वास्तविक मूल्य इस ओवरटाइम के साथ काम के घण्टों के बढ़ने से ज़्यादा तेज़ दर से बढ़ता है, लेकिन उसकी नॉमिनल क़ीमत समान ही रह जाती है। आम तौर पर यह होता है कि मज़दूरों को ओवरटाइम करना ही पड़ता है क्योंकि श्रम की क़ीमत कम होने के कारण अगर वे ओवरटाइम न करें तो आजीविका प्राप्त करने योग्य मज़दूरी कमा ही नहीं सकते। इस बात को भी मार्क्स ने उन्नीसवीं सदी के मध्य में ही समझ लिया था :

“जब विभिन्न ब्रिटिश उद्योगों में कार्यदिवस को किसी निश्चित सामान्य सीमा के ऊपर बढ़ाया जाता है और श्रम की क़ीमत में बढ़ोत्तरी होती भी है, तो वह इस प्रकार होती है कि तथाकथित सामान्य समय के दौरान श्रम की क़ीमत इतनी कम होती है कि अगर मज़दूर पर्याप्त मज़दूरी चाहता है तो उसे बेहतर दर से भुगतान वाले ओवरटाइम को करने के लिए मजबूर होना पड़ता है।” (वही, पृ. 687)

ऊपर श्रम की क़ीमत के निर्धारण के नियमों के आधार पर एक दूसरा नतीजा भी निकलता है, जिसे हम आज के समाज में स्पष्ट तौर पर देख सकते हैं। चूँकि श्रम की क़ीमत निर्धारित होने पर मज़दूरी दिये गये श्रम की मात्रा (व्यापक या सघन) पर निर्भर करती है, इसलिए श्रम की क़ीमत जितनी कम होती है, मज़दूर को आजीविका योग्य मज़दूरी प्राप्त करने के लिए उतना ही ज़्यादा काम करना पड़ता है। मार्क्स कहते हैं, “यहाँ पर श्रम की कम क़ीमत श्रमकाल को बढ़ाने के लिए एक प्रेरक तत्व का काम करती है।” (वही, पृ. 688) लेकिन इसीका एक अन्य उपजात यह होता है कि कार्यदिवस जितना लम्बा होता है, श्रम की क़ीमत भी उतनी गिरती है, हालाँकि सांकेतिक तौर पर दिहाड़ी, साप्ताहिक मज़दूरी या मासिक मज़दूरी निरपेक्ष तौर पर बढ़ सकती है। हमने ऊपर देखा कि किस प्रकार कार्यदिवस के सामान्य सीमा से बढ़ने पर यदि मज़दूरी बढ़े तो भी श्रम की क़ीमत घट जाती है।

अब पूँजीपति वर्ग की इन तरक़ीबों के आख़िरी नतीजे पर आते हैं। हमने देखा कि किस तरह से कार्यदिवस की लम्बाई को सामान्य सीमा से आगे बढ़ाने पर वास्तव में श्रम की क़ीमत में गिरावट आती है, हालाँकि कुल सांकेतिक दिहाड़ी, साप्ताहिक या मासिक मज़दूरी बढ़ती दिख सकती है। लेकिन इसी कदम के फलस्वरूप एक और वजह से भी श्रम की क़ीमत में गिरावट आती है। जब कार्यदिवस की लम्बाई आम तौर पर असामान्य तौर पर बढ़ती है, तो एक ही मज़दूर वास्तव में 1.2 या 1.5 मज़दूरों के बराबर काम करता है। नतीजा यह होता है कि श्रमशक्ति के बाज़ार में श्रम की आपूर्ति श्रम की माँग के सापेक्ष बढ़ जाती है और बेरोज़गारी बढ़ती है। नतीजा यह होता है कि पूँजीवाद मज़दूरों पर भी एक बढ़ी हुई आपसी प्रतिस्पर्द्धा को थोप देता है। इस प्रतिस्पर्द्धा के कारण श्रमशक्ति का मूल्य तो समान ही रहता है, लेकिन उसकी क़ीमत उसके मूल्य से नीचे गिर जाती है क्योंकि माँग और आपूर्ति की स्थितियाँ मज़दूरों के हितों के प्रतिकूल बदल जाती हैं। जब पूँजीपति मज़दूरों से कमरतोड़ू काम करवाकर, कार्यदिवस को असमान्य रूप से बढ़ाकर श्रम की क़ीमत, श्रमशक्ति की क़ीमत और इस प्रकार समूची मज़दूरी को ही घटाते हैं, तो इस कुकर्म को सबसे अच्छी तरीके से करने के लिए स्वयं उनके बीच भी एक प्रतिस्पर्द्धा होती है। ऐसे में, जो ऐसा करने में पीछे छूटते हैं, वे मज़दूर वर्ग का शोषण करने के अधिकार और अवसरों के बराबरी की माँग पूँजीवादी राज्यसत्ता से करते हैं। जो पूँजीपति इस होड़ में पीछे छूटते हैं, कई बार वे उन पूँजीपतियों पर “मानवता की ख़ातिर” (!) पूँजीवादी राज्यसत्ता द्वारा लगाम कसने और कार्यदिवस की लम्बाई व न्यूनतम मज़दूरी तय करने की माँग करते हैं! वे कहते हैं कि ऐसे “लुटेरे पूँजीपति” श्रम का अतिशोषण कर मुनाफ़ा कमा रहे हैं, अपने मालों की क़ीमत को असामान्य रूप से नीचे रख रहे हैं और एक अन्यायपूर्ण प्रतिस्पर्द्धा बाकी “मानवीय पूँजीपतियों” पर थोप दे रहे हैं! इन “मानवीय पूँजीपतियों” को लगता है कि यदि वे मज़दूरों से केवल कानूनी कार्यदिवस यानी 8 घण्टे ही काम करवाते हैं, तो उसमें शोषण नहीं निहित होता और उनके मुनाफ़े का स्रोत धन्धे की उनकी बेहतर समझदारी, चालाकी और सूझ-बूझ है, जिसके कारण वे सस्ता ख़रीदकर महँगा बेच पाते हैं! मार्क्स ऐसे पूँजीपतियों के रुदन पर टीका करते हुए लिखते हैं:

“(पूँजीपतियों का) यह विलाप इसलिए भी दिलचस्प है क्योंकि यह दिखलाता है कि पूँजीपति के दिमाग के द्वारा उत्पादन के सम्बन्धों का छद्म आभास ही प्रतिबिम्बित होता है। वह नहीं जानता है कि श्रम की सामान्य क़ीमत में भी मुफ्त में दिये गये श्रम की एक निश्चित मात्रा है और यह कि ठीक यही मुफ्त में दिया गया श्रम ही उसके सामान्य मुनाफ़ों का स्रोत है। उसके लिए बेशी श्रमकाल की श्रेणी का कोई अस्तित्व ही नहीं होता है, क्योंकि यह कार्यदिवस में शामिल होता है, जिसके बारे में उसे ऐसा लगता है कि उसने दिहाड़ी के रूप में उसकी एवज़ में पूरा भुगतान कर दिया है। लेकिन ओवरटाइम का, यानी श्रम की सामान्य क़ीमत के आधार का काम करने वाले कार्यदिवस की सीमा के ऊपर कार्यदिवस को बढ़ाये जाने का, निश्चित तौर पर उसके लिए अस्तित्व होता है। जब वह अपने से सस्ता बेचने वाले अपने प्रतिस्पर्द्धी के सामने पड़ता है, तब तो वह इस ओवरटाइम के लिए अतिरिक्त वेतन के भुगतान पर भी ज़ोर देने लग जाता है। एक बार फिर, वह नहीं जानता कि इस अतिरिक्त भुगतान में मुफ्त में दिया गया श्रम भी शामिल है, ठीक उसी प्रकार जैसे कि श्रम के किसी भी सामान्य घण्टे की क़ीमत में वह शामिल होता है।” (वही,
पृ. 690-91)

पीस-रेट मज़दूरी

पीस-रेट मज़दूरी वास्तव में कालिक-मज़दूरी का ही एक रूपान्तरित संस्करण होता है। इसमें मज़दूर को प्रत्यक्ष रूप में दिये गये श्रमकाल के अनुसार मज़दूरी नहीं दी जाती, बल्कि एक दिये गये कार्यदिवस में पैदा किये गये उत्पाद की मात्रा के आधार पर मज़दूरी दी जाती है। इससे श्रमकाल के साथ मज़दूरी का रिश्ता छिप जाता है। लेकिन मार्क्स ने दिखाया कि यह रिश्ता ख़त्म नहीं होता है, केवल छिपता है। मार्क्स लिखते हैं:

“पीस-रेट मज़दूरी और कुछ नहीं बल्कि कालिक-मज़दूरी का ही एक परिवर्तित रूप है, ठीक वैसे ही जैसे कालिक-मज़दूरी और कुछ नहीं बल्कि श्रमशक्ति के मूल्य या उसकी क़ीमत का एक परिवर्तित रूप है।” (वही, पृ. 692)

पीस-रेट मज़दूरी में यह प्रतीत होता है कि मज़दूर की श्रमशक्ति को नहीं ख़रीदा गया है, जो उत्पादन के दौरान जीवित श्रम देती है। उल्टे यह लगता है कि मज़दूर से उत्पादित माल को ख़रीदा जा रहा है, जिसमें कि उसका श्रम वस्तु-रूप ग्रहण कर चुका है, या कहें, कि वस्तुकृत हो चुका है। नतीजतन, यह भ्रम पैदा होता है कि श्रम की क़ीमत कालिक-मज़दूरी के समान श्रमशक्ति के मूल्य और कार्यदिवस की लम्बाई के अनुपात से नहीं निर्धारित हो रही है, बल्कि उत्पादक की काम करने की क्षमता से निर्धारित हो रही है। लेकिन वास्तव में ऐसा नहीं होता है।

मार्क्स उदाहरणों के साथ बताते हैं कि पहली बात तो यह है कि दोनों प्रकार के मज़दूरी के रूप न सिर्फ़ एक देश या अर्थव्यवस्था के भीतर बल्कि एक ही उद्योग के बीच में एक साथ अस्तित्वमान होते हैं। ऐसे ही उदारहण भारत के सन्दर्भ में दिये जा सकते हैं। दूसरी बात मार्क्स यह बताते हैं कि इन दो रूपों में एक प्रतीतिगत यथार्थ, यानी जो दिखता है, के स्तर पर ही अन्तर है और दोनों की सारवस्तु समान है। यह ज़रूर है कि पीस-रेट मज़दूरी पूँजीपति वर्ग और उसके मुनाफ़े की बढ़ोत्तरी के लिए अक्सर एक ज़्यादा बेहतर रूप होता है क्योंकि यह पूँजीपतियों को तमाम प्रकार की जालसाज़ी और चार सौ बीसी कर मज़दूरों के शोषण की दर को बढ़ाने का मौका देता है और अपनी कई लागतों को कम करने का मौका देता है। जब हम इस रूप को थोड़ा गहराई से समझते हैं तो यह बात साफ़ हो जाती है।

मान लें, एक सामान्य कार्यदिवस में 8 घण्टे हैं। इसमें से 4 घण्टे आवश्यक श्रमकाल है और 4 घण्टे अतिरिक्त श्रमकाल है। मान लें कि 8 घण्टे में पैदा होने वाले कुल उत्पाद का मूल्य (उत्पादन के साधनों के उत्पादित माल में स्थानान्तरित हो रहे मूल्य को छोड़कर) रु. 80 है, यानी कि 8 घण्टे के औसत सामाजिक श्रम से पैदा होने वाले नये मूल्य का मौद्रिक समतुल्य रु. 80 है। दूसरे शब्दों में 1 घण्टे के औसत सामाजिक श्रम द्वारा रु. 10 के बराबर नया मूल्य पैदा होता है। मान लें कि एक मज़दूर औसत सामाजिक उत्पादकता, श्रम सघनता और कुशलता के साथ काम करता है और वह किसी उत्पाद के उत्पादन में उतना ही श्रम दे रहा है, जितना कि औसत सामाजिक उत्पादकता के अनुसार ज़रूरी है। यह कल्पना करके चलना बिल्कुल तार्किक है क्योंकि जो मज़दूर इस औसत सामाजिक उत्पादकता से काफ़ी नीचे काम करेगा, पीस-रेट मज़दूरी की व्यवस्था में या तो उसे इतनी कम मज़दूरी हासिल हो पायेगी कि वह अपनी आजीविका ही नहीं कमा पायेगा या फिर उसे काम मिलना ही मुश्किल होगा। मान लें कि 8 घण्टे के कार्यदिवस में वह मज़दूर जिस भी उत्पाद को बना रहा है, उसके 16 पीस बनाता है। ये 16 पीस एक ही बड़े उत्पाद के अलग-अलग हिस्से हो सकते हैं या सर्वथा अलग-अलग उत्पाद हो सकते हैं। इससे हमारे विश्लेषण पर कोई फ़र्क नहीं पड़ता है। नतीजतन, 8 घण्टे में बनने वाले इन 16 पीसों का कुल मूल्य रु. 80 होगा और एक पीस का मूल्य रु. 5 होगा। इसमें से मज़दूर को एक पीस का रु. 2.50 मिलेगा और तरह 16 पीसों के बदले रु. 40 पीस-रेट मज़दूरी के रूप में मिलेंगे। हम यह कहें कि मज़दूर द्वारा उत्पादित 16 पीसों में से 8 पीस में मज़दूर की श्रमशक्ति का मूल्य निहित है और बाकी 8 पीस में पूँजीपति का बेशी मूल्य, या हम कहें कि मज़दूर अपने काम के हर घण्टे में आधे घण्टे अपने लिए काम करता है, जिसके लिए उसे भुगतान होता है और बाकी आधे घण्टे वह पूँजीपति के लिए काम करता है, जिसके लिए उसे भुगतान नहीं होता, या हम यह कहें कि मज़दूर 4 घण्टे अपने लिए काम करता है और 4 घण्टे पूँजीपति के लिए। इससे कोई फ़र्क नहीं पड़ता है। ये समान बातें हैं। मार्क्स कहते हैं:

“इसलिए यहाँ प्रश्न हर पीस के मूल्य को उसमें लगे श्रमकाल से मापने का प्रश्न नहीं है। बल्कि यहाँ यह उल्टा है: मज़दूर द्वारा ख़र्च किये गये श्रम को उसके द्वारा उत्पादित पीसों की संख्या से मापना होगा। कालिक-मज़दूरी में श्रम को उसकी तात्कालिक अवधि द्वारा मापा जाता है, पीस-रेट मज़दूरी में उन उत्पादों की मात्रा से मापा जाता है, जिसमें कि एक दिये गये समय में उस श्रम मूर्त रूप ग्रहण करता है। श्रमकाल की क़ीमत अन्तत: स्वयं इसी समीकरण से निर्धारित होती है: एक दिन के श्रम का मूल्य = श्रमशक्ति का दैनिक मूल्य। इसलिए पीस-रेट मज़दूरी कालिक मज़दूरी का एक संशोधित रूप ही है।” (वही, पृ. 694, ज़ोर हमारा)

यानी, पीस-रेट पर होने वाले काम की मज़दूरी वास्तव में कालिक-मज़दूरी का ही एक रूपान्तरित संस्करण होती है क्योंकि दी गयी औसत सामाजिक उत्पादकता के आधार पर हम किसी भी उद्योग में 1 घण्टे के श्रम के मूल्य-उत्पाद का आकलन कर सकते हैं। हम जीवित श्रम को श्रमकाल में मापने की बजाय यहाँ उसके माल में वस्तुकृत होने के बाद उत्पाद की मात्रा के रूप में उसका आकलन कर रहे हैं। उपरोक्त उद्धरण में इटैलिक किये गये शब्दों “तात्कालिक अवधि” और “दिये गये समय में” पर ग़ौर करें। पीस-रेट का आकलन सामाजिक तौर पर औसत कार्यदिवस, औसत उत्पादकता, औसत श्रम सघनता के आधार पर ही होता है। लेकिन यह रूप ऐसा है जो पूँजीपतियों को मज़दूरों का शोषण बढ़ाने और धोखाधड़ी करने की इजाज़त देता है। इस रूप में श्रम की गुणवत्ता स्वयं काम के द्वारा नियन्त्रित होती है और इसे कम-से-कम एक सामाजिक औसत गुणवत्ता का होना चाहिए। वरना पीस-रेट की पूरी मज़दूरी मज़दूर को नहीं मिलती। इसी ख़ासियत के कारण पूँजीपति मज़दूरी में तरह-तरह से कटौती करता है व अन्य धोखाधड़ियाँ करता है।

वजह यह है कि पीस-रेट की मज़दूरी एक निश्चित स्तर की श्रम सघनता, उत्पादकता और कुशलता को अनिवार्य बनाती है। इस औसत श्रम सघनता, उत्पादकता और कुशलता के साथ उत्पादित उत्पादों की मात्रा में लगे श्रम को ही सामाजिक रूप से आवश्यक श्रम की मान्यता मिलती है। बाज़ार की प्रतिस्पर्द्धा का अनुभव इस बात को सुनिश्चित करता है। मार्क्स बताते हैं कि यही वजह है कि लन्दन के कुछ टेलरिंग केन्द्रों पर एक विशिष्ट उत्पाद के उत्पादन, मसलन, एक वेस्टकोट के उत्पादन यानी उसकी सिलाई को ‘एक घण्टा’ कहा जाता है और उस एक घण्टे के लिए सामाजिक औसत के अनुसार मज़दूरी मिलती है। ऐसे उदाहरण हमारे देश से भी दिये जा सकते हैं जिसमें पीस-रेट औसत उत्पादकता और औसत कार्यदिवस के आधार पर ही तय की जाती है। निश्चित तौर पर, यह तय करने की प्रक्रिया में शुरुआत में और उत्पादकता में होने वाली किसी बढ़ोत्तरी या उत्पादन की स्थितियों में आने वाले किसी सामान्य परिवर्तन की सूरत में उसके संशोधन की स्थिति में मज़दूरों और पूँजीपतियों में हमेशा ही एक संघर्ष होता है और उसके तय होने तक यह संघर्ष जारी रहता है। जो मज़दूर इस औसत सामाजिक उत्पादकता, श्रम सघनता और कुशलता के स्तर से विचारणीय रूप से नीचे स्तर पर काम करता है, वह आम तौर पर निकाल दिया जाता है या वह इतनी मज़दूरी ही नहीं कमा पाता कि उस उद्योग में टिक पाये।

मार्क्स बताते हैं कि चूँकि पीस-रेट वाले काम में श्रम की सघनता, कुशलता आदि का निर्धारण मज़दूरी के इस रूप से ही हो जाता है, इसलिए पूँजीपति को अब किसी देखरेख करने वाले मज़दूर की आवश्यकता नहीं रह जाती, किसी सुपरवाइज़र या ओवरसीयर की आवश्यकता नहीं रह जाती क्योंकि मज़दूर अधिक से अधिक पीस बनाने के चक्कर स्वयं यह सुनिश्चित करता है कि वह अधिकतम सम्भव काम करे। इसके अलावा, यह व्यवस्था ठेकेदारों और जॉबरों के तन्त्र को भी पैदा करती है। कहीं-कहीं पर जॉबर की भूमिका में स्वयं एक अधिक अनुभवी या कुशल मज़दूर ही होता है जो मज़दूरों के एक समूह को अपने मातहत रखता है और एक प्रकार से काम का ठेका किसी पूँजीपति या बड़े ठेकेदार से लेता है। चूँकि वह मज़दूरी के अतिरिक्त कमीशन के तौर पर अन्य मज़दूरों की पीस-रेट मज़दूरी से कुछ कटौती भी करता है, इसलिए यह मज़दूरी-रूप एक मज़दूर और दूसरे मज़दूर के बीच भी अन्तरविरोध को जन्म देता है। मार्क्स कहते हैं: “यहाँ मज़दूर का पूँजी द्वारा शोषण एक मज़दूर द्वारा दूसरे मज़दूर के शोषण के ज़रिये घटित होता है।” (वही, पृ. 695) इसके अलावा, ऐसे बिचौलिये ठेकेदार भी होते हैं, जो पूरी तरह से परजीवी होते हैं और स्वयं श्रम की प्रक्रिया से उनका कोई लेना-देना ही नहीं होता है। पीस-रेट मज़दूरी इन दोनों ही रूपों को जन्म देती है।

जैसा कि हम समझ सकते हैं, पीस-रेट मज़दूरी की व्यवस्था में अधिक से अधिक कमाने के भ्रम में मज़दूर स्वयं ही अपनी श्रम सघनता को बढ़ाता है और स्वयं कार्यदिवस के घण्टों को बढ़ाये जाने की भी हिमायत करता है या अगर वह आधुनिक घरेलू उद्योग में है, तो ख़ुद ही इसे बढ़ाता है। लेकिन श्रम की सघनता और कार्यदिवस की लम्बाई बढ़ने के कारण ठीक उन्हीं कारणों के चलते पीस-रेट मज़दूरी की व्यवस्था में भी श्रम की क़ीमत घटती है, जिनके कारण वह कालिक-मज़दूरी में घटती है, जैसा कि हमने पिछले उपशीर्षक में देख चुके हैं। यदि पीस-रेट समान भी बना रहे तो श्रम सघनता व कार्यदिवस की लम्बाई बढ़ने पर श्रम की क़ीमत घटती है। पीस-रेट की व्यवस्था में बस फ़र्क यह होता है कि ये काम अक्सर पूँजीपति को नहीं करने पड़ते बल्कि स्वयं मज़दूर ही करता है।

पीस-रेट की व्यवस्था में एक अन्य फ़ायदा पूँजीपतियों को मिलता है। कालिक-मज़दूरी की व्यवस्था में अगर एक कारखाने में काम करने वाले दो मज़दूरों की कुशलता व उत्पादकता में विचारणीय अन्तर हो, तो भी अपवादों को छोड़ दें, तो उन्हें समान कार्य के लिए समान मज़दूरी मिलती है। लेकिन पीस-रेट की व्यवस्था में चूँकि उत्पाद की मात्रा में वस्तुकृत श्रम की मात्रा के आधार पर मज़दूरी मिलती है इसलिए जो मज़दूर माल की जितनी मात्रा का उत्पादन करता है, उसे उतनी मज़दूरी मिलती है। मार्क्स बताते हैं कि इससे पूँजी और उजरती श्रम के बीच के सामान्य सम्बन्ध पर कोई अन्तर नहीं पड़ता है; कुछ मज़दूर औसत उत्पादकता से कुछ नीचे होते हैं, कुछ औसत उत्पादकता पर तो कुछ औसत से कुछ ऊपर उत्पादकता पर। समूचे वर्कशॉप या उद्योग के स्तर पर ये अन्तर एक-दूसरे को ख़ारिज कर देते हैं। साथ ही, उत्पाद की हरेक ईकाई में मज़दूरी और बेशी मूल्य के अनुपात पर इससे कोई फ़र्क नहीं पड़ता है। लेकिन यह ज़रूर है कि यह मज़दूरों के बीच आपसी प्रतिस्पर्द्धा को भी बढ़ाता है, जिसका नतीजा होता है औसत मज़दूरी का कम होना। इसका दूसरा पहलू यह है कि जहाँ पर पीस-रेट मज़दूरी लम्बे समय से किसी स्तर पर निर्धारित हो चुकी होती है, वहाँ पर उत्पादकता बढ़ने और माल की प्रति ईकाई क़ीमत गिरने पर भी पूँजीपतियों को पीस-रेट को कम करने के लिए काफ़ी संघर्ष करना पड़ता है। जहाँ कहीं पूँजीपति ऐसा करने में सफल नहीं हो पाते हैं वहाँ वे अक्सर कालिक-मज़दूरी की व्यवस्था को अपनाने का प्रयास करते हैं।

कुल मिलाकर, पीस-रेट मज़दूरी की व्यवस्था पूँजीपतियों को हमेशा ज़्यादा भाती है क्योंकि यह उनके मुनाफ़े की दर को बढ़ाने में, मज़दूरों के साथ धोखाधड़ी कर उनकी मज़दूरी में कटौती करने में और मज़दूरों के बीच आपसी प्रतिस्पर्द्धा बढ़ाकर श्रम सघनता व कार्यदिवस को बिना कोई अहलकार रखे बढ़वाने में उनकी मदद करती है। मार्क्स लिखते हैं:

“अब तक हमने जो प्रदर्शित किया है, उससे यह देखा जा सकता है कि पीस-रेट मज़दूरी पूँजीवादी उत्पादन पद्धति के लिए मज़दूरी का सबसे उपयुक्त रूप है। हालाँकि यह किसी भी रूप में नया नहीं है—चौदहवीं सदी के फ्रांसीसी व अंग्रेज़ी श्रम संहिताओं में कालिक-मज़दूरी के साथ-साथ इसकी आधिकारिक मौजूदगी को देखा जा सकता है–लेकिन इसने उपयुक्त रूप में मैन्युफैक्चर के दौर में ही व्यापक क्षेत्र को अपने मातहत लिया। बड़े पैमाने के उद्योग के तूफ़ानी युवाकाल में, और 1797 से 1815 तक, इसने कार्यदिवस को लम्बा करने और मज़दूरी को नीचे करने के एक लीवर के रूप में काम किया।” (वही, पृ. 699-700)

जो बात हमें याद रखनी चाहिए वह यह कि मज़दूरी के इन दोनों ही रूपों से मज़दूरी के सारतत्व पर कोई फ़र्क नहीं पड़ता जो कि श्रमशक्ति के मूल्य या क़ीमत की श्रम की क़ीमत के रूप में विचारधारात्मक अभिव्यक्ति मात्र है। पीस-रेट मज़दूरी वास्तव में कालिक-मज़दूरी का ही रूपान्तरित रूप है। इससे पूँजी और उजरती श्रम के आम सम्बन्ध पर कोई फ़र्क नहीं पड़ता।

मज़दूरी में राष्ट्रीय अन्तर

मज़दूरी के विषय में अपनी चर्चा के अन्त में मार्क्स अलग-अलग देशों में मज़दूरी के स्तर में अन्तर के मुद्दे पर आते हैं। मार्क्स बताते हैं कि अलग-अलग देशों में मज़दूरी के स्तर में अन्तर होना स्वाभाविक है और पूँजीवादी व्यवस्था की प्रकृति का अंग है, जिसका नियम ही असमान विकास होता है। मार्क्स बताते हैं कि मज़दूरी में राष्ट्रीय अन्तर मौजूद होते हैं क्योंकि अलग-अलग देशों में श्रम की उत्पादकता, सघनता, औसत कार्यदिवस की लम्बाई के अलग-अलग होने के कारण जीवन के लिए आवश्यक मज़दूरी-उत्पादों की अलग-अलग कीमतें, मज़दूरों के शिक्षण और प्रशिक्षण की अलग-अलग लागत के कारण श्रमशक्ति का मूल्य और इसलिए श्रम की क़ीमत अलग-अलग होती हैं। साथ ही, श्रम की सापेक्षिक क़ीमत, यानी उत्पादों के कुल मूल्य तथा साथ ही बेशी मूल्य के सापेक्ष श्रम की क़ीमत, में भी अन्तर होता है। इसका कारण अलग-अलग देशों में ऐतिहासिक विकास के अलग-अलग रास्ते होते हैं जिनके कारण पूँजीवादी उत्पादन व्यवस्था के विकास का अलग-अलग स्तर होता है। साथ ही, श्रमशक्ति के मूल्य में अलग-अलग देशों में सांस्कृतिक विकास के स्तर के कारण भी अन्तर होता है।

जिन देशों में पूँजीवादी उत्पादन पद्धति का ज़्यादा विकास हुआ होता है और वहाँ उत्पादक शक्तियों का विकास ज़्यादा उन्नत स्तर पर होता है, वहाँ शोषण की दर ज़्यादा हो सकती है, यानी अतिरिक्त श्रम और आवश्यक श्रम का अनुपात ज़्यादा हो सकता है या मूल्य के अर्थों में कहें तो बेशी मूल्य की दर ज़्यादा हो सकती है, लेकिन फिर भी मज़दूरों का जीवन-स्तर निरपेक्ष रूप में बेहतर हो सकता है। इसका कारण यह होता है क्योंकि मज़दूरों की नॉमिनल मज़दूरी कम भी हो तो मज़दूरी-उत्पादों के सापेक्षिक रूप से सस्ता होने के कारण सापेक्षिक रूप से कम उन्नत पूँजीवादी देशों के मज़दूरों की तुलना में उनकी वास्तविक मज़दूरी ज़्यादा होती है। लेकिन फिर भी उनके शोषण की दर ज़्यादा ही होती है क्योंकि पिछड़े पूँजीवादी देशों की तुलना में कुल उत्पादित नये मूल्य में मज़दूरी का हिस्सा सापेक्षिक तौर पर मुनाफ़े के हिस्से से कम होता है। इसलिए यह बात सुनने में अजीब लग सकती है, लेकिन अगर हम शोषण की शुद्ध रूप से आर्थिक अवधारणा के अनुसार बात करें, तो यह सम्भव है एक जर्मन मज़दूर के शोषण की दर एक इण्डोनेशियाई या भारतीय मज़दूर के शोषण की दर से ज़्यादा हो और फिर भी एक जर्मन मज़दूर का जीवन स्तर एक इण्डोनेशियाई या भारतीय मज़दूर की तुलना में कहीं ऊपर हो। मार्क्स लिखते हैं:

“किसी देश में पूँजीवादी उत्पादन का विकास जिस स्तर तक होता है उसी के अनुपात में श्रम की राष्ट्रीय सघनता और उत्पादकता भी अन्तरराष्ट्रीय स्तर के ऊपर बढ़ती है। अलग-अलग देशों में समान कार्यकाल में उत्पादित समान मालों की अलग-अलग मात्राएँ, इसीलिए, असमान अन्तराष्ट्रीय मूल्य की होती हैं, जो कि अलग-अलग कीमतों में, यानी अन्तरराष्ट्रीय मूल्यों के अनुसार मुद्रा की अलग-अलग मात्राओं में अभिव्यक्त होती हैं…

“…ऐसा अक्सर पाया जायेगा कि पहले राष्ट्र (ज़्यादा उन्नत पूँजीवादी देशले.) में दैनिक या साप्ताहिक मज़दूरी दूसरे राष्ट्र (कम उन्नत पूँजीवादी देशले.) के मुकाबले ज़्यादा है, जबकि श्रम की सापेक्षिक क़ीमत, यानी, बेशी मूल्य और उत्पाद के मूल्य, दोनों की तुलना में श्रम की क़ीमत, दूसरे में पहले के मुकाबले ज़्यादा है।” (वही, पृ. 702)

आगे मार्क्स बताते हैं कि इंग्लैण्ड में, जो बाकी महाद्वीपीय यूरोप के सभी देशों से ज़्यादा उन्नत पूँजीवादी देश था, पूँजीपतियों के लिए मज़दूरी यूरोप के अन्य देशों के मुकाबले कम थी, लेकिन अंग्रेज़ मज़दूरों के लिए यह यूरोप के अन्य देशों के मज़दूरों से ज़्यादा थी। इसका क्या अर्थ है? इसका यह अर्थ है कि इंग्लैण्ड में अधिक उत्पादकता व श्रम सघनता के कारण बेशी मूल्य की दर ज़्यादा थी, लेकिन साथ ही ठीक उन्हीं कारणों से मज़दूरी-उत्पादों के सस्ते होने के कारण श्रमशक्ति का मूल्य कम था और इसलिए नॉमिनल मज़दूरी कम होने के बावजूद वास्तविक मज़दूरी, यानी उपभोक्ता सामग्रियों का वह टोकरा जो मज़दूर अपनी नॉमिनल मज़दूरी से ख़रीद सकता है, ज़्यादा थी।

यहाँ पर मार्क्स मज़दूरी-रूप पर अपनी चर्चा को विराम देते हैं। लेकिन ‘पूँजी’ के पहले खण्ड के शेष हिस्से में और साथ ही खण्ड-3 में मज़दूरी के उतार-चढ़ाव के पीछे काम करने वाले कारकों पर उनकी चर्चा बार-बार आती है। पूँजी संचय की गति और मज़दूरी की दर में आने वाले परिवर्तनों को समझना इसके लिए केन्द्रीय महत्व रखता है। आगे के अध्यायों में हम सन्दर्भ के अनुसार इस पर चर्चा करेंगे। लेकिन उसके लिए मज़दूरी-रूप के बुनियादी तत्वों को समझना आवश्यक था, जो कि मौजूदा अध्याय में हमारी चर्चा का मूल बिन्दु था।

 

मज़दूर बिगुल, दिसम्‍बर 2023


 

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